सबद भेद : हाइपर टेक्स्ट और साहित्य

लिखने-पढ़ने के ढंग में जितना परिवर्तन इधर २० वर्षों में हुआ है उतनी तेज़ी से तो अब तक इसके उद्भव और विकास के पूरे  इतिहास में न हुआ था. लिखने और पढ़ने वालों के बीच भूमिकाओं की हर पल अदला-बदली इस संजाल-माध्यम की अपनी विशेषता है. आज लेखक का पाठक उससे प्रत्यक्ष है. वह तुरंत टिप्पणी करता है और लेखक भी अपने लिखे में जोड़ने-घटाने के लिए आज़ाद है ‘छपने’ के बाद भी है.


इस माध्यम की सैद्धांतिकी पर हिंदी में कुछ ही लोग सोच रहे है. जगदीश्वर चतुर्वेदी इन में से एक हैं. इस माध्यम में आ रहे साहित्य के ‘सौंदर्य शास्त्र’ में तकनीक और ‘शास्त्र’ के अन्त:सम्बन्धों पर उनकी वैचारिकी में व्यापकता है.





हाइपर टेक्स्ट और साहित्य
जगदीश्वर चतुर्वेदी 

हाइपर टेक्स्ट  और हाइपर मीडिया ने अभिरूचियों का विस्फोट किया है. नए रूपों को जन्म दिया है. इन दिनों छोटे रूप और अल्प अवधि की चीजें ही स्मृति में रहती है. हाइपर टेक्स्ट में लघु कहानी पहली विधा है जो सबसे पहले आई है. इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हाइपर टेक्स्ट छोटा मीडियम है, इसका छोटा दिमाग है, क्षणिक उत्तेजना का माध्यम है. छोटा दिमाग पोगा पंडित का होता है वह  स्क्रीन से डरता है.

कुछ लोग यह तर्क देते रहे हैं कि हाइपर टेक्स्ट 'इनकोहरेंट' है. उसमें संरचना का अभाव है. परंपरागतता का अभाव है. स्वेन बिर्किट्त्ज ने 'गुटेनवर्ग एलेगी में लिखा है कि '' मानवतावादी ज्ञान ... अंतत: सुसंगत कहानी की परंपरा पैदा करता है. अर्थपूर्ण अंतर्वस्तु पेश करता है. उसको विस्तार देता है. नए क्षेत्र खोलता है. खतरा तब पैदा होता है जब इसमें उभार आता है, इसकी कहानी की कोई सीमा नहीं है.''

इसके दूसरे सिरे पर 'इनकोहरेंट उत्तर आधुनिकतावाद' है. जो लोग कम्प्यूटर नापसंद करते हैं, परंपरावादी हैं,  इससे अपरिचित हैं, वे सोचते हैं कि यह उनकी सरस्वती को भ्रष्ट कर देगा. नष्ट कर देगा. इसका असर हाइपर टेक्स्ट पर भी पड़ रहा है वह अपने को हल्का बनाता रहता है. हाइपर टेक्स्ट पर विचार करते समय साहित्यिक अतीत से मुक्त होकर सोचना होगा.

 
साहित्यिक अतीत की यादें और धारणाएं पग-पग पर बाधाएं खड़ी करती हैं. हाइपर टेक्स्ट को कृत्रिम बुद्धि न मानकर कला रूप मानें तो ज्यादा बेहतर होगा. वेब और मल्टीमीडिया की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह पूर्वनिर्धारित चरित्रों पर निर्भर है. जबकि हाइपर टेक्स्ट मानवीय क्षमता पर निर्भर है. व्यक्तिगत अभिरूचि, विजडम ,कौशल आदि पर निर्भर है. हाल के वर्षों में बिल विली और टीना लार्सेन ने हाइपर टेक्स्ट के खुले जगत की चर्चा की है. इसी को मिशेल जॉय ने 'कंस्ट्रक्टिव हाइपर टेक्स्ट' कहा है. यह ऐसा कार्य है जिसे देखकर अन्य रचनाकार नया विजन महसूस करते हैं. इसमें हिस्सेदारी निभाने वाला गंभीरता से भाग लेता है. इसे हम प्रदर्शन की जगह समझें. यह बातचीत का आरामदायक स्थान नहीं है.

कम्प्यूटर पर लिखी प्रत्येक चीज हाइपर टेक्स्ट नहीं है. बल्कि हाइपर टेक्स्ट वह है  जिसमें पाठक के लिए लिंक संरचना दी गई हो. पाठक के लिए लिखने की जगह हो. इसे 'हास्पीटल' कहते हैं. इस तरह के हाइपर टेक्स्ट में ऐसे  लिंक होंगे,  जिससे पाठक को संभावित मुश्किलों से बचाया जा सके. पाठक प्रत्येक लिंक का स्वतंत्र रूप में इस्तेमाल कर सके. प्रत्येक 'पाथ' का स्वतंत्र रूप से अनुकरण कर सके. पाठक का अतीत का चयन उसकी भावी रीडिंग में प्रभाव छोड़े. वह लौटकर 'हास्पीटल'  में आए.  आरंभिक हाइपर टेक्स्ट में यह देखा जाता था कि पाठक कितनीबार लौटकर आता है. इससे हाइपर टेक्स्ट की पुष्टि होती थी.इसमे बदलाव की संभावनाएं भी पैदा होती थीं.किसी भी हाइपर टेक्स्ट में सिर्फ होमपेज होना एकदम निरर्थक चीज है.यदि वेब पर हाइपर टेक्स्ट को देखें तो पाएंगे कि कुछ चीजें क्रमानुवर्ती रूप में रखी हैं.कुछ आंतरिक लिंक हैं,कुछ मित्रों के लिंक हैं, कुछ ग्राहकों  और सहकर्मियों के लिंक हैं. यह सामान्य संरचना मिलेगी.
     
सन् 1996 के बाद से यह कहा जा रहा है कि वेब साइट की पहली जिम्मेदारी है कि वह अपने बारे में बताए. इसमें उसका नाम,मंशा, इमेज आदि देख सकते हैं. हाइपर टेक्स्ट का निर्माण इस तरह किया जाए कि विज्ञान और विषय के बीच का अन्तस्संबंध उभरकर सामने आए. वेब लॉग का अर्थ है बेहतर लेखक, आत्म सजगता ,आलोचनात्मकत विचारक ,प्रसिद्ध ,सबंधित व्यापार से संबंधित सूचनाएं जिन्हें आराम से देखा जा  सके. इसका उद्देश्य है आत्माभिव्यक्ति, परिवार और मित्रों के साथ संपर्क, सूचना में शिरकत और प्रतिष्ठा में वृद्धि. जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं तो उन्हें वेबसाइट बनानी होंगी. वेबसाइट को पढ़ना होगा. यदि वे ऐसा नहीं करते तो सामाजिक परिवर्तन, न्याय, और सामाजिक सुधार आदि संभव नहीं हैं. इसके लिए हमें राजनीतिक वेबसाइट बनानी होंगी. जो लोग वेब पर मिलेंगे उनके बीच गहरे संबंध होंगे.वे स्वतंत्रचेता विचारक होंगे. उनमें सामुदायिकता की भावना ज्यादा होगी.

डेविड कोल्व ने सोक्रेटीज इन दि लब्रेनीथ’ कृति में यह सवाल भी उठाया गया है कि हमें हाइपर टेक्स्ट के बारे में व्यापक परिप्रेक्ष्य मे विचार करना चाहिए. हमें सोचना चाहिए कि क्या हाइपर टेक्स्ट, तार्किक संरचना का विकल्प है. क्या हाइपर टेक्स्ट सिर्फ उद्घाटित करने का उपकरण है? क्या वह  विचार विमर्श अथवा प्रमाण को बदल सकता है? क्या हाइपर टेक्स्ट गंभीर तर्क प्रणाली के लिए उपयुक्त है ? कोल्व का तर्क है कि दर्शन की गैर - रेखीयता की लंबी परंपरा रही है. इसके तर्क की अनेक प्रणालियां रही हैं. विभिन्न संचनाएं रही हैं. अत: हाइपर टेक्स्ट को सिर्फ 'सुपर इनसाइक्लोपीडिया' ही नहीं समझना चाहिए। इसमें तर्क बदलने की गुंजाइश नहीं होती. जबकि हाइपर टेक्स्ट में तर्क  परिवर्तन की पर्याप्त संभावनाएं हैं. साथ ही इसे उत्तर आधुनिकतावादी 'पाठ का अंत' सरलीकृत मुहावरे के रूप में भी नहीं देखना चाहिए.

हाइपर टेक्स्ट की चारित्रिक विशेषता है कि वह अन्य किस्म के पाठ से भिन्न है. वह लिंक के कनेक्शन पर आधारित है.इसके कारण उसका सूचना आधार विकासशील है. उसमें निरंतर वृद्धि होती रहती है. वह यूजर के चारों ओर माहौल बनाए रखता है. वेब में हाइपर टेक्स्ट  की खोज का काम बेहद मुश्किल है.इसमें खोने की संभावनाएं हैं. हाइपर टेक्स्ट के प्रसिद्ध आलोचक जॉर्ज पी.लनदोव ने 'हाइपर टेक्स्ट 2.0 नामक कृति में लिखा कि यूजर के खो जाने का संबंध या उसके भ्रमित हो जाने की स्थिति का संबंध घूमंतु की प्रवृत्ति से जुड़ा है. इसका सूचना तकनीकी की डिजायन से संबंध है. यह लेखक के कम ध्यान देने की समस्या है. यूजर के कम अनुभव की समस्या भी है. हाइपर  टेक्स्ट में नोड में अनेक लिंक होते हैं. खोज की समस्याएं मूलत: यूजर के आंतरिक विश्लेषण, टेक्स्चुअल विश्लेषण, संरचना के विश्लेषण से जुड़ी हैं. पाठक की सुविधा के मैप्स और नियंत्रित दिशा निर्देश के संकेत स्क्रीन पर देखे जा सकते हैं.

सन् 2000 में हाइपर टेक्स्ट लेखकों की एक वर्कशॉप हुई जिसमें 30 लेखकों ने हिस्सा लिया.इन लोगों ने इस सवाल पर विचार किया कि नयी बदली हुई परिस्थितियों में साहित्य- सैध्दान्तिकी का कैसे इस्तेमाल करें. ज्यादातर लेखक अभी भी 18वीं और उन्नीसवीं शताब्दी के उद्हरणों का प्रयोग करते हैं.जबकि परिस्थितियां एकदम बदल गई हैं. इन लेखकों का मानना था कि हमें अपने नजरिए को वर्ल्ड  वाइड वेब (www)  से जोडना होगा. हमें काल्पनिक (इमेजरी) हाइपर टेक्स्ट के वर्णन से बचना होगा. इस वर्कशॉप में मूलत: निम्न समस्याएं रेखांकित की गईं-

१. हाइपर टेक्स्ट में रेखीय, बहुरेखीय, गैर रेखीयता की समस्याएं आ रही हैं.
२. हाइपर टेक्स्ट, मुद्रित पाठ से भिन्न होता है उसकी संरचना भिन्न होती है.
३. उसका समय,क्रम और संगठन पाठ से भिन्न होता है.
. उसमें लिंक्स रहते हैं
५..वह डिजिटल होता है.
. उसमें  आरंभ, अंत होता है, साथ ही वार्डर नहीं होता.
. वह गतिशील होता है.उसमें समय और प्रक्रिया दोनों शामिल हैं.


असल में हाइपर टेक्स्ट को दो दृष्टियों, लेखक और पाठक से देखा जा सकता है. सभी लेखक यह मानते थे कि यह एक साहित्यिक विधा है. वह सभी विधाओं की संपत्ति है. डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू को समग्रता में संपत्ति के रूप में देखना चाहिए. वह मीडियम है. वह पाठ का पाठ है. वह एक मानसिक अवस्था है. प्रसिद्ध आलोचक उम्ब्रेतो इको ने लिखा है कि इंटरनेट में छलनी नहीं है. पाठक ऑन लाइन उपलब्ध सामग्री में से गुणवत्तापरक सामग्री और अन्य सामग्री में अंतर नहीं कर पाते. इको की यह धारणा एक हद तक सच है.किंतु इससे भी बड़ी बात यह है कि इंटरनेट छलनी को अपदस्थ कर देता है. चयन में इस्तेमाल होने वाली सेंसरशिप को खत्म कर देता है. वह आधिकारिक तौर पर चीजों की छानबीन नहीं  करता. इंटरनेट यह मानकर चलता है कि शिक्षित समाज में छलनी की जरूरत नहीं होती.सामान्य तौर पर लोग इतने जागरूक होते हैं कि वे गुणवत्तामूलक और अन्य सामग्री में फर्क कर लेते हैं. छलनी की जरूरत पूर्व शिक्षित संस्कृति के युग में होती है. आज हम मध्यकाल से आगे आ चुके हैं.

शिक्षित समाज में अबाधित सूचना प्रसार सामान्य और अनिवार्य जरूरत है. इसमें कुछ खतरे भी हैं. किंतु यदि हम स्व-प्रशासन की दिशा में आगे जाएंगे तो जोखिम तो उठाना होगा. इसके लाभ बहुत ज्यादा हैं. यहीं पर एक पुराना सवाल पैदा होता है कि सेंसरशिप को सेंसर कौन करेगा? उल्लेखनीय है कि प्रत्येक यूजर अपने तरीके से छानता है. चयन करता है. अत: शुरू से छानकर देना सही नहीं होगा. हम यह कैसे तय करेंगे कि पाठक क्या चाहता है. पाठक क्या चाहता है इसे पाठक ही तय करेगा अन्य कोई तय नहीं कर सकता. आज का  दौर समस्या केन्द्रित अध्ययन का दौर है. यह परीक्षा का दौर नहीं है. आज हमारे बच्चों के पास भी आलोचनात्मक विवेक है. यह ऐसा दौर है जिसे मीडिया के संदर्भ के सहारे पढ़ा नहीं जा सकता. इसे वेब के सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए. वेब के जरिए लाखों- करोडों चैनलों ने हमला बोला हुआ है. यह वेब का हमला है. इसकी छानबीन संभव नहीं है. इसकी छानबीन का कोई तरीका भी नहीं है. यह पूर्णत: अराजक अवस्था है.

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लेखन, रीडिंग और वाचन की तुलना में टाइपिंग अस्वाभाविक और घातक गतिविधि है. इसे कम्प्यूटर क्रांति लेकर आई है. लिखने से क्या लाभ होता है यह सब जानते हैं. वाचन से पाठ की ओर संक्रमण मानवीय प्रगति का चरमोत्कर्ष है.यह अभिजात्य संप्रसार से व्यक्तिगत सृजन और स्वायत्तता (इंटरनेट) का विकास है. इतने व्यापक परिवर्तनों के बावजूद साक्षर, शिक्षित और निरक्षर  के बीच में लम्बी खाई बनी हुई है. सवाल यह है वक्तृता से पाठ की ओर और पाठ से वक्तृता की ओर कनवर्जन तकनीकी के कारण कमजोर समाजों में, जहां निरक्षरता है, और समृद्ध समाजों में जहां साक्षरता है, इन दोनों के बीच अंतराल घटा है. असल में यह सब कुछ निर्भर करता है तकनीकी की कीमत पर. समुचित मशीन और सॉफ्टवेयर पर. इस क्षेत्र में लगी कीमत की शिक्षण, लेखन, और रीडिंग की कीमत से तुलना करें तो पाएंगे कि तकनीकी पर हमने बहुत कम खर्चा किया है. इसमें भी शिक्षण पर हम ज्यादा खर्च करते रहे हैं. व्यक्ति भी सीखने पर बहुत ज्यादा खर्चा करता रहा है. किंतु भविष्य में इतना खर्चा करना असंभव होगा. आज समाज को शिक्षण की तुलना में तकनीकी उपकरण देना ज्यादा सस्ता है. यह व्यक्तिगत खर्च के लिहाज से भी सस्ता है.

 हमारे शिक्षण की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उम्र का बड़ा हिस्सा कौशल हासिल  करने में ही खर्च हो जाता है. यदि ये बातें सच हैं तो नई कम्प्यूटरजनित सूचना तकनीकी गरीब और अमीर के बीच की खाई को कम करेगी. यह संभव है कि उससे नए किस्म का सांस्कृतिक अंतराल पैदा हो जाए. इसके दो आयाम हैं समृद्ध समाजों में लेखन जारी रहेगा. उसकी शिक्षा जारी रहेगी. यह तब भी जारी रहेगा जब सामान्य लोग इसका इस्तेमाल करना बंद कर देंगे. वैसे ही जैसे लैटिन या संस्कृत की पढ़ाई आज भी  जारी है. इस तरह के शिक्षण का ज्ञानात्मक मूल्य अस्पष्ट है. अभिजन में इसकी शिक्षा को लेकर अंतर रहेगा.यदि आप लैटिन जानते हैं तो पश्चिमी समाजों में आप अभिजन कहलाते हैं. यदि संस्कृत जानते हैं तो पंडित कहलाते हैं.

इसी तरह गरीब देशों में सिर्फ वाचन से पाठ की ओर ले जाने वाली तकनीकी का ही प्रयोग नहीं होगा. अपितु अन्य रूपों का भी प्रयोग हर तरह समृद्ध देशों में पाठ से वाचन की ओर ले जाने वाले तकनीकी रूपों का ज्यादा प्रयोग होगा. वे लेखन ही नहीं रीडिंग के क्षेत्र को भी पार कर जाएंगे. यह आर्थिक विकास के लिहाज से सस्ता पड़ेगा. इस प्रक्रिया के कारण हुनरमंद लोगों और पाठ एकत्रित करने वाले लोगों  के बीच अंतराल पैदा होगा. अथवा हुनरमंद लोगों और अन्य के बीच अंतराल पैदा होगा. परंपरागत साक्षरता के द्वारा दीर्घकालिक और अल्पकालिक स्मृति के संरक्षण पर जोर दिया जाता है. इन दोनों ही स्मृति रूपों को, लेखन से वाचन और वाचन से पाठ की ओर जो कनवर्जन चल रहा है, उसके जरिए संरक्षित रखने की कोशिशें हो रही हैं. लेखन का वाचन और वाचन का पाठ में कनवर्जन इसी तरह रीडिंग का पाठ और पाठ का  वाचन में कनवर्जन सिर्फ दीर्घकालिक स्मृति को संरक्षित रखेगा. साक्षरता की अल्पकालिक स्मृति सिर्फ व्यापार में जिंदा रहेगी. किंतु अन्य बहुत सारी गतिविधियों में यह जिंदा नहीं रहेगी. 





जगदीश्वर चतुर्वेदी : 1957, मथुरा(उत्तर-प्रदेश)

प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत माध्यम से, ज्योतिषाचार्य

उच्च शिक्षा (एम.फिल, पी.एचडी) जे.एन.यू.                            
पत्रकारिता, जनसंचार, मास-कल्चर, संजाल, हाइपर-टेक्स्ट,
उत्तर–आधुनिकता आदि विषयों पर               
३० से अधिक पुस्तकें प्रकाशित.          
कलकत्ता वि.वि. में (हिन्दी विभाग) प्रोफेसर
ई-पता :  jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in   

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  1. ek guidance deta hua lekh. kuchh baaten bahut prabhavit kar gayin-
    - हमारे शिक्षण की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उम्र का बड़ा हिस्सा कौशल हासिल करने में ही खर्च हो जाता है. ye ek aisa sach hai jiski paridhi mein student kabhi-kabhi ghut kar rah jaata hai ...
    -charon skills - LSRW ko cover karta lekh.
    Hyper Text mein aane wali samsyaon ke har pahlu par prakaash daalta lekh.
    bahut si nayi jaankariyan milin.
    Arun ji , Samalochan is trah hame sachet karte hue zimmedar nagrikon aur lekhakon se milvane mein safal raha hai.. aapko aur Jagadishwar ji ko badhai!

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  2. साक्षरता की अल्पकालिक स्मृति व्यापर में जिंदा रहेगी किन्तु अन्य बहुत सारी गतिविधियों में यह जिंदा नहीं रहेगी ''ये शायद कहना सही नहीं ! शिक्षा के क्षेत्र में अपने अनुभव के आधार पर ऐसा सोचती हूँ!गलत भी हो सकता है ....दुसरे,मुझे लगता है की समय के साथ २ हर विधा हर क्षेत्र में परिवर्तन होता है और होना चाहिए !, यदि हम ऐसा होने का विरोध करते हैं तो हमें''पीछे रह जाने ''की शिकायत करनेका
    भी हक नहीं !(ये मेरे विचार हैं...गलत भी हो सकतें हैं...कृपया अन्यथा न लें)
    वंदना ~

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