मति का धीर : नामवर सिंह









हिंदी के सर्वाधिक चर्चित आलोचक नामवर सिंह ८६ वर्ष के हो गए हैं. समकालीन हिंदी साहित्य को जिस एक व्यक्ति ने सबसे अधिक प्रभावित किया उसका नाम नामवर सिंह है. वे अब भी हिंदी के शिखर पुरुष हैं. अब   भी उनका लिखना, बोलना और  चुप रह जाना  वाद विवाद संवाद के लिए पर्याप्त है.
उनके शिष्य और मीडिया विशेषज्ञ प्रसिद्ध आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने एक अध्यापक के रूप में उनकी भूमिका की पड़ताल की है. नामवर सिंह के जीवन, प्रेम और भारतीयता पर उनके विचारों को परखा है.
यह आलेख इस लिए विशिष्ट है कि यह न वन्दना करता है न व्याख्या. नामवर जी के श्वेत-स्याम पर एक आलोचकीय तटस्थता यहाँ है. अपनी परम्परा के प्रति इतनी निर्ममता जेएनयू की परम्परा में ही संभव है.


आलोचना में नामवर सिंह का मार्क्सवादी प्रेम                           

जगदीश्वर चतुर्वेदी 
                  


नामवरसिंह पर लिखना बेहद असुविधाएं पैदा करता है. मन करता है उनकी खूब प्रशंसा करूँ, विवेक कहता है आलोचना करूँ. आलोचना को विवेक संचालित करता है. लेकिन नामवरसिंह के लेखन में विवेक के साथ भावुकता का भी विशेष योगदान रहा है. वे जब भी बोलते हैं, मन से बोलते हैं. भावुक होकर बोलते हैं. कक्षा में पढ़ाते समय भी भावुकता और व्यक्तिगत भावबोध काम करता रहा है. वहां पर भी वे अपनी निजी इमोशनल प्राथमिकताओं के आधार पर आलोचक विशेष के बारे में पढ़ाते थे. भावुक लगाव के आधार पर ही छात्र के प्रति अपना रूख तय करते थे. वक्तृता और अध्यापन में शास्त्र के अलावा भावनाओं का भी योग होता है. यह चीज मैंने पहलीबार उनको देखकर महसूस की.

मैं मथुरा से माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में बेहतरीन विद्वानों से पढ़कर आया था. दर्शन मैंने आचार्य सवलकिशोर पाठक से पढ़ा, सिद्धांत ज्योतिष संकटाप्रसाद उपाध्याय, वेद और धर्मशास्त्र लालनकृष्ण पंड्या, संस्कृत व्याकरण आचार्य बलदेव शास्त्री और संस्कृत साहित्य आचार्य वनमाली शास्त्री, केशवचन्द्र पांडेय, आचार्य कृष्णचन्द्र चतुर्वेदी ने पढ़ाया था. ये सभी अपने विषय के ज्ञाता विद्वान थे. इन सभी ने 13 साल की लंबी अवधि तक यानी प्रथमा से लेकर सिद्धांतज्यौतिषाचार्य पर्यन्त तक मुझे पढ़ाया था. इन विद्वानों से पढ़ते समय कभी महसूस नहीं हुआ कि शिक्षक के सहृदय मन का शिक्षण से कोई संबंध भी होता है. एकदम वस्तुगत शिक्षण की परंपरा से निकलकर जब मैं जे.एन.यू में दाखिला हुआ तो शास्त्र, माहौल, मित्र, मिजाज और शिक्षक सभी बदले हुए थे. मथुरा में मैं आपातकाल में ही एस.एफ.आई से जुड़ गया था. जे.एन.यू. आने के पहले माकपा का पार्टी मेम्बर था और एस.एफ.आई. का जिला सचिव भी था.  

मेरे मन में कहीं न कहीं इस बात का असर था कि कक्षा में पढ़ाते समय शास्त्र ही प्रमुख है,शिक्षक की भावनाएं और प्राथमिकताएं प्रमुख नहीं हैं.लेकिन जे.एन.यू. में 1979 में जब दाखिला लिया और पहलीबार क्लास करने गया तो नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली देखकर बड़ा मजा आया. पहली बार शिक्षक की संवेदनाओं और शास्त्र के बीच चल रही प्रक्रियाओं को देखा,सुना और महसूस किया.

नामवर सिंह की पढ़ाने की शैली में हर दिन एक नयी तैयारी दिखती थी और उसका सामयिक चीजों और घटनाओं के साथ भी गहरा संबंध हुआ करता था. उनके पढ़ाने की शैली में युवामन के प्रति सम्मान का भाव होता था. युवामन को वे अपने प्रति भक्ति, राजनीतिक लगाव और प्रतिबद्धता के आधार पर परखते थे. उनके सबसे प्रिय छात्र वे ही होते थे जो उनके अनन्यभक्त थे. ये लोग साहित्य ज्यादा हांकते थे और राजनीति कम करते थे. वे उन छात्रों से कम प्रेम करते थे जो उनके भक्त नहीं थे, राजनीति और साहित्य ज्यादा करते थे. भारतीय भाषा केन्द्र में अधिसंख्य छात्र ऐसे थे जो नामवरसिंह के अनन्य भक्त नहीं थे. यह एक विलक्षण बात थी कि वे मार्क्सवाद का व्यवहार में इस्तेमाल करने वाले छात्रों को कम पसंद करते थे. उन्हें वे छात्र ज्यादा अच्छे लगते थे, जिनका मार्क्सवाद से प्रयोजनमूलक संबंध होता था.

मेरे लिए यह बात हमेशा रहस्य रही है कि नामवर सिंह जैसा मार्क्सवाद का बेहतरीन विद्वान व्यवहार में, खासकर छात्रों में, प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों को पसंद क्यों करता है ? प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी वे थे जिनका मार्क्सवाद से सिर्फ पाठ्यक्रम तक संबंध था. पाठ्यक्रम में जो मार्क्सवाद था उसे  वे तोते की तरह पढ़ते थे ,कभी गुनने और उसे जीवन में लागू करके अपने को मार्क्सवादी के रूप में ढ़ालने का किसी ने प्रयास नहीं किया. यही वजह है कि नामवर सिंह का वरदहस्त उन पर होता था जो प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी थे. इनमें से किसी ने भी  कालांतर में मार्क्सवाद पर कभी भी न तो कुछ लिखा और न मार्क्सवाद की अकादमिक परंपरा में उनकी गणना की जाती है. इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों की तुलना हिन्दी के प्रयोजनमूलक कार्य व्यापार से जुड़े मेधावियों से की जा सकती है. इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों को ही नामवरजी की सभी किस्म की मदद अनायास मिलती रही है. मार्क्सवादी छात्रों की मदद उन्होंने बहुत कम की है.

सवाल उठता है नामवरसिंह के भक्त प्रतिभाशाली छात्रों में कोई भी मार्क्सवादी आलोचक पैदा क्यों नहीं हुआ ? नामवरजी ने सैंकड़ो नियुक्तियां की हैं. लेकिन देश में एक भी हिन्दी  विभाग ऐसा निर्मित नहीं कर पाए जो अकादमिक गुणवत्ता का मानक होता. यहां तक कि इनदिनों जे.एन.यू. के हिन्दी विभाग की स्थिति सामान्य स्तर की रह गयी है. यह प्रयोजनमूलक मार्क्सवाद का क्लाइमैक्स है.यह भक्ति का दुष्परिणाम है.

यह सच है कि नामवर सिंह बहुत बड़े विद्वान हैं. खूब पढ़ते हैं. खूब सुंदर पढ़ाते  हैं. लेकिन सुंदर मेधावी छात्र तैयार करने की कला एकदम नहीं जानते. विद्यार्थी को तरासना और शिक्षित-दीक्षित करना एकदम नहीं जानते.  जे.एन.यू. में हर विभाग में ऐसे शिक्षक रहे हैं जिन्होंने  अपने शास्त्र के श्रेष्ठतम प्रयोगकर्ताओं को पैदा किया है. लेकिन नामवरसिंह की यह बड़ी  कमजोरी रही है कि वे अपने जैसा परिश्रमी एक भी छात्र तैयार नहीं कर पाए.

एक अन्य चीज जो बार बार खटकती रही है कि वे सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहें लेकिन निजीतौर पर वे कभी जे.एन.यू. कैंपस में हिन्दी में मार्क्सवादी चेतना और विचारधारा से लैस छात्र-छात्राओं को निर्मित नहीं कर पाए. एक मार्क्सवादी की सफलता तब मानी जाती है जब वह नई मार्क्सवादी पीढ़ी तैयार करे. नामवर सिंह का यह सबसे कमजोर पक्ष है.वे जाने जाते हैं मार्क्सवादी के रूप में लेकिन अध्यापन के दौरान वे एक भी अच्छा मार्क्सवादी तैयार नहीं कर पाए. नामवर सिंह के सबसे प्रिय और कृपापात्र वे छात्र रहे हैंऔर आज भी हैं,जो मार्क्सवादी नहीं हैं, या प्रयोजनमूलक मार्क्सवादी हैं.फलतः आज जे.एन.यू. के हिन्दी विभाग की कोई विशिष्ट पहचान नहीं है. नामवर सिंह के रहते हुए एक भी बेहतरीन अनुसंधान कार्य विभाग की ओर से सामने नहीं आया. जबकि जे.एन.यू.  के अनेक विभाग हैं जहां शिक्षक लगातार अनुसंधान करते रहते हैं और उनके नए  शोध कार्य प्रकाशित होते रहते हैं. इसके बावजूद नामवर सिंह सारे देश में मार्क्सवाद के प्रतीक पुरूष के रूप में जाने जाते हैं.

एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके जे.एन.यू. कार्यकाल के दौरान उनकी कोई आलोचना कृति सामने नहीं आई. सवाल यह है कि इतने बड़े ओहदे पर लंबे समय तक काम करने के बाद भी नामवरजी को मार्क्सवाद का कोई भी विषय लिखने के लायक महसूस क्यों नहीं हुआ ?जिस पर वे विस्तार से कभी लिखते. उन्होंने कभी किसी मार्क्सवादी परकिताब नहीं लिखी. किसी मार्क्सवादी सिद्धांतत पर किताब नहीं लिखी. जबकि सारी दुनिया में मार्क्सवादियों ने मार्क्सवादी और मार्क्सवादी सिद्धांत पर किताबें जरूर लिखी हैं. भारत में राहुल सांकृत्यायन, यशपाल,रामविलास शर्मा आदि उदाहरण हैं. नामवरसिंह मार्क्सवाद पर किताब  लिखने से क्यों भागते रहे हैं, इसका कोई संतोषजनक उत्तर आज तक नहीं मिला है. असल में वे मनसा-वाचा मार्क्सवादी हैं, कर्मणा नहीं.

नामवर सिंह की चाह और सच्चाई में विशाल अंतराल है. वे जो चाहते थे वह उनको मिला है.  उन्हें नाम, यश, साख, विद्वत्ता, धन, पद आदि सब कुछ मिला है. उनका अकादमिक दर्जा हमेशा से बहुत ऊँचा रहा है. लेकिन उस दर्जे के अनुकूल उन्होंने कम लिखा है. एक अकादमीशियन सिर्फ कक्षा और वक्तृता से नहीं पहचाना जाता बल्कि लेखन और शोध से पहचाना जाता है. बिडम्वना है कि नामवर सिंह ने आलोचना के रूप में बहुत लिखा,आलोचक के रूप में हजारों भाषण दिए, लेकिन एक भी नयी आलोचना की अवधारणा का निर्माण नहीं किया. आलोचना के नए मानक भी निर्मित नहीं कर पाए.

नामवर सिंह की हिन्दी आलोचना में महत्ता है. वे आज भी 86 साल की उम्र में सबसे ज्यादा सक्रिय विद्वान हैं, देश में चारों ओर उनके दौरे अभी भी होते हैं. उनकी यही सक्रियता सभी को चकित और मुग्ध करती है. मुझे उनका बराबर आशीर्वाद रहा है और उसका मुझे सुफल भी मिला है. वे हमेशा मन से चाहते रहे हैं कि मेरी उन्नति हो. मैं जब भी मिला हूँ उन्होंने खुले मन से मेरे साथ सुंदर हृदयस्पर्शी व्यवहार किया है. यह बात दीगर है कि मैं उनके भक्तछात्रों की टोली में कभी नहीं रहा और न नामवरजी ने ही मुझे भक्तटोली में शामिल करने की कोशिश की. वे हमेशा कहते हैं कि आप शिष्य तो मेरे ही कहलाओगे और मैं हमेशा इसे स्वीकार भी करता रहा हूँ.

निजी तौर पर नामवर सिंह जब भी बातें करते हैं तो उसमें एक खास का किस्म उदारभाव होता है जो उनकी सामान्य सी बातों के जरिए मन को स्पर्श करता है. मुझे जो चीज सबसे अच्छी लगती है वो है उनकी उदार भाषा. लिखने और बोलने में उनकी मर्मस्पर्शी उदार भाषा अभी भी मन को छूती है. ईर्ष्या भी होती है कि ऐसी मर्मस्पर्शी भाषा मेरे पास क्यों नहीं है. मेरे व्यक्तित्व और मानसिक गठन का पूरा काय़ाकल्प करने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है. उनकी कक्षाएं, भाषण, बातचीत और किताबें प्रभावित करती रही हैं. आज भी संकट की अवस्था में उनका लिखा पढ़ता हूँ और आनंद लेता हूँ, मन ही मन आलोचना करता हूँ कि वे गहराई में जाकर और क्यों नहीं लिखते.

एक अन्य पहलू जो काफी विवादास्पद है. जिसकी ओर कभी लिखकर किसी ने ध्यान नहीं खींचा. नामवरसिंह जब भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष थे या भाषा संस्थान के डीन बने या अकादमिक परिषद के सदस्य थे तो उस समय पद रहते हुए अमूमन वे छात्रों के खिलाफ और विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ हुआ करते थे. प्रशासन के खिलाफ उन्होंने कभी राय जाहिर नहीं की. इसके कारण एक अजीब स्थिति हमेशा रहती थी. हमलोग छात्र प्रतिनिधि के नाते जब भी किसी समस्या पर उनसे समर्थन के लिए अनुरोध करने घर जाते थे तो वे हमेशा सहयोग का आश्वासन देते थे, लेकिन अकादमिक परिषद या प्रशासन के सामने हमेशा छात्रों के खिलाफ राय देते थे. यानी निजी बातचीत में नामवर और प्रशासन में नामवर में अंतर करके देखा जाना चाहिए.  निजी बातचीत, सभा,गोष्ठी आदि में वे हमेशा छात्रों के पक्ष में होते थे लेकिन प्रशासनिक मीटिंगों में हमेशा प्रशासन के अ-लोकतांत्रिक फैसलों के हिस्सेदार रहे हैं. मैं 1980-81 में भाषा संस्थान में कौंसलर था. मैंने अनेक मर्तबा उनको अ-लोकतांत्रिक फैसले लेते देखा है और हमको मजबूर होकर उनके खिलाफ आंदोलन करना पड़ता था और बादमें आंदोलन के दबाव में उन्होंने अपने फैसले बदले भी हैं. इस समूची प्रक्रिया ने एक विलक्षण अनुभव दिया है. मौटे तौर पर जे.एन.यू. में जो लोग सामान्य जीवन में प्रगतिशील हैं, वे जरूर नहीं है कि प्रशासन में भी प्रगतिशील हों. जीवन में प्रगतिशील और प्रशासनिकस्तर पर अलोकतांत्रिक का द्वैत जे.एन.यू. के अधिकांश प्रगतिशील शिक्षकों की सामान्य प्रकृति रहा है. नामवरसिंह में भी यह फिनोमिना था.


नामवरसिंह के मध्यवर्गीय व्यक्तित्व के अनेक रूप हैं. जिस तरह सामान्यतौर पर मध्यवर्ग के पास एकाधिक मुखौटे हैं, वैसे ही नामवर सिंह के पास भी एकाधिक मुखौटे हैं. ये मुखौटे उनके आत्मकथा के अंशों में सहज रूप में व्यक्त हुए हैं. नामवर सिंह के व्यक्तित्व का एक पहलू है उनका सामान्य उदार व्यवहार, लेकिन एक अन्य पहलू  भी है जिसमें वे कभी कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रतीक के रूप में भी नजर आते हैं. परिवार नामक संस्था में उनकी अनुपस्थिति और अपने परिवार से लंबे समय तक दूरी के कारण उनके व्यक्तित्व में एक खास किस्म की जटिलता पैदा हुई है. इसने उनके समूचे नजरिए को प्रभावित किया है. परंपरागत नियमों को तोड़ने और साहित्यिक रूढ़ियों को तोड़ने में उनकी खास दिलचस्पी रही है. नियम तोड़ने में वक्तृत्व कला का उन्होंने जमकर इस्तेमाल किया है. जो चीजें वे सामान्य जीवन में अर्जित नहीं कर पाए उसे उन्होंने भाषणकला और लेखन में हासिल करने की कोशिश की है. इस प्रसंग में उनकी किताबों में उद्धरणों के चयन को देखें तो उनके नजरिए को साफतौर पर समझा जा सकता है. नामवरसिंह स्वयं उद्धरणों की एक किताब लिखना चाहते थे. हम सिर्फ यहां उनके यहां से कुछ सामयिक समस्याओं पर उनके नजरिए को व्यक्त करने वाले विचार दे रहे हैं. इससे समस्या के विभिन्न आयामों के साथ सही नजरिए को भी समझने में मदद मिलेगी.





आत्मकथा

नामवर सिंह ने अपने संबंध में लिखा है "मेरा कोई भी काम बिना बाधाओं के होता ही नहीं, कहने को तो मैं भी प्रेमचंद की तरह कह सकता हूँ कि मेरा जीवन सरल सपाट है. उसमें न ऊँचे पहाड़ हैं न घाटियाँ हैं. वह समतल मैदान है. लेकिन औरों की तरह मैं भी जानता हूँ कि प्रेमचंद का जीवन सरल सपाट नहीं था. अपने जीवन के बारे में भी मैं नहीं कह सकता कि यह सरल सपाट है. भले ही इसमें बड़े ऊँचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियाँ न हों. मैंने जिन्दगी में बहुत जोखिम न उठाये हों.ब्रेख्त के एक नाटक गैलीलियो का एक वाक्य अकसर याद आता रहा है कि बाधाओं को देखते हुए दो बिन्दुओं के बीच की सबसे छोटी रेखा टेढ़ी ही होगी. मेरे जीवन की रेखा भी कहीं-कहीं टेढ़ी हो गयी है. जहाँ टेढ़ी हुई है, उसका जिक्र करूँगा."

"मैं यह कह रहा हूँ कि मेरी जिन्दगी भी एक हद तक ऊसर है और एक हद तक उसमें उगने वाली नागफनी है जिसमें काँटे होते हैं और सीधे तड़ंगे बाँस होते हैं. यदि प्रकृति कहीं न कहीं परिवेश को प्रभावित करती है तो शायद मेरे व्यक्तित्व को- मेरे जीवन को उसने प्रभावित किया हो."

"मैं अभागा हूँ कि माँ की मृत्यु हुई तो जोधपुर में था. काशी ने तार भेजा तो तार दिल्ली होते हुए जोधपुर गया. पिता जी की मृत्यु हुई तो मैं दिल्ली में था. उनका मुँह भी नहीं देख सका. इस मामले में काशी भाग्यशाली है. अंतिम दिनों में माँ की सेवा की और पिता की भी सेवा की. मैंने तो कोई जिम्मेदारी निभायी नहीं उन दोनों के प्रति लेकिन उन्होंने अपने आशीष का हाथ बराबर मेरे सिर पर रखा. "

"अभी भी हमारा संयुक्त परिवार है. अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे अनमोल दो भाई मिले. गाँव में ही नहीं, आस-पास के पूरे क्षेत्र में मिसाल दी जाती है हमारी. मुझे खुशी है कि मेरे दोनों भाई आज भी मेरे साथ हैं. मैं कहना चाहता हूँ कि भाइयों का प्यार मैंने जाना. मेरे भाई अगर न होते, तो मेरे जैसा आदमी जो बनारस छोड़ कर जगह-जगह द्घूमता रहा, दिल्ली आया, जोधपुर गया, सागर गया, फिर दिल्ली आया, परिवार कभी साथ नहीं रहा, कैसे कुछ कर पाता. जब मैं बनारस में था तब भी मैंने नहीं जाना कि राशन की दुकान कौन सी है, सब्जी कहाँ मिलती है, कैसे घर का खर्च चलता है. सारा का सारा काम काशी करते थे जो हमारे साथ रहते थे. हाईस्कूल करके गाँव से आये थे काशी और सारी जिम्मेदारी ले ली थी. कभी-कभी मुझे बहुत अफसोस होता है कि यदि काशी पर वह बोझ न होता तो वह और जाने क्या बन गये होते. लेकिन मैं तो लाचार था. मैं निश्चिन्त हो गया था काशी पर सब कुछ छोड़कर के. माँ साथ रहती थी, मेरी पत्नी थी घर में. मेरा बेटा आ गया था, पिता जी भी आया करते थे गाँव से, मझले भाई भी आते थे. उनका भी परिवार था. इन तमाम चीजों को बरसों तक काशी ने संभाला. इसीलिए काशी के लिए एक स्नेह तो अनुभव करता हूँ लेकिन एक आँण भी है जो बराबर महसूस करता रहा हूँ. इसे कभी नहीं भूल सकता, हालांकि कभी कहा नहीं, कभी लिखा नहीं."

"पिता जी ने मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह किया था, सही है लेकिन उसका दंड मेरी पत्नी भोगे यह उचित नहीं, यह मैं जानता था. और जानता हूँ लेकिन जाने क्यों मन में ऐसी गाँठ थी कि मैं पत्नी को पति का सुख नहीं दे सका."

" मैंने कभी अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा था, 'सबसे बड़ा दुख क्या है?' बोले, 'न समझा जाना.' और सबसे बड़ा सुख ? मैंने पूछा. फिर बोले, 'ठीक उलटा! समझा जाना.' अगर लगे कि दुनिया में सभी गलत समझ रहे हैं लेकिन एक भी आदमी ऐसा है जिसके बारे में तुम आश्वस्त हो कि वह तुझे समझता है तो फिर उसके बाद किसी और चीज की कमी नहीं रह जाती."

" मैं जन्मकुंडली, हस्तरेखा, ज्योतिष किसी में विश्वास नहीं करता और न मृत्युबोध का विलास पालने की कामना है मेरी. दरअसल बीमारियाँ मेरे लिए इसलिए दुखद हैं कि वे पर निर्भर बनाती हैं."

"एक चीज याद रखो, विरोध उसी का होता है जिसमें तेज होता है. विरोध से ही शक्ति नापी जाती है. जब छोटी सी चिन्गारी दिखाई पड़ती है तो लोग घी नहीं पानी डालते हैं."

"दरअसल हम लेखक लोग मध्यवर्ग के हैं और मध्यवर्ग में जो कुछ ऊपर ठीक-ठाक जगह पर पहुँच जाता है तो लोग अचानक उसको सत्ता और प्रतिष्ठान के प्रतीक के रूप में देखने लगते हैं. वस्तुतः हम लोग विशाल तंत्र के पुर्जे हैं. कोई छोटा है तो कोई बड़ा है."

"मैंने किसी के हाथ के नीचे तो अपना हाथ नहीं रखा. रखा है तो किसी के हाथ पर हाथ रखा है. और रखा है तो उसके बदले में कुछ लिया नहीं है."

"मैं पुरस्कारों के मामले में प्रूपफरीडर हूँ जो भूल सुधार का काम करता है. जो लोकमत है, साधुमत है मैंने उसी के अनुसार काम करने की कोशिश की है. इसके बाद भी यदि मुझे अपयश मिलता है तो अपयश भी शिरोधार्य.

शमशेर जी से मैंने किसी का यह शेर सुना थाः

न हंसना ही सलीके का, न रोना ही सलीके का.
परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता
जो हो सकता है इससे वह किसी से हो नहीं सकता
मगर देखो तो फिर कुछ आदमी से हो नहीं सकता.

मैं इतना निराशावादी नहीं हूँ कि यह कहूँ कि कुछ आदमी से हो नहीं सकता. क्योंकि 'जो हो सकता है इससे, वह किसी से हो नहीं सकता.' रही बात सलीके की, तो मैंने जो बातें की हैं, चाहता था कि सलीके से कहूँ. क्योंकि एक साहित्यकार, कलाकार के हँसने में, रोने में एक सलीका तो होना ही चाहिए. पता नहीं मेरा यह काम सलीके से हो सका या नहीं! आश्वस्त नहीं हूँ.अंत में पीछे मुड़कर अपने पूरे जीवन का सिंहावलोकन करता हूँ तो अंदर-अंदर वहीं प्रश्न उठता है जिससे मुक्तिबोध बेचैन रहते थेः
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया?"


प्रेम 

नामवरसिंह ने कभी प्यार नहीं किया, लेकिन प्यार की हिमायत में खूब लिखा है, वे प्यार के सवालों पर खूब जमकर बोलते भी हैं, लेकिन वे प्यार करने के मामले में जोखिम उठाने से कतराते रहे हैं या उनके अंदर एक कायर मन भी रहा है जो उनको प्यार नहीं करने देता. उनके प्रेम संबंधी नजरिए पर गालिब, एरिक फ्रॉम और हजारीप्रसाद द्विवेदी का गहरा प्रभाव है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास "अनामदास दास का पोथा" के बहाने लिखा है," प्रेम पाप नहीं है, बल्कि मनुष्य का 'स्वभाव' है और इस स्वभाव को स्वीकार करके ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है." प्रेम हो तो क्या होता है ? नया जन्म होता है. प्रेम को वह सबसे बड़ा पुरूषार्थ मानते हैं.

''मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है. यह नारायण का पवित्र मन्दिर है. पहले इस बात को समझ गई होती, तो इतना परिताप नहीं भोगना पड़ता. गुरु ने मुझे अब यह रहस्य समझा दिया है. मैं जिसे अपने जीवन का सबसे बड़ा कलुष समझती थी, वही मेरा सबसे बड़ा सत्य है. क्यों नहीं मनुष्य अपने सत्य को देवता समझ लेता आर्य?'' प्रेम में बार बार बंदिशें परेशान करती हैं. सामाजिक विकास में बंदिशें वैसे भी बड़ी बाधा हैं.

नामवरसिंह बंदिशों के विरोधी हैं. इस मामले में उनके विचार और कर्म में बहुत कम अंतर है. सामान्यतौर पर प्रेमविवाह करने वालों से वे बड़े खुश होते हैं और यदि उनके किसी शिष्य ने प्रेमविवाह किया है और दावत आशीर्वाद पर बुलाया है तो वे जरूर जाते हैं. सामंती बंदिशों को तोड़ने में वे अपने शिष्यों की मदद भी करते रहे हैं. प्रेम को वे कमजोरी नहीं मानते. उनका मानना है "मानवीय प्रवृत्तियों का दमन सामन्ती दमन का ही एक अंग है. अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख अस्त्र रही है. सामन्ती युग में इस दमन-कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता था और आधुनिक पूंजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानिक-तार्किक-व्यावहारिक नीतिशास्त्र का भी." " कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी में सूरदास आदि का भक्तिकाव्य इस सामन्ती दमन के विरुद्ध मानवीय विद्रोह था." "इस पाप-बोध जगाने वाले वर्ग से निपटने के लिए भक्तों के पास सबसे अमोद्घ अस्त्र था- प्रेम. आश्चर्य नहीं कि पुरोहिती हितों के पोषक पंडितों ने सबसे अधिक कोप इस 'प्रेम' पर ही प्रकट किया. कोप का एक रूप तो यह है कि इसे अभारतीय कहकर अग्राह्य बना दिया जाय."

आचार्य पुरगोभिल ने कहा है,''अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा, तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी.''
नामवरसिंह के अनुसार मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में, खासकर,सूरदास के यहां '' १. प्रेम ही परम पुरुषार्थ है २. भगवान के प्रति प्रेम कौलीन्य से बड़ी चीज है ३. भक्ति के बिना शास्त्र ज्ञान और पांडित्य व्यर्थ है और ४. भक्त भगवान से बड़ा है.'' ''इसका मतलब यह नहीं कि सूरदास स्मार्त पन्थ के विरोधी हैं. वे भक्ति को सर्वोपरि समझते हैं. अगर भक्ति है तो तीर्थ-व्रत की जरूरत नहीं, अगर भक्ति नहीं है तो तीर्थ-व्रत से कुछ बड़ी चीज की प्राप्ति नहीं होगी. भगवान की दृष्टि में जाति-पांति, कुल -शील आदि कोई चीज नहीं है. केवल प्रेम चाहिए, प्रेम से ही वे मिलते हैं.''


भारतीयता
नामवर सिंह के ही शब्दों में "सवाल यह है कि एक भारतीय लेखक के लिए भारतीयता आज समस्या क्यों है? कहीं यह हमारे मध्यवर्गीय अपराधबोध का प्रक्षेपण तो नहीं? भारतीयता की समस्या को लेकर सबसे ज्यादा परेशान वह लेखक दिखते हैं जो इस अपराधबोध से सबसे ज्यादा ग्रस्त हैं. शायद मूल पाप वह है जब भारत ने पहले पहल पश्चिम के ज्ञान का फल चखा. भारत को एकाएक यह एहसास हुआ कि वह पूर्व है पश्चिम से भिन्न  है और एक भारतीय को पहली बार यह महसूस करना पड़ा कि वह वस्तुतः भारतीय होना है. भारतीयता अचानक एक समस्या हो गई. अब सहज रूप से भारतीय होना सम्भव न रहा. एक जमाना था जब हर कलाकार को सहज रूप से भारतीय होने की स्वतंत्राता थी. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह कहा था तो वह अतीत की एक मधुर स्मृति होने के साथ ही वर्तमान की कटु अनुभूति भी थी."


"इतिहास की यह भी एक विडंबना ही है कि जिस पश्चिम ने पुरातन भारत को मारकर उसे दपफन किया उसी ने बाद में अस्थि-पंजर की खुदाई करके इतिहास से परिचित कराने का दम भी भरा. समस्यामूलक भारतीयता, वस्तुतः इसी उपनिवेशवाद की सन्तान है और इसी कारण मूलतः उपनिवेशवादी विचारप्रणाली का एक अंग भी-एक ऐसी मिथ्या चेतना जिसकी अभिव्यक्ति बंकिमचन्द्र से अब तक अनेक रूपों में हुई है. पश्चिम के द्वारा भारत जैसे भारतीय होने के लिए अभिशप्त था. पश्चिम की चुनौती के सम्मुख भारतीय होने का हर संभव प्रयत्न एक प्रकार की मिथ्या चेतना बनता गया, क्योंकि भारतीय होने की हर अदा पश्चिम द्वारा निर्धारित थी. स्वर्णिम अतीत का गौरवबोध हो या फिर भविष्य में उस अतीत के प्रत्यावर्तन की आशा, पश्चिम के भौतिकवाद के विरुद्ध भारत के अध्यात्मवाद का औचित्य स्थापन हो या पाश्चात्य परिवर्तनशीलता के विपरीत अपनी स्थिरता का आत्मतोष- भारतीय मनीषा द्वारा निर्मित सारे सुरक्षा कवच, वस्तुनिष्ठ रूप से उपनिवेशवादी विचारप्रणाली के ही अस्त्रा साबित हुए. विडंबना यह है कि जातीय अस्मिता के ये सारे प्रयत्न आत्मोपार्जित प्रतीत होते थे जबकि सचमुच वे पश्चिम प्रदत्त थे. दृष्टि इस बात की ओर नहीं गई कि स्वयं पश्चिम और पूर्व की इस द्वैधता में ही मिथ्या चेतना अन्तर्निहित है."

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कलकत्ता वि.वि. में (हिन्दी विभाग) प्रोफेसर
ई-पता :  jagadishwar_chaturvedi@yahoo.co.in   

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  1. भई वाह, जगदीश्वर !
    मेरी जानकारी में नामवरजी के अंतर्विरोधों पर किसी ने भी पहली बार इतना अच्छा लिखा है, इतनी निस्संगता के साथ जो लगभग 'विरल' होती जा रही है. कहते बहुत लोग रहे हैं, इनमें से अधिकांश बातें; इनमें मैं अपन आपको भी शामिल मानता हूं. मुझे लिखने का अंदाज़ बहुत अच्छा लगा : सहज, आत्मीयतापूर्ण एवं आलोचनात्मक. एक ख्यातिप्राप्त सार्वजनिक व्यक्तित्व का ऐसा चित्रण विरल है, शब्द के सही अर्थों में. मेरी बधाई स्वीकारो.

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  2. सर निश्चित ही आपने सहमत होने के दौर में असहमति का रिस्क उठाया है और क्योंकि अनुभव आपके अपने हैं तो उन पर संदेह का सवाल ही नहीं। पर फिर भी कुछ संदेह है तो उस समय पर जिसने आपको इन सब उद्घाटनों से बाँधे रखा। आज आप सैटल्ड हैं। एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। आज इस तरह की बातें करने के लिए आपके विवेक का जगना कुछ संदेह जगाता है। और मैं पहले ही अपनी गुस्ताखी के लिए आपसे माफ़ी की कामना रखता हूँ - कि जैसाकि आपने कहा कि नामवर सिंह ने सैंकड़ों नियुक्तियाँ की, क्या उसमें आपका भी नाम हैं। अगर है तो क्या यही वजह रही अपने अनुभवों को अब तक दबाने की . और अगर नहीं हैं तो आप जैसा लेखक नामवर सिंह के गुणगानों के इस दौर में अपनी असहमति की आवाज़ को क्यों बुलंद नहीं कर सका। आपके विवेक को जगने में इतना वक्त कैसे लगा। एक पाठक होने के नाते मैं यह भी जानना चाहूँगा कि इसके आड़े आपकी विचारधारा आई की नहीं? क्या पार्टी पॉलिटिक्स(और जिससे आप संबद्ध है वह तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ख़ासा ज़ोर देती है) अपने गुरु पर लिखने के लिए आपको अब तक रोके हुए था। बहरहाल देर से ही सही ऐसे स्वरों का हमेशा स्वागत किया जाना चाहिए जो सहमति के दौर में अपनी असहमति को सार्वजनिक करते हैं।

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  3. यह लेख आत्मियता पूर्वक एक गुरू की कमजोरी और मजबूती दोनों को एक साथ उजागर करता है। इस लेख के बारे में बस इतना ही कहना काफी है कि इसे सबको पढ़ना चाहिए।

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  4. बेहतरीन चयन . इन अंशों को दुबारा पढ़ना अच्छा लगा . आरम्भ की लंबी भूमिका व्यर्थ ही इस चयन की पठनीयता को दुष्कर बनाती है . कुछ प्रभाववादी किस्म की चर्चा (जो कोई , कहीं भी , किसी के लिए भी कह सकता है ) और कुछ आत्म -परिचय . जगदीश्वर जी ने नामवर सिंह के कृतित्व और व्यक्तित्व का गहराई से अध्ययन किया है . आशा है , जल्दी ही , नामवर सिंह पर एक गंभीर , जिम्मेदाराना और अर्थपूर्ण समालोचना उन की कलम से पढ़ने को मिलेगी .

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  5. bahut sundar lekh likha hai.. naamvar ji ko sunna adbhut hai.. unki vidvta ka paar paana bhi..

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  6. जगदीश्वर जी ने लेख सचमुच पूरे मन से लिखा है. मैं भी नामवर जी का शिष्य रहा हूँ, उनके स्वभाव की उन विचित्रताओं से भी परिचित हूँ जिनका जिक्र जगदीश्वर जी ने किया है. यह जानकर अच्छा लगा कि जगदीश्वर जी लिखते हुए जरा भी अशालीन नहीं हुए, जब कि उनके प्रशंसकों या विरोधयों ने उनके बारे में लिखते हुए संतुलन नहीं बनाये रख सका है. अच्छा लगता वह कुछ और खुलते.

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  7. जेएनयू के बौद्धिक हल्कों की खिड़की जेएनयू बाहर खुल रही है . नामवर जी के विरोधों -अंतर्विरोधों पर रोचक लेख ..

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  8. shandaar lekh samalocahn ke jarey padhwane ka shukaiya arun jee

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  9. आलोचना के शिखर पुरुष नामवर, सहज-सरल भाषा को आलोचना का औज़ार बनाने वाले नामवर, प्रेम को प्रश्रय देनेवाले नामवर, एकरेखीय जीवनशैली जीने को अभिशप्त नामवर। व्यक्तिक जीवन और दृष्टि के मामले में कुछ कुछ चन्द्रकांता संतति टाईप की अय्यारियों वाले नामवर। सुना-पढ़ा और जितना समझ सकता था, समझा। लेकिन ये पक्ष तो कभी आया ही नहीं, क्योंकि नामवर की निरपेक्ष्य आलोचना करने की किसी ने हिम्मत ही नहीं दिखाई। जगदीश्वर जी ने जिस बेबाकी से मति का धीर प्रदर्शित किया है। आत्मीय निस्संगता भी होती है, आज पता चला।

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  10. सन्‍‍मार्ग3 मई 2012, 5:34:00 pm

    नामवर सिंह जी के व्‍यक्तित्‍व का बहुत ही ईमानदारीपूर्ण विवेचन. ऐसी धारदार विवेचना उनके करीबी आपके जैसा विद्वान समालोचक से ही संभ्‍ाव है. इस लेख से लोगों नामवर जी के बारे में समय समय पर उठने वाली अनेक भ्रांतियों एवं वि‍वादों को भी सही परिप्रेक्ष्‍य में समझने में आसानी होगी. आपको और संपादक अरूण देव जी दोनों को हार्दिक धन्‍यवाद

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  11. बहुत ईमानदारी से लिखा गया ...सपाट बिना लागलपेट वाला लेख ...आम तौर किसी धुरंदर के बारे में लिखते हुए उनसे जुड़ा हुआ व्यक्ति कुछ लिखता है तो बड़ी दुविधा वाली स्थिति होती है . ऐसा लेखक कई प्रकार की निकटता के दबाव में दोस्ती, शिष्यत्व आदि की शिष्टता के बोझ तले दबा हुआ लिखता है तो ईमानदारी की कुर्बानी हो जाती है. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने वाकई बहुत संतुलित तरीके उन्हें शीशे में उतरा है, उन्हें बधाई . आपके माध्यम से ऐसा बेबाक इमानदार लेखनप्रवृत्ति सामने आ रही है इसलिए आपको भी बधाई . मैं यह लेख कापी करना चाहता था लेकिन मुझ जैसा काम्प्युत्री जानकारी के मामले में नौसिखिया कापी करने का जो तरीका जनता है वह कारगर नहीं हो पाया इसलिए यह इच्छा अपूर्ण ही रह गयी

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  12. मैं कुछ कहना तो नहीं चाह रहा था। पर अरुणदेव ने देखने का अवसर दिया है तो कुछ न कुछ कहना भी विवशता है। यकीन करें मैं उनसे ही टकराना पसंद करता हूँ जो लेखक हों। लेखक होने की पहली शर्त है किसी स्वाभितानी लेखक का अपमान न करना या उसके विरुद्ध षडयंत्र में षामिल न होना। जहाँ तक मैं जानता हूँ नामवर जी किसी स्वाभिमानी लेखक को अपमानित नहीं करते हैं। यह उनका बड़ा गुण है। दुर्भाग्य से नामवर जी का प्रधानशिष्य बनने की इच्छा रखने वालो मित्रों को इस पर ध्यान देना चाहिए। मेरे पहले कविता संग्रह की गुरु सीरीज की दस कविताओं में एक कविता है जब मुझे मेरे गुरु ने वर्खास्त किया-‘‘मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ/ न पसीना छूटा, न लड़खड़ाए मेरे पैर/सब कुछ सामान्य था मेरे लिए/जब मुझे मेरे गुरु ने बर्खास्त किया / और बनाया किसी खुशामदी को अपना/प्रधानशिष्य/बस इतना हुआ मुझसे/कि मैं बहुत जोर से हँसा।’’ क्या जो लेख सामने है उसमें विचलित होने जैसा कुछ है या नहीं, यह मैं नहीं कहता। पर नामवर जी का प्रधानशिष्य बनने की आकांक्षा की विकलता और विफलता में खुद को एक बड़े काव्यालोचक के रूप में खुद को सामने लाना चाहिए था। नामवर जी को मार्क्सवादी समझने से पहले उन्हें साहित्यवादी के रूप में देखना चाहिए। क्या साहित्य मार्क्सवाद के भीतर है या मार्क्सवाद साहित्य के भीतर ? मुक्तिबोध मार्क्सवाद को ईमानवाद से क्यों जोड़ते हैं और दूसरे कथित आलोचक ईमानवाद से दूर क्यों रहते हैं। ईमानवाद को भूल-गलती कविता के संदर्भ में देखें, जहाँ ईमान जंजीरों जकड़ा हुआ है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि नामवर की आलोचना बेशक करें पर पहले यह तो देख लें कि आप के भीतर नाववर जैसा क्या है और क्या नहीं ? मैं खुद नामवर जी की आलोचना करता हूँ, पर जिन संदर्भों में करना हूँ वहाँ अपने गिरेबान को बचा कर रखता हूँ। बात थोड़े में कहना चाहता हूँ, इसलिए संक्षेप में कि नामवर जी के उस गुण को भी देखा जाना चाहिए जिसका उदाहरण काशीनाथ जी के साथ बातचीत में मौजूद है। नामवर जी ने उस बातचीत में स्वीकार किसी है कि फणीश्वर नाथ रेणु के महत्व को समझने में मुझसे भूल हुई देर से समझा। अपनी गलतियो को स्वीकारने का यह बड़ा जज्बा नामवर जी का प्रधान शिष्य बनने की पंक्ति में लगे हुए लोगों के भीतर शायद नहीं है कि वे अपने साहित्यिक अपराधों को स्वीकार कर सकें। दूसरी बात, नामवर स्वााभिमानी लेखकों की मदद करने वाले लेखक हैं, उनकी पीठ में छुरा भोकने वाले लेखक नहीं। बेशक नामवर जी का उत्तरार्द्ध अच्छा नहीं है, लेकिन उनकी आलोचना की भाषा का जिक्र इस लेख में है, वैसी भाषा या उससे अच्छी भाषा और काव्यालोचना का उससे अच्छा उदाहरण नामवर जी का प्रधानशिष्य बनने की आकाक्षा करने वाले शिष्य लेखकों में होना चाहिए या नहीं ? नामवर जी की आलोचना की जाय, लेकिन उससे पहले अपने बारे में भी विचार कार लिया जाय कि कविता और कथा की आलोचना में हम कहाँ खड़े हैं। लेखक विद्वान व्यक्ति हैं। मैं विद्वान नहीं हूँ। हिंदी साहित्य का बहुत मामूली कार्यकर्ता हूँ, अधिक कुछ कहने की क्षमता मेरे पास नहीं है। अलबत्ता, आशुतोष कुमार की इस टिप्पणी से सहमत हूँ कि ‘‘ आरंभ की लंबी भूमिका व्यर्थ ही इस चयन की पठनीयता को दुष्कर बनाती है। कुछ प्रभाव किस्म की चर्चा ( जो कोई भी , कहीं भी, किसी के लिए कह सकता है ) और आत्म परिचय भी। ’’

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  13. Karan Singh Chauhan3 मई 2012, 9:39:00 pm

    सुधी जन जब जागें तभी सवेरा ! वैसे इधर नामवर जी ने आलोचना में ऐसा न तो कुछ किया है, न कहा है, न लिखा है कि उस पर कोई बात हो । एक जमाना था जब उन्होंने आलोचना में कुछ करने, कहने और लिखने की कोशिश की थी यानी "कविता के नए प्रतिमान" और "दूसरी परंपरा की खोज" का जमाना । जगदीश्वर जी को याद होगा कि तमाम लोगों ने उसपर विधिवत लिखा था । मेरी किताब "आलोचना के नए मान" का थीम भी यही था । नामवर और उन जैसों के विरुद्ध यह बहस निर्णायक थी और हिंदी के अधिकांश लेखक इसमें शरीक थे और उसके नतीजों पर सहमत थे । नए लोगों में से भी जो यह नहीं मानते कि हिंदी साहित्य की शुरूआत उन्हीं से हुई है, इन बहसों को पढ़ सकते हैं । उसके बाद नामवर जी का कोई योगदान नहीं है । अब बतकही की करामात के आशारामी तमाशे या विमोचन, उद्घाटन, पुरस्कार वितरण वगैरह के खेल-तमाशे तो चलते ही रहते हैं । लेखक भी उन्हें लेकर आह-वाह में मगन रहते हैं । पर यह साहित्य के कोई गंभीर मसले नहीं हैं । यह वैसा ही होता है जैसे मुंबैय्या फिल्मी पत्रिकाएं फिल्म जगत के मसालों पर केंद्रित रहती हैं । हां, जगदीश्वर की टिप्पणी में नई बात जे.एन.यू. वाले व्यक्तिगत प्रसंगों से आती है । वैसे वे भी अधिकांश में लोगों के जाने हुए हैं । फिर भी नए लोगों के लिए यह दिलचस्प हो सकता है ।

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  14. नामवरजी पर राग-विराग से मुक्‍त होकर लिखना जरा मुश्किल काम है, वर्तमान हिन्‍दी-जगत की हालत यह है कि न उन्‍हें छोड़ते बनता है और न उन्‍हें शरीक करके ही तसल्‍ली होती। जगदीश्‍वर ने अपने शिष्‍य होने का कुछ रिश्‍ता जरूर निभाया है, लेकिन उससे नामवरजी के आलोचक रूप पर कोई अर्थ की बात नहीं उजागर होती। मेरा मानना है कि 'दूसरी परंपरा की खोज' और 'वाद विवाद संवाद' के बाद भी नामवरजी का जो काम सामने आया है, चाहे वह व्‍याख्‍यानों के संकलन के रूप में हो या किन्‍ही संकलनों के संपादन और उनकी भूमिकाओं के रूप में वह थोड़ा संजीदगी से देखने-समझने की जरूरत है। समकालीन रचना-कर्म पर भी वे बराबर सटीक टिप्‍पणियां और राय-मशविरा जाहिर करते रहे हैं, वे अशोक वाजपेयी की तरह साप्‍ताहिक कॉलम बेशक न लिखते हों, लेकिन उनकी मौजूदगी का अहसास बराबर बना रहता है। और ये कोई कम बात तो नहीं।

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  15. तटस्थता और साफगोई के साथ नामवर जी पर लिखना वाकई बड़ा मुश्किल काम है , | पत्रिकाओं के कई अंक उन पर निकल चुके हैं और कितना कुछ उन पर लिखा जा चुका है , लेकिन बस दोनों ध्रुवों पर ही रहते हुए ..| या तो भक्ति भाव से लिखी गयी प्रशंशाये हैं या लानते - मलामते | बहुत कम ही ऐसा हुआ है कि अपने द्वंद्वो से बाहर निकल कर उनके द्वंद्वों को पकड़ा जाए | ..यह लेख इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है |...शानदार

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  16. पढ़कर सागरीय व्यक्तित्व में डूब गया, समझे जाने का सुख ढूढते है सब सृजनशील।

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  17. सर्वेश सिंह4 मई 2012, 5:12:00 pm

    आलोचना का एक स्तम्भ-लेख.देशी-पद्धति से लिखा गया एक आलोच-गद्य जिसमें नामवर सिंह के शब्दों पर लगने वाली धूप-छाँव को छुपाया नहीं गया.राग है पर उदास,द्वेष है पर बेपरवाह.एक संत-आलोचक -अध्यापक का अनभय-साँचा.आलोचना को कविता बनाता एक आलेख.एक निर्मल और गुणातीत दृष्टि-पाछे पाछे हरि चलें कहत कबीर कबीर.मुंहदेखी कहनी से मुक्त,एक पवित्र भाषा.परकाया-प्रवेशपरक चिंतन,जहाँ दूसरे का आत्मविश्लेषण स्वयं कर लिया गया हो.शायद यह भी गुरू-दक्षिणा का एक रूप है और गुरू-मुक्ति का भी.पर,यह एक सिंहावलोकन है.गुरुवर से विहंगावलोकन की अभिलाषा है.

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  18. गणेश पाण्डेय जी, अपनी प्रधान या कनिष्ठ किसी भी किस्म के शिष्य बनने की आकांक्षा नहीं रही है। छात्र रहा हूँ। रही बात आलोचना की खासकर साहित्य की आलोचना की तो मैं अपने बारे कहना सही नहीं मानता। फिर भी मैं चाहता हूँ कि गणेशजी मेरी किताबें बाजार में हैं ,पढ़ें और देखें। हमने उस एरिया पर काम किया है जो हमारे गुरूवर ने छोड़ दिया था। मेरा इस इशारा स्त्री साहित्य की ओर है। पाण्डेयजी चाहें तो स्त्री साहित्य पर हमारी किताबें मंगाकर पढ़ सकते हैं। ये उन विषयों पर हैं जिनकी चर्चा न तो नामवर सिंह ने की है और न उनकी भक्तमंडली ने की है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि नामवर सिंह आलोचना से परे रहकर विश्लेषित नहीं किए जा सकते।

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  19. नंद जी, मैं आपसे सहमत हूँ कि नामवरजी की किताबों पर संजीदगी के साथ बात की जानी चाहिए। लेकिन उस काम को आलोचनात्मक ढ़ंग से करें या पूजाभाव या आलोचनात्मक ढ़ंग से ? दुख की बात यह है कि नामवरजी ने आलोचनात्मक माहौल को बनाने में कम मदद की है। यदि वे अपने लिखे को लेकर गंभीर थे और पुराने लेखों ,भाषणों आदि को छपवा रहे थे, तो कम से कम प्रासंगिक- अप्रासंगिक सामग्री के आधार छांटना भी चाहिए,अपडेट करना चाहिए।लुकाच अपनी लिखी किताब को डिसऑन कर सकते हैं, कह सकते हैं कि मैं अपनी लिखी धारणाओं से सहमत नहीं हूँ, लेकिन नामवरसिंह में यह साहस क्यों नहीं है कि वे कहें मेरी फलां किताब पुरानी हो गयी है मैं डिसऑन करता हूँ। आलोचक को अपने लिखे की खुद पड़ताल करनी चाहिए,स्वयं मार्क्स अपनी किताबों के साथ यह कर चुके हैं। लेकिन हिन्दी समीक्षक हमेशा शाश्वत लिखते हैं जो स्वयं में ही समस्यामूलक है। क्या नामवरसिंह का साहित्य शाश्वत साहित्य है ?यदि नहीं तो गुरूदेव ने अपनी हाल में प्रकाशित किताबों में अप्रासंगिक को निकाला क्यों नहीं ?

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  20. कृपया यह लेख भी देखें-www.facebook.com/notes/jagadishwar-chaturvedi/आलोचना-का-पराभव-और-नामवर-सिंह-जगदीश्वर-चतुर्वेदी-भाग-1/369221139779970

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  21. इस लेख व उस पर हुई टिप्पणियों से श्री नामवर सिंह जी के बारे मे बहुत कुछ जानने को मिला...धन्यवाद...

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  22. बहुत उम्दा. एक ऐसा लेख जिसमें अपने गुरु के प्रति श्रद्धा भाव भी है और उनका बेबाक मूल्यांकन करने की कोशिश भी.

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  23. डॉ नामवर सिंह जी के व्यक्तित्व व कृतित्व के विषय में जानकर बहुत अच्छा महसूस हुआ . साहित्य में आपका अमूल्य योगदान है .लेख आलोचनात्मक है लेखक ने नामवर जी से सम्बंधित सभी पहलुओ पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है .

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  24. कोई भी व्यक्ति जब उम्र के पड़ाव से अतीत को देखता है तो बहुत कुछ बदलना चाहता है| नामवर जी आगे देखने के हितैषी हैं लेकिन उन्हें भी अतीत के अनुतरित प्रश्नों का उत्तर जरुर देना चाहिए| यही आलोचक का धर्म भी है| इन सब के वाबजूद व्यक्तित्व के तराजू पर नामवर जी का प्रभाव उनकी चुप्पियों पर भारी ही पड़ेगा|

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  25. यह आलोचनात्मक लेख से अधिक शोधालेख है। नामवरसिंह जी पर शोध(व्यक्तित्व पक्ष ) जब भी बात होगी तो यह शोधालेख सन्दर्भ के रूप अवश्य पढ़ा,लिखा गुना, मना जायेगा। मनस्वी आप धन्य हैं।!

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  26. "इन प्रयोजनमूलक मार्क्सवादियों की तुलना हिन्दी के प्रयोजनमूलक कार्य व्यापार से जुड़े मेधावियों से की जा सकती है."

    कहाँ की बात कहाँ लाकर फेंट दिए। जबर्दस्त झाम और मिलावट है, सरकार!

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