सबद भेद : मार्कण्डेय : कहानी और राष्ट्र की परछाइयाँ




  
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कहानी और राष्ट्र की परछाइयाँ
अरुण देव 

 

2010 में पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस (प्रा.) लि. ने श्रेष्ठ साहित्य प्रकाशन योजना के अंतर्गत छह संकलनों में आजादी के बाद की हिंदी की श्रेष्ठ कहानियों का  प्रकाशन किया है. 1950-1960 के दशक की श्रेष्ठ हिंदी कहानियों के संकलन का संपादन खगेन्द्र ठाकुर ने किया है. इस संग्रह में मार्कण्डेय की प्रतिनिधि कहानी के रूप में उनकी ‘हंसा जाई अकेला’ है. इस शीर्षक से उनका कहानी संग्रह भी है.

जौनपुर के बराई गाँव में 2 मई 1930  को जन्में मार्कण्डेय ने इलाहबाद से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों से होते हुए  वे  हिंदी के कहानीकार के रूप में ख्यात हुए. कहानी के अलावा उपन्यास, कविता, एकांकी और आलोचना भी लिखी, .'कथा.' नामक पत्रिका का संपादन भी किया.18 मार्च 2010 को मार्कण्डेय जी का निधन हो गया.

पीपुल्स पब्लिशिंग द्वारा खगेन्द्र ठाकुर को संपादक चुनना  समझा जा सकता है, मार्कण्डेय का चयन भी समझ में आ रहा है पर मार्कण्डेय की ‘हंसा जाई अकेला’ को उनकी प्रतिनिधि रचना के रूप में इस संकलन में शामिल करना कुछ सवाल पैदा करता है. मार्कण्डेय यशपाल नहीं हैं, प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा वे इसीलिए निन्दित भी रहे. यह कहा गया कि उनकी कहानियां प्रगतिशीलता के ढांचे में फिट नहीं बैठती हैं. यशपाल के विषय में खैर मार्कण्डेय की राय भी कुछ ख़ास अच्छी नहीं थी उनका मानना था की यशपाल कहानियाँ गढ़ते हैं. रचना पर विचारधारा के दबाव से अक्सर इस तरह की स्थितियाँ बनतीं हैं, कई बार पूर्व निश्चित परिणाम की ओर बढ़ती कहानियों की भी यही परिणति होती है.

प्रतापगढ से आये गावं के मार्कण्डेय इतने ‘स्मार्ट’ न थे की यह सब साध सकें. उनके पास तो कहने के लिया गांव ही था. प्रगतिशीलता को ईमानदारी से जीवन भर निभाते हुए अपने रचनाकर्म के प्रति भी वे उतने ही ईमानदार रहे. ‘हंसा जाई अकेला’ और ‘भूदान’ उनकी इस रचनात्मक ईमानदारी की प्रतिनिधि कहानियां हैं. एक में जहाँ गाँधी है तो दूसरे मे विनोबा भावे. और इसमें से एक  का इस प्रगतिशील आयोजन में चुना जाना उनकी सही ‘प्रगतिशील’ रचनात्मक दृष्टि का भी परिचायक है. गौरतलब है कि मार्कण्डेय गाँधीवादी कथाकार नहीं हैं. उनकी कहानियों में गाँधी और स्वाधीनता आंदोलन पर्यावरण कि तरह हैं.

मार्कण्डेय गढ़े हुए कथानक के दौर में अनगढ़ स्थितिओं के साधक कहानीकार हैं. उनके कथा जगत में यथार्थ बहुवचनात्मक है, इसलिए उनकी कहानियाँ आज अपने समय की  बेहतर साक्ष्य हैं.  हिंदी कहानीकारों में  मार्कण्डेय ऐसे कहानीकार हैं जिनके यहाँ स्वाधीनता की इच्छा  और उसे पाने की प्रक्रिया में सामने आ रहे अंतर-विरोधों की गहरी पहचान है. उनके कथा-सार में राष्ट्र की परछाइयाँ हिलती डुलती हैं.  वहां गांव की सामंती, जातिवादी संरचना में हो रहे परिवर्तन की परख है. मार्कण्डेय की कहानियाँ राजनीतिक इस अर्थ में हैं कि वे अपनी कथा भूमि की वर्गीय और जातीय संरचना की समझ रखती हैं और अधिरचना के आधार से सम्बंध के प्रति सचेत भी हैं.          

स्वाधीनता-आंदोलन को लेकर प्रगतिशील कहानीकारों में नकार या उदासीनता का भाव रहा है. गाँधी की उपस्थिति भी न के बराबर है. वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है-

“स्वाधीनता के पहले और बाद में हिंदी साहित्य की जो धारा मुख्यतः नागर, अभिजात, आधुनिकतावादी, पश्चिममुखी या अतीतोंमुखी है, उसका गाँधी और गांधीवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है; न एकता का, न विरोध का और न संदेह का. सच बात तो यह है कि जिनके मन में आते ही गाँधी अपराध बोध जगाते हैं उनके साहित्य में वे कैसे आ सकते हैं.” (गाँधी: महात्मा से चेथरिया पीर).

जो गाँधी बेचन शर्मा उग्र  के ‘चाकलेट’ नामक कहानी संग्रह पर अपनी बेबाक राय देते हैं, वही गाँधी बाद के कहानीकारों के लिए अलक्ष्य हो गए. हिंदी की इस वैचारिक विडम्बना पर क्या कहा जाए?   

देश बंटा और परिवार भी बिखरने लगे. नई कहानी के कथाकारों ने शहर और शहर में आ बसे गाँव के अजनबीपन को अपनी कहानी का मुख्य आधार बनाया. बटवारे को लेकर भीष्म साहनी और राही मासूम रज़ा ने जिस आख्यान का सृजन किया है उसमें भी गाँधी अछूते हैं. प्रेमचंद और रेणु के बाद गाँधी को लेकर ‘हंसा जाई अकेला’ में मार्कण्डेय ने जिस लगाव का परिचय दिया है वैसा कम है. मुक्तिबोध ने गाँधी के विषय में लिखा है –

“हजार वर्षों में एकाध बार जो आदमी नजर आते हैं उसमें महात्मा गाँधी का नाम आता है क्यों? इसलिए कि उन्होंने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशुद्ध नैतिक अस्त्रों का सफलता पूर्वक प्रयोग किया. पहली बार भारत के इतिहास में करोड़ों भूखे जनों को महत्व देनेवाला, इनका सगा बनने वाला एक व्यक्ति सम्मुख आया जिसने उसी गरीब दबी कुचली जनता को नैतिक साहस प्रदान करके, क्या-का-क्या बना दिया. उस नैतिकता पूर्ण जन-शक्ति के आघात से ब्रिटिश साम्राज्य चूर-चूर हो गया” (भारत: इतिहास और संस्कृति).

गाँधी की नैतिकता ने हिंदी साहित्य को गहरे प्रभावित किया है. मार्कण्डेय गाँधी से, स्वाधीनता संग्राम से और इस नैतिकता से एक लगाव अपनी कहानियों में रखते हैं.

आधुनिकता परम्परा को नए संदर्भ में नया अर्थ देने से आती है, अनुवाद और रूपांतरण से नहीं. जब अस्तित्ववाद और अलगाववाद एक फैशन और पैशन की तरह हिंदी जगत में दाखिल हुआ मार्कण्डेय ने देशज मिट्टी से नए प्रसंग तलाशे और कथाभूमि का दूर तक विस्तार किया. चेखव और काफ्का के समकालीन विवाद से अलग अपनी राह खोजी. उनका कथा-संसार रोजमर्रा की जद्दोजहद में मुब्तिला आम लोगों का संसार है जहां सम्मान पूर्वक एक औसत जीवन पाना आज भी एक बड़ा संघर्ष है. ‘पान फूल’ की भूमिका में मार्कण्डेय लिखतें हैं-

“सामाजिक संदर्भों का वास्तविक चित्रण नए कथाकारों की कहानियों का प्रमुख तत्व बन गया. जीवन के सुख-दुःख को इन्होंने संदर्भों से उठाकर अपनी कहानियों का विषय बना लिया. जाहिर है कि कहानी की रचना-प्रक्रिया के क्षेत्र में यह बड़ा परिवर्तन था और इसने नई कहानी को सीधे प्रेमचंद से जोड़ दिया.”

 

मार्कण्डेय की कहानियों का वातावरण गाँव का है. उनके पात्र लोक से ही आते हैं. हास-परिहास लोक-संस्कृति की आत्मा है. इन क्षणों में सभ्यता का आवरण, मर्यादा और लिहाज के दबाव से बाहर निकलकर विसंगति और विडंबनाओं पर हँसने की सामूहिक इच्छा का प्रकटन होता है. मुफलिसी और सामंती जकड़न के बावजूद यह हास्य बोध  लोक को जीवंत बनाये रखता है. मुहावरों में यह सघन रूप में रहता है. दरअसल मुहावरे लोक अनुभव के संचित कोश हैं और उनकी सटीक अभिव्यक्ति भी. अभिधा, लक्षणा और व्यंजना जैसी शब्द-शक्तियों का अपना यह देशी घर है. रेणु के कथा संसार में इसका वैभव देखा  जा सकता है इसके अलावा जिन्हें हम आंचलिक उपन्यास कहते हैं चाहे वह .'राग दरबारी.' हो या .'झीनी-झीनी बीनी चदरिया.' उसमें भी यह अपने सघन रूप में है. मार्कण्डेय की कहानियों के संवाद की यह आत्मा है.

समाज की चालू परिपाटी से अलग या भीड़ से पीछे रह गए या पीछे रहना चुनने वाले पात्र अक्सर  कौतूहल और हास्य के आलम्बन रहे हैं और रचनाकारों के प्रिय भी. दरअसल उन्हें समझने और उनकी विडम्बनामूलक स्थिति को पहचानने की प्रक्रिया में ही रचनाकार उनके पास जाता है. इधर ऐसे पात्रों की संख्या बढ़ी है, वे कहानी के केन्द्र में हैं. मार्कण्डेय की ‘हंसा जाई अकेला’ में  ‘काला,चिट्ठा तगड़ा’ हंसा रतौंधी का रोगी है. खेत बारी और घर दुआर के बावजूद अविवाहित है ‘एक मेहरारू के बिना बिलल्ला की तरह घूमता रहता है’ कथा में यह वह समय है जब देश की स्वाधीनता की आकांक्षा और उसे पाने की रणनीति से सारा समाज आंदोलित हो रहा था ‘अवतारी पुरूष’ गाँधी बाबा  के नोटिसों का पुलिंदा इस गाँव में भी पहुँचता रहता है.  जिला कमेटी के निर्देश से सुशीला बहिन गाँधी जी का सन्देश देने आने वाली है. बरखा-बूनी के दिन में हंसा गले में ढोल टांगकर गाता है- ‘जागा हो बलमुआ गन्ही टोपी वाले आये गइलें’ गाँधी के बारे में गाँव क्या सोचता है इसे भी देख लें- ‘गन्ही को कोई विचार थोड़े है,चमार-सियार का छुआ-छिरका तो खाते हैं’ जहाँ आचार ही विचार का पर्याय हो वहां गाँधी की उपस्थिति और उनके प्रति आदर मिश्रित कौतूहल चकित करता है.   

आख्यान को राष्ट्रीय रूपक के रूप में देखने की एक आलोचना दृष्टि रही है. शब्दों के मुद्रण और राष्ट्र के उदय का समय एक ही है. मुद्रित आख्यान की संरचना और राष्ट्र के ढांचे में बहुत कुछ समान है. इस दृष्टि से इस कहानी का पाठ करें तो राष्ट्रीयता के वृहत आख्यान का वह रूप खुलता है जो इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं है हालांकि सबाल्टर्न अध्ययन का ध्यान इधर अब गया है. मार्कण्डेय की कहानियों की संरचना में भारतीय राष्ट्र की निर्मिति के सूत्र तलाशे जा सकते हैं. वह ‘दाग-दाग उजाला’ यहाँ भी है. गाँधी की सम्मोहक उपस्थिति ‘हंसा जाई अकेला’ और ‘भूदान’  में है. यह हँसा और सुशीला के परस्पर प्रेम से और अर्थ गर्भित हुआ है- ‘मेनका के कंधे पर विश्वमित्र के उलम्ब बाहु. सावन की अंधियारी और बादलों की रिमझिम के बीच-बीच में सर्द हवा का झोका’ हंसा को अपने पहले प्रेम की प्रतीति इस रूप में हुई है- ‘यह गन्ने के ताज़े रस ही महक कहाँ से आ रही है’. एक जगह उसे लगता है- ‘मीठी-मीठी थकन भरी आवाज़ और डाल के ताज़े फल जैसी सुगंध’. स्वराज्य तो मिलता है  पर सुशीला की मृत्यु हो जाती है और हंसा पागल हो जाता है-  ‘ईश्वर ने पति से अलग किया और अब बापू के नकली चेले उन्हें जनता से अलग करना चाहतें हैं’

यह कहानी स्वाधीनता की जन-चेतना के बीच वर्चस्ववादी स्थितियों और परम्परा तथा आधुनिकता के द्वंद्व से एक साथ टकराती है.  निर्वाचन कहानी का मुख्य हिस्सा जरूर है पर ‘बिना विद्या के भारत देश दिन-दिन होती तेरी ख्वारी रे’ जैसे प्रगतिमय उद्बोधनों से यह थोपा हुआ नहीं लगता. निर्वाचन के बाद कांग्रेसी मोटर पर चढ़ कर सुशीला से माफी मांगने आते हैं. कहानी लिखे जाने तक कांग्रेस का यह चरित्र सामने आ चुका था.

वृहत आख्यान के भीतर ऐसे कई उपपाठ होते हैं जो उपेक्षित,पीड़ित और दमित होते हैं. अक्सर आख्यान की विराटता में ऐसी आवाजें अनसुनी रह जातीं हैं हमारा स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा ही Meta narrative है. वे आवाजें आज इतनी लाउड होकर सामने आयीं हैं कि पूरा आख्यान ही पुनर्पाठ की मांग करने लगा है. साहित्य अपने समय  से प्रभावित  होता है और स्वभावानुसार वह उन अनसुनी आवाजों को भी स्वर देने लगता है; इसीलिए रचनात्मक पाठों में भविष्य की पहचान छुपी होती है. आज के वर्तमान को हम कल के साहित्य में देख सकते हैं. ‘हंसा जाई अकेला’ और ‘भूदान’ इसलिए बड़ी रचनाएं हैं और मार्कण्डेय इसलिए विशिष्ट हैं कि उनमें वर्तमान से पार देखने कि क्षमता है.

पवित्र पोथियों के पुनर्पाठ का देशज संस्करण इस कहानी में तब घटता है जब रामायण के मंचन में हंसा रावण का भेस धारण कर पूरी कथा को बदल देता है, वह स्वाधीनता के लिए छटपटाते जन का नेतृत्व करने लगता है. राक्षस की सेना छोटी-जातियों की सेना बन जाती है और यह पौराणिक युद्ध जनता की लड़ाई में बदल जाता है जिसमें लक्ष्मण लुढ़क जाते है और राम को चक्कर आने लगता  है. जनता की फौज जीत जाती है सिर्फ इसलिए कि राम कोई छोटी जात का नहीं बनता जबकि रावण की सेना में सभी आ सकते हैं. जातियों के रेखांकन और गोलबंदी का अहसास मार्कण्डेय को था.   

मार्कण्डेय की कहानियों में भारतीय समाज के अबतक के सबसे बड़े जनांदोलन के महाख्यान के अंदर क्रियाशील उन छोटे-छोटे वृतांतों की कथा है जो संकुचन के  प्रतिनिधि रहे हैं. विनोबा भावे के भूदान-आंदोलन  को अपनी कथा का आधार बनाकर मार्कण्डेय ने भूदान शीर्षक से कहानी लिखी है और यह उनके कहानी संग्रह का  नाम भी है. यह कहानी ‘हंसा जाई अकेला’ (1958) के 4 साल बाद 1962 में प्रकाशित हुई थी. इन दोनों कहानियों में स्वयं कहानीकार की वैचारिकी और कलात्मक विकास को देखा जा सकता है. भूदान तक आते-आते कथा-शिल्प में सुघढ़ता और दृष्टि में स्पष्टता दिखने लगती है. भूदान में कथा बहुस्तरीय, स्थिति-बिम्ब चाक्षुष तथा गतिशील हुए हैं. कथा दृश्यों के संयोजन में मार्कण्डेय सफल हैं.

       

विनोबा भावे द्वारा प्रारंभ किए गये भूदान आंदोलन के कारणों को लेकर मतभेद रहा है- कुछ लोगों के लिए यह गाँधी की परम्परा में प्रारम्भ किया गया एक जन कल्याणकारी पहल है जो कुछ कारणों से असफल हो गया, तो बहुत लोग यह मानते हैं की यह जन उभार को दबाने की एक सोची समझी समझौते वाली रणनीति थी. बहरहाल मार्कण्डेय इस कहानी में उन कारणों पर अपने को केंद्रित करतें हैं जिसके कारण यह असफल रहा.  स्वाधीनता का जन आंदोलन समाज ने हर मोर्चे पर लड़ा. निलहे फिरंगिओं की यातना के तरीके और उनसे बचने और निपटने के देशी तरीके कथा जगत में आये हैं. उक्त कथा में चेलिक पहलवान  नील की खेती के लिए अपनी जमीन देने से मना कर देता है-‘धरती और मेहरारू कोई किसी को देता है. बांस की खपच्चिओं, पीठ पर हंटर, कमर पर लकड़ी के कुंदे जैसी यातना से गुजरने के बाद भी उसकी ‘ना’ ही रहती है. अंततः अपनी बूढ़ी माँ की कीमत पर वह उस निलहे से मुक्त हो पाता है. गांव के लोग उसकी माँ की याद में ‘बनसत्ती माई’ का चौरा बना देते हैं. चमरौटी में रहने वाला ठाकुर का बेभूँय (भूमिहीन) हरवाहा रामजतन इस उम्मीद में है कि ठाकुर साहब भूदान आंदोलन में अपने १० बीघे खेत से उसे कुछ देंगे.    

सद् इच्छा से शुरू हुई चीजें भी गाँव की  आदमखोर सामंती साजिश का किस तरह शिकार होती हैं इसे देखना हो तो भूदान कहानी पढ़नी चहिये. इसमें जमीन को लेकर दो कथाएं एक साथ चलती हैं. निलहे फिरंगी से जूझते हुए चेलिक पहलवान जीत जाता है पर ठाकुर से जमीन पाने की महीन राजनीति में चमरौटी का बेभूँय हरवाहा रामजतन पराजित हो जाता है. उसकी हलवाही भी छुड़ा दी जाती है.  पिछले कई महीनों से नहर  में फावड़ा चलाते-चलाते उसका शरीर सूख कर कांटा हो जाता है. बीमारी के कारण चारपाई पर पड़ा वह हाँफ रहा है. यह है भूदान आंदोलन का सच. ठाकुर भूदान में पांच बीघे जमीन देने का वादा करके उसकी 1 बीघे सिकमी जमीन भी अपने नाम करा लेता है.  रामजतन की स्मृति में चेलिक की कथा उभरती है, शायद अब उसके बलिदान  से ही  से इसका कुछ हल निकल जाए.

इस कहानी में आकांक्षा और उसके परिणाम का अंतर्द्वंद्व इतना तीखा है की हतप्रभ कर देता है. उम्मीद की डोर से बंधा रामजतन वास्तविकता को समझ नहीं पता है. मार्कण्डेय स्वाधीनता की परम्परा से अपने  लगाव का प्रकटन यहाँ भी करते  हैं. विनोबा के प्रति यह दीखता है-

‘दुनिया पलटा ना खा गयी होती तो जिस धरती के लिए महाभारत हो गया, उसी धरती को लोग हंस-हंस कर दान कर देते और वह भी उस लंगोटी वाले संत को जिसका  अपना घर और  दुआर तक नहीं’

रामजतन की कल्पना  में भी इसी छवि का विस्तार है. ‘और उसे उस मायावी संत का एक  काल्पनिक देव अपनी ओर खींचने लगा, बड़े-बड़े पांव, नंगे, झुरिओं से भरे हुए बेहाल थके हुए’ और उसकी सहज प्रतिक्रिया इस रूप में होती है- ‘उसके मन में आया, ओह! पास होता तो उस उन पैरों की थकान हर लेता, गरीबों की सेवा में रमे हुए इस देवता को अपने कंधे ओर बिठा कर इस जगह से उस जगह ले पहुँचाता’.

आकांक्षा और वास्तविकता के दो छोरों के बीच झूलती इस कथा में समाज के दो छोर रामजतन और ठाकुर के बीच खाई और चौड़ी होती जाती है. दोनों को जोड़ने का विनोबा नामक पुल भी टूट जाता है. इस पूरी संरचना में यह पहले से अंतर्निहित था. उस खाई की ओर धीरे- धीरे बढ़ते रामजतन को अवश पाठक देखता है. इस विवशता ने कहानी में एक कसाव पैदा किया है जो इसके प्रभाव को और गाढ़ा करती है. रामजतन किसान बनने की  इच्छा में गोदान के होरी की तरह सपने देखने लगता है, हालाँकि सदियों से छलावा खाता उसका मन इसे लेकर संशय की स्थिति में है पर विनोबा का प्रभाव और उसकी आकांक्षा उसे सही मूल्यांकन से रोकते हैं. उसे लगता है- ‘बड़े-बड़े दो बैल होंगे घंटियाँ बाज़ार से लाकर पहनाऊंगा और एक गाय भी रहे तो क्या हरज है. हारे -गाढे घी बेच दिया करूँगा’.

 

मार्कण्डेय कहनी को बीच से उठाते हैं और फिर आगे पीछे चलते हुए उसे इस तरह से बुनते हैं की ध्यान बुनाई से हटकर निर्मित हुए गतिशील यथार्थ पर टिक जाता है. मार्कण्डेय के पात्र समाज द्वारा खड़े किये गये अवरोधों तथा सदियों से निर्मित बद्धमूलधारणओं से लड़ते हैं अक्सर वे पराजित हो जाते हैं. मार्कण्डेय पिटती, घिसटती, दम तोड़ती पर लड़ती उस चेतना के महत्वपूर्ण कथाकार हैं जो प्रेमचंद से शुरू हुई थी. गाँव का परिदृश्य और पात्रों की बोली बानी की एक धारा रेणु से भी मिलती है पर रेणु का रोमान यहाँ गायब है यहाँ कफन का दारुण यथार्थ दिखता है.

गाँधी के प्रभाव से आंदोलित समाज में आकांक्षा की भयानक परिणति ‘हंसा जाई अकेला’ में भी है और ‘भूदान’ में भी- एक पागल हो गया है तो दूसरा लगभग मृत्यु को  प्राप्त होने वाला है . दोनों उस चेतना की परिणति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो इस दौर अंकुरित हो रही थी. एक का अपराध प्रेम था दूसरा का जमीन. कथा के ये दोनों नायक समाज के हाशिए से आते हैं.  कहना  न होगा की आज भी संघर्ष के यही दोनों मोर्चे हैं. ऑनर किलिंग और औद्योगिक विकास के लिए खेतों के लूट के इस दौर में हत्याओं और आत्महत्याओं के लिए हमें तैयार रहना चहिये. क्या आज के कहानीकार इसे देख पा रहे हैं?

अरुण देव

devarun72@gmail.com

 

मार्कण्डेय

२ मई, १९३० – १८ मार्च, २०१०

कहानी संग्रह  

पानफूल-(१९५४), महुए का पेड़(१९५५),हँसा जाई अकेला (१९५७),  भूदान (१९५८), माही  (१९६२),सहज और  शुभ(१९६४). बीच के लोग (१९७५)

उपन्यास 

सेमल के फूल, अग्निबीज

संपादन  

 कथा पत्रिका

6/Post a Comment/Comments

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  1. A vary good write up by ARUN DEV of most prolific story writer MARKENDEY.

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  2. नयी कहानी की समग्रता और उसकी आयामबहुलता की कल्पना भी मार्कण्डेय की कहानियों और ५०-७० के दशक में उनकी कई रूपों में सक्रिय भूमिका के बिना नहीं की जा सकती। हिंदी आलोचना में सदा से व्याप्त प्रच्छन्न (अब स्पष्ट और उजागर)संकीर्ण राजनीतिक और जातीय पूर्वग्रह या सक्रिय-अंतश्चेतना ने एक ओर यशपाल, राही मासूम रज़ा, धर्मवीर भारती (बंद गली का आखिरी मकान, सूरज का सातवां घोड़ा, गुल की बन्नो जैसी महत्वपूर्ण कथाकृतियों के बावज़ूद), रामनारायण शुक्ल ('सहारा' और अन्य कहानियां)अज्ञेय (शेखर एक जीवनी, विपथगा, रो़ज़) रांगेय राघव (गदल)ही नहीं बाद में शानी (काला जल) जैसे अन्य कई अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकारों को उपेक्षित किया। कथा आलोचना में रेणु की स्वीकृति भी उनकी अप्रतिम सृजनात्मकता का उत्तर-जीवन है। मुक्तिबोध के साथ भी यही सब कुछ दुहराया गया। दुर्भाग्य से यह स्थिति कहीं से बदली नहीं है। आप जैसे युवा रचनाकार, जो संयोग से आलोचनात्मक विवेक भी रखते हैं, उनसे मेरे जैसे नगण्य लेखक की पहली अपेक्षा यही होती है कि किसी ऐसे रचनाकार के पुनर्मूल्यांकन या पुनरीक्षण की नयी प्रस्तावना में फिर से वृहत्तर सामाजिक, विचारधारात्मक और नैतिक प्रतिबद्धताओं से विच्छिन्न हिंदी की प्रचलित प्राध्यापकीय आलोचना के अनुमोदन की अधिक चिंता न करें। वह अतीत के अपने संक्रमणों से मुक्त नहीं हो सकी है, बल्कि उसकी असमर्थता और अधिक प्रकट हुई है। वह बलशाली अवश्य है, लेकिन उसका बल उस अकादमिक, विचारधारात्मक और सामाजिक अवबोध की भूमि से नहीं, समकालीन राजनीतिक वस्तुस्थिति के प्रति आत्मसमर्पण और उसके साथ अनैतिक हिस्सेदारी से हासिल किया गया है। आपने स्वयं मुक्तिबोध का जो उद्धरण गांधी के बारे में उद्धृत किया है, उसे मैं पुन: उद्धृत कर रहा हूं: “ हजार वर्षों में एकाध बार जो आदमी नजर आते हैं उसमें महात्मा गाँधी का नाम आता है क्यों? इसलिए कि उन्होंने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विशुद्ध नैतिक अस्त्रों का सफलता पूर्वक प्रयोग किया.''
    आप सहमत होंगे कि हिंदी की आलोचना का इतिहास इसका प्रतिलोम पाठ सिद्ध हुआ है। ...और तब तक होता रहेगा जब तक उसके पास 'नैतिकता' का अनिवार्य आलोचनात्मक 'अस्त्र' नहीं होगा।
    मार्कण्डेय जी से उनके अंतिम दिनों में कई-कई बार बातें हुईं। कभी अवसर मिलेगा तो अवश्य लिखना चाहूंगा।
    आपने उनके स्मरण के बहाने पारंपरिक हिंदी आलोचना के चिरपरिचित 'पश्चाताप'का ही उदाहरण प्रस्तुत किया है। इससे वह अपना ही पुनर्जीवन और वैधता प्राप्त करती है।
    अपने अगले 'खेल' के लिए एक नया 'स्टेरायड' जैसा कुछ।
    अच्छे आलेख के लिए बधाई।

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  3. बधाई. अच्छा काम कर रहे हो.

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  4. मुख्‍य शीर्षक में 'कहानी' की जगह 'कहनी' छप गया है, कृपया दुरुस्‍त करें. लेख और ब्‍लॉग दोनों अच्‍छे हें.

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  5. बहुत सारगर्भित और शानदार आलेख है आपका .ये बहुत सच है की मार्कंडेय जैसे लेखक जो गाँधी के सपनो को अपनी कहानियों केद्वारा बचाए रखते थे और सिर्फ बचाए ही नहीं हजारो वर्षों से समाज में चल रही सामाजिक अवधारणा के प्रति जो लड़ाई अपने पत्रों द्वारा लड़ते हैं ,पराजित भले ही हो जाये पर घुटने नहीं टेकते हैं,येही उनकी ताकत है,अपने ठीक कहा है की वे गढे हुए कथानक के दौर में अनगढ़ स्थितियों के कथाकार हैं.वास्तव में हिंदी कहानी के नए दौर को तीन बांको ने जिस तरह से हाईजैक किया ,उससे मार्कंडेय जैसे अनेक कथाकार वह स्थान नहीं पा सके जो मिलाना चाहिए ,लेकिन समय न्याय करता है.मार्कंडेय बहुत बड़े रचनाकार हैं

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  6. मार्कण्डेय की कहानियाँ जीवन की जद्दोजहद में भी हमें आशान्वित रखती है कि समय बदलेगा। कथा-आलोचना के तो वे अगुआ है। लेकिन विडंबना दिखिए कि उन्हें भुला दिया गया। और याद किया गया उन्हें जिनकी कहानी की समझ या उसकी जमीन ही बाहरी थी। गाँधी स्वप्नशील भारत की आवाज थे, है और रहेंगे। असहमति हो सकती है पर उन्हें नकार कर तो हम अपने देश को पहचान ही नहीं सकते। बहुत ही बढिया आलेख। बधाई अरूण देव जी।
    पुखराज जाँगिड़

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