परख और परिप्रेक्ष्य : उपन्यास : रावी लिखता है : अब्दुल बिस्मिल्लाह


रावी लिखता है(उपन्यास)
अब्दुल बिस्मिल्लाह .
प्रथम संस्करण-2010.
मूल्य-200 रूपए.
राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-02


ग्लोबल मुस्लिम जगत के बयान

पुखराज जाँगिड़

अब्दुल बिस्मिल्लाह  का नया उपन्यास रावी लिखता है (2010) पहली बार बया (दिसंबर 2007) में हिंदी में तथा अनुदित रूप में पंजाबी में पहले ही छप चुका है. इसका कथानक विकास की अवधारणा से अनभिज्ञ हमारे गांवों से शुरू होकर दिल्ली-इलाहाबाद जैसे महानगरों से होता हुआ यूरोपीय महानगरों तक विस्तृत है, जोकि उसकी सीमा भी है शक्ति भी. हालाँकि देहात की, उसके जमीनी-सच की गैरमौजूदगी अखरती है, खासकर कि वह जिनसे बड़ी अप्पी जुड़ी रही, पर भौगोलिक विस्तार के साथ-साथ कथानक में व्यापक समयांतराल को समेटने का प्रयास किया गया है.

आधुनिकता का लबादा ओढे बे-सिर-पैर की महानगरीय सभ्यता-संस्कृति के मिज़ाज वाले शहर का अपना कोई मौसम नहीं होता, मौसम सिर्फ गांव में बदलता है. यहाँ मूल द्वंद्व कुएँ के सुखने (गाँव का समूहबोध) और नल के टपकने (शहर का एकांकीपन) की विडंबना का है और यही द्वंद्व पूर्व और पश्चिम का भी है. त्रिलोचन की चंपा के शब्दों में ऐसी सभ्यता-संस्कृति वाले कलकत्ते पर बजर गिरे.’ ‘रावी लिखता है के दीनमुहम्मद सतयुग (सहज जीवन), उनके पुत्र वलीमुहम्मद त्रेता (आकांक्षा-महत्त्वाकांक्षा का द्वंद्व), पौत्र डैडी(वलीमुहम्मद के पुत्र और बड़ी अप्पी के पिता) द्वापर (स्वप्नित आशाओं का समय) तथा कथावाचक, बड़ी अप्पी व उसकी पीढ़ी कलियुग (वैयक्तिक स्वार्थपरस्ती से खत्म होती मनुष्यता को बचाने के अंतिम प्रयास) की प्रतीक हैं और चारों मिलकर एक निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार की चार पीढ़ियों का वृत्तांत रचते हैं. इसके अतिरिक्त इसमें हिन्दुओं-मुसलमानों दोनों में प्रचलित आस्थाओं-अंधविश्वासों के वर्णन भी है.


कथा का सूत्रधार रावी है और अप्पी के माध्यम से उसमें नोस्टेलजिक (पूर्व और पश्चिम का, गाँव और शहर का द्वंद्व) व मिथकीय (सतयुग-त्रेतायुग-द्वापर) ताना-बाना गुँथा गया है. इसमें देश और विदेश दोनों है. अप्पी अपनी जड़ों को खोजने के लिए फैंटेसी का शिल्प तलाशती है और कथानक का आधार भी उनका आत्मकथन ही है जिसमें डैडी की एकतरफा पत्रात्मक प्रेमकहानी भी शामिल है. इसमें स्थान और समय की विविधता के साथ-साथ शैलीगत वैविध्य भी स्वच्छंदता की हद तक इस्तेमाल किया गया है. इस प्रकार गुजरा समय जिस रूप में अप्पी को झकझोरता है, कथानक उसी प्रवाह में बहता चलता है. इसमें प्रेमचंद साहित्य के जमींदारों के हाकिम की ही तरह दीनमुहम्मद भी है जो किसान-मजदूर से निर्मम वसूली करता है. यही अंततः पिनका और उसके परिवार की आत्महत्या का कारण बनता है और इसका मलाल किसी को नहीं है. किस्से-कहानियों में खोया रहने वाले वलीमुहम्मद वास्तवित जीवन में हाशिए की अस्मिताओं के विरोधी ही नहीं है, मर्दवादी भी है. वे चार-चार शादियां करते है और बड़ी ही आसानी से वे एक को मना करने के बावजूद मुहर्रम मनाने पीहर चले जाने पर, तो दूसरी को अपने पीहरवालों से सम्बन्ध न तोड़ने के कारण तलाक भी दे देते है. और तो और प्रौढ़ावस्था में भी वे 12-13 साल की बच्ची से शादी करने से बाज नहीं आते और न इसके विरोध में कोई स्वर ही फूटता दिखाई पड़ता है.हाशिए की अस्मिताओं और स्त्रियों के प्रति उनका नजरिया सामंती और पुरूषवादी ही है. जिस तटस्थता के साथ इसमें मुस्लिम जीवन की चार पीढियों का द्वंद्व चित्रित हुआ है, वह काबिलेतारीफ है पर बदलाव के चिह्नों की शिनाख्त स्त्रियों की प्रतिरोधी भूमिका की स्वीकार्यता पर प्रश्नचिह्न लगाती है, उसपर सोचने को बाध्य करती है कि आप भी डैडी क्या मुझे बच्चा समझते है?’

भिखारी-फकीर, देश-देस, कुएँ-नल जैसे सामान्य और व्यावहारिक शब्दों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थांतरों के प्रति उपन्यासकार सचेत है और इन्हीं के माध्यम से वह परम्परा और आधुनिकता के चार-पीढ़ीय-द्वंद्व को उभारनें में सक्षम हुए है जिसका केंद्र अप्पी है. उनके डैडी पूरी तरह से आधुनिक नहीं थे. देशज आधुनिकता की खोज में निकली परम्परा (भारत) और आधुनिकता (इंडिया) की प्रायः दो साथ-साथ चलती दुनिया और उनका द्वंद्व प्रभावित करता है, हालांकि एक हद तक वह उसकी सीमा भी है क्योंकि अंततः इसका जो हासिल है, वह अर्धसत्य है. अप्पी इंडिया की पैदाइश है पर धीरे-धीरे वह परंपरा के महत्त्व को समझती है और समझाने का प्रयत्न भी करती है कि इसके अभाव में हम सिर्फ अकेलापन ही पाते हैं. विदेश में बस चुकी नई पीढ़ी भारतीय परम्पराओं से सिर्फ नॉस्टेलजिक रूप में ही जुड़ पाती है क्योंकि यहाँ की गरीबी उसे बर्दाश्त नहीं और यह भौतिक सुख-सुविधाओं से ही उपजने और फलीभूत होने वाली उनकी आदर्श जमीन भी नहीं है. हद तो तब होती है दीनमुहम्मद अपनी ही परपोती को नहीं पहचानते. वलीमुहम्मद उसे पहचानते तो है पर स्वीकारते नहीं, जबकि अप्पी परिजनों और पूर्वजों के प्रति संवेदनशील है पर कोई भी उन्हें समझने को तैयार नहीं, जबकि यह मूल जरूरत है और उपन्यास का मूलधर्म भी. वणिकवृत्ति वाली राह की शुरूआत यहाँ जानवरों की खालों के व्यापार (संबंधों से अलगाव की प्रतीक) से होती है लेकिन बाद में वह भी नफे की चीज नहीं रहती.

कुल मिलाकर रावी लिखता है उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरिया के विश्वस्त-परिवेश का अतिक्रमण भले ही न कर पाया पर इसका निजी वैशिष्ट्य पीढीगत अंतराल और भूमंडलीकृत मुस्लिम-जीवन की सटीकबयानी तथा इसका कहानीपन है, जिसमें वह उल्लेखनीय बन पड़ा है.








पुखराज जाँगिड़
साहित्य और सिनेमा पर शोध कार्य
भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू.
ई पता - pukhraj.jnu@gmail.com

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  1. अच्छी भाषा, अच्छी दृष्टि । बधाई ।

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  2. 2010 में अपने प्रकाशन के साथ ही 'रावी लिखता है' से एक विवाद भी जुड़ गया था कि यह मूलत: किस भाषा में लिखी गई। आपने अपने लेख के प्रारंभ में ही 'बया'(दिसंबर 2007) का उल्लेख कर उस विवाद को ही खत्म कर दिया। आपने इसके सार को सही पकड़ा है कि यहाँ मूल द्वंद्व ‘कुएँ के सुखने’ (गाँव का समूहबोध) और ‘नल के टपकने’ (शहर का एकांकीपन) की विडंबना का है और यही द्वंद्व पूर्व और पश्चिम का भी है. एक अच्छी समीक्षा के लिए लेखक और संपादक को बधाई।

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  3. पुखराज जांगिड जी आपने सुप्रसिद्ध कथाकार एवम मेरे मेरे गुरु अब्दुल बिस्मिल्लाह के नवीनतम उपन्यास ' रावी लिखता है ' के बारे में बहुत सुंदर समीक्षा लिखी है ! आपको जितनी भी बधाई दी जाये कम है ! वास्तव में यह उपन्यास अद्भुत है ! इसका कैनवास कितना विशाल है ! मुझे दुःख है की अभी तक मै इसे पढ़ नही पाई हूँ ! बहुत बहुत धन्यवाद !

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  4. ‘रावी लिखता है’ उपन्यास ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ के विश्वस्त-परिवेश का अतिक्रमण भले ही न कर पाया पर इसका निजी वैशिष्ट्य पीढीगत अंतराल और भूमंडलीकृत मुस्लिम-जीवन की सटीकबयानी तथा इसका कहानीपन है, जिसमें वह उल्लेखनीय बन पड़ा है.

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