सहजि सहजि गुन रमैं : अशोक कुमार पाण्डेय






अशोक कुमार पाण्डेय की कविताएँ अपने समय और समाज के सवालों की कविताएँ हैं. सत्ता के मनुष्य विरोधी तंत्र और आम जन की यातनाओं के ब्यौरे कविता को धारदार बनाते हैं. कविता की इस समझ और सरोकार के पीछे के वैचारिक आधार की परिधि विस्तृत है. आख्यान और स्मृति से रची–बसी अपेक्षाकृत ये लम्बी कविताएँ निरी खबर की कविताएँ नहीं हैं, यहाँ भाषा की सृजनात्मकता और सृजन का काव्यत्व भरपूर है.  

पेंटिग : पिकासो

अजनबी          



अजनबी था वह चेहरा जिसे देखकर अपनी याद आती थी

जिन आँखों से उम्मीद के सागर छलकते थे, अजनबी थीं

वह बूढ़ा जिसकी झुर्रियों से पिता झलकते थे, अजनबी था
जिस बच्ची की देह से बिटिया की महक आती थी, अजनबी थी वह मेरे लिए
जिस शहर से चला था वह भी और जहाँ जाना था वह भी अजनबी
इस अजनबियत के बीच इतना अकेला मैं
जितनी कि सामने शीशे के ठीक ऊपर लगी वह चेतावनी
‘अजनबियों से सावधान’

वह जो ठीक मेरे पैरों के पास धरी मैली-कुचैली गठरी
बम हो सकता था उसमें
मेरे सिर के ठीक ऊपर रखा रैक में जो ब्रीफकेस बंधा रस्सियों से
बम हो सकता था उसमें
या फिर मानव बम हो सकती थी वह बच्ची जिसकी महक बिल्कुल मेरी बिटिया सी
वह जिसकी खिचड़ी दाढ़ी से झलकता जिसका मजहब
कौन जाने अगले स्टाप पर पुलिस हो उसके इंतज़ार में
वह जिसके ढलकते पल्लू पर गिर-गिर पड़ रही थीं निगाहें तमाम
कौन जाने अभी रिवाल्वर निकाल कर अपहृत ही कर ले सारी बस को
कौन जाने ज़हर कौन सा हो इस चने में
जिसे पाँच रुपये में मुझे देने को बेक़रार वह लड़का बमुश्किलन सात साल का

इतने चेहरे अखबारों के पन्ने से निकलकर तैरते हुए इस उमस में
इतनी आवाजें चैनलों के जंगल से निकल फैलतीं इस बियाबान में

चुप्पियाँ यह कैसी जो पसरती जातीं इस कदर भय की तरह भीतर
यह कैसा वीराना आवाजों के इस उजाड जंगल के बीच जो करता मुझे अकेला इस कदर
यह कैसा भय पसलियों के बीच दर्द सा रिसता दिन-रात

यह कैसी सावधानियाँ कि इस सामूहिक निगाह में बनता जाता मैं और-और अजनबी

बेहतर इससे कि खा ही लूँ चने आज जो खा रहे सब जून की इस दुपहरी में
और मरना ही हो तो मर जाऊं इस भीड़ के हिस्से की तरह.



दक्खिन टोले से कविता            

क़त्ल की उस सर्द अंधेरी रात
हसन-हुसैन की याद में छलनी सीनों के करुण विलापों के बीच
जिस अनाम गाँव में जन्मा मैं
किसी शेषनाग के फन का सहारा हासिल नहीं था उसे
किसी देव की जटा से नहीं निकली थी उसके पास से बहने वाली नदी
किसी राजा का कोई सिंहासन दफन नहीं था उसकी मिट्टी में
यहाँ तक कि किसी गिरमिटिये ने भी कभी लौटकर नहीं तलाशीं उस धरती में अपनी जड़ें

कहने को कुछ बुजुर्ग कहते थे कि
गुजरा था वहाँ से फाह्यान और कार्तिक पूर्णिमा के मेले का ज़िक्र था उसके यात्रा विवरणों में
लेकिन न उनमें से किसी ने पढ़ी थी वह किताब
न उसे पढते हुए कहीं मुझे मिला कोई ज़िक्र

इस क़दर नाराज़गी इतिहास की
कि कमबख्त इमरजेंसी भी लगी तो मेरे जन्म के छः महीने बाद
वैसे धोखा तो जन्म के दिन से ही शुरू हो गया था
दो दिन बाद जन्मता तो लाल किले पर समारोह का भ्रम पाल सकता था
इस तरह जल्दबाजी मिली विरासत में
और इतिहास बनने से चुक जाने की नियति भी....

::

वह टूटने का दौर था
पिछली सदी के जतन से गढे मुजस्सिमों और इस सदी के तमाम भ्रमों के टूटने का दौर

कितना कुछ टूटा

अयोध्या में एक मस्जिद टूटने के बहुत पहले इलाहाबाद रेडियो स्टेशन के किसी गलियारे में जवान रसूलन बाई की आदमकद तस्वीर के सामने चूडिहारन रसूलन बाई खड़े-खड़े टूट रही थीं. सिद्धेश्वरी तब तक देवी बन चुकीं थी और रसूलन बाई की बाई रहीं.

यह प्यासा के बाद और गोधरा के पहले का वाकया है...

बारह साल जेल में रहकर लौटे श्याम बिहारी त्रिपाठी खँडहर में तबदील होते अपने घर से निकल साइकल से ‘लोक लहर’ बांटते हुए चाय की दुकान पर हमसे कह रहे थे ‘हम तो हार कर फिर लौट आये उसी पार्टी में, तुम लोगों की उम्र है, हारना मत बच्चा कामरेड....और हम उदास हाँथ उनके हाथों में दिए मुस्करा रहे थे.  

यह नक्सलबाडी के बाद और सोवियत संघ के बिखरने के ठीक पहले का वाकया है...

इस टूटने के बीच
हम कुछ बनाने को बजिद थे
हमारी आँखों में कुछ जाले थे
हमारे होठों पर कुछ अस्पष्ट बुद्बुदाहटे थीं

और तिलंगाना से नक्सलबाडी होते हुए हमारे कन्धों पर सवार इतिहास का एक रौशन पन्ना था जिसकी पूरी देह पर हार और उम्मीद के जुड़वा अक्षर छपे थे. सात रंग का समाजवाद था जो अपना पूरा चक्र घूमने के बाद सफ़ेद हो चुका था. एक और क्रान्ति थी संसद भवन के भीतर सतमासे शिशु की तरह दम तोडती. इन सबके बीच एक फ़िल्म थी इन्कलाब जिसका नायक तीन घंटों में दुनिया बदलने के तमाम कामयाब नुस्खों से गुजरता हुआ नाचते-गाते संसद के गलियारों तक पहुँच चुका था.

एक और सीरियल था जिसे रोका रखा गया कई महीनों कि उसके नायक के सिर का गंजा हिस्सा बिल्कुल उस नेता से मिलता था जिसने हिमालय की बर्फ में बेजान पड़ी एक तोप को उत्तर प्रदेश के उस इंटर कालेज के मैदान में ला खड़ा किया था जिसमें अपने कन्धों से ट्रालियां खींचते हम दोस्तों ने पहली बार परिवर्तन का वर्जित फल चखा था. वह हमारे बिल्कुल करीब था...इतना कि उस रात उसकी छायाएँ हमसे गलबहियाँ कर रहीं थीं और हम एक फकीर को राजा में तबदील होते हुए देख रहे थे जैसे तहरीर को तस्वीर होते देखा हमने वर्षों बाद....

फिर एक रोज हास्टल के अध-अँधेरे कमरे में अपनी पहली शराबें पीते हुए हमने याद किया उन दिनों को जब अठारह से पहले ही नकली नामों से उँगलियों में नीले दाग लगवाए हमने और फिर भावुक हुए...रोए...चीखे...चिल्लाये...और कितनी-कितनी रातों सो नहीं पाए...

वे जागते रहने के बरस थे
जो बदल रहा था वह कहीं गहरे हमारे भीतर भी था
बेस्वाद कोका कोला की पहली बोतलें पीते
हम एक साथ गर्वोन्नत और शर्मिन्दा थे
जब अर्थशास्त्र की कक्षा में पहली बार पूछा किसी ने विनिवेश का मतलब
तो तीसेक साल पुराने रजिस्टर के पन्ने अभिशप्त आत्मा की तरह फडफडाये एक बारगी
और फिर दफन हो गए कहीं अपने ही भीतर
पुराने पन्ने पौराणिक पंक्षी नहीं होते
उनकी राख में आग भी नहीं रहती देर तक
झाडू के चंद अनमने तानों से बिखर जाते हैं हमेशा के लिए
वे बिखरे तो बिखर गया कितना कुछ भीतर-बाहर ....
 
और बिखरने का मतलब हमेशा मोतियों की माला का बिखरना नहीं होता न ही किसी पेशानी पर बिखर जाना जुल्फों का टूटे थर्मामीटर से बिखरते पारे जैसा भी बिखरता है बहुत कुछ.

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सब कुछ बदल रहा था इतनी तेजी से
कि अकसर रात को देखे सपने भोर होते-होते बदल जाते थे
और कई बार दोपहर होते-होते हम खिलाफ खड़े होते उनके
हम जवाबों की तलाश में भटक रहे थे
सड़कों पर, किताबों में, कविताओं में
और जवाब जो थे वे बस सिगरेट के फ़िल्टर की तरह
बहुत थोड़ी सी गर्द साफ़ करते हुए...
और बहुत सारा ज़हर भीतर भरते हुए हम नीलकंठ हुए जा रहे थे

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इतना ज़हर लिए हमें पार करनी थी उम्र की दहलीज
जहाँ प्रेम था हमारे इंतज़ार में
जहाँ एक नई दुनिया थी अपने तमाम जबड़े फैलाए
जहाँ बनिए की दुकान थी, सिगरेट के उधार थे
ज़रूरतों का सौदा बिछाये अनगिनत बाज़ार थे
हमें गुजरना था वहाँ से और खरीदार भी होना था
इन्हीं वक्तों में हमें नींद ए बेख्वाब भी सोना था

और फिर…उजाड़ दफ्तरों में बिकी हमारी प्रतिभायें
अखबारों के पन्ने काले करते उड़े हमारे बालों के रंग

वह ज़हर ही था हमारी आत्मा का अमृत
वह ज़हर ही था नारों की शक्ल में गूंजता हमारे भीतर कहीं
वह ज़हर ही था किसी दंतेवाड़ा के साथ धधक उठता
वह ज़हर ही था किसी सीमा आज़ाद के साथ उदास
वह ज़हर ही था कविताओं की शक्ल में उतरता हमारी आँखों से

हाँ, हम लगभग अभिशप्त हुए कवि होते जाने को. आजादी की तलाश में हम एक ऎसी दुनिया में आये जहाँ एक बहुत पुराना गाँव रहता था अपनी पूरी आन-बान के साथ. ढेर सारे कुल-कुनबे थे और चली ही आ रही थी उनकी रीत. आलोचक थे, संपादक थे, निर्णायक थे, विभागाध्यक्ष थे, पीठाध्यक्ष थे और इन पञ्च परमेश्वरों के सम्मुख हाथ जोड़े सर्वहारा कवियों की एक पूरी जमात जिनका सब कुछ हरने के बाद उन्हें पुरस्कार दे दिए जाते थे. पंचों की आलोचना वर्जित रीत थी और मौत से कम किसी सज़ा का प्रावधान नहीं था उस अलिखित संविधान में. हैरान आँखों से देखते-समझते सब हम जा बसे दक्खिन टोले में.

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और
पूरा हुआ जीवन का एक चक्र
खुद को छलते हुए खुद की ही जादूगरी से
बीस से चालीस के हुए और अब शराब के खुमार में भी नहीं आते आंसूं
डर लगता है कि कहीं किसी रोज कह ही न बैठें किसी से
कि ऐसे ही चलती रही है दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी
और
और ज़ोर-ज़ोर से कहने लगते हैं
बदलती ही रही है दुनिया और बदलती रहेगी…



विस्थापित का  बयान      

हम एक घर चाहते थे सुरक्षित
हमसे कहा गया राजगृह में एक आदमी तुम्हारा भी है
तुम्हारी कमजोर भुजाओं में जो मछलियाँ हैं मरी हुईं
उस आदमी की आँखों में तैर रही हैं देखो
वह तुम्हारा आदमी है, उसका रंग तुम्हारे जैसा
इत्र न लगाए तो उसकी गंध तुम्हारे जैसी
तुम्हारे जैसा नाम तुम्हारे घर का ही पता उसका पुश्तैनी
वह सुरक्षित तो तुम सुरक्षित
वह अरक्षित तो तुम अरक्षित

इस विशाल महादेश में हम एक कोना चाहते थे अपने सपनों के लिए
हमसे कहा गया कि अयोध्या के राजकुमार की कथा में ही शामिल है सबकी कथा
वहीं सुरक्षित है इतिहास का एक अध्याय तुम्हारे लिए भी
और वहीं किसी कोने में संरक्षित तुम्हारे स्वप्न
क्या हुआ जो बचपन में नहीं सुनीं तुमने चौपाइयाँ
क्या हुआ कि राजा बलि के प्रतीक चिन्ह बनाते रहे तुम अपनी दीवारों पर
क्या हुआ कि तुम्हारे गाँव के डीह बाबा का चौरा ही रहा तुम्हारा काशी-मथुरा
हृदय है यह इस महादेश का
इसमें ही शामिल सारे देव-देवता - इसी कथा से निसृत सारी उपकथाएँ
यही तुम्हारी भाषा-बानी

जबकि हम जो बोलते थे वह राजभाषा से कोसों दूर थी
हम जो गाते थे वह नहीं था राष्ट्रगीत
हम जिन्हें पूजते थे नहीं चाहिए था उन्हें कोई मंदिर भव्य
दो मुट्ठी धान और कच्ची दारू से संतुष्ट हमारे देव
महज एक नौकरी के लिए चले आये थे हम छोड़कर अपना देस इस महादेश में
हमारा देस था जो उसकी कोई राजधानी नहीं थी
हमें दो जून की रोटी चाहिए थी, सर पर एक छत और थोड़े से सपने
जिसके लिए मान लिया हमने वह सबकुछ जो सिखाया गया स्कूलों में
और बिना सवाल किए उगलते रहे उसे जहाँ-तहाँ

अजीब से हमारे नाम दर्ज हुए किन-किन सूचियों में
हमसे जब पूछी गयी हमारी भाषा हमने हिन्दी कहा और माँ की ओर देख नहीं पाए कितने दिन
हमसे जब पूछा गया हमारे देश का नाम हिन्दुस्तान कहा और पुरखों की याद कर आंसूं भर आये
हमने समझाया खुद को समंदर होने के लिए भूलना पड़ता है नदी होना
हमारे भीतर की किसी धार ने कहा
वह कौन सा समंदर जिसके आगोश में बाँझ हो जाती हैं नदियाँ ?

तुलसी की चौपाइयाँ रटते अपने बच्चों को हम सुनाना चाहते थे जंगलों की कहानियाँ कुछ
उनकी पैदाइश पर चुपके से गुड़-रोट का प्रसाद चढ़ा आना चाहते थे चौरे पर
कंधे पर ले उन्हें सुनाना चाहते थे किसी गड़ेरिये का रचा कोई गीत
धान की दुधही बालियाँ निचोड़ देना चाहते थे उनके अंखुआते होठों पर
भोर की मारी सिधरी भूज कर रख देना चाहते थे कलेऊ में

किसी रात ताड़ की उतारी शराब में मदहोश हो नाचना चाहते थे अपनी प्रेमिकाओं के साथ
सात समंदर पार से आई किसी चिड़िया के उतारे पर खोंस देना चाहते थे उनकी लटों में
जंगलों की किसी खामोश तनहाई में चूम लेना चाहते थे उनके ललछौहे होंठ
और अपनी मरी हुई मछलियों वाली उदास बाहों में गोद लेना चाहते थे उनके नाम

कोई देश नहीं था जिसे चाहते थे हम अपनी जेबों में
किसी गड़े हुए खजाने की रक्षा करते बूढ़े सर्प की तरह नहीं जीना चाहते थे हम
इस हज़ार रंगों वाली दुनिया में सिर्फ एक रंग बचाना चाहते थे जो पुरखों न कर दिया था हमारे हवाले
पर कहा गया हमसे कि बस तीन रंग है इस देश के झंडे में

अपनी लाल-पीली-हरी-नीली-बदरंग कतरने सजाये इसी भाषा में लिखी हमने कविताएँ
पर कहा गया यह नहीं है हमारी परम्परा के अनुरूप
इसमें जो ज़िक्र है महुए और ताडी और मछलियों और जंगलों और पहाड़ों और कमजर्फ देवताओं का
वह सब नहीं हैं कविता की दुनिया के वासी उन्हें विस्थापित करो

लाल को लाल लिखो वैसे जैसे लिखते हैं हम
आसमान को नीला कहो तो बस नीला कहो 
बादल हों तो भी धूप हो तो भी कुछ न हो तब भी
कुछ इस तरह कहो नीला कि आसमान न लिखा हो तो भी समझा जाए आसमान
समंदर सा गहरा तो भी उसे हिमालय से ऊंचा कहा जाए अगर नीला कह दिया गया हो उसे
जो नीला हो उसे कुछ और कहने की आजादी कुफ्र है
जो आसमान हो उसे कुछ और न कहो नीले के सिवा

हमने देखे थे काले पक्षियों और सफ़ेद बादलों से भरे आसमान
हमने लिखा और पंक्षियों की तरह विस्थापित हुए
हमने देखे थे महुए से टपकते रंग
हमने दर्ज किया और इस तरह तर्क हुई हमारी नागरिकता
हमारी स्मृतियाँ हमारे निर्वासन का सबब थीं और हमारे सपने हमारी मजबूरियों के
हमारी कविता राजपथ पर हथियार ढोते रथों के पहियों का शिकार हुई
जिनके ठीक पीछे चली आ रही थी हमारी स्मृतियों की कुछ क्रूर अनुकृतियां

हम क्या कहते
उन रथों पर हमारा ही एक आदमी था सैल्यूट मारता इस महादेश को.

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अशोक की कहानी और लेख यहाँ पढ़े जा सकते हैं 
ashokk34@gmail.com 
  

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  1. बेहतर इस से कि खा लूँ चने आज खा रहे सब जून कि दोपहरी में
    और मरना ही है तो मर जाऊं इस भीड़ के हिस्से की तरह ...कितनी मार्मिक व्यंजना .. असल में इन कविताओं को कमेन्ट भर में तब समेटा जाए जब इनमे व्यक्त गहन अनुभूतियों, फ़िक्रों से बाहर तो निकला जाए ..अद्भुत ..अरुण जी आपका हार्दिक आभार मित्र ..भाई को बहुत बहुत आशीष ....

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  2. अशोक की कविताएं पहले आपके भीतर विचारों की सुप्त धारा को जीवन देती है, कुछ समय बाद वे आपको मथने लगती हैं और अंततः वे हमें आशा के उस मुहाने पर छोडती है , जहाँ से नया सवेरा दिखाई देता है ..."डर लगता है कहीं किसी रोज कह ही ना बैठें किसी से / ऐसे ही चलती रही है दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी /और /और जोर-जोर से कहने लगते हैं / बदलती ही रही है दुनिया और बदलती रहेगी.." .... अजनबी कविता का अंत भी वहाँ होता है, जहाँ विश्वास और आशा के लिए जान देने को भी कवि तैयार मिलता है..कम से कम यह मलाल तो नहीं रहता कि हम तो आदमी की तरह जिए ही नहीं ..|कविताओं में कहने से अधिक छिपाने की कला में माहिर 'स्वनामधन्य'लोगों को अशोक की कवितायें "आलोक धन्वा" के शब्दों में "कविता में मेरा आना उन्हें एक अश्लील उत्पाद लगा " जैसी प्रतीत हो सकती है लेकिन समय की कसौटी पर न तो अशोक को और न ही उनके मित्रों को सफाई देने के लिए खड़ा होना पड़ेगा , कि इसे 'ऐसा' नहीं वरन 'वैसा' समझा गया ....हम गर्व से ऐसी कविताओं की तारीफ कर सकते है , बिना इसकी परवाह किये जाँचने वालों के 'मापक-यंत्र'में यह समाती है या नहीं ...

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  3. ऊपर दिखी पहले पिकासो की ये तस्वीर जिसकी हर किरिच किसी अजनबीपन से ढंकी हुई जान पड़ी और ठीक इसके नीचे परत -दर -परत ,कविताएँ नहीं जैसे जीवन का बहता पानी रिसता नज़र आया . अशोक के पास जीवन के संघर्षों को देखने की आँख भर नहीं है बल्कि वह गहरी संवेदना भी है जो कवि से होती हुई जनता में व्याप जाती है . अशोक को बहुत-बहुत बधाई और अरुण का आभार

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  4. दहशतजदा इंसान कहाँ तो पहुँच सकता है, कि अपने आप से कैसे मिलता है , किसी अजनबी कि तरह कि अपने आप से भी सावधान |दहशत वहशत ,शंका संदेह घोर अविश्वास को रचती और फिर एक झटके पुर्जा पुर्जा बिखराती इन् गैर इंसानी तजुर्बों को ,इक झटके में कविता आम आदमी कि जिंदगी में लौट आती है जो बेहतर है , चने खाती ,बोलती बतियाती ,बिलकुल आम आदमी कि तरह जीना (मरना ) चाहती जिंदगी बिलकुल जिन्दा मिसालों से अहसासात से गुजरती कविता .....और क्या कहू .....चने खाने के साथ साथ .. कि साथ साथ ऐसे ही चने खाते रहे बस |.....(मैं अशोक से अजनबी नहीं रहा ०)

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  5. इसी भावभूमि पे कुछ लिखा था एक शेर इस कविता को नज्र......
    इतनी दहशत है कि तारी / वो अजनबी लगने लगे
    पहले एकाधा लगे थे /अब सब के सब लगने लगे ...

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  6. ग़ज़ब मारक. अशोक की लेखनी ....शब्द पहुँचते हैं हर उस जगह जहाँ थोड़ी भी संवेदना और परिवर्तन की संभावना बची है...नींद से उठाती हैं ये कविताएँ अपनी सच्चाई से... लफ्फाज़ी भरे शिल्प... - कुशिल्प के बीच झूलती उन सतही कहानियों और कविताओं के इस कनफ्यूज़ करते माहौल में ...अशोक निसन्देह उल्लेखनीय हैं.

    उन तथाकथित नामी नामों पर
    तब बहुत गुस्सा आता है
    जब नए सशक्त हस्ताक्षरों के नाम
    उनके सामने लूँ और वे कहें...
    ये किस का नाम ले दिया...
    क्या करूँ
    आजकल मुझे बड़े नामों की
    हिप्पोक्रेसी पर बहुत गुस्सा आता है.

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  7. तीनों कविताएं अलग-अलग होते हुए भी अलग नहीं हैं. एक ही आख्यान है, जिसके ऊपर से अलग दिखते ये उप-आख्यान एक बेहद महीन धागे से जुड़े हुए हैं. अभी इसमें और काफ़ी कुछ जुड़ना शेष है. बीच-बीच में बिना आहट के गद्य जब प्रवेश करता है, तो देर तक पता ही नहीं चलता, संभवतः इस वजह से ही की उससे कविता की कविताई का क्षरण नहीं होता, बल्कि इसके उलट, प्रभाव और सघन हो जाता है. अशोक से हम सबकी उम्मीदें बढ़ते चले जाने के पीछे जो करक काम करता दिख रहा है, वह है उसकी दृष्टि की स्पष्टता, और ताज़गीभरा मुहावरा घड़ लेने की क्षमता.

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  8. .............भरोसे के बिना हर कोई एक-दूसरे के लिए अजनबी है .........ऐसे सीजोफ्रिनिक माहौल में रहने वाले लोग , बजाय करीब आने के ,एक-दूसरे से भागते रहते हैं ,बचते रहते हैं ,और ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि हम एक समाज में रहते हैं ? भयानक है यह स्थिति !
    ............. दूसरी कविता एक सफ़र है --एक सोंच ,एक भावना ,एक इरादे का सफ़र . ऊँचा-नीचा ,ऊबड़-खाबड़ ,.....जो अब एक निराशा के खड्ड की कगार पर लगभग सट कर गुजर रहा है ! यह एक कई प्रश्नों से घिरे एक संवेदनशील कवि के बौद्धिक संकट की कविता है !
    ..............तीसरी कविता वर्त्तमान व्यवस्था में स्वयं को खपाने के लिए स्वयं को संस्कारित करने की बाध्यता के कारण उत्पन्न असहजता ,अस्वभाविकता और उसकी एवज में चुकाए गए मूल्यों की कविता है !
    सभी कवितायेँ श्रेष्ठ अभिव्यक्ति का नमूना हैं , पाठक-मन पर एक स्थाई छाप छोड़ती हैं !
    .............. इन कविताओं के रचनाकार अशोक कुमार पाण्डेय को हार्दिक बधाई ! सराहनीय प्रस्तुति के लिए अरुणदेव जी का आभार !

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  9. अपने समय की नब्‍ज पकडती यह तमाम कविताएं विचार और उसके पक्ष साथ अपनी जगह तलाशती उस दुनिया की है जहां आधी आबादी अपने होने के अर्थ तलाश रही है. जगह तलाश रही है लुटेरों के बीच जहां इतिहास ने सुस्‍ताकर कुछ देरे अपने होने की आहट सुनी थी. शब्‍द जो इन कविताओं में है दरअसल वह सांसे हैं इतिहास की गलतियों के बीच बीमार होते हमारे कल की्. बहुत बहुत शुक्रिया इन तमाम कविताओं को पढवाने के लिए, बधाइयां आपके लिए नहीं है क्‍योंकि इस समय के खिलाफ यह कविताएं वो परचा है जिसे लेकर हम सब आपके साथ खडे हैं.

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  10. जो लोग यह कहते हैं कि कविता यदि ज्यादा खुलकर ज्यादा बेलाग होकर बात करती है तो वह कविता नहीं रहती। उसे कलाकर्म ही बने रहना चाहिए। विशेषकर रसोद्रेक पैदा करने वाला। अलंकृत और एक नफीश भाषा में ढली हुई। कोमल भावनाओं को सहलाने वाली। विचारों का विप्लव वाला राग उसमें नहीं होना चाहिए।

    यह तर्क उन लोगों का है जो हजार बार शब्दों को मंत्र की पवित्रता से भरकर कविता को आज भी आलोक धन्वा या अशोक पाण्डेय या रामजी तिवारी जैसे तमाम कवियों की मौज़ूदगी में भी एक तथाकथित कला के नकाब़ में ढंके रखने का प्रयास करने से बाज नहीं आते। ये ही लोग बताएंगे कि क्यों कविता में जीवन का संघर्ष और सामाजिक या धार्मिक या किसी प्रकार की सत्ता के मनुष्यविरोधी उद्यम या खुलकर कहें तो अशोक पाण्डेय के दक्खिन टोले की संवेदना को कविता की संवेदना बनने देने से चिढ़ क्यों है?

    अशोक जी बहुत साहस और मार्मिक अहसासों से पूरी हुई हैं आपकी ये कविताएं। कहने दीजिए अगर जो इन्हें विमर्श कहकर उनके कवितापन से अलगाने की एक बेहद दंभीली शास्त्रीयता भी बखानते हों।

    क्या अंदाज़ है: काबिल-ए-तारीफ़ ------
    वह ज़हर ही था हमारी आत्मा का अमृत
    वह ज़हर ही था नारों की शक्ल में गूंजता हमारे भीतर कहीं
    वह ज़हर ही था किसी दंतेवाड़ा के साथ धधक उठता
    वह ज़हर ही था किसी सीमा आज़ाद के साथ उदास
    वह ज़हर ही था कविताओं की शक्ल में उतरता हमारी आँखों से

    हाँ, हम लगभग अभिशप्त हुए कवि होते जाने को. आजादी की तलाश में हम एक ऎसी दुनिया में आये जहाँ एक बहुत पुराना गाँव रहता था अपनी पूरी आन-बान के साथ. ढेर सारे कुल-कुनबे थे और चली ही आ रही थी उनकी रीत. आलोचक थे, संपादक थे, निर्णायक थे, विभागाध्यक्ष थे, पीठाध्यक्ष थे और इन पञ्च परमेश्वरों के सम्मुख हाथ जोड़े सर्वहारा कवियों की एक पूरी जमात जिनका सब कुछ हरने के बाद उन्हें पुरस्कार दे दिए जाते थे. पंचों की आलोचना वर्जित रीत थी और मौत से कम किसी सज़ा का प्रावधान नहीं था उस अलिखित संविधान में. हैरान आँखों से देखते-समझते सब हम जा बसे दक्खिन टोले में.

    अरुण और अशोक दोनों को बधाई....

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  11. कुछ बातें ध्यान खींचती हैं
    1-आत्मा का अमृत है दारू, एक नास्तिक की आत्मा का दोरंगापन कविता में बोल ही जाता है।
    2-बाई और देवी का द्वंद्व महान है, बाई बराबर देवी भी होता है, रानी लक्ष्मी बाई।
    3-हिंदू बाई को देवी बना लेते हैं और मुसलमान बाई बाई ही रह जाती है
    4-कंटेंट देवी प्रसाद मिश्र के से है, मुसलमान की छाड़न का महान उपयोग
    5-भाषा विष्णु खरे की सी है, अपनाई हुई सी।
    6-हसन-हुसैन अपने हैं, लेकिन शेष नाग अछूत है, रोचक किंतु बनावटी स्टैंड है।
    आप सब का
    मदन मुरारी,नई दिल्ली

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  12. मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में" से

    वह रहस्यमय व्यक्ति
    अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
    पूर्ण अवस्था वह
    निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
    मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
    हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
    आत्मा की प्रतिमा।
    प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी,
    इसी लिए बाहर के गुंजान
    जंगलों से आती हुई हवा ने
    फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-
    कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
    मौत की सज़ा दी !

    आत्मा की प्रतिमा" को उनके नास्तिक का दोरंगापन माँ लिया जाय?
    यह बताना बेकार होगा कि "आत्मा मर गयी" जैसे मुहाविरे का हिन्दी में व्यापक प्रयोग किस अर्थ में होता है.

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  13. एक बात और बाई के बारे में. बाई शब्द के अपमान या सम्मान का मामला धर्म का नहीं लोकेल का है. बुंदेलखंड और उसके आस-पास (जहां की लक्ष्मीबाई थीं) "बाई" शब्द हिन्दूओं और मुसलमानों दोनों के यहाँ सम्मानजनक संबोधन के रूप में होता है. यहाँ तक कि माँ को भी "बाई जी" , "बाई सा" कहते हैं. लेकिन बनारस और उसके आसपास के इलाकों में (जहां की सिद्धेश्वरी या रसूलन थीं) "बाई" का प्रयोग सम्मानजनक संबोधन के रूप में नहीं होता. चाहें तो मदन मुरारी (?) जी वहाँ जाकर किसी हिन्दू महिला को "बाई जी" कहकर पुकार लें, असलियत सामने आ जायेगी.

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  14. BAKAI BAHUT UMDA KAVITAIN HAIN JO AAJ KE SACH KO UJAGAR KARTI HAIN

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  15. मोहनदा की टीप पर मेरे भी दस्तखत मंज़ूर किये जाएँ !

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  16. अजनबियों के बीच अपनापन, अपनों के बीच अजनबी, अजब दुनिया..
    अर्थभरी कवितायें...

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  17. अशोक जी की कवितायेँ मुझे आकृष्ट करती रही हैं ,हालांकि मैं आज भी अपने अल्पसमझ से यही मनाता हूँ की कविता अगर बहुत बातुनी न हो तो ज्यादा मारक और प्रभावी होती है और अपनी अर्थवत्ता और संवेदना दोनों को अधिक मार्मिक बनाती है ,हालाँकि बदलते हुए युग में कविता ने अपने विस्तार को व्यापक और व्यापक बनाते हुए अपनी जरुरी शर्त कलाकर्म होने से मुक्ति पा ली है |हालाँकि इसे मंत्रोच्चार या श्लोको की तरह बुदबुदाते हुए किसी कर्मकांड जैसे सरलीकृत फोर्मुले में लपटे कर भी नहीं देखा जाना चाहिए|बहुत अच्छी कवितायेँ हैं,खासकर अजनबी और दक्खिन टोले जैसी कवितायेँ अपनी अर्थवत्ता में बहुत दूर तक चोट करती हैं और कविता होने की समझ को आश्चर्यजनक रूप से बचा कर भी ले जाती हैं ,हालाँकि यहाँ यह भी इल्तजा है की अनावश्यक रूप से और लगभग जबरदस्ती कविता को गद्य में तब्दील करने की कोशिश से बचा जा सकता था ,अच्छी कविताओं के लिए भाई अशोक जी को बधाई और भाई अरुण को भी कवि के इस प्रयास को सब तक पहुँचाने के लिए ......

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  18. यह कविता सीरीज़ एक लम्बे आख्यान की तरह जा रही हैं.... असमाप्त.... बहुत ही *बाँध* कर रखने वाला ऐसा बहुत सारा पढ़ने का मन है इन दिनो लेकिन मिल्ता कहाँ है ?

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  19. मुझे अशोक भाई की कविताएं अपने गहरे जन सरोकारों के साथ उनकी बहुत गहरी और सूक्ष्‍म संवेदनशील दृष्टि के कारण बहुत प्रिय हैं। उनके यहां अनायास ही सभ्‍यता के जंगल में खो गए बहुत से गांव-देहातों के साथ वहां की संघर्षशील जनता के दुख-दर्द गहरी निष्‍ठा के साथ सामने आते हैं। अशोक भाई को बधाई और शुभकामनाएं और अरुण जी का आभार।

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  20. भाई अरूण जी की टिप्पणी से सहमत होते हुए इन कविताओं पर यही कहूंगा कि अशोक जी के सरोकार समाज के साथ गहरे बंधे हुए हैं। यह सच है कि कविता में डिटेल्स ज्यादा हैं... कविता में कवितापन को बचाए रखना भी कवि का दायित्व होता है मेरे खयाल में। यह अच्छी बात है कि अशोक जी की ये कविताएं महज डिटेल्स या खबर नहीं हैं... मेरी बहुत-बहुत बधाइयां.....

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  21. इन कविताओं में वह ईमानदार तडप हैं जो आमजन के दुख-दर्द और उनके संघ्रर्षो से जुडकर एक संवेदनशील मन को उद्वेलित करती हैं।इस बैचैनी को अपनी दृष्टिसम्पन्न सृजनशीलता से प्रभावी अभिव्यक्ति देकर अशोक पाठक को आवेश से भर देते हैं।इन मार्मिक रचनओं के लिए उन्हें कस कर बधाई और आपका आभार...

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  22. समकालीन राजनीतिक घटनाक्रम को पिरो कर, संवेदना के धागों में, काव्य के सीप अगर खोजने हों तो अशोक कुमार की कविताओं का पाठ करें, कभी लगेगा के गद्य की किश्ती में बैठे हैं कि कब कोई मल्हार गाये और तुम्हें काव्य (पद्य) की अनुभूति हो जाये...कवितायें पढ़ते लगा, जैसे मैं अपने ही जीवन के फ़्लैश बैक में पहुँच गया हूँ...उत्तम कवितायें साझा करने के लिये...समालोचन का धन्यवाद..!!!

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  23. बहुत दिनों से कुछ पढने में मन नहीं लग रहा था, शुक्रिया अशोक जी सही समय पर कवितायेँ पढ़वायीं. वही जाना पहचाना सशक्त स्वर. बधाई!

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