सहजि सहजि गुन रमैं : सिद्धेश्वर सिंह




















सिद्धेश्वर सिंह
११ नवम्बर १९६३
हिंदी साहित्य में पीएच.डी.

कविता संग्रह कर्मनाशा  (२०१२)  अंतिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद से 
सभी पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, अनुवाद प्रकाशित
उतरांचल उच्च शिक्षा में असोशिएट प्रोफेसर

ई पता :  sidhshail@gmail.com 


सिद्धेश्वर की कविताएं अनुभव और अनुशीलन के मेल से पैदा होती हैं. अनुभव जीवन के धूसर और खुरदुरे यथार्थ का, अनुशीलन भाषा और उसकी आंतरिक लय का. इन कविताओं में न  नवाचार का अतिरिक्त है और न ही विचारधारा की स्फीति. सादगी लिए ये मार्मिक हैं. इनमें जगह-जगह स्थानिकता के जरूरी चिह्न हैं.  ये कविताएँ अपने भूगोल का पता देती हैं और वही से उगने और उमगने का बल पाती हैं.  इन कविताओं में कही–कही पहाडों की ज़मी बर्फ जैसी उदासी है जिसे हमेशा फरवरी की धूप का इंतज़ार रहता है.


   अब्दुल एम.आई. सैयद 

आलता

इसे महावर कहूँ
या महज चटख सुर्ख रंग
उगते - डूबते सूरज की आभा
वसंत का मानवीकरण
या कुछ और.
खँगाल डालूँ शब्दकोश का एक - एक पृष्ठ
भाषा विज्ञानियों के सत्संग में
शमिल हो सुनूँ
इसके विस्तार और विचलन की कथा के कई अध्याय
क्या फर्क़ पड़ता है !

फर्क़ पड़ता है
इससे
और..और दीपित हो जाते हैं तुम्हारे पाँव
इससे सार्थक होती है संज्ञा
विशिष्ट हो जाता है विशेषण
पृथ्वी के सादे कागज पर
स्वत: प्रकाशित होने को
अधीर होती जाती है तुम्हारी पदचाप.

आलता से याद आती हैं कुछ चीजें
कुछ जगहें
कुछ लोग
कुछ स्वप्न
कुछ लगभग भुला से दिए गए दिन
और कुछ - कुछ अपने होने के भीतर का होना.

फर्क़ पड़ता है
आलता से और सुंदर होते हैं तुम्हारे पाँव
और दिन - - दिन
बदरंग होती जाती दुनिया का
मैं एक रहवासी
खुद से ही चुराता फिरता हूँ अपनी आँख.

यह किसी मुहावरे का वाक्य प्रयोग नहीं है प्रिय
न ही किसी वाक्यांश के लिए एक शब्द
न ही किसी शब्द का अनुलोम - विलोम
कोई सकर्मक - अकर्मक क्रिया भी नहीं.

क्या फर्क़ पड़ता है
इसी क्रम में अगर यह कहूँ -
तुम हो बस तुम
आलता रचे अपने पाँवों से
प्रेम की इबारत लिखती हुई
लेकिन यह मैं नहीं
यह आलता सिर्फ़ आलता भी नहीं
और हाँ, यह सब कुछ संभवत: कविता भी नहीं.



दिल्ली में खोई हुई लड़की

लड़की शायद खो गई है
'शायद' इसलिए कि
उसे अब भी विश्वास है अपने न खोने का
दिल्ली की असमाप्त सड़कों पर अटकती हुई
वह बुदबुदाती है - 'खोया तो कोई और है !'

आई.एस.बी.टी. पर उतरते ही
उसने कंडक्टर से पूछा था -
'दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
सुना है वह किसी अखबार में काम करता है
तीन साल से चिठ्ठी नहीं लिखी
घर नहीं आया
रात मेरे सो जाने पर
ईजा डाड़ मारकर रोती है
और मेरी नींद खुलते ही चुप हो जाती है
दाज्यू ! मेरे दाज्यू का पता बता दो हो !
मैं उसे वापस ले जाने आई हूं.'
कंडक्टर हीरा बल्लभ करगेती
ध्यान से देखता है उस लड़की को
जो अभी-अभी 'अल्मोड़ा - दिल्ली' से उतरी है
'बैणी' वह कहता है - 'बहुत बड़ी है दिल्ली
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है
जो तुम्हारा ददा कहीं सिगरेट के सुट्टे मरता हुआ मिल जाय .'
लड़की की आंखों में छलक आई
आत्मीयता, अपनत्व और याचना से डर जाता है करगेती
और बताने लगता है -
'दरियागंज, बहादुरशाह जफ़र मार्ग, कनाट प्लेस, शकरपुर...
वहीं से निकलते हैं सारे अखबार
देखो शायद कहीं मिल जाय तुम्हारा ददा
लेकिन तुम लौट ही जाओ तो ठीक ठैरा
यह अल्मोड़ा - नैनीताल - रानीखेत - चंपावत नहीं है.'
लड़की अखबार के दफ़्तरों में दौड़ती है
कहीं नहीं मिलता है उसका भाई, उसका धीरू, उसका धीरज बिष्ट
लेकिन हर जगह - हर तीसरा आदमी
उसे धीरू जैसा ही लगता है
अपने - अपने गांवों से छिटककर
अखबार में उप संपादकी, प्रूफ़रीडरीडिंग या रिपोर्टिंग करता हुआ
लड़की सोचती है - क्यों आते हैं लोग दिल्ली
क्यों नही जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ ?
'जाती तो है दिल्ली पहाड़ की तरफ
जब 'सीजन' आता है
तब लग्जरी बसों , कारों, टैक्सियों में पसर कर
दिल्ली जरूर जाती है नैनीताल - मसूरी - रानीखेत - कौसानी
और वहां की हवा खाने के साथ -साथ
तुम्हें भी खा जाना चाहती है - काफल और स्ट्राबेरी की तरह
देखी होगी तुमने
कैमरा झुलाती, बीयर गटकती, घोड़े की पीठ पर उचकती हुई दिल्ली .'

'दैनिक प्रभात' के जोशी जी
लड़की को बताते हैं दिल्ली का इतिहास, भूगोल और नागरिक शास्त्र
समझाते हैं कि लौट जा
तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली
हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली
फिर भी यहां रहने को अभिशप्त हैं हम
हो सकता है धीरू भी यही अभिशाप...
आगे सुन नहीं पाती है लड़की
चल देती है मंडी हाउस की तरफ भगवानदास रोड पर
सुना है वहीं पर मिलते हैं नाटक करने वाले
धीरू भी तो करता था नाटक में पार्ट
कितने प्यार से दिखाता था कालेज की एलबम -
ओथेलो, बीवियों का मदरसा, तुगलक, पगला घोड़ा, कसाईबाड़ा...

प्रगति मैदान के बस स्टैंड पर
समोसे खाती हुई लड़की
आते - जाते - खड़े लोगों की बातें सुनती है
लेकिन समझ नहीं पाती
लोगों को देखती है लेकिन पहचान नहीं पाती
लड़की लड़कियों को गौर से देखती है -
पीछे से कती हुई स्कर्ट में झांकती टांगें
आजाद हिलती हुई छातियां
बाहर निकल पड़ने को आतुर नितम्ब
शर्म से डूब जान चाहती है लड़की
लेकिन धीरू...ददा, कहां हो तुम !

लड़की सुबह से शाम तक
हर जगह चक्कर काटती है
चिराग दिल्ली से लेकर चांदनी चौक तक
पंजाबी बाग से ओखला - जामिया तक
हर जगह मिल जाते है धीरू जैसे लोग
लेकिन धीरू नहीं मिलता
हर जगह मिल जाते हैं नए लोग
कुछ अच्छे, कुछ आत्मीय
और कुछ सट्ट से चप्पल मार देने लायक
लड़की थक - हारकर पर्स में बचे हुए पैसे गिनती है -
बासठ रुपए साठ पैसे
और चुपचाप आई.एस.बी.टी. आ कर
भवाली डिपो की बस में बैठ जाती है
खिड़की से सिर टिकाते ही
एक बूंद आंसू टपकता है
और बस की दीवार पर एक लकीर बन जाती है
कौन पोंछेगा इस लकीर को -
कोई और लड़की ?
या वर्कशाप का क्लीनर या कि धीरू ??

जाओ लड़की !
यह बस तुम्हें पहाड़ पर पहुंचा देगी
उस पहाड़ पर
जो पर्यटन विभाग के ब्रोशर में में छपे
रंग - बिरंगे, नाचते - गाते पहाड़ से बिल्कुल अलग है
जहां से हर साल, हर रोज
तुम्हारे धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू
दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं
लेकिन तुम्हारी तरह
उन्हें खोजने के लिए कोई नहीं आता कभी
कभी - कभार आती हैं तो गलत पते वाली चिठ्ठियां
आते हैं तो पंत, पांडे,जोशी, बिष्ट, मेहरा
जैसे लोगों के हाथ संदेश
लेकिन उन धीरुओं तक
नहीं पहुंच पाती हैं चिठ्ठियां - नहीं पहुंच पाते हैं संदेश
तुम क्यों आई हो ?
क्यों कर रही हो तुम सबसे अलग तरह की बात ??

सुनो दिल्ली
मैं आभार मानता हूं तुम्हारा
तुमने लड़की को ऐसे लोगों से मिलवाया
जिन्हें लोगों में गिनने हुए शर्म नहीं आती
अच्छा किया कि ऐसे लोगों से नहीं मिलवाया
जो उसे या तो मशीन बना देते या फिर लाश
मेरे लड़की अब भी तुम्हारे कब्जे में है
देखो ! उसे सुरक्षित यमुना पर करा दो
उसकी बस धीरे- धीरे तुम्हारी सड़कों पर रेंग रही है
बस की दीवार पर गिरा
उसकी आंख का एक अकेला आंसू
अभी भी गीला है
पहाड़ की परिचित हवा उसे सोख लेने को व्याकुल है.



अँधेरे में मुक्तिबोध

कल मिल गए ग० मा० मुक्तिबोध
अरे वही
जिनकी किताबों के बारे में
प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाता है प्रश्न.

रात थॊ थोड़ी अँधेरी
फिर भी सड़क दीख रही थी साफ
जिस पर चलकर मुझे पहुँचना था अपने घर
थोड़ा सुस्ताने के लिए रुका
तो सीढ़ियों पर बैठे मिल गए मुक्तिबोध
उनके मुँह में दबी थी अधबुझी बीड़ी
और चेहरे पर लिपटा था तनाव.

यह एक तेंदू पत्ता गोदाम था
जिसकी सीढ़ियों पर पाए गए मुक्तिबोध
अँधेरे में शायद तलाश रहे थे दियासलाई
या फिर थोड़ी - सी आग.
मैं थकन से चूर था
मुझे चाहिए था थोड़ा आराम
सोचा था वे कुछ बोलेंगे
सुनायेंगे नाँदगाँव के हाल
पर वे चुप थे
मैं भी रहा मौन
हमारे बीच अँधेरे में गुम हुई भाषा
जिसे खोजने के लिए
आसमान में नहीं था टेढ़े मुँह वाला चाँद
या दियासलाई की एक तीली भर रोशनी.

अंदर शायद सो रहे थे तेंदू पत्ते
या जंगल की याद में थे गमगीन
बाहर कुछ भी नहीं आ रहा था
न शोर न सिसकी न ही खर्राटे
एक अजीब - सी शान्ति व्याप्त थी
जिसे भाषा की सीढ़ियों के सहारे
उतरना था कमल ताल में
अँधेरे में सिर्फ अँधेरा था
जिसके लिए दिए जा सकते थे विशेषण तमाम
मगर सब निरर्थक
सब बेकार
मुझे अपनी थकान उतारनी थी
और उन्हें चाहिए थी एक तीली भर आग

गोदाम में कैद थे
तेंदू पत्ती ढेर के ढेर
जिनके भीतर का जंगल सूख रहा था धीरे - धीरे
दूर कहीं से आ रही थी
किसी गाड़ी की आवाज
मैं उठा
शायद कम हो चुकी थी थकान
मुक्तिबोध वहीं उठँगे रहे
किवाड़ से लगी साँकल और ताले से निरपेक्ष

अब नजदीक आने लगी थी रोशनी
कानों तक पहुँच रही थी किसी गाड़ी की आवाज
वह दुपहिया थी या चौपहिया
क्या पता
यह सब अँधेरे में हो रहा था 
भाषा से परे भाव से दूर

गोदाम सीझते
तेंदू पत्तों ने भी महसूस की होगी
दो इंसानी देहों की आँच
पर वे किसे बतायेंगे यही है सवाल
कल खँगालूँगा भाषा का गोदाम
अभी तो अँधेरे में सब चीजें हैं कालिख से भरपूर
और गाड़ी पर हो जाना है सवार.










बाजार में अगस्त के आखिरी सप्ताह की एक शाम

आज दिन भर
मौसम लगभग साफ रहा
कभी - कभार आते जाते इतराते रहे
बारिश के स्वर्ग से बहिष्कृत मेघ
बाजार के बीचोंबीच गुजरती हुई सड़क के
आखिरी छोर पर झाँकता रहा नीला पहाड़.

अब धुँधलके में समा रहा है बाजार
बिजली हो गई है गुल
सूरज की अस्ताचली आभा में भी शेष नहीं दम
आसमान में दीखने लगा होगा
अष्टमी का अर्धवृत्ताकार चाँद
पर उसकी उजास को खिलने में लगेगा थोड़ा और  वक्त
धड़धड़ - भड़भड़ कर रहे हैं जनरेटर
आती जाती गाड़ियों के आर्केस्ट्रा - कोरस में
जैसे जुड़ गया है कोई नया वाद्य, नवीन स्वर.

रोशनी कम है
पर इतनी भी कम नहीं कि छिप गई हो चमक
और मद्धिम पड़ गया हो रुआब
एक से बढ़कर एक करतब दिखा रहा है बाजार.
बिल्कुल साफ पढ़ा जा सकता है
ठेलेवाले के चेहरे के अचानक उभरा रुआँसापन
जबकि हँस रहे हैं सेब और अनार
जगदम्बा मिष्ठान भंडार के चबूतरे पर
शान से इमर्तियाँ रचे जा रहा है कारीगर
कम - ज्यादा रोशनी से मिठास को फर्क नहीं पड़ता.
हाँ,अँधेरे का फायदा उठा
फलों  - तरकारियों को छेद जाते हैं कीड़े
और कस्बे के सबसे बड़े रईस के कान में
गाना गाकर सुरक्षित चला आता है एक बदमाश मच्छर.

कितना अपना - सा लग रहा है यह दृश्य
आँख भर देख रहा हूँ रोजाना का देखा संसार
सुना है नदियों में पानी हो गया है कम
बिजलीघरों तक पहुँच रही है सिल्ट और गाद
कम हो गया है ऊर्जा का उत्पादन
सो, चालू हो गई है रोस्टिंग की मार .
बिजली के लट्टुओं - राडों - सीएफलों की जगमगाहट में
छिप - सी जाती हैं तमाम चीजें
और दीखता है लगभग वही सब
जिसे कुछ साल पहले तक  
एक साबुन के विज्ञापन में कहा जाता था चमकार.

यह नीम अँधियारा तो नहीं हैं
हाँ, रोशनी जरूर हो गई है कम
बढ़ते बाजारभाव की कशमकश में
अब भी
बखूबी पढ़े जा सकते हैं चेहरों के भाव
अब भी छुआ जा सकता है एक दूजे का हाथ
इन बेतरतीब पंक्तियों को पढ़ने वाले
भले ही हो रहे हों ऊब और ऊमस से बदहाल
फिर भी
कस्बे के हृदय स्थल अर्थात  मेन चौराहे  पर
अपना पुराना स्कूटर रोक कर
आँख भर देख रहा हूँ एक बनती हुई दुनिया
और सोच रहा हूँ अच्छा - सा होगा अगला साल.

लो आ गई बिजली
जगमग - जगमग करने लगा है बाजार
याद आया
खड़े - खड़े  फूँक दिया कितना ईंधन.
अब घर  चलो
कब की ढ़ल चुकी शाम
और कितना - कितना बचा है जरूरी काम.        




कर्मनाशा

फूली हुई सरसों के
खेतों के ठीक बीच से
सकुचाकर निकलती है कर्मनाशा की पतली धारा.

कछार का लहलहाया पीलापन
भूरे पानी के शीशे में
अपनी शक्ल पहचानने की कोशिश करता है.
धूप में तांबे की तरह चमकती है
घाट पर नहाती हुई स्त्रियों की देह.

नाव से हाथ लपकाकर
एक एक अंजुरी जल उठाते हुए
पुरनिया - पुरखों को कोसने लगता हूं मैं -
क्यों -कब- कैसे कह दिया
कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !

भला बताओ
फूली हुई सरसों
और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में
कोई भी नदी
आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र ?



तुम्हारा नाम

किसी फूल का नाम लिया
और भीतर तक भर गई सुवास

किसी जगह का नाम लिया
और आ गई घर की याद

चुपके से तुम्हारा नाम लिया
और भूल गया अपना नाम.

::

असमर्थ - अवश हो चले हैं शब्दकोश
शिथिल हो गया है व्याकरण
सहमे - सहमे हैं स्वर और व्यंजन
बार - बार बिखर जा रही है वर्णों की माला.

यह कोई संकट का समय नहीं है
न ही आसन्न है भाषा का आपद्काल
अपनी जगह पर टिके हैं ग्रह - नक्षत्र
धूप और उमस के बावजूद
हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम.

संक्षेप में कहा जाय तो
बस इतनी - सी है बात
आज और अभी
मुझे अपने होठों से
पहली बार उच्चारना है तुम्हारा नाम.


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  1. kyaa baat hai jnaab aap to bhut chhupe rustm nikle hai ...akhtar khan akela kota rajsthan

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  2. kaun pochhega ise.. in kvitaon me kuchh vishesh hai.. kvitayen gahan anubhvon se upji hui prteet hoti hain .. matr shabd khel nhi.. bahut sundar rachnaye hain..maine karmnasha kee kuchh kvitayen padhi hain.. aaj poori padh daalungi.. bahut badhai.sidheshwar ji.. arunji shukriya.

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  3. Pratibha Bisht Adhikari29 फ़र॰ 2012, 9:39:00 am

    दिल्ली में खोई लड़की , छू गयी ,
    ईजा - माँ , डाड - दहाड़ मारकर रोना , बैणी - बहन .....

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  4. सभी कविताएँ बहुत अच्छी लगीं .. गंभीर रचनाएँ ..सिद्धेश्वर जी को .. बधाई ! और आभार अरुण देव .

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  5. siddheshwr ji ki kavitaien anubhav ki emandar kalatmk abhivyaktiyan hain.

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  6. बहुत सकुचा कर निकली है कर्मनाशा की पतली धारा !

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  7. स्थान व घटना का सचित्र वर्णन करते कविता के शब्द..

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  8. सुन्दर कवितायेँ ! एक निश्चित नाप की गहराई में बहती हुई कवितायेँ ! बधाई सिद्धेश्वर जी को !

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  9. सिद्धेश्वर जी! आप तो अच्छे कवि निकले भाई। बहुत बधाई।

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  10. सिद्धेश्वर भाई की कविताएं पढ़ रहा हूं। इस कवि की सदगी और संवेदनशीलता बेहद पसंद आ रही है। सिद्धेश्वर दा आपको ढेर सारी बधाइयां......

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  11. आभार अरुण जी, मेरे लिखे - कहे को सुन्दर तरीके से साझा करने के लिए और सभी साथियों के प्रति दिल से शुक्रिया।

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  12. behad khubsurat kavitayen shukariya arun jee en kaivtaon ko samalochan me ahamil karney ke leye

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  13. सिद्धेश्‍वर जी की कविताएं इस अर्थ में विशिष्‍ट हैं कि पहाड़ की गहरी संघर्षशील जनता और वहां की प्रकृति के विरल दृश्‍यों के साथ, उनके यहां संवेदनाओं और गहरी मार्मिक अनुभूतियों का एक विपुल संसार है, जो अपनी पूरी ताकत के साथ पाठक को कई स्‍तरों पर विचलित करता है, तोड़ता है और हमारे समय के बेहद खतरनाक सवालों से रूबरू कराता है। सिद्धेश्‍वर जी को बधाई और अरुण जी का आभार इन कविताओं के लिए।

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  14. कवितायें तो सभी अच्छी हैं लेकिन "दिल्ली में खोई हुई लड़की " और "अँधेरे में मुक्तिबोध" खास तौर पर मुझे पसंद आयीं ....बधाई सिद्धेश्वर जी को

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  15. बधाई !

    सच है -

    "फूली हुई सरसों के
    खेतों के ठीक बीच से
    सकुचाकर निकलती है कर्मनाशा की पतली धारा। "

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  16. बहुत अच्छी लगीं ये कविताएं. दर असल इन कविताओं पर मेरी भी नज़र थी, अपने ब्लॉग पर देने के लिए. सिद्धेश्वर से बात भी हो गई थी. पर समालोचन "फ़र्स्ट" आ गया. विलम्ब से, पर बहुत बधाई दिद्धेश्वर को.

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  17. जनसंसार कार्यालय, कोलकाता में प्रगतिशील लेखक संघ ने अनय जी को याद करने का मौका दिया। अनय जी सिर्फ लेखक नहीं थे। वे सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय थे। इन विभिन्न सक्रियताओं से उनकी पहचान बनती थी। बड़ी बात यह कि लेखन भी उनके लिए सामाजिक जीवन सक्रियता का ही एक माध्यम था। कुछ लोगों की राय में अनय जी लेखन की दुनिया में उपेक्षित ही रहे। उपेक्षित या कहें अलक्षित रह जाना उन लेखकों की नियति ह...ै जो अपने सामाजिक जीवन की सक्रियताओं के एक माध्यम के रूप में लेखन को अपनाते हैं, लेखन को अपने सामाजिक जीवन की सक्रियताओं के एक मात्र माध्यम के रूप में लेखन को नहीं अपना पाते हैं। मनुष्य अपनी पहचान की बहुवचनीयताओं में सक्रिय रहता है। लेखन उसकी पहचान का एक आयाम होता है। राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के साथ ही लेखक संगठनों की भी अपनी भूमिका होती है और बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन संगठनों के माध्यम से जो लेखक अपने सामाजिक जीवन की सक्रियताओं को पूरा करते हैं वे अपनी लेखकीय क्षमता का संपूर्ण लेखन को दे नहीं पाते हैं। निराशा या हताशा के आरोप का खतरा मोल लेते हुए भी कहना चाहता हूँ कि जिनमें लेखकीय क्षमता होती है उन्हें अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक सचाइयों से गैर सांगठनिक जुड़ाव विकसित करना चाहिए। राजनीतिक संगठनों में सक्रिय लोग किसी लेखक की पीड़ा और लेखन के महत्त्व को समझे बिना को समझे बिना तुरंत इस निष्कर्ष पर आमादा हो जाते हैं कि लेखक अगर उनके संगठनों से नहीं जुड़ेगा तो राजनीतिक और सामाजिक सचाइयों को नहीं समझ पायेगा और अपने लेखन को उससे नहीं जोड़ पायेगा। पूरी विनम्रता से कहना जरूरी है कि या तो लेखक के संगठन से जुड़ने का अर्थ बदलना होगा या फिर राजनीतिक और सामाजिक सचाइयों का अर्थ बदलना होगा। राजनीतिक संगठनों को इस दंभ से बाहर निकलना ही होगा कि लेखन कर्म की सार्थकता के लिए जरूरी राजनीतिक और सामाजिक सचाइयों को देखने की आँख सिर्फ उनके यहाँ विकसित हो पाती है। राजनीतिक संगठनों का इस दंभ से बाहर निकलना मुश्किल है, ऐसे में यह जोखिम खुद लेखक को उठाना होगा कि अपने लेखन कर्म की सार्थकता के लिए जरूरी राजनीतिक और सामाजिक सचाइयों को देखने की आँख राजनीतिक संगठनों की चौहद्दी से बाहर रहकर विकसित करे और लेखन में लगा रहे। राजनीतिक संगठन शक्तिपीठ होते हैं। शक्ति बहुत तेजी से अपनी ओर खींचती है। खींचती ही नहीं है बल्कि बाँध भी लेती है। क्या कारण है कि फिल्म, साहित्य, खेल आदि से जुड़े सफल लोग तो अक्सर राजनीति की तरफ जाते हुए दिखाई पड़ जाते हैं, लेकिन राजनीति में सफल लोग कभी भी फिल्म, साहित्य, खेल आदि की ओर जाते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं, हाँ फिल्म, साहित्य, खेल आदि के संगठनों में इनकी दिलचस्पी जरूर होती है। फिल्म, साहित्य और खेल आदि से विदा होकर जनप्रतिनिधि या मंत्री बनने के उदाहरण तो मिल जा सकते हैं लेकिन जनप्रतिनिधित्व या मंत्रित्व को छोड़कर फिल्म, साहित्य और खेल आदि से जुड़ने का उदाहरण तो शायद ही मिले। अनय जी ने कुछ हद तक अपने चयन का जीवन जिया, लेखन की दुनिया में अनय जी की उपेक्षा या उनके अलक्षित रह जाने का दर्द जिन लोगों को है उन्हें उनके चयन की पड़ताल करनी चाहिए।

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  18. सहजता से गुदगुदाने व सोचने के लिए मजबूर कर देने वाली कविताएं हैं सिद्धेश्वर जी की। 'दिल्ली में खोई हुई लड़की' सचमुच संवेदना से पगी हुई एक बेहतरीन कविता है, "दिल्ली जरूर जाती है नैनीताल-मसूरी-रानीखेत-कौसानी/ और वहाँ की हवा खाने के साथ-साथ/ तुम्हें भी खा जाना चाहती है - काफल और स्ट्रॉबेरी की तरह/ देखी होगी तुमने/ कैमरा झुलाती, बीयर गस्टकती, घोड़े की पीठ पर उचकती हुई दिल्ली"…।

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  19. लोकगंधऔर नये विषय पर लिखी गई कविताये जिसमें भोजपुरी समाज
    दिखाई देता है.आलता वाली कविता मन को छू गई.प्रेम का एक अलग रंग
    दिखाई पड्ता है बहुत खूब कविवर

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  20. बहुत सुंदर कवितायेँ ......बधाई सिद्धेश्वर सिंह को और आभार अरुण देव जी आपको भी

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