सबद भेद : कविता और आलोचना के केंद्र


पेंटिग : पाब्लो पिकासो
पेंटिग : पाब्लो पिकासो








गणेश पाण्डेय साहित्य के अध्येता हैं. उनके कई कविता संग्रह, कथा साहित्य और आलोचना पुस्तकें प्रकाशित हैं. कविता पर यह लेख कविता के बहाने साहित्य के सत्ता केन्द्रों की खबर लेता है, और उनके तलघर में बनते बिगड़ते समीकरणों की खबर देता भी है. व्यंग्य है, आकोश है और लगतार विरूप होते जाते परिदृश्य के प्रति चिंता और उसके प्रति जिम्मेदारी का भाव भी. कई बार जगाने के लिए तेज़ बोलना पड़ता है. कुछ लोगों को यह ज़रा लाउड लग सकता है.


       
कविता और आलोचना के नये केंद्र कहाँ हैं                           
गणेश पाण्डेय

रुण, यह साहित्य का मधुमय देश नहीं है. देश भी है या अरण्य. काँटों, खाइयों और घात-प्रतिघात में लगे हुए हिंस्र पशुओं का परिसर. जो है, चाहता है कि सारा जंगल उसके नाम हो जाय,  सब उसके अधीन रहें, उसकी इच्छा ही नियम हो, तर्क की कसौटी हो, प्रतिमान हो. उसकी धोती या पाजामे की सफेदी या दुर्गन्ध ही उसकी यश का आधार हो. डरे हुए लोगों का मजमा है जहाँ, लूटमार करने वालों का गिरोह है, जहाँ मंसूर हो जाना बेवकूफी की बात है और झुककर जीना गर्व की बात, जहाँ, जीते-जागते, हँसते-बोलते, लड़ते-झगड़ते और अपनी भाषा में अपनी तान छेड़ते लोग नहीं दिखते हैं, निडर लोग नहीं दिखते हैं, जैसे कोई बिराना देश है. जहाँ हमारा या दूसरों का अंचल नहीं दिखता है. अपने लोग नहीं दिखते है.

यह कोई कागज का देश है या रबड़ के बबुआ जैसे लोग रहते हैं यहाँ. चेहरे की किताब की जिल्द और पन्ने सब जैसे फटे हुए, आड़ी-तिरछी रेखाओं वाले चेहरे पर पत्थर जैसा मृत खुरदुरापन. जैसे यह कोई परिसर नहीं, कोई बूचड़खाना है. कविता का कोई कारखाना है, जिसमें एक जैसी कविताएँ कई दशकों से ढ़ाली जा रही हैं. जैसे बीसवीं सदी अभी कविता और आलोचना की दुनिया में खत्म ही नहीं हुई. लगता तो यहाँ तक है कि नई सदी का पहला दशक बीत जाने के बाद भी हम बीसवीं सदी से एक डग भी आगे नहीं बढ़े हैं. साहित्य की घड़ी की सुइयाँ इतनी सुस्त क्यों हैं, वे कौन लोग हैं जो इन सुइयों को पकड़ कर बैठ गये हैं या कि उसके पेंडुलम पर लटक गये हैं. ये लोग कवि हैं या आलोचक या दोनों ?

एक ऐसे समय में जब पुरानों ने कबाड़ बहुत फैला रखा है और हिलने-डुलने भर की जगह नहीं छोड़ी है, अटा पड़ा है कविता का परिसर ऐसे कातिल बुजुर्गों से. गौरतलब यह कि छोटी-सी दिल्ली ने कविता में देश भर की जगह को घेर रखा है. दिल्ली के बाहर के लोग चाहे गोरखपुर के हों या कहीं और के, उसी में तलुए भर की जगह के लिए जिस-तिस के तलुए छू रहे हैं. कुछ तो कुछ संस्थाओं के संड़ास में साहित्यिक मुक्ति की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में नई सदी की कविता और आलोचना पर बात करना खासा मुश्किल काम है. इस मुश्किल काम को करना मुश्किल तो है पर इतना भी नहीं कि नई सदी की रचनाशीलता में भरोसा करने वाले लोग कर न सकें. एक कोशिश तो कर ही सकते हैं.

बीसवीं सदी को यदि हम विचारधाराओं और आंदोलनो की सदी कहें तो बहुत बुरा न होगा. बीसवीं सदी की हिंदी कविता को आंदोलनों की सदी की कविता के रूप में भी देखा जाता है. विचारधाराओं के संघर्ष के तनाव से उपजी समृद्ध रचनाओं का काल है बीसवीं सदी. जीवन के संघर्ष का भी शिखर इस दौर की कविता यात्रा में देखा जा सकता है. व्यक्ति और समाज के तनाव का भी एक बड़ा परिसर मौजूद है. उसके बाद पूरी बीसवीं सदी की जद्दोजहद कविता में है.

विचारधारात्मक निष्कर्षों की विफलता और मुक्त विचारों के अन्तर्विरोध और निरर्थकता के अनुभव का समय भी बीसवीं सदी है. अलबत्ता, पुरानी लीक पर चलने वाले नकली और असली दीवानों के तेवर में कोई कमी नहीं आयी है. वे अभी भी कविता को घूमफिर कर उसी बाड़े में रखना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि स्वप्न महत्वपूर्ण होता है, जीवन नहीं. वे यह भी मानते हैं कि टूट-फूट केवल जीवन में होती है, स्वप्न तो अक्षुण्ण होते हैं. स्वप्न कभी नहीं मरते हैं. हत्यारे स्वप्नों को नहीं मारते या अपने ही लोग अपने स्वप्नों की ओर बंदूक की नली करके गोली दाग देने की बेवकूफियाँ नहीं करते हैं. वे मानते हैं कि ऐसे अनेक हादसे केवल जीवन में होते हैं. स्वप्न को जीवन या जीवन की विफलताओं के आलोक में नहीं देखना चाहिए.

वे मानते हैं कि कविता केवल स्वप्न का अनुवाद है, जीवन का पर्याय नहीं. मुश्किल यह कि ऐसे ही स्वप्न पर या इसी थीम पर हजारों कविताएँ जहाँ लिखी गयी हों, वहाँ नए कवि को उन्हीं कविताओं की तरह कविता लिख कर कविता को नये विचारधारात्मक अनुकरण की लीक पर चलना चाहिए या अपने समय और समाज और जीवन और अपने अंचल के मुहावरे और टोन में कविता का नया परिदृश्य रचना चाहिए ? कविता में चरित्रों की आवाजाही में किसी ताजगी की जरूरत क्यों नहीं महसूस की जानी चाहिए ? एक जैसे चरित्रों की भरमार क्यों? इतना ही नहीं किसी पुराने कवि की कविता को चुनौती के रूप में क्यों नहीं लेना चाहिए? उससे आगे का चरित्र क्यों नहीं गढ़ना चाहिए ? आगे का दृश्य क्यों नहीं रचना चाहिए?  आगे का समय क्यों नहीं आना चाहिए ? क्या जब तक यह दुनिया या यह देश किसी खास विचार पद्धति के आधार पर अपना तंत्र बना नहीं लेता, तब तक सारे कामकाज बंद कर देने चाहिए ? लोगों को बाथरूम नहीं जाना चाहिए या शादी-विवाह नहीं करना चाहिए? प्यार-व्यार की बेवकूफी में फंसना चाहिए या नहीं ?

किसी बच्चे की करतब पर फिदा होना चाहिए या नहीं या हिंदी के मठाधीशों के खिलाफ कुछ कहना चाहिए या नहीं ? एक चुप, हजार चुप रहना चाहिए ? प्रकृति और समाज को देखना चाहिए या अपनी आँखें फोड़ लेनी चाहिए ? या सब छोड़छाड़ कर लेखक संगठनों में भर्ती हो जाना चाहिए ? आजीवन लेखक संघों का अध्यक्ष बने हुए लोगों के विरुद्ध कुछ नहीं कहना चाहिए ? राजनीति में कुछ करने वालों का विरोध करना चाहिए और लेखक संघ के अध्यक्षों के पीछे दुम दबाकर चलते रहना चाहिए ? इस बात पर गौर नहीं करना चाहिए कि राजनीति या सामाजिक कार्य के परिसर में कुछ लोग चाहे सौ फीसदी भ्रष्ट हों पर अपने समय की जनता की आवाज बनने की कोशिश कैसे करते हैं और साहित्य के धुरंधर पचासों साल से साहित्य की मंडी में कटहल क्यों तौल रहे हैं ?

देश भर में बुराई की जड़ केवल सांप्रदायिक संगठन हैं तो भाई तुम सब कई-कई लेखक संगठन लेकर अब तक क्या कर रहे थे, कुछ ठोस किया क्यों नहीं ? क्यों नहीं ऐसे सांप्रदायिक संगठनों के सामने अपने लेखक संगठनों को ताकतवर बनाया और उसे लोगों के बीच ले गये?  क्या इस संघर्ष में सारा कसूर दूसरों का ही है, लेखकों का नहीं ? कह सकते हैं कि लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं हो सकता, उस तरह राजनीति नहीं कर सकता है, राजनीति के लोग जिस तरह साहित्य नहीं कर सकते हैं, फिर बनते क्यों हो भाई सत्तामुखी लेखक ? राजनीति और देश को छोड़ो, यह तो बताओ खुशफहमी में रहने वाले लेखको कि साहित्य के भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्या किया है अब तक ? क्या जिस-तिस का चरणरज लेकर पाँच सौ के पुरस्कार से लेकर लाखों के पुरस्कार तक पाने के लिए लोग नाक नहीं रगड़ते रहे ? साहित्य अकादमियों में अलेखक और अपात्र प्रोफेसरों की आवाजाही को तो रोका नहीं जा सका , संसद से दागी लोगों को दूर करने की बात किस मुँह से कर सकते हैं भाई ? जाओ अपने मुँह पहले ठीक से धुल आओ. फिर सोचो कि अब किया क्या जाय ? यह बहुत मुश्किल काम है. इसे करने के लिए अपने भीतर के साहित्य के राक्षस को मारना होगा, कितने लोग इस मुश्किल काम को कर पायेंगे ? साहित्य का यह राक्षस औसत रचना और औसत आलोचना दोनों क्षेत्रों में उत्पात मचाये हुए है.

सच तो यह कि कहाँ नहीं होते हैं ऐसे लोग ? बस हमारा स्वार्थ, चाहे छोटे-बड़े पुरस्कार की लालसा हमें राक्षस को देवता समझने के लिए विवश करती है. यही है, हमारे समय के हिंदी की दुनिया का सच. ये पुरस्कार दुनिया को बदलने के काम में लगे हुए पुरस्कारवादी कवियों को भी मजबूर करते हैं कहना यह चाहता हूँ कि इसी वजह से ये कविता की दुनिया का सच देख नहीं पाते हैं या स्वीकार नहीं कर पाते हैं. राक्षस कविता का हरण कर लेते हैं और हम अपनी कविता को छुड़ाने की जगह लंका के पुरस्कार रूपी सोने के चक्कर में पड़े रहते हैं. यह जो बारबार राक्षस कह रहा हूँ, कोई अनाड़ी ही होगा जो सचमुच का राक्षस समझेगा, ये राक्षस धोती और पाजामा और पतलून पहनने वाले राक्षस हैं, बड़ी-बड़ी संस्थाओं के पदाधिकारी होते हैं, संपादक होते हैं, आलोचक होते हैं. जाहिर है कि मेरा आशय बुरे लोगों से है.
   
बुरे आलोचक अपने समय की कविता के साथ बुरा सलूक तो करते ही हैं, आने वाले समय की कविता को भी भ्रष्ट करते हैं.  ऐसे भी आलोचक हैं  जो मिनट-मिनट पर रिव्यू लिखते फिरते  हैं. अधिक नहीं, हजार रुपये का इनाम ले जाए. लेकिन इतना सारा लिखने के बाद भी हमारे समय की कविता का मुक्म्मल चेहरा इस या किसी आलोचक की आलोचना में क्यों नहीं है ? हमारी पीढ़ी का हमारा ढि़लपुक दोस्त भी खूब रिव्यू लिखता रहा है, उसने भी अपने समय की कविता के मुकम्मल चेहरे के बारे में सोचा ही नहीं. ऐसा क्यों , यह सवाल जरूरी है. आलोचना मुशीगीरी नहीं है. आलोचना सेहरा लिखने और शादी-ब्याह में गाने का काम नहीं है. पर हुआ यही है. आलोचक बैठा हुआ है कि संग्रह पैदा हो और वह ढ़ोलक की थाप पर सोहर तुरत गाये. लोकार्पण समारोह में पहुँच कर डिठौना तुरत लगायें. पैदा होते ही भारतभूषण नाम का झुनझुना तुरत थमायें. मैं जानता हूँ कि यह सब उन्हें नहीं अच्छा लगेगा जिन्होंने दो-चार स्मरणीय कविताएँ लिख कर प्रतिष्ठा अर्जित नहीं की है, बल्कि साहित्य अकादमी के या व्यास या अन्य पुरस्कारों के नाते प्रतिष्ठा अर्जित की है.

साहित्य अकादमी के या दूसरे पुरस्कारों को पाने वाले सभी लेखक कमजोर नहीं होते हैं. कई तो बहुत ताकतवर हैं. पर मैने अपने ढि़लपुक दोस्त से जब पूछा कि अमुक अकादमी पुरस्कार वाले कवि की यादगार कविताएँ कौन-सी हैं तो उसने उस कवि के पहले कवितासंग्रह की एक शीर्षक कविता का नाम लिया और कहा कि बस. यह एक उदाहरण है. अफसोस यह कि अफलातून वे बने फिर रहे हैं, जिन्होंने स्मरणीय कुछ किया ही नहीं और दूसरे कवियों के बारे में फतवे जारी करते हैं. वे बता रहे हैं कि कौन-सी कविता बहुत अच्छी है और कौन-सा कवि महत्वपूर्ण. क्या विडम्बना है कि इस अंचल में लंबे समय से रहने वाला कोई कवि इन्हें दिखता ही नहीं. यह मैं किसी और मकसद से नहीं कह रहा हूँ कि लोग आयें और उसे देखें. बल्कि कभी-कभी आरोप लगाने वाले को कुछ सबूत भी देने पड़ते हैं, ये बातें उन्हीं सबूतों की कड़ी के रूप में हैं.

ऐसे समय में जब कविता का परिदृश्य साहित्य की राजनीति से संचालित हो रहा हो, कुछ जरूरी बातों को कहने के लिए खतरे उठाने ही होंगे. आज कविता का संसार औसत का संसार है. आज कितने ऐसे कवि हैं जो कविता लिखने से पहले एक बार सोचते हैं कि कविता क्यों? यश, पुरस्कार और क्रांति वाला प्रयोजन पुराना और बकवास है. मैं आगे की बात कर रहा हूँ कि कवि सोचे कि आखिर दृश्य पर वह नया क्या देख रहा है ? किस नये कोण से देख रहा है ? कविता को देख भी रहा है या कुछ और देख रहा है ? कविता को किस आँख से देख रहा है ? मुझे तो लगता है कि कविता को देख ही नहीं रहा है. उसे पता भी है या नहीं कि जैसे हम कभी-कभी दूसरों की देह ही नहीं , अपनी देह के साथ भी बुरा बर्ताव करते हैं, उसी तरह अपनी कविताओं के साथ भी बुरा बर्ताव करने लगते हैं, दूसरों की कविताओं के साथ तो करते ही हैं. जैसे स्त्रियाँ खराब सौंदर्य प्रसाधन की वजह से या ब्यूटी पार्लरों की दिक्कत की वजह से अपना चेहरा खराब कर लेती हैं, उसी तरह कवि और आलोचक भी कविता की संवेदनशील त्वचा को जलाते ही नहीं, बाजदफा कोई महत्वपूर्ण हिस्सा ( आत्मा-वात्मा ) भस्म कर देते हैं. जैसे भड़कीले लिपिस्टिक से स्त्री कुछ का कुछ लगने लगती है और आलोचक अपनी मूँछ मुँड़ा कर कुछ का कुछ लगने लगता है (यहाँ मूँछ सिर्फ मुहावरे में है, सच में है तो मेरे पास भी नहीं ) उसी तरह कविता को उसके आसन से नीचे बैठा दिया जाता है.

जैसे एक सुंदर देह में सुदर्शन मुखड़े के साथ, ग्रीवा, वक्ष, भुजाएँ और हाथ और उंगलियाँ इत्यादि सब का सुडौल होना अच्छा माना जाता है और सबसे बढ़ कर अच्छे विचार और अच्छे भाव और आत्मा की जरूरत होती है, वैसे ही एक अच्छी कविता में कई चीजों का सम्यक मेल जरूरी है. पर इस आपाधापी वाले वक्त में किसके पास इतना समय है कि यह सब सोचे ? उसे तो रात में कविता लिख कर सुबह आलोचक और संपादक की कृपा मात्र से पुरस्कार लेना है. उसका पहला काम अच्छी कविता लिखना नहीं है बल्कि कोई भी पुरस्कार हथियाना है. क्या यह गलत है ? उसे इस बात की चिंता नहीं कि वह कविता लिख रहा है या रबड़ की गुडि़या बना रहा है. बिना किसी संकोच के कहना चाहूँगा कि ऐसा राजधानी से जुड़े कवियों में अधिक दिखता है. बाहर के तमाम कवि भी राजधानी और उसके दरबार की ओर टकटकी लगाये रहने वाले ही हैं. यह राजधानी की बुराई नहीं है, सिर्फ एक प्रवृत्ति है.   कुछ और समझने से पहले अपने बारे में सौ बार सोचना जरूरी है कि आखिर कविता और उसकी आलोचना को लेकर दिक्कत कहाँ है ? कहना बेहद जरूरी है कि जैसे गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है, शायद उसी तरह विचारधारात्मक गद्य और सभ्यता समीक्षा में लगे हुए आलोचकों के लिए काव्यालोचना को कसौटी कहा जा सकता है. काव्यालोचक ही बड़े आलोचक हुए हैं. 

अपवाद की बात नहीं करता. पर हिंदी आलोचना का दृश्य ऐसा ही है. लेकिन जो सबसे बड़ी मुश्किल है आज काव्यालोचना के लिए वह यह कि आज के जमाने में हिंदी काव्यालोचना काजल की कोठरी है. मैं यह बात केवल अपने समय की कविताओं और आलोचना के संदर्भ में कह रहा हूँ. दुर्भाग्यवश इधर आयी आलोचकों की पीढ़ी में उत्साह का अतिरेक इतना अधिक है कि आलोचक का काव्यविवेक उसके तीव्र प्रवाह में पता नहीं कहाँ बह जाता है. ऐसे आलोचक जिस भी कविता या कवि को छुएंगे, उसके लिए दुनिया का सबसे बड़ा लट्टू बन जायेंगे या जिसे पसंद नहीं करेंगे या तो उसे चिंदी-चिंदी करके ही दम लेंगे या सबसे आसान तरीका ढ़ूँढ़ेंगे कि उसे फूटी आँख से भी न देखें. वैसे यह बीमारी नई नहीं है. अपने समय के बुजुर्ग आलोचकों से आनुवांशिक रूप से मिली है. इससे सबसे बड़ा नुकसान खुद आलोचना का होता है कि वह पाठक और रचनाकार, दोनों का भरोसा खो देती है.

ऐसे उदाहरणों से आलोचना का मौजूदा संसार अटा पड़ा है. आलोचक ही नहीं इस दौर के कई बड़े कहे जाने वाले कवि भी अपने बड़प्पन की ऐसी तैसी खुद ही करते हैं. खासतौर से कमजोर कवियों को ईमान के केंद्र से भटके हुए आलोचकों की तरह गलत ढ़ंग से प्रमोट करने की कोशिश के रूप में. जाहिर है कि यह दुर्गुण बड़े कवि और आलोचक दोनों में एक ही तरीके से आया है. अच्छे आलोचक हों, यह जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कि अच्छे कवि भी हों. अच्छी आलोचना और अच्छी कविता दोनों के विश्वसनीय केंद्र जरूरी हैं.

कविता और आलोचना, दोनों  का अच्छा होना तो जरूरी है ही. यह नई सदी का दूसरा दशक है और हम कहाँ हैं ? जो अच्छी कविता लिखने में भरोसा करते हैं वे मठवृक्षों के इर्दगिर्द नाचते नहीं हैं और जो उनके इर्दगिर्द नाचते हैं अच्छी कविता नहीं लिखते हैं. अच्छी कविता लिखना मुश्किल काम है. पक्की सड़क बनाने जैसा कई चरणों वाला. एक बार में संभव नहीं. कविता भी इधर छोटी और लंबी खूब लिखी जा रही है. पर कभी लगता है कि छोटी कविता का सामान लंबी कविता में खपाने की कोशिश की जा रही है तो कभी लगता है कि लंबी कविता का सामान ठूँस-ठूँस कर छोटी कविता में अँटाने की कोशिश की जा रही है. छोटी कविता में ब्योरे जहाँ कम से कम होंगे, वहीं लंबी कविता में ब्योरे कई बार अंतहीन भी हो सकते हैं.

कथात्मकता दोनों में दिख सकती है, पर एक का वृत्त छोटा होगा तो दूसरे का परिसर चैड़ा. केंद्र दोनों में होंगे पर एक में केंद्र प्रायः कोई भाव या विचार या किसी चरित्र की झलक होगी तो दूसरे में किसी चरित्र या घटना-परिघटना या किसी बड़ी मानवीय समस्या का अंतःसंघर्ष महत्वपूर्ण होगा. एक में लय की एक मद्धिम गति होगी तो दूसरे में शांत प्रवाह या तीव्र वेग. संवेदना अपने लिए जहाँ कई बार भाषा और मुहावरे का चुनाव खुद करती है, वहीं कई बार कवि अर्जित या स्वनिर्मित काव्यभाषा के मोह को छोड़ नहीं पाता और किसी भी कथ्य के लिए एक जैसी काव्यभाषा दुहराता रहता है. अच्छी कविता जहाँ पारदर्शी रूपविधान का वरण करती है, वहीं प्रायः अस्पष्ट और किसी हद तक जटिल बुनावट की कविताएँ अपने कथ्य को या अपनी संवेदना को दुरूह बना लेती हैं. इस तरह की दिक्कतें सभी तरह की कविताओं के साथ होती हैं.

राजनीतिक आशय की कविता हो या प्रेम की या सामाजिक सरोकारों की या स्त्रीविमर्श की. स्त्रीविमर्श से जुड़ी कविताओं के साथ तो दिक्कत इस हद तक है कि जन्म लेने वाले बच्चों के चेहरे तो एक जैसे नहीं होते हैं पर इनकी कविताएँ एक जैसी मुहावरे, एक जैसे चरित्र और एक जैसी नाराजगी में लिखी गयीं लगती हैं. अलग चरित्र नहीं. अलग टोन नहीं. अलग पहचान नहीं. यह बात मैं सभी कवयित्रियों के संदर्भ में नहीं कह रहा हूँ. यह बात कुछ  कवयित्रियों के बारे में है. क्योंकि उनके यहाँ अविस्मरणीय कविता लिखने से ज्यादा जरूरी है खूब ज्यादा कविता लिख और छप कर छा जाना. वे छा जाने के लिए कविता लिख रही हैं, न कि किसी गंभीर रचनात्मक असहमति की विकलता में. मजे की बात यह कि हर जगह के मठाधीश ऐसी कवयित्रियों में दिलचस्पी लेते हैं.   एक आलोचक को तो लगता है कि वे साहित्य की सेवा के लिए नहीं बल्कि ऐसी कवयित्रियों की सेवा के लिए पैदा हुए हैं. एक बार फिर कह दूँ कि यह औसत कवयित्रियों के बारे में कह रहा हूँ. सभी के बारे में नहीं. कुछ बिल्कुल नई कवयित्रियाँ अपनी अच्छी कविताओं से ध्यान भी खींचती हैं. यहाँ जब किसी का नाम नहीं लिया है तो उनका भी नाम नहीं ले रहा हूँ. यह अलग बात है कि यह जमाना ही औसत का है.

औसत कवि भी रोज लिखने और रोज छपने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं. जाहिर है कि रोज-रोज दाढ़ी-मूँछ बनायी जा सकती है, कुछ और रोज-रोज किया जा सकता है, पर जैसे रोज-रोज बच्चा नहीं पैदा किया जा सकता है, उसी तरह रोज-रोज कविकर्म संभव नहीं है. अलबत्ता रोज-रोज हमारे शहर के महान आलोचक रिव्यू लिखने का काम कर सकते हैं. वे तो रोज कई-कई रिव्यू लिखने का काम करते हैं. सुबह इसकी, दोपहर उसकी, शाम को किसी और की. यही नित्य का कर्म. ऐसे जल्दबाज कवि कविता को पलट कर देखते भी नहीं. पर सभी कवि ऐसे नहीं होते हैं. जो ऐसे नहीं होते हैं, वही स्मरणीय कविता लिखने का काम करते हैं. वही आगे की कविता लिखने का काम करते हैं. दिक्कत यह है कि कविता को प्रमोट करने वालों ने नये कवियों में गजब की दौड़ पैदा की है. उन्हें चर्चित होना है. उन्हें इनाम पाना है. मजे की बात यह कि बहुत बड़े कवि भी जो दावा करते हैं कि उन्होंने कोई हजार कविताएँ लिखी हैं, उनके यहाँ भी अविस्मरणीय कविताओं का टोटा है.  

सच तो यह कि अच्छी कविता और खराब कविता के साथ अविस्मरणीय कविता को मिला कर कविता के इस त्रिकोण को हल किये बिना कविता और आलोचना के किसी भी इम्तहान से गुजरने की बात बेमानी है. क्या बेवकूफी है कि अनाज उम्दा चाहिए, मसाले में मिलावट नहीं होनी चाहिए, तेल शुद्ध पीले सरसों का हो, दवाएँ नकली कतई न हों, रुपया बिल्कुल असली हो, गड्डी में एक भी जाली नोट नहीं चलेगा, और कविताएँ कैसी भी हों तो चलेगा. यह दृष्टिकोण कविता का भला नहीं कर सकता. यह दृष्टिकोण भी कविता भी का भला नहीं कर सकता कि राजधानी के कुछ लोग कविता के प्रमाणपत्र बांटते फिरें या दिल्ली के बाहर दिल्ली संस्कृति के एजेंट ऐसा करते फिरें. दिल्ली केंद्रित कविता नहीं, उससे आगे  कवितादेश की बात सोचने का समय आ गया है. अनेक शहरों में कविता के अनेक नये केंद्रों को ढ़ूँढ़ने और उन्हें स्वीकार करने का समय आ गया है. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है तो इसके पीछे की दिक्कतों पर भी नई सदी की कविता के कार्यकर्ताओं को सोचना होगा.
   
नई सदी की कविता के केंद्र क्या वही होंगे जो पुरानी सदी की कविता के केंद्र रहे हैं ? या पुरानी सदी के उपकरणों और काव्यचिंतन के आलोक में कविता के नये केंद्रों की खोज और निर्मिति का काम नई सदी के कवि करेंगे ? देश और दुनिया के मुहावरे से इतर अपने असगाँव-पसगाँव ओर अपने अंचल और अपने लोगों के दुख दर्द में भी कविता को शरीक करने का काम शुरू करेंगे ? अपने परिवेश , अपने घर-दुआर और बाल-बच्चों के बीच कविता की लालटेन जलाने का काम करेंगे ? कभी कहीं न दिखने और न छपने वाली स्त्रियों के संसार और स्वप्न को भी स्वर देंगे ? स्त्रीविमर्श से इतर किसी स्त्री की गर्वीली बिन्दी को भी भासमान करेंगे ? जीवन की गाड़ी में साथी बैल बन कर जुती हुई स्त्री के साझा संघर्ष को भी रेखांकित करेंगे ? कई गौरतलब कविताएँ इधर की याद आ रही हैं. ऐसी भी कई कवयित्रियाँ हैं जिनकी कविताओं की तारीफ भी करता हूँ.
  
सवाल यह कि पुराने कवियों की नकल से इधर के कवि बचेंगे कैसे ? बचेंगे तभी जब ऐसे नकल करने वाले कवियों की भूरिभूरि नकली प्रशंसा से नामीगिरामी आलोचक बचेंगे. सच तो यह कि आलोचकों ने अपनी नावों को खुद ही समुद्र में डुबो कर डूबने की ठान ली है. ये आज की कविता के संकट का हल क्या ढ़ूँढ़ेंगे जब  आज की आलोचना के सामने ईमान के संकट के साथ, काव्यालोचना की भाषा और पारिभाषिक शब्दावली को लेकर भी संकट है. वे पुराने बटखरों से नई सदी की कविता को देखने का काम कर रहे हैं.

पारंपरिक आलोचनात्मक शब्दावली और पदो के साथ तत्सम बहुलता से इस हद तक ग्रसित हैं कि लगता है कि वे आलोचना नहीं बल्कि कोई विचारधारात्मक राजनीतिक लेख लिख रहे हैं या वैज्ञानिक या तकनीकी विषयों पर केंद्रित कोई लेख. जिसमें भाषा के नाम पर ऐसी हिंदी दिखती है जैसे वह यहाँ की नहीं बल्कि पश्चिम के किसी देश की हिंदी हो. आखिर वे आलोचना को रचना की भाषा में और ताजगी के साथ लिखने की पहल क्यों नहीं करते ? लगता है कि जैसे जानबूझ कर आलोचना के असली दाँतों की जगह भाषा के नकली दाँतों का पूरा सेट अपने जबड़े में फंसा रखा है. जाहिर है कि ऐसे आलोचकों के लिए कंठस्थ शब्दावली का वमन ही आलोचना का आदर्श है. आलोचकों ने यह सब कचरा खुद किया है, जाहिर है कि इसकी सफाई की जिम्मेदारी भी आलोचकों की है, पर ऐसे आलोचक जो खुद चलाचली की बेला में हैं, वे अब करेंगे भी क्या खाक ? सफाई तो दूसरे लोग ही करेंगे. यह दूसरी पीढ़ी कहीं बाहर से नहीं आयेगी. नई सदी में जो नयी पीढ़ी के लोग हैं उन्हीं में से कुछ होंगे, जिन्हें इसी नई सदी के भीतर से कविता और आलोचना के नये और भरोसेमंद केंद्र के रूप में अपने को बनाने का ऐतिहासिक काम करना है. ये केंद्र सूर्य हों चाहे चंद्रमा हों या न हों, जुगनू जैसे भी हों तो चलेगा भाई. एक कोशिश तो हो.
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गणेश पाण्डेय को यहाँ भी पढ़ें.

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  1. बहुत ही विचारोत्तेजक और सटीक आकलन है। हमने भी अगर भोपाल और दिल्ली के कुछ जूतों के तस्में बांधे होते और उन्हें गर्व से अपने सर पर रखते तो हमारी झोली में स्थापना, चर्चा, कुछ पुरस्कार और कई प्रकाशन होते...

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  2. सटीक व सच्चाई बयान करता विचारोत्तेजक लेख। आलोचना को बहुत अधिक दायित्वपूर्ण बनना होगा। और सारे वादों ( वाद, वायदे और बजावन ) एक ओर रखने होंगे, निर्मम भी होना पड़ेगा।

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  3. Jo Ganesh jee ne likkha hai uskey liye akoot sahas aur kartavyanishtha chahiye. Bahut acchee lagi thi Bipin jee uss din jo aapney Ganesh jee waali aalochna waali kitaab padh kar sunaya tha. Shabd aur tathyon ka endum sateek aur dhaar-daar prayog evam prahaar jo pardon aur parton ke aar-paar dekhta hai...phir kuttch nahi bachta...aur hamaam mein sab nangey padey dinkhtey hain...atm-mugdhta se ot-prot aur avval darzey ke chaaplooskhor. Ye sab anchhahey baal hee hain. Prerna to Ganesh jee jaisey logon se leni chahiye...jo sach ka ballam uthatey hain aur kushti ke liye taiyaar baithey hain...ab koi saamney aaney ki himmat na karey to sahi mein antatah 'walkout' hee milega aur ve vijai ghoshit kiye jaaenge

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  4. वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य का जो नक्शा पांडे जी ने खींचा है वह यथार्थ की फोटोकपी जैसा लगता है ! तर्क की सुसंगति मे आगे बढ़ता हुआ लेख ठोस जमीनी निष्कर्षों पर जा खड़ा होता है !प्रस्तुति के लिए अरुनदेव जी का आभार !

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  5. इस लेख में आज की रचना आलोचना और पाखंड का कच्चा चिट्ठा पेश किया है प्रो. गणेश पाण्डेय ने. ऐसा आलोचकीय आक्रोश आवश्यक है, इसके बिना समकालीन रचनाशीलता और आलोचना की दादागिरी को उजागर ही नहीं किया जा सकता है. जिन लोगों का धंधा चल निकला है और तरह तरह से हाथ साफ कर रहे हैं उन्हें ये बातें गाली लगेंगी. वे इसे गैरजरूरी साबित करेंगे, हंस कर उपेक्षित करेंगे. लेकिन क्या कोई है जो केंद्र की तरफ से इन सवालों का जवाब देने के लिए तैयार होगा. या महापुरुषत्व की मोटी चमड़ी में पहले की तरह ही अपने को छुपाकर काम निकालते रहेंगे आलोचक और कविगण. आज की साहित्य और अकादमिक जगत की राजनीति सत्ता की राजनीति से कम पतित नहीं है. लेकिन, मज़े की बात यह कि कभी अपने गिरेबान में झांकने की चुनौती और अपनी ही नज़रों से गिर जाने की बातें कौन स्वीकारता है. इस बहस को और बढाया जाना चाहिए और कुछ मुकम्मल प्रतिमान तो तय ही होने चाहियें. इन सवालों को उठाने के लिए पांडेयजी से आलोचकीय साहस की तारीफ की जानी चाहिए.

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  6. बहुत व्यवस्थित तरीके से प्रो. गणेश पाण्डेय जी ने रचना और आलोचना पर लिखा है .. स्त्री विमर्श पर जो उन्होंने कहा है वह सही है . एक सा स्वर , एक सी टोन .. अधिकतर ये ही आ रहा है .
    बस एक बात से विचार मत-भेद है है .. ये ज़माना औसत का है ..
    नहीं , ये ज़माना भयवाह रूप से स्पर्धा का ज़माना है , प्रोफेशनलिज्म का ज़माना है और बाज़ार का ज़माना हैं .. यहाँ औसत आपको शीर्ष पर बैठा भी दिखाई दे सकता है . कुल मिलकर ये कुंठाओं का ज़माना है , इसलिए रचना और आलोचना उससे गहरे तक प्रभावित हैं ..
    सर को इस लेख के लिए बधाई ! अरुण आभार ..

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  7. साहित्य, विशेषकर हिंदी साहित्य, के परिदृश्य पर अध्येता का आक्रोश जायज है ......परन्तु सब कुछ बिगड़ा हुआ सा देखने की अहर्निश दृष्टि .......थोड़ा ज्यादा बलाघात निगेटिविटी पर ......लेकिन एक शानदार प्रस्तुति......!

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  8. yah sach hai ki ausat darje kee kvita likhi jaa rahi hai aur kvita me nye charitron kee avajaahi ki zaroorat hai.. bahut se prshn purskaron kee rajneeti aur lipsa se lekar streevadi vimarsh ke ek se swar vicharneey hain.. bahut achha lekh .. sochne par majboor karta hai..

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  9. आपने हिन्दी आलोचना में व्याप्त व्याधि की निर्मम आलोचना करके सराहनीय काम किया है, लेकिन बिना नाम लिये आलोचना करना भी जैसे एक प्रवृत्ति बनती जा रही है, वैसे debateonline.in पर मौजूद लेख ‘किस प्रलेस की बात कर रहे हैं आप’ नाम लेकर की गई आलोचना का उदाहरण है। उम्मीद है कि यह एक शुरुआत होगी, जब आलोचना मे मौजूद दोषों की आलोचना दिखाई पड़ने लगे। धन्यवाद आपके लेख के लिये।

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  10. "कई बार जगाने के लिए तेज़ बोलना पड़ता है "... आलेख में इसका आभास तो है..किन्तु सच ज्यादातर कड़वा ही होता है !...आलोचना के नाम पर प्रशस्ति वाचन ने कविता और गद्द्य दोनों का भरपूर अहित किया है और लगातार कर रही है, ... अभी किसी विशेषांक में मैंने पढ़ा, एक आलोचक महोदय की आत्मस्वीकृति कि -- "कई बार मैंने खराब कविताओं को भी अच्छा कहा है"... आलोचना के जरिये आगे कुछ सीख पाने का धैर्य भी आज के समय में गायब होता जा रहा है ...किसी भी तथाकथित 'बड़े' आलोचक से पुस्तक का लोकार्पण और बलर्ब लिखवा कर लोग तत्काल ही मुक्तिबोध या शमशेर बन जाना चाहते हैं..! लेखक संगठनों की अकर्मण्यता और साजिशाना आचरण की भी इसमें एक बड़ी भूमिका है । दिल्ली तो हमेशा से दूर ही रही है मानवीय-बोध और आमजन से । सायास लेखन ने कविता को बहुधा क्षति ही पहुँचाई है । .... मुझे लगता है कि कविता वह विधा है जो खुद को लिखवाते समय ( वह समय एक दिन, एक वर्ष कुछ भी हो सकता है )आत्मा को निचोड़ लेती है...आसान नहीं उस प्रसव-पीड़ा से आरामतलबी से गुजर जाना...और उसके बाद भी 'अंधेरे में' का रचा जाना किन्ही अप्रत्याशित क्षणों में ही संभव हुआ होगा !... आने वाले दिनों में आलोचना नई पीढ़ी से बहुत उम्मीद कर रही है ..और स्वस्थ समयों में यह हो सके..इसके लिए कविता को यदि अपने स्वर्णिम इतिहास से सीखना होगा तो वहीं अपने वर्तमान को देखते हुये भी भविष्य से निरंतर संवाद बनाना होगा !... श्री गणेश जी व श्री अरुण जी का आभार !!

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  11. इतना आसान नहीं लहू रोना ......गणेश भाई साहब का हौसला कायम रहे , मैं हुम्शहर होने के नाते इतना दावे के साथ कह सकता हूँ के इसकी कीमत भाई साब लगातार चुकाते रहे है ....नाम वाम लेने से विषय से भटकने का खतरा बढ़ जाता है वैसे जिन अग्रज साहित्य कार की अभी नीलकमल ने चर्चा की है वे दोनों ही लेख में जिन पुरस्कारों का संकेत है उससे नवाजें जा चुके है.....इस उम्मीद के साथ की बातें हवा में नहीं हो रही .....इस विनम्र और विशेष आग्रह कि नाम वाम से परहेज .....लेख पर बेहतर चर्चा के अनुकूल वातावरण निर्मित करेगा....

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  12. गणेश पांडेय जी का यह लेख हमारे समकालीन साहित्‍य और आलोचना दोनों की कई परतों को बेबाकी से खोलकर रख देने वाला है। एक सृजनशील रचनाकार होने के कारण उनके लेखन में रचना के प्रति जो स्‍नेह है, वह भी यहां व्‍यक्‍त होता है, इसलिए इसे क्रिकेट की जुबान में 'ड्रेसिंग रूम' डिबेट की तरह लेना चाहिए... एक ईमानदार आलोचना, जो अपने समय की निर्मम व्‍याख्‍या से कुछ बेहतर परिणामों की अपेक्षा रखती है। ... जहां तक औसत रचना या रचनाकारों की बात है, यह हर कालखंड में होता आया है. समय की छलनी ही न्‍याय करती है...

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  13. अधिकांश लोगों को, सही माहौल दिया जाना, परिश्रमी, प्रतिभाशाली, रचनात्मक, और उत्पादक लेखकों और कवियों को अपनी आलोचना के द्वारा सही मार्ग दिखलाना, दूसरों में रचनात्मकता को प्रोत्साहित करें और उन्में विश्वास दें. इसी मूलमंत्र का पालन करने का हर आलोचक दम भरता है.. बदलते शिल्प, बदलते परिवेश, बदलती भाषा और इसके साथ बदलती दृष्टि, परिणाम-स्वरुप औसत दर्जे की रचनात्मकता... इन सबके चलते आलोचक भी अब बदले-बदले से नज़र आते हैं.. अब शायद ब्रांडेड (branded) वस्तुओं का दौर है. इसलिए आलोचना और आलोचोंका भी एक ब्रांड बनने लगा है.. गणेशजी का लेख बहुत मुखर लेख है.. बहुत हिम्मत के साथ लिखा गया है.. .!

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