सहजि सहजि गुन रमैं : निरंजन श्रोत्रिय



निरंजन इस अर्थ में हिंदी के महत्वपूर्ण कवि हैं कि उनके यहाँ घर-बाहर की अछूती स्मृतियाँ, अनछुए अनुभव की ताज़गी लिए आती हैं. यह ऐसा क्षेत्र है जो मुख्य धारा की हिंदी कविता में सिरे से गायब है. घर-गृहस्ती में प्रेम के साथ भी बहुत चीजें होती हैं जैसे कि टेलीफोन का बिल, टॉवेल या फिर इस गृहस्ती के पहिये की धुरी में फँसी हुई ऊँगली से रिसता हुआ लहू. जहां कविता की संभावना नहीं होती अमूमन निरजंन वही से अन्वेषित करते हैं कविता. उनकी कविताओं की सुगन्ध ‘आचार की बरनी’ से बाहर आती है-खट्टी-मीठी.

ये कविताएँ बाहर के चीख-पुकार से जब कभी घर लौटती हैं, उनमें घर का विश्वास और उन्ही के शब्दों में कहें तो ‘मध्य वर्ग का भरोसा’ मिलता है. 


 


डूबते हरसूद पर पिकनिक

जब तक ज़िन्दा था
भले ही उपेक्षित रहा हो
मगर इन दिनों चर्चा
और आकर्षण का केन्द्र है हरसूद

जुट रही तमाशबीनों की भीड़
कैसा लगेगा यह शहर जलमग्न होकर
हरसूद एक नाव नहीं थी जिसमें कर दिया गया हो कोई छेद
जीता-जागता शहर था
जिसकी एक-एक ईंट को तोड़ा उन्हीं हाथों ने
जिन्होंने बनाया था कभी पाई -पाई जोड़ कर

फैला है एक हज़ार मेगावाट का अँधेरा 
जलराशि का एक बेशर्म क़फन बनकर
जिसके नीचे दबी हुई है सिसकियां और स्वप्न
                   किलकारियां और लोरियां
                   ढोलक की थाप और थिरकती पदचाप
                   नोंकझोंक और मान-मनौवल
यह कैसा दौर है!
तलाशा जाता है एक मृत सभ्यता को खोद-खोद कर
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और भीमबेटका में
और एक जीवित सभ्यता
देखते-ही-देखते
अतल गहराईयों में डुबो दी जाती है.

कभी गये हों या न गये हों
फिलहाल आप सभी आमंत्रित हैं
देखने को एक समूचा शहर डूबते हुए
सुनने को एक चीत्कार जल से झांकते
शिखर और मीनारों की....!

अभी ठहरें कुछ दिन और
फिर नर्मदा में नौकाविहार करते समय
बताएगा खिवैया
--बाबूजी, इस बखत जहाँ चल रही है अपनी नाव
उसके नीचे एक शहर बसता था कभी-हरसूद!


पत्नी से अबोला

बात बहुत छोटी-सी बात से
हुई थी शुरू
इतनी छोटी कि अब याद तक नहीं
लेकिन बढ़कर हो गई तब्दील
अबोले में 

संवादों की जलती-बुझती रोशनी हुई फ्यूज़
और घर का कोना-कोना
भर गया खामोश अंधकार से

जब भी होता है अबोला
हिलने लगती है गृहस्थी की नींव
बोलने लगती हैं घर की सभी चीजें
हर वाक्य लिपटा होता है तीसरी शब्द-शक्ति से
सन्नाटे को तोड़ती हैं चीजों को ज़ोर से पटकने की आवाज़ें
भेदने पर इन आवाज़ों को
खुलता है--भाषा का एक समूचा संसार हमारे भीतर

सहमा हुआ घर
कुरेदता है दफन कर दिये उजले शब्दों को

कहाँ बह गई सारी खिलखिलाहट
कौन निगल गया नोंक-झोंक के मुस्काते क्षण
कैसे सूख गई रिश्तों के बीच की नमी
किसने बदल दिया हरी-भरी दीवारों को खण्डहर में
अबोले का हर अगला दिन
अपनी उदासी में अधिक भयावह होता है

दोनों पक्षों के पूर्वज
खाते हुए गालियाँ
अपने कमाए पुण्य से
निःशब्द घर को असीसते रहते हैं .

कॉलबेल और टेलीफोन बजते रहते
लौट जाते आगंतुक बिना चाय-पानी के

बिला वजह डाँट खाती महरी
चुप्पी टूटती तो केवल कटाक्ष से
भलाई का तो ज़माना नहीं
या
सब-के-सब एक जैसे हैंजैसे बाण
घर की डरी हुई हवा को चीरते
अपने लक्ष्य की खोज में भटकते हैं

उलझी हुई है डोर
गुम हो चुके सिरे दोनों
न लगाई जा सकती है गाँठ
फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
घर की दहलीज से एकदम बाहर
अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब !

इस कविता के पाठक कहेंगे
... यह सब तो ठीक
और भी क्या-क्या नहीं होता पति-पत्नी के इस अबोले में
फिर जितना आप खींचेंगे कविता को
यह कुट्टी रहेगी जारी

तो ठीक है
ये लो कविता समाप्त !.



टॅावेल भूलना

यदि यह विवाह के
एक-दो वर्षों के भीतर हुआ होता
तो जान-बूझकर की गई बदमाशीकी संज्ञा पाता

लेकिन यह स्मृति पर
बीस बरस की गृहस्थी की चढ़ आई परत है
कि आपाधपी में भूल जाता हूँ टॉवेल
बाथरूम जाते वक्त 

यदि यह
हनीमून के समय हुआ होता
तो सबब होता एक रूमानी दृश्य का
जो तब्दील हो जाता है बीस बरस बाद
एक खीझ भरी शर्म में 

सुनो, जरा टॉवेल देना !
की गुहार बंद बाथरूम से निकल
बमुश्किल पहुँचती है गन्तव्य तक
बड़े हो चुके बच्चों से बचते-बचाते

भरोसे की थाप पर
खुलता है दरवाजा बाथरूम का दस प्रतिशत
और झिरी से प्रविष्ट होता
चूड़ियों से भरा एक प्रौढ़ हाथ थामे हुए टावेल
कुछ भी ख्याल नहीं रहताकी झिड़की के साथ .

थामता हूँ टॉवेल
पोंछने और ढाँपने को बदन निर्वसन
बगैर छूने की हिम्मत किये उस उँगली को
जिसमें फँसी अँगूठी खोती जा रही चमक
थामता हूँ झिड़की भी
जो ढँकती है खीझ भरी शर्म को

बीस बरस से ठसे कोहरे को
भेदता है बाथरूम में दस प्रतिशत झिरी से आता प्रकाश !



युवा कवियों की पत्नियाँ 

दुनिया को तरतीबवार बनाने के संकल्प के साथ
सभा में पिछली सीटों पर यह जो हुजूम बैठा है बेतरतीब-सा
वे इस दौर के चर्चित युवा कवि हैं
दुनिया-जहान की चिन्ताओं से भरे
मगर ठहाका लगाते एक निश्चिन्त-सा
घर से बाहर कई दिनों से लेकिन घर जैसे आराम के साथ
युवा कवि एक नई दुनिया की इबारत गढ़ रहे हैं.

वे सुन पा रहे हैं मीलों दूर से आती कोई दबी हुई सिसकी
उनकी तर्जनी की ज़द में है विवश आँखों से टपका हर एक आँसू
उनकी हथेलियों में थमा है मनुष्यता का निराश और झुर्राया हुआ चेहरा
उनके झोले में हैं बारीक संवेदनों और ताज़ा भाषा-शिल्प से बुने
कुछ अद्भुत काव्य-संग्रह
जो समर्पित हैं किसी कवि मित्र, आलोचक या संपादक को.

इस समूचे कार्य-व्यापार में
ओझल हैं तो केवल
उन युवा कवियों की पत्नियों के थके मगर दीप्त चेहरे
जिन्होंने थाम रखी है इन युवा कवियों की गृहस्थी की नाज़ुक डोर

युवा कवियों की पत्नियों की कनिष्ठिकाएं
फंसी हुई हैं उन छेदों में गृहस्थी के
जहाँ से रिस सकती है
जीवन की समूची तरलता

युवा कवि-पत्नियों के दोनों बाजू
झुके जा रहे हैं बोझ से
एक में थामे हैं वे बच्चों का बस्ता और टिफिन
दूसरे में चक्की पर पिस रहे आटे की पर्ची और बिजली का बिल
एक हाथ में है सास-ससुर की दवाओं
और दूसरे में सब्जी का थैला

उनकी एक आँख से झर रहा है अनवरत मायके से आया कोई पत्र
और दूसरी में चमक रही है बिटिया की उम्र के साथ बढ़ रही आशंकाएं
उनके एक कान को प्रतीक्षा है घर से बाहर गये युवा कवि के कुशलक्षेम फोन की
दूसरा कान तक रहा है स्कूल से लौटने वाली पदचाप की तरफ

युवा कवियों की पत्नियों को नहीं मालूम
कि दुनिया के किस कोने में छिड़ा हुआ है युद्ध
या गैरबराबरी की साज़िशें रची जा रही हैं कहाँ
कि इस समूची रचनाधर्मिता को असल ख़तरा है किससे
या कि कैसा होगा इस सदी का चेहरा नये संदर्भों में
वे तो इससे भी बेख़बर कि उनके इस अज्ञान की
उड़ाई जा रही है खिल्ली इस समय युवा कवियों द्वारा शराब पीते हुए

मानवता की कराह से नावाकिपफ उनकी अंगुलियां फंसी हुई है
रथ के पहियों की टूटी हुई धुरी में.


         
अचार

अचार की बरनी
जिसके ढक्कन पर कसा हुआ था कपड़ा

ललचाता मन कि
एक फाँक स्वाद भरी
रख लें मुँह में की कोशिश पर
पारा अम्माँ का सातवें आसमान पर
भन्नाती हुई सुनाती सजा फाँसी की
जो अपील के बाद तब्दील हो जाती
कान उमेठ कर चैके से बाहर कर देने में .

आम, गोभी, नींबू, गाजर, मिर्च, अदरक और आँवला
फलते हैं मानो बरनीस्थ होने को
राई, सरसों, तेल, नमक, मिर्च और हींग-सिरके
का वह अभ्यस्त अनुपात
बचाए रखता स्वाद बरनी की तली दिखने तक .

सख्त कायदे-कानून हैं इनके डालने और
महप़फूज़ रखने के
गंदे-संदे, झूठे-सकरे हाथों
और बहू-बेटियों को उन चार दिनों
बरनी न छूने देने से ही
बचा रहता है अम्माँ का
यह अनोखा स्वाद-संसार !

सरल-सहज चीजों का जटिलतम मिश्रण
सब्जी-दाल से भरी थाली के कोने में
रसीली और चटपटी फांक की शक्ल में
परोस दी जाती है घर की विरासत!

चैके में करीने से रखी
ये मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित कृतियाँ
केवल जायके का बदलाव नहीं
भरोसा है मध्य वर्ग का
कि न हो सब्जी घर में भले ही
आ सकता है कोई भी आधी रात !
____________________________________________________


निरंजन श्रोत्रिय :
 17 नवम्बर 1960, उज्जैन
विक्रम विश्वविद्यालयउज्जैन से वनस्पति शास्त्र में पी-एच. डी.
कविता संग्रह : जहाँ से जन्म लेते हैं पंख (2002) जुगलबंदी (2008)
कहानी संग्रह : उनके बीच का जहर तथा अन्य कहानियाँ (1987), धुआँ (2009)
निबंध संग्रह : आगदार तीली ( 2010)
अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित
1998 में अभिनव कला परिषदभोपाल द्वारा शब्द शिल्पी सम्मान

समावर्तन का संपादन, अध्यापन
ई-पता : niranjanshrotriya@gmail.com

14/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. निरंजन जी ,आपकी कवितायेँ,'हरसूद'की त्रासदी के गंभीर चिंतन से प्रारंभ हो,'पतित्व'के खट्टे -मीठे अनुभवों को छूती हुई, 'युवा -कवी पत्नियों की नियति''पर कुछ पल ठहरते हुए अंततः चटखारों पर समाप्त होती हैं!
    ....वर्ष की अंतिम सुबह अच्छी कवितायेँ पढवाने के लिए आपका और अरुण जी का धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  2. सन्नाटे को तोड़ती हैं चीजों को ज़ोर से पटकने की आवाज़ें
    भेदने पर इन आवाज़ों को
    खुलता है--भाषा का एक समूचा संसार हमारे भीतर .........

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह, मज़ेदार है इन कविताओं का स्वाद। निरंजन जी को बधाई और अरुण भाई का आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. यह कैसा दौर है!
    तलाशा जाता है एक मृत सभ्यता को खोद-खोद कर
    मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और भीमबेटका में
    और एक जीवित सभ्यता
    देखते-ही-देखते
    अतल गहराईयों में डुबो दी जाती है.............स्तब्ध करते शब्द इन्सान को नहीं इंसानियत को...सोचने पैर मजबूर करती कवितायेँ शुभ कामनाएं निरंजन जी को ..धन्यवाद आप का अच्छी कवितों को शेयर करने का...Nirmal Paneri

    जवाब देंहटाएं
  5. कविता है या कि चित्र-जो भी है पारदर्शी है .

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन कविताएँ!!!
    ’युवा कवियों की पत्नियाँ’ अच्छा इशारा करती है....

    जवाब देंहटाएं
  7. घर-संसार की आत्‍मीयता से लबरेज निरंजन की ये कविताएं अपने निराले अंदाज में हमारे समय के यथार्थ की अंतरंग तस्‍वीर पेश करती हैं। जहां हरसूद की त्रासदी हमें गहरे अवसाद का अहसास देती है, वहीं पत्‍नी का अबोलापन घर की हार्दिकता से भर देता है। और मां के अचार का तो कहना ही क्‍या? वाकई निरंजन की ये कविताएं पढ लिये जाने के बाद भी देर तक स्‍मृति में घूमती रह सकती हैं। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  8. अरुण जी ! आपका आभार....आपने निरंजन जी की इतनी निराली कविताओं से रूबरू कराया ! बहुत सहजता से निरंजन जी बेहद सामान्य सी चीजों में भी अपनी गहन संवेदना जोड़ते हुये पाठक को बांध लेने में सक्षम हैं ... वे बड़े कवि हैं ... उनकी 'जुगलबंदी' मुझे बार बार याद आती है ।

    जवाब देंहटाएं
  9. shrotriy ji ke
    harsood me samvedna, towel me sharm,achar me mahak,unbole me chahak he.
    yuva kaviyon ki patniya , kisi stree ko yah saubhagya pradan na karne ki prerna deti he.achchha sabak he.

    जवाब देंहटाएं
  10. तमाम कवितायें अच्छी हैं पर ‘पत्नी से अबोला’ की ये पंक्तियाँ आलोड़न कर मन में एक खास घर बना लेती हैं-
    उलझी हुई है डोर
    गुम हो चुके सिरे दोनों
    न लगाई जा सकती है गाँठ
    फिर कैसे बुहारा जाएगा इस मनहूसियत को
    घर की दहलीज से एकदम बाहर
    अब तो बरदाश्त भी दे चुकी है जवाब

    और ‘डूबते हरसूद पर पिकनिक’ की ये मानीखेज लाइनें-
    तलाशा जाता है एक मृत सभ्यता को खोद-खोद कर
    मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और भीमबेटका में
    और एक जीवित सभ्यता
    देखते-ही-देखते
    अतल गहराईयों में डुबो दी जाती है..

    निहित स्वार्थ और थोथे राष्ट्रवाद के कुछ देशद्रोही कर्म पर भी सटीक बैठती है.बाबरी मस्जिद विध्वंस और इंडोनेशिया के गौतम बुद्ध से सम्बद्ध स्तूपों के ध्वंस ऐसे ही कुछ गर्हित कर्म हैं.ये ‘रक्षा में हत्या’ सरीखा हत्कर्म हैं.
    बधाई, रचना-पुरस्कर्ता को और आभार काव्य-प्रस्तुतकर्ता का!

    जवाब देंहटाएं
  11. 'मानवता की कराह से नावाकिपफ उनकी अंगुलियां फंसी हुई है
    रथ के पहियों की टूटी हुई धुरी में'
    ऐसी अनेकानेक पंक्तियाँ देर तक गूंजती रहती हैं भीतर कहीं...
    शुक्रिया निरंजन जी... अरुण जी...

    जवाब देंहटाएं
  12. कहाँ बह गई सारी खिलखिलाहट
    कौन निगल गया नोंक-झोंक के मुस्काते क्षण
    कैसे सूख गई रिश्तों के बीच की नमी
    किसने बदल दिया हरी-भरी दीवारों को खण्डहर में
    अबोले का हर अगला दिन
    अपनी उदासी में अधिक भयावह होता है

    निरंजन जी गहरी मानवीय संवेदना और सरोकारों के कवि हैं...उनकी कविताओं में समय के परिवर्तन की अनुगूंज साफ-साफ सुनाई पड़ती है। उनका सहज कवि मन जीवन की छोटी-से छोटी चीजों को अपना विषय बनाता है और आपनी कवित्व शक्ति से उसे एक व्यापक आयाम प्रदान करता है। निश्चय ही निरंजन जी की कविताएं अपनी भावभूमि की गंभारता के कारण हमें सोचने के लिए बाध्य करती हैं। आज की हिन्दी कविता से जिन्हें शिकायत है, उन्हों निरंजन की कविताएं अवश्य पढ़नी चाहिए...
    संजीदा कवि को मेरी अशेष शुभकामनाएं... समालोचन के संपादक का आभार....

    जवाब देंहटाएं
  13. आपकी कवितायें पढना हमेशा ही अच्छा लगा है आज भी...वैसा ही ..
    सामान्य चीजों को तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए
    उन्हें कविता में ढालना कोई आपसे सीखे ...

    बधाई निरंजन सर को और अरुण जी का आभार...

    जवाब देंहटाएं
  14. Dr.Suresh Chandra Shrotri<shrotriy.blogspot.com
    bahut bahut sunder aur prashanshneey hai apki kavitayen.Mera lekhan purana hote huye bhi blogspot ke madhyam se prakashit karna naya hi hai.Aj kuch aur likh raha hoon.comments ki pratiksha.
    suresh

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.