सबद भेद : शमशेर प्रेम की असंभावना के कवि अधिक हैं : अशोक वाजपेयी


ll शमशेर :: जन्म शताब्दी वर्ष ll




पिछले पांच दशकों से साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय कवि, आलोचक, संपादक,और आयोजक अशोक वाजपेयी के कई कविता-संग्रह और आलोचनापुस्तकें प्रकाशित हैं. संस्थान और समारोह उनकी संस्कृति-सक्रियता के ही विस्तार हैं.

साहित्य की स्वायत्ता के विचार का कम से कम हिंदी में वह नेतृत्व तो करते ही हैं. उनकी आलोचना ने उन्ही के प्रिय शब्दों में कहा जाए तो बहुवचनात्मकता का जरूरी कार्य पूरा किया है. यहाँ शमशेर के मौन के साथ-साथ वाग् का वैभव भी पढ़ा जा सकता है.





शमशेर प्रेम की असंभावना के कवि अधिक हैं             



ज्ञेय को प्रयोगवादी कहा जाता है, हालाँकि दूसरा सप्तक की भूमिका में वे कहते हैं कि प्रयोग का कोई वाद नहीं होता. वह स्वयं को प्रयोगवादी कहे जाने को अधिक पसंद नहीं करते थे, वैसे ही जैसे मार्क्स मार्क्सवादी नहीं थे भले ही मार्क्सवाद के चिंतन का उन्होंने प्रतिपादन किया था, लेकिन हिन्दी जगत की यह विशेषता है कि वह बहुत अपरीक्षित धारणाओं को  आसानी से स्वीकार कर आगे बढ़ाता रहता है. 

अज्ञेय को प्रयोगवादी कहा ही जाता रहा यह भूल कर कि शमशेर ने 1938-39 में कुछ अतियथार्थवादी कविताएं लिखीं -

शिला का खून पीती थी
वह जड़
जो कि पत्थर थी स्वयं

यद्यपि यह कविता समझ में नहीं आती लेकिन उनको किसी ने प्रयोगवादी नहीं कहा. शमशेर से अधिक इस तरह कि कविताएं किसी ने नहीं लिखी, लेकिन विवाद इस पर नहीं है कि वह प्रयोगवादी थे या नहीं, प्रयोगवादी होना कोई जरुरी नहीं है. अज्ञेय ने तो कहा था कि अच्छा कवि वह होता है जो प्रयोग करे, सिर्फ परम्परा का पिष्ट-पेषण न करे. तर्क तो ये भी दिया जा सकता है तुलसीदास ने जब रामचरितमानस लिखी तो वह एक नया प्रयोग कर रहें थे. संस्कृत में विन्यस्त एक महाख्यान को अवधी में लिख रहें थे, अर्थात राम और सीता जो बाल्मीकि रामायण में संस्कृत में बोल रहें थे वह जन बोली में बोलने लगे. यह अपने समय का एक क्रांतिकारी प्रयोग था. इस प्रयोग ने संस्कृत की परम्परा को ही लगभग अपदस्थ कर दिया. अब रामचरितमानस कही अधिक पढ़ी जाती है और जन के चित्त से  गहरे से जुडी है बनिस्पत बाल्मीकि रामायण के.

आजकल का परिदृश्य चीख-पुकार, शोर-शराबे का है. आज के समय में सबकुछ के निरीह अभिधा में घटने का बहुत उत्साह है. असल में अब हम कविता को खबर की तरह पढते हैं या पढना चाहते हैं.  हमारी आदत ऐसी हो गयी है कि कोई कविता पढते ही उसका तथाकथित सच जानना चाहते हैं, लेकिन ऐसा सच कविता में होता ही नहीं क्योंकि कविता खबर नहीं है, हाँ कविता खबर देती होगी और कभी खबर लेती भी है, लेकिन वह खबर नहीं है. निश्चय ही कविता सत्य को प्रस्तुत करती है लेकिन उसका सत्य ऐसा नहीं होता कि समोसे और रसगुल्ले की तरह तस्तरी में रखकर  खा लिया जाये. कविता का सच अधूरा सच है, वह पूरा ही तब होता है जब आप उसमे थोडा सा सच अपना मिला दें. इसीलिए एक ही कविता की अनेक व्याख्याएं संभव होती हैं. जिसे पाठ या पुनर्पाठ कहते हैं. वह पुनर्पाठ संभव ही इसीलिए है की हरेक व्यक्ति के सच अलग हैं, अनुभव और दृष्टि अलग है. जब इन चीजों का मेल कविता से मिलता है तो कविता का पूरा सच तैयार होता है,यानि कविता का सच पहले से  निर्धारित सच नहीं है. उसमे छात्र, पाठक, रसिक सबकी हिस्सेदारी होती है, अगर ऐसा नहीं है तो उस कविता का कोई मतलब नहीं है.

शमशेर की कविता ऐसे शोरोगुल में अनसुनी जा सकती है क्योंकि वह चीख-पुकार वाली कविता नहीं. वह नाटकीय है, लेकिन उसका नाटक बिलकुल अलग ढंग का है. नागार्जुन की कविता जैसी नाटकीयता उनके यहाँ नहीं है- इंदु जी क्या हुआ है आपको, सत्ता के मद में भूल गयी बाप को - ये अच्छी कविताएं हैं लेकिन इन्हें समझने के लिए किसी विशेष मानसिक उद्यम की आवश्यकता नहीं है. शमशेर बहुत धीमी आवाज़ के कवि हैं और धीमी आवाज़ हमारे समय में सुनाई नहीं देती. इस समय संभवत मनुष्य के इतिहास में सबसे अधिक आवाज़ हो रही है और इधर मनुष्यों में एक नयी रति पैदा हो गयी है संवाद रति. यह समय विचित्र किस्म की आवाजों से घिरा समय है और इस अर्थ में खराब समय है. ऐसे में शमशेर की कविता उनकी आवाज़ अनसुनी जा सकती है.

ये तो भला है  कि शमशेर की जन्मशताब्दी आ गयी और हम जैसे कुछ सिरफिरो ने शताब्दी को मनाने का अभियान ही चला दिया, नहीं तो हिन्दी संसार को शमशेर की याद नहीं आती, उन्हें नागार्जुन की आती, अज्ञेय की आती, केदार की आती, क्योंकि इनकी आवाज़, विशेषकर नागार्जुन और केदार की आवाज़ उठाने वाले अनेक संघ-संघठन हैं. बहरहाल तो ये जो  रोज़मर्रा का भौतिक जीवन है जिसमे तरहतरह की आवाजे हैं, चालू कविता का जीवन है उसमे आवाज़ें बहुत हैं. अज्ञेय ने कहा था की आज की कविता जरुरत से ज्यादा बोलती है, बड़बोली कविता है. वास्तव में हमें लगने लगा है कविता के जोर से बोलने से आवाज़ का वज़न बढ़ जाता है. जहां तर्क का आधार नहीं होता, या  तर्क का आधार बहुत क्षीण होता है, वही लोग जोर- जोर से बोलते हैं. आप देखिये पूरे देश के राजनेता एक ही ढंग से बोलते हैं, भाषा और भंगिमाएं अलग हो सकती हैं लेकिन टोन एक सा ही होता है, इसके बरक्स महात्मा गाँधी हैं, जिन्हें जोर से बोलना ही नहीं आता था, ऐसे बोलते थे जैसे आपसे बात कर रहें हो. गाँधी जी स को श बोलते थे, ठीक से हिन्दी बोलने में कठिनाई होती थी उन्हें, लेकिन उस आदमी की आवाज़ पूरा भारत सांस रोक कर सुनता था.

शमशेर की आवाज़ के दो पक्ष हैं, एक तो वह धीमी है दूसरे उसमे नितांत समकालीनता का आतंक नहीं है.

प्रात  नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है )

इस कविता में गहरा रोमान है, अनूठा बिम्ब है. मुझे नहीं मालूम की पहले किसी कवि ने चाहे संस्कृत में, अपभ्रंश में या हिन्दी में ही, आसमान को देखकर कहा हो कि वह राख से लिपा हुआ चौका जैसा लग रहा है. बड़ा कवि यही करता है कि  ब्रम्हाण्ड को संक्षिप्त करके आपकी मुट्ठी में ला देता है और कई बार पाठक को ऐसा साहस और कल्पनाशीलता देता है कि वह अपना हाथ बढ़ाकर आकाश को छू सके. किसी ने मुझसे एक बार सार्वजनिक रूप से पूछ लिया क्योंकि शास्त्रीय संगीत में भी मेरी थोड़ी गति है, कि अच्छे गायक और महान गायक में क्या फर्क है

मैंने अपनी समझ से  उत्तर दिया  कि अच्छा गायक वह है जो ठीक से रागों का संयोजन करता है, रागों का ढांचा ठीक रखता है, आरोह-अवरोह की गति का ध्यान रखता है, लेकिन महान गायक वह है जो इन चीजों को तो रखे ही, पर राग के बहाने अपने को गाये, यानी मल्लिकार्जुन मंसूर और कुमार गन्धर्व राग ललिता गौरी और राग संपूर्ण मालकोंस के बहाने खुद को गाते है

इसी आधार पर कह सकते हैं  बड़ा कवि वही है जो कविता के विन्यास को तो साधे ही, उसके द्वारा खुद को भी व्यक्त करे और ऐसे व्यक्त करे की उसके स्व में हम सब शामिल हो जाये. शमशेर के यहाँ ऐसा ही क्लासिकल आकर्षण है. प्रात  नभ था बहुत नीला शंख जैसे/भोर का नभ/राख से लीपा हुआ चौका..... जादू टूटता है इस उषा का अब. शमशेर के यहाँ ये क्लासिकल इमेज़ है, जो इसके पहले कालिदास के यहाँ हो सकती थी, भवभूति के यहाँ हो सकती थी, अपभ्रंस के किसी कवि के यहाँ हो सकती थी.

कविता की काया में  जो संभव नहीं है वो यदि आपके विचारों में संभव है तो इससे यह सिद्ध नहीं होता की जो विचार में सही होगा वही कविता में भी सही होगा. हिन्दी लेखक अंतर्विरोध से बहुत डरता है, लेकिन जितना बड़ा लेखक होगा, उसके अंतर्विरोध भी उतने ही बड़े होंगे. अज्ञेय कविता में स्वाधीनता की बात कहते हैं  लेकिन उनकी कविता में जो विन्यस्त होता है वह इतना स्वाधीन नहीं है, हमारा सामाजिक परिवेश ही कुछ ऐसा हो गया है कि जो जितना अधिक संदिग्ध है वह सबसे अधिक आत्मविश्वास और आत्ममुग्धता से बोलता है, लेकिन शमशेर ऐसे कवि हैं जो खुद पर शक करते हैं, उन्हें अपने होने पर ही झेंप लगती हैहम  अपने को ख्याल से भी कम समझे थे, वो अपने को ख्याल से भी कम समझते हैं. वास्तव में कविता मात्र पर संदेह करने की परम्परा नई कविता से शुरू हुई, उसके पहले के कवियों में एक-आध  जगह पर घनानंद इत्यादि में है, लेकिन कम है. कुल मिलकर कविता लिखने वाले कविता के महत्व को लेकर आश्वस्त थे. तुलसी मेंकबीर में कही भी संदेह नहीं है कविता को लेकर, लेकिन नई कविता के कवियों ने कविता पर ही संदेह करना शुरू कर दिया और यह अपने सच पर, अपने माध्यम  और उसकी पर्याप्तता पर संदेह था. जब शमशेर कहते है.


हम अपने ख्याल को सनम समझे थे,
अपने को ख्याल से भी कम समझे थे !
होना था-समझना न था कुछ भी, शमशेर,   
होना भी कहाँ था वह जो हम समझे थे !

यानि खुद को ख्याल से कम समझना और उसमे भी संदेह? अज्ञेय ने लिखा है- मै सच लिखता हूँ, लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ."  क्या पहले कोई कवि हिम्मत कर सकता था. निराला बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े कवि हैं, लेकिन कविता पर ऐसा शक तो वो भी नहीं कर पाए कि मै जो भी लिख रहा हूँ वो सब झूठा है. यह संदेह इन दोनों कवियों में मौजूद है. मुक्तिबोध भी कहते हैं- कविता में कहने की आदत नहीं, यानि मुक्तिबोध भी जानते हैं की सब कुछ कविता में कहना संभव नहीं, क्योंकि कविता की सीमा है.

हमारे समय में दो तरह के नायक हैं एक तो नायक हैं और दूसरे खलनायक, लेकिन शमशेर अनायक हैं, जो अनायक हैं उनमे संदेह है. कविता की काया में कोई शमशेर से पूछ रहा है की तुम्हारी कविता का मतलब क्या है? शमशेर कहते हैं कुछ नही, ऐसे ही बन जाती है वगैरह-वगैरह. (यह कोई अलग से नहीं कह रहे हैं, कविता कि काया में ही ये सब कुछ घटित हो रहा है) यदि संकोच, आत्मसंदेह और चुप्पियों का यदि कोई काव्यशास्त्र बनता हो तो शमशेर का काव्यशास्त्र वही है, जिसमे बोलना कम से कम हो. यद्यपि मौन की अभ्यर्थना अज्ञेय ने सबसे अधिक की है लेकिन सबसे अधिक अज्ञेय ने ही लिखा. अभी उनकी ग्रंथावली छप रही है जिसके अठारह खंड है, इसके पहले इतनी बड़ी रचनावली संभवतः किसी हिन्दी लेखक की नहीं होगी, और यदि शमशेर की छपे तो ज्यादा से ज्यादा तीन या चार खंड होंगे. देख सकते हैं  कि मौन की, आत्मसंदेह की अभ्यर्थना अज्ञेय करते जरुर हैं लेकिन कविता में मौन और चुप्पियों को रचाने का कार्य शमशेर करते हैं.

भोपाल में विश्व कविता सम्मलेन हुआ था, वहाँ स्वीडिश के एक बड़े कवि Tomas Tranströmer आये थे. कविता पाठ के बाद किसी ने उनसे पूछा कि आपकी कविता का अनुवाद  स्वीडिश से अंग्रेजी में होता है या किसी अन्य भाषा में होता है तो क्या समस्याएं आती हैं.

स्वीडिश कवि का उत्तर था- किसी भाषा के किसी शब्द के दूसरी भाषा में समतुल्य शब्द पाना कठिन नहीं होता,लेकिन दिक्कत यह है कविता सिर्फ शब्दों में नहीं ,शब्दों के बीच बसी चुप्पियों में भी होती है,इन चुप्पियों को दूसरी भाषा के शब्दों के बीच ठीक से तलाश कर पाना संभव नहीं हो पाता. 

शमशेर के यहाँ इन चुप्पियों का जो रचाव है वही उनकी कविता को व्यापक बनाता है. दूसरी बात यह की शमशेर की आवाज़ बोलती हुई इतनी नहीं है, जितनी देखती हुई है.यह अकस्मात नहीं है कि शमशेर चित्रकार भी थे, उन्होंने बकायदा चित्रकला की शिक्षा प्राप्त की थी और उनकी मृत्यु के बाद अहमदाबाद में उनके चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी थी. और यह विशेषता पूरी नई कविता के वितान में अभूतपूर्व घटना है. यूँ तो चित्र- बिंब अनेक कवियों के यहाँ है लेकिन उसके प्रयोग की जो बारीकी, रंगोंरेशों को देखने कि जो सूक्ष्मता है और उससे जो जटिलता पैदा होती है वही शमशेर की कविता का आधार है.शमशेर अपने पूरे जीवन विन्यास में, हालाँकि,.चूँकि,याकि, लेकिन आदि शब्दों से जो कुछ भी व्यक्त होता हो उसके शिल्पी थे. एक ऐसा आदमी जो बोलने में संकोच करता हो एक ऐसे समय में जहाँ हर आदमी को बोलने पर मजबूर किया जा रहा हो.

शमशेर हिन्दी के सबसे उर्दू कवि हैं, ठीक उसी तरह से जैसे निराला के बाद अज्ञेय हिन्दी के सबसे संस्कृत कवि हैं. शमशेर की जो प्रसिद्ध कविता है टूटी हुई ,बिखरी हुई, उसमे  जो बजूद शब्द है, वह शुद्ध उर्दू का कोई आमफहम शब्द नहीं है. ऐसे बहुत सारे अक्स उनकी कविता में मिलेंगे. दिलचस्प बात यह है की जब वह उर्दू में लिखते तो पारंपरिक ढंग की गजल लिखते थे लेकिन जब हिन्दी में लिखते है तो अत्यंत प्रयोगधर्मा कविता लिखते हैं, जिसमे उर्दू का रचाव लाते हैं.जैसे कृष्ण बलदेव वैद हिन्दी के सबसे उर्दू लेखक हैं. 


शमशेर अपनी हिन्दी पंक्तियों के बीच में उर्दू का कोई शब्द टांक देंगे और भाषा का सौंदर्य और निखर जाता है. मेरा एक संग्रह है,- उजाला अपनी जगह खुद बनाता है, जिसमे गायकों पर, नृत्य पर, रज़ा  पर, हुसैन पर, कुमार गन्धर्व पर, मंसूर पर अनेक कविताये हैं. इस मामले में मेरे असली पूर्वज शमशेर हैं. शमशेर ने  संगीत पर, चित्रकला पर, मणिपुरी भाषा की ध्वनियों पर, चीनी लिपि पर, कलाकारों पर (उनकी पिकासो पर भी कविता है और मोहन राकेश पर भी), वास्तव में हिन्दी में व्यक्तियों पर शमशेर ने सबसे अधिक कविता लिखी, गोंकि उनके अपने निजी जीवन में व्यक्ति बहुत कम थे. उनका पहला संग्रह हिन्दी के श्रेष्ठतम कविता संग्रहों में से एक है, जिसकी एक भी कविता किसी भी दृष्टि से कमज़ोर नहीं है और यह संग्रह तब आया था जब शमशेर की आयु  उनसठ साल की हो चुकी थी. 


शमशेर बहुत अच्छे गद्यकार भी थे. मुक्तिबोध के मृत्योपरांत छपे संग्रह चाँद का मुँह टेढ़ा है की जो  भूमिका उन्होंने लिखी, मुक्तिबोध के उपर लिखे गए अगर तीन श्रेष्ठतम निबंध चुने जाये तो यह भूमिका उसमे शामिल होगी. मेरी अपनी त्रयी जिसे मै पचीस बरसों से चला रहा हूँ और जिसे अब हिन्दी जगत मानने भी  लगा है में अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर शामिल हैं.

जैसा कि पहले कहा गया अज्ञेय की कविता में मौन की अभ्यर्थना सबसे अधिक है, लेकिन मौन सबसे अधिक दिखता है शमशेर के यहाँ मुक्तिबोध की कविता में शब्द बहुत अधिक हैं, शब्द-बहुलता है, उनकी कविता में असंयमित ढंग से शब्द निकलते आते हैं. शमशेर के यहाँ इन दोनों बातों का निषेध है, उनकी कविता शब्दों के बोझ से दबी कविता नहीं है, वे बहुत कम शब्दों के कवि हैं. उनकी प्रसिद्ध कविता टूटी हुई बिखरी हुई दरअसल डायरी का एक पन्ना है. इसे नामवर सिंह ने जब सुना तो कहा ये कविता है. यह कविता शमशेर के काव्य शास्त्र की पूँजी है. ये जो टूटा हुआ-बिखरा हुआ है, इस कविता में जहाँ उनको लगता है कि अब बहुत हो गया, या उनका संकोच, उनका संदेह जागृत होता है, तो वह अधूरी पंक्ति, अधूरा शब्द छोड़ देंगे बिना किसी चिंता के अब पाठक या आलोचक या रसिक का काम यह है कि ये जो बीच में छूट गया है उसे अपनी कल्पना से, अपने उद्यम से कल्पित कर सके कि क्या रह  गया.

शमशेर के यहाँ सत्य और सौंदर्य में भेद है,पर दूरी नहीं है. उनके यहाँ सत्य अंततः सुन्दर होता है. वह इस अर्थ में सौंदर्य के कवि हैं कि उनके यहाँ सत्य को भी सुन्दर होने पर विवश होना पड़ेगा, उनके रस- संसार में वीभत्स का प्रवेश वर्जित है.
     

एक रोमान
जो कहीं नहीं है मगर मैं
हूँ           हूँ
एक गूँज उबड खाबड़
लगातार
आंख जो कि  अँखुआ
आई हो बहुत ही करीब  बहुत
ही करीब.

तो ये जो मै हूँ और  नहीं हूँ, कही हूँ, कही नहीं हूँ, शमशेर की कविता की पहचान है. दरअसल हम सब साहित्य को ऐसे पढने के आदी हैं कि हमको पता चले कि हम कहाँ है, हम ऐसे पढने के आदी नहीं हैं दुर्भाग्य से, कि हमको यह पता चले कि हम कहाँ नहीं हैं. बड़ा कवि ही ये कर सकता है, हम जैसे दुमछल्लो  के वश में नहीं कि हम आपको नहीं होने का अनुभव भी करा सकें. भाषा कवियों के हाथ में एक दोतरफा हथियार है. 


भाषा होने की सचाई को तो बहुत दूर तक ले जाती लेकिन भाषा  का असली प्रयोग तब है जब न होने की सचाई की छाया भी वह ऊसपर  डाल सके. भारतीय शास्त्रीय संगीत में श्रुति शब्द की  व्याख्या यह है कि जब एक स्वर पर दूसरे की छाया पड़े. इसी तरह होने की जो अपार बहुल सच्चाई है वह तब तक व्यापक नहीं जब तक उस पर न होने की छाया  पड़े. लेकिन छाया बहुत आसानी से नहीं पड़ सकती क्योंकि भाषा तो उपस्थिति का माध्यम है, उसमे अनुपस्थिति कैसे पैदा  होगी, उसमे मौन कैसे पैदा होगा, उसमे न होना कैसे व्यक्त होगा? यही शमशेर का कमाल है और न होने का यही वैशिष्ट्य शमशेर को नई कविता के सारे कवियों से अलग करता है. मुक्तिबोध के यहाँ न होने का कोई बोध नहीं है अज्ञेय के यहाँ हैं मुक्तिबोध के यहाँ मृत्युबोध रत्ती भर भी नहीं है. मुक्तिबोध की कविता से जानना कठिन है कि मुक्तिबोध मृत्यु के बारे में क्या सोचते थे?, काल के बारे में क्या सोचते थे? मुक्तिबोध के यहाँ युगबोध है, समयबोध है, लेकिन कालबोध नहीं है. शमशेर के यहाँ काल बोध अनेक रूपों में अपने को व्यक्त करता है. यह जो न होने की संवेदना है कि हम थे और नहीं भी थे वह असल में उस काल बोध का ही विन्यास है. 


शमशेर की लगभग सारी कविता आत्मसंबोधित है, वह अपने से बातचीत है जो आपको सुनने की किसी तरह से मोहलत मिल गयी है. उनका जो तुम  है वह भी एक तरह से आत्म का  विस्तार है. इन दिनों कविता को लेकर दो तरह के पूर्वग्रह प्रचलित है, लगभग बद्धमूल, एक तो यह कविता का विषय ही उसका अर्थ है, मसलन अगर कविता का शीर्षक अगर बैल है तो बैल के अर्थ में कविता होगी. हिन्दी अध्यापन की यह विडम्बना है कि वह साहित्य में चीजों को सपाट रूप से ग्रहण करता है, बद्धमूल ढंग से.जबकि कविता में अगर पेड़ है तो वह पेड़ नहीं एक प्रतीक है. यह जोबन अंजुरी का जल है, ज्यूँ गोपाल मांगे त्यूं दीजे कोई कहे की ये प्रेम कविता हैऐसा नहीं है. हर चीज किसी न किसी चीज का प्रतीक है. साहित्य के पढने से एक सेन्स ऑफ  अन रियलिटी पैदा होती है, दूसरा कि अगर आपको शब्दों के अर्थ भी मालूम हो गए तो आपको कविता का अर्थ भी समझ में आ जायेगा,ये दो बड़े भारी पूर्वग्रह हिन्दी में है.

शमशेर ने कहा है शब्द का परिष्कार स्वयं दिशा है, एक दृष्टि से यह निहायत ही कलावादी मंतव्य है. हम लोग एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ शब्द-संकोच भयावह  रूप से बढ़ रहा है. हिन्दी के एक शब्दकोष में लगभग एक लाख के करीब शब्द है, मैंने विचार किया कि मीडिया में कितने शब्दों का इस्तेमाल होता होगा, अनुमान लगाया  तो पाया कि अधिक से अधिक पांच या छ हज़ार, फिर अंदाजा लगाया साहित्य में कितना होता होगा, तो बहुत उदार हो कर और अपनी सारी शंकाओ को दबाकर अनुमान किया तो पाया कि लगभग अठारह हज़ार का उपयोग होता होगा. जिस भाषा में एक लाख से अधिक ढंग से सोचने,समझने, बात करने की विधियां मौजूद हैं, उसका सर्जनात्मक उपयोग सिर्फ १०-१५ प्रतिशत ही हो पाता है. शब्द-संकोच आपकी मानवीयता की कटौती है. जिसके पास शब्द कम हैं उसके पास मानवीयता भी कम होनेवाली है,क्योंकि शब्द ही हैं जो आपको सकल ब्रहमांड से जोड़ते हैं, ब्रहमांड को आपके पास लाने की हिकमत रखते हैं. और आजकल जो यह मोबाइल यन्त्र चल रहा है इसमें तो आपको वाक्य या हिज्जों की भी जरुरत नहीं, संकेत से ही काम चल जाता है.


हम शब्द-वृत्त के बहुत बड़े कलियुग में प्रवेश कर चुके हैं. हम सिर्फ कुछ शब्दों को ही दुहराते है बिना यह सोचे कि इनके अलावा भी शब्द हैं. अभी विश्वनाथ त्रिपाठी  की हजारी प्रसाद द्विवेदी पर एक अद्भुत पुस्तक आई है, व्योमेश दरवेश. उसमे सब्जियों के, मशरूमों के, फूलों के,गगन-मगन, लता के अनेक नाम दिए हुए हैं. अज्ञेय जी को जितने पेड़ों और फूलों के,पक्षियों  के नाम पता थे उनसे ज्यादा शायद हिन्दी में सिर्फ हजारीप्रसाद द्विवेदी को ही पता होंगे. जब मै अठारह वर्ष का था तब हमने अज्ञेय को सागर विश्वाविद्यालय के छात्र संघ के उद्घघाटन के लिए बुलाया था, उससे हमारे विभागाध्यक्ष आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी इतने कुपित हुए कि वह कार्यक्रम में आये ही नहीं.

विश्वविद्यालय में उस समय एक केंटून्मेंट होता था, अंग्रेजो के समय में उनके सिपाही रहते थे. वहाँ बहुत ऊँचे-ऊँचे सुन्दर पेड़ थेलेकिन हमें उनके नाम नहीं मालूम थे. अज्ञेय ने देखा और बोले अरे आकाश नीम है यहाँ. हमने पहली बार ही जाना कि ये भी कोई पेड़ है. बाद में मुझे याद आया कि उनकी कविता में पंक्ति है.........झर-झर झरे आकाश नीम ..............तो यदि अज्ञेय की कविता का फूल-कोष या वनस्पति-कोष बनाया जाये तो वह हिन्दी के, बीसवीं शताब्दी के किसी भी कवि के मुकाबले बहुत बड़ा होगा. कहना कठिन है कि शमशेर को इतना मालूम थालेकिन शमशेर को जितना मालूम था उसे अपनी कविता में उड़ेल देने के प्रति उनका कोई उत्साह नहीं था.  उनके यहाँ बहुत चुने हुए शब्द हैं, बहुत सलेक्टिव चीजें हैं. हम लोगों ने जब लिखना शुरू ही किया था उन दिनों हिन्दी जगत में अज्ञेय और दूसरे लोगो में भयानक शाब्दिक युद्ध चल रहा था उसी समय हमारे मित्र और कवि श्रीकांत वर्मा और नरेश मेहता ने एक पत्रिका निकाली कृति उसमे एक विज्ञापन छपता था नई कविता के प्रथम नागरिक शमशेर बहादुर सिंह का प्रथम काव्य संग्रहहालाँकि वह अज्ञेय जी को चिढाने के लिए छापा जाता था, लेकिन एक अर्थ में ये ठीक भी थाक्योंकि नई कविता के सबसे पहले नागरिक तो शमशेर ही हैं. उन दिनों शमशेर ने जो कवितायें लिखी थी, शिला का खून पीती थी, और दूसरी कविताएं वैसी कविताएं कोई नहीं लिख रहा था, स्वंय अज्ञेय की भी उन दिनों की कविताएं छायावाद के प्रभाव में थी, उठ चल रे हारिल इत्यादि. शमशेर अपनी  कविताओं में एक abstract image गढते थे.

शमशेर ने कहा है कि मार्क्सवाद उनके लिए ऑक्सीजन की तरह था. मार्क्सवाद में उनकी प्रबल आस्था थी, इससे इंकार नहीं है. उनकी कविता का एक अन्तर्विरोध यह बताया जाता रहा है कि उनकी जो मार्क्सवादी आस्था है वह उनकी तथाकथित राजनैतिक कविताओं में व्यक्त  होती है, उनकी सौंदर्य परक कविताओं में व्यक्त नहीं होती. यह भी आरोप लगता था की हम जैसे कुछ कुख्यात कलावादी उनकी सौंदर्य परक प्रेम कविताओ पर ही आग्रह करके उनकी राजनीतिक या वैचारिक आस्था से  इंकार करते हैं, और हम यह कहते थे कि आप सिर्फ इनकी राजनैतिक कविताओं को ही ध्यान में क्यों रखते हो, उन कविताओं को ध्यान में क्यों नहीं रखते जो सौंदर्य और प्रेम की हैं, ये वाकयुद्ध बहुत दिनों तक चला.

शमशेर मार्क्सवाद में विश्वास करते थे इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन वो मार्क्सवादी कवि नहीं थे, मेरे हिसाब से मुक्तिबोध भी मार्क्सवादी कवि नहीं थे. कोई भी बड़ा लेखक वादी-विवादी या प्रवादी नहीं हो सकता. लेखक अपनी दृष्टि स्वयं विकसित करता है, अनेक चीजों से अपनी दृष्टि के विकास में सहायता ले सकता है. बड़ा लेखक वही है जो जरुरी होने पर अपनी आस्था का भी अतिक्रमण कर सके. वो बड़ा लेखक कैसे होगा जो अपनी आस्था के भीतर ही परिक्रमा करता रहे शमशेर के यहाँ जो सौंदर्य और प्रेम की आराधना है वह मार्क्सवाद की सामाजिक आस्था के तथाकथित चोंचलो से बिलकुल अलग करती  है. लेकिन वह मार्क्सवाद का विरोध नहीं करती हैं, इसे मार्क्सवाद के विरोध के रूप में नहीं देख सकते, बल्कि शमशेर द्वारा कविता में अपनी आस्था के बार बार अतिक्रमण के रूप में देखा जा सकता है. उन्हें महसूस होता है  मेरा जो अनुभव संसार है, मै जिस रूपसंसार की सृष्टि कर रहा हूँ  उसकी अभिव्यक्ति में  मेरी वैचारिक आस्था बहुत सहायक नहीं है.

स्वयं मार्क्स की बहुत गहरी सौंदर्य दृष्टि थी. यह बात वो सभी जानते  होंगे जिन्होंने मार्क्सवाद को पढ़ा होगा. मार्क्स के विचारधारा के पीछे जिन चीजों की प्रेरणा थी उसका बहुत बड़ा हिस्सा साहित्य का है. मार्क्स का चिंतन साहित्य से प्रेरित चिंतन है, उसके जो हीरो हैं वो शेक्सपियर और ग्रीक ट्रेजडी को लिखने वाले लोग हैं, और मार्क्स ने ऐसी  सौंदर्य -चेतना को सौंदर्य- संवेदना को खारिज नहीं किया हैं. मार्क्स को अपने चिन्तन  के अलावा अपने गद्य के लिए भी याद रखा जा सकता हैं, कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो तो अपने गद्य के लिए अप्रतिम है, अब उससे कितनी क्रांति हुई, ये अलग विषय है, लेकिन मार्क्स के गद्य के अतिरिक्त पश्चिमी परम्परा में नीत्शे और पास्कल का चिंतन ही ऐसा है जिसमे गद्य भी खिलता है.,जिसमे साहित्य भी   स्फुरित होता है. मुक्तिबोध को ही देखे, मुक्तिबोध ने अंतःकरण के अवधारणा को अपने वैचारिक दृष्टि में जोड़ा. मार्क्स के यहाँ अंतःकरण की कोई व्यवस्था नहीं थी, या अगर थोड़ी हो भी सकती थी  तो स्टालिन और लेनिन के  साम्यवादी समाज और वैचारिकता में तो बिलकुल भी नहीं थी.

ऐसे समय में जब ये व्यवस्थाएं अपने चरम पर थी और इनका बड़ा बौद्धिक और राजनैतिक आतंक समूचे संसार भर में था, मुक्तिबोध अन्तःकरण के आयतन के संक्षिप्त होने पर टिप्पणी करते हैं और मेरे हिसाब से मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र में अंतःकरण को जोड़कर उसे अधिक मानवीय और उदार बनाते हैं, और यह वही कर सकता है जिसकी अपनी वैचारिक आस्था तो हो लेकिन उसे और व्यापक बना सकने का साहस हो. विचारधारा  से कोई भी दिक्कत नहीं, दिक्कत तब होती है जब आप यह मान ले कि आपकी विचारदृष्टि ही एकमात्र दृष्टि  है. भारतीय स्वाधीनता संग्राम के समय गाँधीवादी विचारधारा बहुत प्रभावशाली थी, लगभग पूरे देश में फैली हुई थी, लेकिन प्रसाद  की दृष्टि या प्रेमचंद की दृष्टि  या निराला की दृष्टि, ये भी महान दृष्टियाँ थीं और यद्यपि ये स्वतंत्रता संग्राम के बुनियादी मूल्यों से प्रेरित और  सहमत थी, इनकी दृष्टियों को  सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम  या गाँधी-दृष्टि के आधार पर नहीं समझाया जा सकता. इसी तरह शमशेर और मुक्तिबोध को सिर्फ वैचारिक आस्थाओ के आधार पर नहीं समझाया जा सकता, उनको पढते समय उन स्थलों का भी ध्यान रखना होगा जहाँ ये अपनी वैचारिकता के आग्रह को छोड़ते हैं या उसका अतिक्रमण करते हैं, या उसमे कुछ इजाफा करते है इसी के आधार पर ये कहा जा सकता है कि शमशेर की मुक्तिबोध से भी दूरी है और अज्ञेय से भी दूरी है, और शमशेर की नागार्जुन और त्रिलोचन से भी उतनी ही दूरी है.

शमशेर की कविता बिलकुल अलग खड़ी कविता है, उसे आप प्रगतिशील ढांचे में रखकर देखेंगे तो समस्या होगी, गैर-प्रगतिशील ढांचे में रखकर देखा जायेगा तो भी समस्या होगी. बड़ा कवि वही है जो हमारे लिए दिक्कत पैदा करे. एक और बात  जो लक्ष्य की गयी है   कि शमशेर पर छायावाद का बहुत गहरा प्रभाव है, ऐसा माननेवालो की कमी नहीं जो कहते हैं कि छायावाद के चार कवियों का जीवन काल समाप्त हो गया तो छायावाद समाप्त हो गया. साहित्य में कुछ भी पूरी तरह से व्यतीत नहीं होता, साहित्य में कुछ भी पूरी तरह से अतीत नहीं होता. साहित्य में एक ही समय में भक्ति भी चलती रहती है, रीति भी चलती रहती है, छायावाद भी चलता रहता है. अज्ञेय और शमशेर की आरंभिक कविताओं में छायावाद का गहरा प्रभाव है. ये छायावादोत्तर कविता के विलोम हैं जिसने भावोच्छवास को कविता के शास्त्र के केंद्र में रख दिया था. छायावादोत्तर कविता भावोच्छवास की कविता थी, जहाँ  बुद्धि की जरुरत पर ही प्रश्नचिंह लगा दिया गया. बल्कि उन दिनों हिन्दी विभागों में बौद्धिकता की जम कर निंदा होती थी, जैसे कि छायावाद के बड़े कवि क्या बुद्धि के बिना ऐसा साहित्य रच सकते थे. प्रसाद जैसा बौद्धिक या निराला, महादेवी और पल्लव की भूमिका में पंतजी, ये सभी बौद्धिक व्यक्ति थे, ये परम बुद्धिजीवी थे जो बहुत सजग थे. बुद्धि के बगैर क्या साहित्य संभव है? तुलसीदास बगैर बौद्धिकता के इतना बड़ा महाकाव्य रच सकते थे? लिखने से पहले सारे पुराण, उपनिषद और समागम सब कुछ उन्होंने पी लिया था.

हिन्दी में विद्रोह के नाम पर सबसे बड़ा भ्रम छायावादोत्तर कविता ने फैलाया, स्वयं कबीर की कविता बौद्धिकता से भरी है,वह प्रश्न उठाती है, और अपने समय की धर्मसत्ताओ को चुनौती देती है, वह भी तब के हिन्दू धर्म की राजधानी काशी में. जो भ्रम छायावादोत्तर कविता ने पैदा किया था, उसे नई कविता ने तोडा और कह सकते हैं कि नई कविता ने हिन्दी की बौद्धिक परम्परा का पुनर्वास किया, जो छायावादोत्तर विचलन था उसे समाप्त किया. हमारे यहाँ दोनों तरह के कवि हैं. अज्ञेय और शमशेर बिना पश्चिम के संभव नहीं थे, और नागार्जुन और त्रिलोचन चाहे तो कह सकते हैं कि पश्चिम की ओर पीठ किये हुए कवि हैं, इससे उनका अंतर भर पैदा होता, इससे कोई नतीजा नहीं निकला जा सकता, पीठ पीछे करना भी कोई बहुत अच्छी बात नहीं मानी जा सकती.

कह सकते हैं कि पन्त का प्रकृति प्रेम,निराला के बहुत से तत्व और महादेवी की चित्रमयता ये सब शमशेर में एकत्र होते हैं. महादेवी  की कविताओं में शायद उतनी चित्रमयता नहीं है जो उनके चित्रों में हैं, यद्यपि बहुत अच्छी चित्रकार वह भी नहीं थीं.

शमशेर का जो आत्म विलोपन है उसमे कोई कमतरी का भाव नहीं है, मै कहना चाहता हूँ कि उसमे एक आध्यात्मिक  विलय हैं कि मै कुछ नही हूँ भक्त कवियों के बीतर एक अकिंचनता का भाव था, विराट के सम्मुख. शमशेर के यहाँ भी ऐसा ही भाव है. वृहत्तर सचाई के समक्ष अपने को अकिंचन अनुभव करना. शमशेर की कविता आपको पार ले जाने का दावा नहीं करती, उनकी कविता का कोई सन्देश नहीं है और शुक्र है की नहीं है. ऐसी कविताएं बहुत हो गयी है जो व्यर्थ का सन्देश देती रहती हैं, शमशेर की कविता का अगर कोई सन्देश है तो यही है कि एक खास  समय में मनुष्य होने का जो अर्थ है, समयातीत में भी मनुष्य होने का वही अर्थ बचा रहे. शमशेर के यहाँ ग्वालियर के मजूर का हृदय (यशाम है) ऐसी भी कविताएं हैं जिन्हें देख कर यह नहीं कह सकते की उनको समय की पहचान नहीं थी या अपने समाय से अपसरण कर गए थे. लेकिन असल में  एक वृहत्तर सचाई के प्रति  उनका जो भाव है उसी के आधार पर कहा जा सकता है कि शमशेर की कविता  नई कविता की विनय पत्रिका है.

अगर अज्ञेय,शमशेर और मुक्तिबोध की त्रयी को ध्यान में रखा जाये तो इनमे सबसे अधिक गैर-दुनियादार और लगभग संत शमशेर थे..सिर्फ कविता ही उनके लिए टूटी-बिखरी हुई नहीं है, लगभग उनका सारा जीवन ही टूटा-बिखरा हुआ है.,लेकिन अभाव का भी एक स्वाभिमान होता है.असल में एक तो ये होता है कि आप अपने अभाव कि जगह-जगह चर्चा करते रहे और ज़माने को कोसे कि मेरे साथ ऐसा हुआ-वैसा हुआ. लेकिन शमशेर की कविता में ऐसे अभावों की कोई अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि एक तरह से उस अभाव का स्वाभिमान ही व्यक्त होता है.

शमशेर के लिए हिन्दी समाज ने कुछ नहीं किया. वो उत्तर प्रदेश के थे, लेकिन वहाँ से एक भी सम्मान नहीं मिला. उनको जीवन में कुल चार पुरस्कार मिले, उसमे से तीन मध्य प्रदेश के थे. साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें बाद में मिला, मध्य प्रदेश साहित्य कला परिषद का पुरस्कार पहले मिला, ग्यारह हज़ार रुपये का. मेरी पत्नी रश्मि शमशेर को ताऊ कहती थी, शमशेर और नेमीचन्द्र जी बहुत दिनों तक साथ रहे, दोनों के बीच घरोपा था. रश्मि ने मुझसे कहा कि जरा ताऊ से पूछना कि ग्यारह हज़ार रुपयों का करेंगे क्या? ये ७२-७३ की बात है. मै जैसे तैसे उनके घर पहुँचा, कुल डेढ़ कमरों का मकान अजेय सिंह ओर शोभा  उनके साथ रहते थे. मै सीधे-सीधे पूछ भी नहीं सकता था, जैसे-तैसे बाते बनाते हुए मैंने पूछ लिया की शमशेर जी आपने इन ग्यारह हज़ार रुपयों के बारे में क्या सोचा है? शमशेर जी ने कहा ये शोभा घर में उब जाती है तो आठ हज़ार का टेलीविज़न सेट खरीद दूंगा इसके लिए.

जिस आदमी के पास खाने को नहीं है, इलाज कराने को नहीं है उसको अपने से ज्यादा दूसरे की ऊब की चिंता है. शमशेर ऐसे आदमी थे जो अपने अभाव के वावजूद अपनी उदारता से चूकते नहीं थे. अभाव की भी अपनी उदारता होती है ये मैंने शमशेर से जाना. दूसरी बात यह है कि उन्होंने अपने लिए कभी कोई रियायत नहीं मांगी या कभी उसका गिला- शिकवा नहीं किया. शमशेर को कुछ नहीं मिला. मध्य प्रदेश से मैथिलीशरण सम्मान और कबीर सम्मान मिला, लेकिन जिसके वो हक़दार थे वो नहीं मिला. यह कहते हुए मेरी आँख में आंसू आते हैं कि इतने बड़े कवि को इस समाज ने कुछ नहीं दिया, लेकिन इस कवि ने इसकी शिकायत किसी से नहीं की यहाँ तक हमलोग जो उनके बहुत निकट थे हमसे भी उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा. उनको अपने किये पर संदेह था, समाज पर संदेह  नहीं था. ये भी अभाव का एक अध्यात्म है कि जो कुछ है उसके जिम्मेदार हमी हैं कोई और नहीं है.

आखिरी बात- शमशेर के यहाँ अपार कोमलता है, छायावाद की जो बृहत्तर कोमलता ओर लालित्य है वह कहीँ न कहीँ शमशेर के यहाँ उत्तरजीवित है, बचा हुआ  है लेकिन उनकी सारी कविता एक तरह से विषाद की कविता है. उसमे अपने होने का गहरा अवसाद छाया हुआ है. शमशेर प्रेम के कवि कम प्रेम की असंभावना के कवि अधिक हैं. विश्वनाथ त्रिपाठी उचित ही कहते हैं कि नारी देह का इतना सुंदर चित्रण किसी और कवि ने नहीं किया जितना शमशेर ने किया, संस्कृत कवियों और संभवतः कुछ रीति कवियों के बाद शमशेर का ही नाम है. लेकिन इस सबके वाबजूद उनकी कविता को एक टूटे बिखरे हुए शोक-गीत की तरह भी पढ़ा जा सकता है.

शमशेर हमारे समय के बहुत बड़े कवि हैं, और बहुत दुःख के साथ कहना पडता है कि इस समय ने, समाज और हिन्दी अकादमिक जगत ने शमशेर की अवज्ञा की है. भवभूति तो पहले ही कह गए है कि मै भुजा उठा कर कहता हूँ कि कभी तो होगा कोई समानधर्मा क्योंकि काल निरवधि: है और पृथ्वी विपुल. तो कम से कम जन्मशताब्दी के बहाने ही सही शमशेर को देखना शुरू किया गया है, उन पर चर्चाएं हो रही हैं. जो हुआ सो हुआ लेकिन अब शमशेर को ध्यान से पढने की, उनको गुनने की जरूरत है. हर व्याख्या व्याख्या भी हो सकती है, अतिव्याख्या  भी हो सकती है.पाठ होते है, पुनर्पाठ भी होते हैं, अतिपाठ और कुपाठ भी होते हैं, और ये सभी पाठ के ही हिस्से हैं.   शमशेर को याद करने, समझने की जरुरत आज अधिक है.
____________



(पुनश्चर्या - ३०-०३-११, अलीगढ़ मुस्लिम  युनिवर्सिटी में दिए गए व्याख्यान को युवा रचनाकार परितोष मणि ने लगन से शब्दबद्ध किया है.)

22/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. शमशेर जी पर बहुत ही शोधपरक, विश्लेषणात्मक और महत्त्वपूर्ण व्याख्यान है यह..समालोचन का आभार साझा करने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  2. सचमुच अशोक बाजपेयी जी हमारे इस दौर के सबसे संतुलित आलोचक हैं। उनका सौन्दर्य बोध हमारे समाज की सच्ची छवि प्रस्तुत करता है। समालोचन को बधाई,इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  3. ''किसी भाषा के किसी शब्द के दूसरी भाषा में समतुल्य शब्द पाना कठिन नहीं होता,लेकिन दिक्कत यह है कविता सिर्फ शब्दों में नहीं ,शब्दों के बीच बसी चुप्पियों में भी होती है,इन चुप्पियों को दूसरी भाषा के शब्दों के बीच ठीक से तलाश कर पाना संभव नहीं हो पाता. ''अनुवाद पर इससे बेहतर टिप्पणी आज तक पढ़ने को नहीं मिली !विचारोत्तक एवं प्रवाहपूर्ण व्याख्यान !परितोष जी ,इस श्रेष्ठ व्याख्यान को बहुत लगन से शब्दबद्ध करने और अरुणजी आपको इसे हम पाठकों तक पहुँचाने के लिए बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. Ashok ji ke is shodhparak lekh ke liye Arun aapka aabhaar aur badhai!

    जवाब देंहटाएं
  5. man pulkit ho gaya. shamsherji ke prati sar shraddha se natmastak ho gaya. jaana ki abhaav ka bhi ek samman hota hai. dhanyvaad ek behad vishleshnatmk lekh ke liye. saadar. leena

    जवाब देंहटाएं
  6. सुन्दर प्रस्तुति ......धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. शमशेर सच में मौन के कवि हैं उनकी कविता पढ्चने के बाद आदमी अपने भीतर उतरता है. राख से लीपा हुआ चौका अप्रतिम कविता है...टुटी हुई बिखरी हुई तो क्लासिक ही है...

    जवाब देंहटाएं
  8. शमशेर के बारे में इतना स्पष्ट और गहरा लेख सिर्फ़ अशोक वाजपेयी ही लिख सकते हैं। स्वतंत्र रुप से सोचने और कहने का काम बहुत मुश्किल है लेकिन अशोक जी बहुत बार ऐसा करते हैं। इस लेख को पढ़वाने के लिए अरूण जी और इस लेख को श्ब्दबद्ध करने के लिए पारितोष मनि का आभार.

    जवाब देंहटाएं
  9. प्रभावशाली किंतु बहसतलब आलेख।

    जवाब देंहटाएं
  10. अशोक वाजपेयी के अथाह पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों, छद्मों को विद्वत्ता और भावुकता की लिजलिजी खोल में समेत कर पेश किया गया एक ऐसा आलेख जो कुछ भी नया नहीं कहता.'' शमशेर मार्क्सवाद में विश्वास करते थे इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन वो मार्क्सवादी कवि नहीं थे'' ऐसा सिर्फ वह ही कह सकते हैं. मानों मार्क्सवादी कवि होने का अर्थ कलाहीन होना हो...कला के होते ही कविता से मार्क्सवाद की विदाई हो जाती हो...

    जवाब देंहटाएं
  11. अशोक वाजपेयी मुझे विद्यार्थी जीवन से ही बहुत प्रिय हैं। अपने ढंग के एक खुलेपन,एक नयेपन तथा एक ख़ास ढंग में उनकी श्रृंगारित भाषा का अपना एक मोहपाश होता था। उनका दूसरा आकर्षण उनके बहु-पठित और बहु-श्रुत व्यक्तित्व से उभरता था जो मुझे खींचता था...। उनकी सक्रियता हिन्दी के अलावा विश्व-साहित्य और विश्व-कविता की सीमाओं को छूती है-इससे भी मुझे वे पसंद रहे हैं। वे संगीत और रूपंकर कलाओं की चित्रकला, मूर्तिकला जैसी की कई विधाओं के न केवल मर्मज्ञ हैं बल्कि उनके अपने बड़े सरोकार भी हैं - यह भी मुझे बहुत पसंद है - देवरिया और दिल्ली में जब था तो जनसत्ता में "कभी-कभार" नियम से पढ़ा करता था। अरुण ने ठीक कहा है कि अशोक वाजपेयी का नाम आते ही एक बड़े मानसिक धरातल पर भावों-अनुभावों की न जाने कैसी एक बुनावट-सी उभर आती है जिसे भाषा में निकटतम रूप से "बहुवचनात्मकता" ही कहा जा सकता है।

    परितोष के साथ तो बचपन और जवानी गुजरी है। यारों का यार है और साथ में गुप्त-रचनाकार भी। उसकी कलम की भी जय! जिसने अशोक जी के इतने विशद व्याख्यान को इतने सारगर्भित ढंग से पकड़ा।

    जवाब देंहटाएं
  12. शमशेर बहुत धीमी आवाज़ के कवि हैं और धीमी आवाज़ हमारे समय में सुनाई नहीं देती. इस समय संभवत मनुष्य के इतिहास में सबसे अधिक आवाज़ हो रही है और इधर मनुष्यों में एक नयी रति पैदा हो गयी है संवाद रति. यह समय विचित्र किस्म की आवाजों से घिरा समय है और इस अर्थ में खराब समय है. ऐसे में शमशेर की कविता उनकी आवाज़ अनसुनी जा सकती है. ashok ji ke is aalekh ne samser ke jiwan ke naye phaluwo se parichay karaya. arun aavar aapka

    जवाब देंहटाएं
  13. सुशील कृष्ण गोरे11 जून 2011, 7:23:00 pm

    ऊपर एक पोस्ट में अशोक जी पर अशोक जी ने कुछ कहा है। अशोक वाजपेयी ही क्यों,कइयों पर कलावाद का पोषक होने के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन यह भी है कि हर साहित्यिक रचना में मार्क्सवाद के यांत्रिक आरोपण का रेलिजन चलाने वाले भी कम जिद्दी नहीं हैं। उनका यह अतिरेक अगर साहित्य को वैचारिकी के एक स्ट्रेट-जैकेट में जकड़ना चाहता है तो वहीं यह भी लगता है कि कलावादियों की प्रतिभा अक्सर उसे एक रोमांटिक अनुशासन में ढालती रहती है। दोनों धाराओं के अपने-अपने यूटोपिया हैं। दोनों के अपने-अपने पूर्वग्रह भी।
    सुशील

    जवाब देंहटाएं
  14. अभय जी ने फेसबुक पर शेयर किया था, इस लेख पर वहीं से आया, पढ़कर अच्छा लगा! बावजूद कि आलोचक की सहृदयता जब आवाज की तरंग दैर्ध्य नापने लगे, तो कुछ अस्वाभाविक भी लगता है, तथापि यह कहने में गुरेज नहीं कि इस लेख से शमशेर को समझने/समझाने की सुंदर कोशिश हुई है। अंतिम के कुछेक पैराग्राफ भावुक करने वाले हैं, बड़े कवि के साथ बड़े व्यक्तित्व पर केंद्रित! आभार !!

    जवाब देंहटाएं
  15. सुशील भाई, वैसे इसके बरक्स कलावादी प्रवंचना और प्रलाप की बंजर जिद की भी कमी नहीं है. कोई प्रवंचक ही यह कह सकता है कि 'शमशेर मार्क्सवाद में विश्वास करते थे इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन वो मार्क्सवादी कवि नहीं थे' जिसका सीधा मतलब हुआ कि 'शमशेर या तो विचार के प्रति बेईमान थे या कविता के'....शमशेर को मैंने भी गुना है और जानता हूँ कि अंतिम संकलन तक उनकी निष्ठा कहाँ रही.

    जवाब देंहटाएं
  16. जो लोग शमशेर को कलावादी या फिर ‘हृदय से कलावादी लेकिन चेतना के स्तर पर वामपंथ के साथ’ जैसी उपमाओं से नवाजते हैं वे दरअसल उनके इसी गरिमामयी मौन का फायदा उठा रहे होते हैं। एक ‘वाम-वाम-वाम दिशा, समय साम्यवादी’ को छोड़ दें तो उनके काव्य में गर्जन-तर्जन नहीं है। उनका विरोध भी एक ख़ास तरह की काव्य गरिमा के साथ सामने आता है। उन्हें हर कविता में अपने ‘वामपंथी’ होने या फिर कविता से केवल ‘प्रत्यक्ष प्रतिरोध के हथियार’ का काम लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जब वह प्रेम पर लिख रहे होते हैं तो एक सहृदय और सहयात्री प्रेमी होते हैं, प्रकृति पर लिखते हुए वह प्रकृति के चितेरे हैं कला में डूबते हुए वह रंगो की दुनिया के वासी हैं जहां शब्द ऐसे बरते जाते हैं मानों मद्धिम रंग और यह सब करते हुए उनका मुक्तिकामी और प्रगतिशील कवि लगातार अपने समय के साथ लगातार संघर्षरत भी है। जिन कविताओं में वह मुखर तौर पर इन विसंगतियों पर बात करते हैं वे भी अपनी पूरी कलात्मकता के साथ आती हैं। यह आलोचकों का पूर्वाग्रह ही है कि अक्सर वे इन कविताओं को ‘अपेक्षाकृत कमज़ोर’ कहकर ख़ारिज़ करते हैं- मानो प्रेमगीत और रणभेरी में तुलना की जा सके, मानों पेंटिंग और पोस्टर में तुलना की जा सके, मानो इनमे से किसी एक को दूसरे से निरपेक्ष तौर पर बेहतर बताया जा सके!

    जवाब देंहटाएं
  17. उनकी एक कविता है ‘घिर गया है समय का रथ’ … यहां समय भी है और उसका अद्भुत कलात्मक चित्रण भी। कविता का आरंभ रात के चित्रण से होता है। लेकिन वह काली रात ‘मौन संध्या का दिये टीका’ आती है ‘चमकते तारे लजाते हैं’ और फिर

    भेद ऊषा ने दिए सब खोल
    हृदय के कुल भाव
    रात्रि के अनमोल
    दुख कढ़ता सजल, झलमल
    आंख मलता पूर्व स्रोत

    पुनः जगती जो।
    आप देखें तो इस कविता का एक असावधान या अंतिम खण्ड को छोड़कर किया गया पाठ आपको ‘कला की मौन एकांतिक साधना सा कुछ’ लग सकता है। प्रकृति का कूचियों से किया चित्रण। लेकिन कविता जब आगे बढ़ती है और कहती है कि

    घिर गया है समय का रथ कहीं
    लालिमा से मढ़ गया है राग
    भावना की तुंग लहरें
    पंथ अपना, अंत अपना जान
    रोलती हैं मुक्ति के उद्गार

    तो यह एंटीक्लाईमेक्स नहीं कविता का सहज पाथेय है। कविता वहीं पहुंचती है जहां उसे पहुंचना था लेकिन अपनी ‘शमशेरियत’ के साथ, उस गरिमापूर्ण मौन के साथ जिससे संयुक्त एक गंभीर शब्द हज़ार-हज़ार नारों और भयावह गर्जन-तर्जन से अधिक प्रभावी है। जो ‘निर्वात में एकालाप’ की तरह नहीं बल्कि जुलूस में साथी की तरह आपके पास आता है, किसी कुमार गंधर्व की नाद की तरह आपके भीतर उतरता है और अपनी स्थाई जगह बना लेता है। ऐसे ही ग्वालियर में मज़दूरों की नृशंष हत्या के क्षोभ से उपजी उनकी कविता ‘ य’ शाम है’ ऐसी विषम परिस्थिति में न तो आपा खोकर विलाप करती है न ही असंतुलित क्रोध का प्रदर्शन। वह उस पूरे क्षोभ, उस पूरे क्रोध को एक परिपक्व कविता की शक़्ल में दर्ज़ करती है अपने परिवर्तनकामी सौंदर्यबोध के साथ-

    ‘ य’ शाम है
    कि आसमान खेत है पके हुए अनाज़ का
    लपक पड़ी लहू-भरी दरांतियां
    कि आग है
    धुआं-धुआं सुलग रहा
    ग्वालियर के मज़ूर का हृदय’-

    क्या एक कलाकार अपने प्रतिरोध को रंगो और गंध के साथ दर्ज़ नहीं कर सकता!

    और शमशेर की ऐसी कवितायें ढूंढ़ने के लिये उनके जीवनकाल में प्रकाशित किसी भी कविता संकलन में विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता- हां उनके बाद प्रकाशित संकलनों में आपको मुश्किल हो सकती है। उदाहरण के लिये रंजना अरगड़े द्वारा संपादित संकलन ‘कहीं दूर से सुन रहा हूं’ ( राधाकृष्ण प्रकाशन, 1995) में 1938-39 से 1992 की उनकी अंतिम कविता लिखे जाने के लंबे या लगभग संपूर्ण रचनाकाल से संकलित उनकी कविताओं में न ‘काल तुझसे होड़ मेरी है’ है, न ‘लेनिनग्राद’, न ‘अफ्रीका’ और न ‘बात बोलेगी’ – पूर्वोद्धृत कविताओं को तो जाने ही दें। यही नहीं, शमशेर ने अपने तमाम समकालीनों पर जो कवितायें लिखीं हैं उनमें से भी सिर्फ़ एक का चयन किया गया है- अज्ञेय का! वह भी ‘अज्ञेय से’ नहीं जहां वह मौज़ में कहते हैं- ‘जो नहीं है/जैसे कि सुरुचि/उसका ग़म क्या? वह नहीं है’ अपितु वहां है- ‘सादर अज्ञेय के जन्मदिवस पर समर्पित’ कविता है! ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’, त्रिलोचन के लिये लिखी ‘सारनाथ की एक शाम’, नागार्जुन के लिये लिखी कवितायें न देकर सिर्फ़ अज्ञेय को सम्मान देने की यह कहानी उस शमशेर से उसकी शमशेरियत छीन लेने का प्रयास है जो कहता है कि
    क्रांतियां, कम्यून
    कम्यूनिस्ट समाज के
    नाना कला विज्ञान और दर्शन के
    जीवंत वैभव से समन्वित
    व्यक्ति मैं

    और ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ कविता का यह अंश उनके ‘युवपन के वामपंथी ज्वर’ का असर नहीं है- यह कविता अस्सी के दशक में लिखी गयी थी, उनके जीवन के उत्तरार्ध में। इकहत्तर साल की उम्र में वह कह रहे थे- ''राह तो एक थी हम दोनों की:आप किधर से आए-गए!- हम जो लुट गए पिट गए, आप जो, राजभवन में पाए गए!'' और यह भी कि इसी दौर में वह प्रेम और सौंदर्य की अप्रतिम कवितायें भी रच रहे थे। कोई संकलन जिससे ‘एक ठोस बदन अष्टधातु का’ जैसी उनकी सारी प्रेम कवितायें बहिष्कृत कर दी जायें वह भी उतना ही एकांगी और बेईमान होगा।

    जवाब देंहटाएं
  18. वाकई अशोक वाजपेयी का शमशेर पर दिया गया यह व्‍याख्‍यान उनकी समग्र कवि-आभा को समूची समावेशिता में आकलित करता है। साधुवाद इसके प्रस्‍तुतीकरण के लिए परितोषमणि को ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.