मैं कहता आँखिन देखी: अनामिका




कवयित्री, कथाकार और स्त्री-विमर्शकार अनामिका से अपर्णा मनोज ने उनके लेखन कर्म, रचना-प्रक्रिया और उनके सरोकारों पर यह संवाद पूरा किया है.

अनामिका के पास सृजन और समझ का एक विस्तृत फलक है. उनके नारीवाद में उनके खुद के अनुभव का मिश्रण है. स्त्री-पुरुष के आपसी रिश्ते को वह अपनी ख़ास दृष्टि से देखती हैं.   

 


अनामिका से अपर्णा मनोज की बातचीत

 

१.

आख़िरकार कविताओं से क्या छूट गया कि आपको कथा लेखन की ओर जाना पड़ा.

 

हर दर्ज़ी के पास कुछ कतरनें बच जाती हैं, उन कतरनों से वह गुड़िया सिल देता है कभी-कभी. मुझे ऐसा ही लगता है, कविता चूकि बहुत कमसुखन विधा है और कविता का स्वभाव स्त्रियों का स्वभाव हैवह इशारों में बोलती है, कम बोलती है और थोड़ा बंकिम बोलती है. विवरण की छूट आज हम लेने लगे हैं आधुनिक कविता में. मगर कभी-कभी  विवरण  इतने अधिक  फ़ैल जाते हैं कि कविता में समेटने का मन नहीं करता, खासकर चरित्रों की, जीवन स्थितियों  और विडम्बनाओं की इतनी विवरणिकाएँ फ़ैल जाती हैं मस्तिष्क में. जैसे घर और कमरों में सफ़ाई करते हैं कभी-कभी, उसी तरह बिम्बों-चरित्रों को भी हम कहीं संभालकर रखना चाहते हैं. हमारे चारों तरफ़ बिम्बों, चरित्रों, संवादों का एक अभयारण्य बन जाता है, उसको हम चाहते हैं थोड़ा तरतीब देना. और इधर इस खाने में, उस खाने में कुछ-कुछ संभाल देना. उसी सन्दर्भ में चरित्र  दस्तक देते हैं, मेरी स्मृतियों में, और उनको  उनकी पूरी परिस्थिति, मन: स्थिति में दर्ज करने के लिए उपन्यास लिखती हूँ.

 

२.

अपनी कविताओं की कीमियागीरी  कैसी है, क्या-क्या जरूरी चीज़ें आप उसमें डालना नहीं भूलतीं.

 

कीमियागीरों की जो हालत थी एलिज़ाबेथ के समय में, वही हर लिखने वाले की हालत होती है, सबको सोना बनाना है न. कविता भी इसी संकल्प के साथ शुरू होती है कि सोने की कणिकाएँ  सभी में हैं, हर वनस्पति किसी न किसी रूप में औषधि हो सकती है और हर हृदय  के भीतर एक स्वर्ण तत्त्व हैउसके अन्वेषण से कविता शुरू होती है. और अगर कीमियागीरी से आपका अर्थ शिल्प से बनता है, तो जैसे हम पहली बार आटा गूंधते है और उसे रोटी बनाने से पहले कुछ देर छोड़ देते हैं, उसी तरह मैं कविता का पहला ड्राफ्ट तो एकदम से लिख लेती हूँ, कहीं भी. धोबी की बही में हो या बस की टिकट पर या  बच्चों की कॉपी मेंजहाँ जो मिला उसमें लिख लेती हूँ पहला ड्राफ्ट, लेकिन उसके बाद जैसे हम आटा छोड़ देते हैं ढँककर छोड़ देती हूँ उसे, माँ कहती थीं कि अगर आटा गूंध  के थोड़ी देर छोड़ दोगी तो रोटी मुलायम बनेगी, इसी तरह से मैं पहला ड्राफ्ट थोड़ी देर छोड़ देती हूँ. और बाद में जब  थोड़ी तटस्थता आ जाती है तो बेलना शुरू करती हूँ.

 

३.

कभी-कभी ऐसा होता है क्या कि बार-बार के ड्राफ्ट के बाद भी असंतोष बना रहता हो

 

कभी-कभी तो आदमी चार-पांच ड्राफ्ट से भी असंतुष्ट रहता है. कुछ कहा नहीं जा सकता  कोई-कोई कविता  एकदम से उतर आती है. उसमें कोई झोल नहीं होती. कुछ कविताएँ जो आपके भीतर बहुत दिनों से ब्रियू कर रही हैं, शायद उनमें बहुत कुछ ऐसा रहता है जो बार-बार ड्राफ्ट करने की मांग करता है. तो कुछ कहा नहीं जा सकता. खासकर लम्बी कविताओं में तो बार-बार ड्राफ्टिंग रहती है. आदमी कभी इस कोने से खोलता है तो कभी उस कोने से, जैसे स्वेटर बुनता है न आदमीउधेड़-बुन, उधेड़-बुनस्वेटर बुनने की प्रक्रिया जैसा.

 

 

४.

प्रकाशन के बाद भी क्या ड्राफ्टिंग

 

हाँ, प्रकाशन के बाद भी मैंने चीज़ें रिवाइज़ की हैं. उसमें मुझे लगता है कि बोल बोल कर पढ़ने से ज्यादा तटस्थता आ जाती है. अपनी कविता अगर बोलिए बार-बार, पढ़ने से भी ज्यादा, क्योंकि कविता बहुत कुछ नादगुण संपन्न होती हैतो अगर आप कविता को बोलकर पढेंगे न तो उसके झोल जल्दी दिखेंगे.

 

५.

आपकी कविताओं में दादी-नानी, गरज कि औरतें खूब आती हैं, खासकर रिश्तों से. क्या ये बहिनापा का बड़ा वृत्त नहीं है

 

असल में हम मध्यवर्गीय स्त्रियों का संपर्क ज़्यादातर स्त्रियों से ही होता है. बचपन में हम लोगों को इतना ज्यादा घेरकर  रखा जाता है, जैसे कि लाइफ इन्श्योरेन्स कम्पनी का वह विज्ञापन  है न- कि दो तरफ़ से हथेलियाँ हैं और बीच में दीया जल रहा है, उस तरह से डिब्बे में पाल के तो मध्यवर्गीय, लड़कियों को बड़ा किया जाता है. तो अपने भाई के सिवा तो ख़ास किसी से अन्तरंग नहीं हो पातीं.  हमारे समय में तो और भीसन ७०, ८०,८५ तक तो मैंने अपने भाई के सिवा किसी लड़के से बात नहीं की. मेरी शादी हुई, उसके बाद  धीरे-धीरे संसार बड़ा हुआ. उसके अलावा पुरुष रिश्तेदार शिक्षक और  पापा के दोस्त वोस्त इतने ही पुरुष हमें देखने जानने  को मिलते हैं और वे भी ज्यादा नहीं खुलते, तो अन्तरंग  रूप से तो हम पुरुषों का संसार उतना जान नहीं पाते. 

जिसे जानेगा मनुष्य, उसी के बारे में निश्चिन्त होकर  लिख पायेगा. जब हम मुजफ्फरपुर से दिल्ली आये और यहाँ आकर  रहने लगे तब मैंने पुरुषों का संसार डील करना शुरू किया. तब जाके पुरुष मेरे जीवन में आये, मतलब, बातचीत करने लगे और हम उनका भी अन्तरंग जानने लगे, अब तो जब बच्चे बड़े हो गए तो बच्चों के दोस्त  मोहल्ले के लोग, उनके खेलने के दोस्त, पढ़ने वाले दोस्त और अब तो छात्र भी, वो सब लड़के अब मुझसे खुल गए, अब मेरे लिए वो बात नहीं कि मैं युवकों का मन नहीं जानती. मैं युवकों का मन जानने लगी हूँ. माँ होने से ये लाभ  रहता है कि धीमे-धीमे हम  पुरुषों से  भी खुलकर बात करने लागतें हैं, पुरुष मन की जो चिंताएं हैं, वो भी समझने लगते हैं. उनका विश्वबोध क्या है, उनके जीवन की विडम्बनाएं क्या हैं, पहले हम किताबों-अख़बारों के माध्यम से ही जानते थे, लेकिन अन्तरंग बातचीत के माध्यम से आदमी ज्यादा जानता है. जिस वर्ग-वर्ण में पैदा होते हैं, तो उसकी अपनी असंगतियाँ तो हमारी होती हैं, उसी हिसाब से हम बनते हैं, जैसी हमारी परिस्थितियां होती हैं.

 

६.

इधर जो आपकी कविताएँ आ रही हैं क्या वे अब भी नारी चिंतन या विमर्श पर केन्द्रित हैं. 

 

मैंने आपसे कहा न, कि अब मेरा वृत्त थोड़ा  बड़ा हो गया है, बच्चों, लड़कों, छात्रों के माध्यम से भी मैंने युवकों का समाज थोड़ा जाना है. इधर कॉलेज में एक काउंसलिंग सेल भी है. मैं उसमें भी हूँ. तो लड़कों का जो सपनों का संसार है, संघर्षों का संसार, उनकी चिंताओं का संसार, ये मेरे सामने खुला है अब. पति और पति के घर के दूसरे लोगों से बात करके भी मुझे लगा कि ये जो दूसरी तरह का चिंतन है, ये जो दूसरा पक्ष है. वह कैसे सोचता है, यदि साफ़-साफ़ कहूँ तो ये मुझे शादी के बाद ही समझ में आया. बाकी कहीं-कहीं थोड़ी झलकी मिलती थी, लेकिन वो बहुत अन्तरंग विज़न नहीं था. तो अब धीरे-धीरे मुझे समझ आने लगा है किताबों के बाहर सचमुच के पुरुष होते हैं, हाड मांस के पुरुष.

 

७.

इधर क्या लगता है आपको कविताओं का भविष्य, स्त्रियों का भविष्यक्या इस भविष्य का भी कोई भविष्य है.

 

मैंने अभी आपसे कहा कि अब मैं युवकों के संसार से परिचित होने लगी हूँ. मुझे लगता है कि हर औरत पुरुष  को गढ़ती है. शिक्षित स्त्री आज बहुत अकेली है. ज़्यादातर स्त्रियाँ अपने पतियों को भी बच्चों की तरह ही पाल कर बड़ा करती हैं. जो हमारी पीढ़ी के पुरुष हैं, वे कई तरह की दुश्चिंताओं से घिरे हैं. वे बहुत निश्चिन्त पुरुष नहीं हैं. किसी में काम का अतिरेक है तो किसी में  क्रोध या लोभ का अतिरेक. तो बच्चों की तरह व्यवहार की असंगति संभालनी होती है, जिस धीर गंभीर सरस और विवेकी  पुरुष की हमने, यानी स्त्री आन्दोलन ने कल्पना की है, वह अभी देखना बाकी है. मतलब स्त्रीवाद के गर्भ से जो एक नया पुरुष पलकर बाहर आ रहा है, हमें उस पुरुष के बड़े होने का इंतज़ार है. युवकों में मुझे कई बार ऐसे सहयोगी पुरुष, दोस्त पुरुष, हमदर्द पुरुष दीख जाते हैं. इसलिए ये जो नया युवक है और ये जो स्त्रियाँ हैं, मिलकर एक नया भविष्य एक नई दुनिया गढ़ेंगी, जिसमें कविता सी तरलता होगी, वैसी ही उद्दात्त दृष्टि होगी जो सबके भले की सोचेगी. कविता की एक नैतिक रूप से भास्वर संरचना होती है जो हमें सुन्दर विश्व की कल्पना की ओर ले जाती है.

 

८.

यानी नयी पीढ़ी से आप आश्वस्त हैं

 

मैं बहुत हद तक आश्वस्त हूँ. लेकिन अंधाधुंध  भौतिकता की जो दौड़ है, वह मुझे आक्रान्त करती है. खासकर कॉर्पोरेट सेक्टर का जो जीवन हैलड़के काम करते हैं, १८-१८ घंटे काम करते हैं. कंप्यूटर कुली का  काम करते हैंउसके बाद जो थकान होती है उसे मिटाने के लिए पागलों की तरह खाते पीते हैं और नाचते गाते हैं, कभी सारी रात सोते ही नहीं. अतिरेक तो किसी तरह का बुरा है, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गिरता है प्राकृतिक छंद से नाता टूट जाए तो. दृष्टि तो  सम्यक और व्यापक होनी चाहिए. क्षणवाद  बेचैन करता है. प्रेम में भी तृप्ति नही मिलती. यूज़ एण्ड थ्रो, फिल- इट, शट-इट, फॉरगेट-इट का दर्शनउस तरह से औदात्यपूर्ण या गाम्भीर्यपूर्णदायित्वपूर्ण ढंग से संबंधों का निर्वाह नहीं होने देता चूंकि मैंने कई युवकों से अंतरंग बातचीत की है.  मैं ये भी समझती हूँ कि उनकी मजबूरियां क्या हैं. उनको लगता है कि एक्सल करना है तो इसी तरह से करना होगा और क्षण-भर के लिए ही सही नोच-खसोट के खुशियाँ खरीदनी होंगी, सब कुछ खरीदा जा सकता है. यह लपट-झपट की जो पूरी तकनीक है चिंतित करती है मुझे.  कविता के आस-पास, संगीत के आस्वादन से  जैसे नाटक मंडलियों से, अच्छी फिल्मों से उनका संस्कार प्रक्षालन हो रहा है धीरे-धीरे ! हम लगे तो हुए हैं.

 

९.

और इधर जो नयी पीढ़ी लिख रही है, उसे लेकर कोई मलाल. 

 

इधर सक्रिय युवा पीढ़ी ने भाषा में एक नई तरह का अलख जगाया है. एकदम नई ऊर्जा के साथउनमें डिपार्चर है, और कहीं बात बनाई नहीं जा रही. जीवन को नए  सिरे से गढ़ने  की एक उम्मीद है और तबोताब स्मृतियाँ है और भाषा जो बहुत परतदार होती है; ऐसी भाषा जिसमें स्मृतियाँ हों, जातीय और वैयक्तिक हों, स्वप्नजीवी भी हों, निजी भी हों और सार्वभौम भी, तो ऐसे बड़े विज़न के साथ कविताएँ आ रही हैं और पुरुषों में भी मतलब कुछ नए तरह के थीम उठाये जा रहे हैं, अंतर्पाठीयता बहुत बढ़ी है.  विधाओं का एक दूसरे के घर आना-जाना बढ़ा है. कहीं-कहीं कुछ असुरक्षा है. किसी-किसी को डर लगता है कि इतनी पत्रिकाएँ निकलती हैं  इतनी चीज़ें हैं, कहीं कुछ अदेखा  न रह जाए. तो लोग खुद ही फोन करके कहते हैं कि मेरी कविताएँ पढ़ीं? ये पहले कोई नहीं करता था. भीड़ में कहीं खोने का जो एक आतंक हैवो ऐसा कहता  है. लेकिन मुझे इसमें बुराई भी नहीं लगती, लगता है जैसे बच्चा माँ का आँचल पकड़ के कहता है माँ ये  देखा मैंने ये चित्र बनाया है, कविता का चौपाल जो आप लोग इंटरनेट पर चलाते हैं, उससे भी मुझे बहुत उम्मीद है अगर कोई अदेखा कर रहा है, अनसुना कर रहा है, तो आप प्रेम से उसे अपनी ओर देखने के लिए कहते हैं, इसमें कोई बुरी बात नहीं, क्योंकि कुछ बांटना ही तो चाह रहे हैं आप!  अनुभव बांटने की चीज़ ही है, दुनिया में सब कुछ बांटने के लिए ही होता है. कुछ भी अंदर बचा के रखने के लिए  नहीं होता. जो खुशियाँ, जो तकलीफें, जो विडम्बनाएं हमने आत्मसात कीं अगर हम वो साझा नहीं करेंगे तो उनका निवारण  होगा कैसे?

 

१०.

आज की कविता पर बाज़ारवाद का प्रभाव. 

 

सूचना क्रांति में सूचना विस्फोट के तत्व हैं, किसी भी तरह के अराजक विस्फोट पर काबू रखना चाहिए. अतिरेक से बचना चाहिए, एकध्रुवीय दुनिया न रहे - ये कुछ संकल्प हैं युवा कविता के! एस. एम्, एस, में युवकों की कवितायेँ देखी हैं, कभी-कभी बहुत काव्यात्मक सन्देश आते हैं मोबाईल पर. कविता की तकनीक का विज्ञापन है यह. फिल्मों की जो तकनीक पर प्रभाव गहरा पड़ा है. दोनों  पर्सनल और पोलिटिकल  को झप से मिला देते हैं. पर विज्ञापन कहते हैं खरीदो, खरीदो !  कितना खरीदो ? बहुत अच्छा  दिमाग हमारे देश का इस विज्ञापन उद्योग में लगा हुआ है. वही कुछ ऐसा दर्शन  विकसित करें जो काव्य विवेक सम्मत हो.

एक विज्ञापन मैंने देखा था एयरटेल की कनेक्टिविटी दिखानी थी. कोई नया जोड़ा पहाड़ पर जाता है, वहीं से वो दादी को सुनाता  है- केदारनाथ का घंटा, या कि माँ का जन्मदिन मनाने के लिए कोई कहीं से कहीं उड़ के आता है.   लेकिन अंत में सन्देश ये जाता है  कि कम्प्लीट मैन होने के लिए सूटेड-बूटेड, मतलब रोब-दाब का होना जरूरी है, ये सन्देश  गलत है, खासकर ऐसे समाज में जहाँ चारों  तरफ असुरक्षा है, चारों तरफ गरीबी है.  हमारे पुरुषार्थ चार हैं: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- दो भौतिक दो आध्यात्मिक !  आध्यात्मिक गुणों का विकास हमें  त्याग की ओर ही ले जाता है, और मार्क्सवाद भी यही कहता है. मतलब त्याग एक बड़े मूल्य की तरह पहुंचना चाहिए. बाजार के ये जितने भी विज्ञापन हैं, वो ये नहीं कर रहे हैं! और स्त्रियाँ  उनका चेहरा दीखता है...जगह-जगह दीखता है. स्त्रियाँ  हँसती हुई  भी दिखाई देती हैं लेकिन वो हंसी एक तरह का घूँघट है.  मैंने कहीं लिखा भी थाअंदर पिट कर भी आयें तो हंसना है बाहर. तो ये हँसी भी बिक रही है. प्रेम भी बिक रहा है तो हर चीज़ बिक जाने को जो अभिशप्त है. भेद-भाव की संरचनाएँ नहीं टूट रहीं हैं. उसके खिलाफ तो कविता को जरूर आवाज़ उठानी चाहिए  उठा भी रही है.

 

११.

आज कविता जो आवाज़ उठा रही है , क्या वह आम जन तक पहुँच रही है. 

 

कविता और कवियों  के बारे में मेरी एक मान्यता है कि उनकी  स्थिति घर के बुजुर्गों जैसी है. घर में कोई हैहै तो है ..बैठा है किसी कोने में. हमारे भले की सोचता है, मगर उस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. कविता के बारे में भी सामान्यतः लोग यही सोचते हैं कि कवि है. अच्छा है. हमारे हित की बात सोचता है, लेकिन उस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है  हमारा ही आदमी है, पर क्या कहता है पता नहीं ! ऐसे ही तो हम बूढ़े आदमी के लिए बोलते हैं न कि बैठे-बैठे पता नहीं क्या सोचता-बोलता रहता है, सुनने की जरूरत नहीं, इसी तरह कवि को अपना समझते हैं लोग. लेकिन कविता में तब तक रूचि नहीं लेते जब तक वो संगीत या चित्र की उंगली पकड़ कर सामने नहीं आती. इसलिए फिल्म के संगीत की, दूसरे संगीत की या चित्रवीथियों की, जरूरत रहती है हमें. मैं हमेशा कहती हूँ कि जैसे हम लोग अलग-अलग वर्गों और वर्णों से आकर भी बहिनें हैं.  दुनिया की जितनी भी विधाएँ हैं, वे भगिनी विधाएँ हैं.. सारे रंगकर्म या कलाएंवो भी बहिनें हैं. इसलिए कवियों को संगीत से, नाटक से, चित्र से.. इन सब से कुछ न कुछ उठाकर एक भव्य स्पेकटेकल  बनाना चाहिए ताकि लोगों को उसकी तरफ देखने के लिए मजबूर होना पड़े.

हमें कुछ तो करना ही होगा, मुझे लगता है कि सारे क्लासिक्स का फिल्मांतरण करवाना, उन्हें सीरियलाइज़ करवाना, कविता-पोस्टर बनाना ज़रूरी है. चौराहों परजहाँ भी कहीं आपको कोई बाजारू विज्ञापन  दिखाई देता है वहाँ आप कविता का एक कैप्शन भी लगा दें. कविता का एक पोस्टर भी लगा दें ... तो ये बहुत बड़ा काम हो जाएगा.. अगर वो   सिर्फ खरीदने को उकसा रही है तो कविता वहाँ कुछ आपको ताकीद  करेगी कि सिर्फ खरीदने की मत सोचो, जरूरत है तो खरीदो.

 

१२.

पोएट्री, एक स्कूल की तरह हिन्दुस्तान में क्यों नहीं दीख रही.

बहुत तरह  की समस्याएं थीं. आर्थिक सुविधाएँ  ही नहीं थीं लोगों के पास. ज्यादातर लोग जो कविता के क्षेत्र में हैं या तो बेरोजगार हैं या  अपनी योग्यता से कम की तनख्वाह पर काम करते हैं.  और स्त्रियों को तो  दस हाथों से दस तरह के काम करने ही पड़ते हैं. दरबारों का स्पांसरशिप तो चला  गया. हाँ.. और कोई संस्था ज्ञानपीठसाहित्य अकादमी आदि प्रोत्साहित   करती है...लेकिन थोडा-थोडा करती है.  अच्छा है कि वो युवकों की पांडुलिपियाँ मंगाने लगी है, कस्बों से भी युवकों की पांडुलिपियाँ आती हैं. छपती हैं. सब थोडा-थोडा होता है, लेकिन कंप्यूटर का, इंटरनेट का एक बड़ा विस्तार है. अच्छा हो कि  वह सम्प्रेषण  समूह की तरह उभरे और सबको मिलाकर, साथ चलने का जज़्बा विकसित कर सके, यहाँ लोग कुट्टी-कुट्टी न खेलेंअहंकार से बचें, और अहम् का विस्तार कर लेंसोचें कि किसी का भी विकास हो रहा है तो मेरा ही है, ये जो जज़्बा  पैदा हो जाएगा  न.. तो इंटरनेट एक बहुत बड़े माध्यम के रूप में सामने आएगा और एक नए तरह की चौपाल गठित कर लेगा......... 

 


अपर्णा मनोज

aparnashrey@gmail.com
__________________
(लीना मल्होत्रा राव और सईद अय्यूब के सहयोग से)   

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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. अनामिका जी का पहला इंटरव्यू मैं पढ़ रहा हूँ. इससे पहले उनसे बातचीत करने के बहुत से अवसर आए हैं, खूब बातें हुई हैं कविता पर, कवियों पर, साहित्य पर किंतु न तो मैंने कभी ऐसे प्रश्न उनसे पूछे जैसे कि इस साक्षात्कार में पूछे गए हैं और न अनामिका जी को इस तरह से कविता, साहित्य, परिवार, समाज, नयी पीढ़ी आदि पर चिंतन करते हुए कभी देखा-सुना. अनामिका जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार जब किसी प्रश्न का उत्तर देते हैं तो वह केवल उत्तर देने के लिए दिया गया उत्तर मात्र नहीं होता है, उसमें उनके अनुभवों का निचोड़ तो होता ही है, वह साहित्य और साहित्येतर, बहुत सारी चीज़ों को ठीक से समझने का माध्यम तो होता ही है, वह एक बन रहे साहित्यकार को प्रेरणा देने का कारक तो होता ही है, किंतु वह सबसे महत्वपूर्ण इस लिए होता है कि वह बहुत कुछ गलत को सही करता है.

    मैंने इस साक्षात्कार में केवल बात-चीत को टेप भर किया था. अगर इतनी छोटी सी बात के लिए आप मेरा नाम सहयोगकर्ताओं में रखते हैं तो यह आपकी सदाशयता ही है जो मुझे हमेशा मिलती रही है. अपर्णा जी को बधाई, इतने अच्छे प्रश्न पूछकर इतना सुंदर साक्षात्कार तैयार करने के लिए. अरुणदेव जी को बधाई कि इतने महत्वपूर्ण पोस्ट से वे समालोचन को एक नयी ऊँचाई पर ले जा रहे हैं. समालोचन को बहुत बहुत शुभकामनाएँ!

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  2. एक तथ्य पूर्ण , सारगर्भित , इंटरव्यू , ! सभी प्रश्न विषय की गंभीरता से सम्बंधित , और उत्तर भी अनुभव . और यथार्थ के बहुत निकट ! बड़ी बात यह की रचना की यात्रा 'प्रकाशन ' की मंजिल तक पहुंचना नहीं है , इसीलिए , रचनाकार , उसमे निरंतर मंथन करता है , और उसे परमार्जित करता है !ठीक उसी तरह जैसे मां , जन्म देने के बाद भी बच्चे पर लगातार नज़र रखती है , और उसे और भी योग्य बनाने की प्रक्रिया जारी रखती है !

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  3. दिलचस्प ,विशेष तौर से ये स्वीकारोक्ति की अब मेरे अनुभव का विस्तार हो गया है . मुझे पहले भी यही लगता था के उन्होंने स्त्री के लगभग तमाम अनुभवों को इतनी ख़ूबसूरती से समेट दिया है आगे ओर क्या ?
    दूसरी बात जो उन्होंने आज की कविताओं के सन्दर्भ में कही है "विवरण की छूट " "भीड़ में खोने का आतंक" घर के बुजुर्ग अच्छे है भले है पर उन पर ध्यान देने की जरुरत नहीं है . उनकी बातो में जो सबसे अच्छी बात है वे वक़्त को इसकी नब्ज़ को समझती है . समझने का प्रयास ईमानदार प्रयास करती है नयी पीढ़ी के साथ ठहरती है . कुट्टी कुट्टी खेलने ओर अहंकारो के अपने पाले से बचने की बेबाक राय भी देती है .
    अच्छे कवि की यही निशानी है उसके सरोकारों की रेंज बड़ी होती है , भावनाओं का दोहराव नहीं होता लिजलिजी भावुकता ओर सपाट बयानी से बचते हुए वो बिना जटिल हुए मानवीय मूल्यों के पक्ष में खड़ा दिखता है .

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  4. बहुत ही अच्छा इंटरव्यू....बहुत कुछ जाना-समझा....धन्यवाद अपर्णा जी आपका भी अनामिका जी के साथ साथ.....

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  5. anamika jee ko padhna aur unsey baatcheet hamesha hee sukoon detee hai, achhca interview

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  6. अमूमन साहित्यिक साक्षात्कार बहुत कम पढ़ता हूं। पर ये अच्छा लगा। सवालों का बहुत अच्छा जवाव दिया अनामिकाजी ने। प्रतीकों का बहुत अच्छा उपयोग करती हैं। आखिर साहित्यकार हैं ना वो। धन्यवाद। क्या वो दिन भी आएगा जब टीवी पर ऐसी चर्चा होगीं। रेखा जया बार बार नहीं दिखाया जाएगा।

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  7. anamika ji ke pass vichar darshna ki ek pukhta dhratal hai jo unhe auron se alagati hai . smalochan mein aisi saamgri dekar arundev nishchit hi apne daayittv ka bakhubi nirvaah kar rahen hai interview dene wale ka vyaktitv tabhi ubhar kar saamne aata hai jab sakshaatkar lene wala puri samajh boojh se apne prashnon ke madhyam se unhe udghaatit karta hai yeh kaam maaneeya aparna manoj sahiba ne bahut khubsurti se kiya hai .

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  8. anamika ji se baatcheet karna yani kavitayen sunna.. unki samany baatcheet me bhi itni vynjnaayen va bimb rahte hain ki kavyatmk ho jaati hain.. vah ek adbhut chintak hain.. mera saubhagy hai ki mujhe unka sneh mila hai.. shukriya arun ji aparna ji

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  9. अनामिका जी के कहे हुए शब्द पढ़ने को जब भी मिलते है वो विचारों और समझ का कद और विस्तार बहुत तेजी से ऊपर उठाने की सामर्थ्य से भरे हुए होते है ... उन्हें पढ़ना हमेशा ही मुझे जैसे एक अद्भुत उर्जा से तरंगित कर देता है ... अपर्णा जी का बहुत-बहुत आभार ऐसे व्यक्तित्व के बहुआयामी और चिरप्रतीक्षित साक्षात्कार हेतु ...

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  10. अनामिका ने कवि के रूप में जो विशिष्ट पहचान बनाई है, उसके एकदम अनुरूप है यह साक्षात्कार, उन्हें पाठकों के और अधिक निकट लाने वाला. उनकी समझ में आनेवाला क्रमिक "निखार" उनकी कविताओं में मुखरित-प्रतिबिंबित होता है. उन्हें बधाई.

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  11. बहुत ही सार्थक साक्षात्कार के लिये आदरणीय अनामिकाजी, अपर्णाजी को साधुवाद।
    समालोचना के माध्यम से यह सम्भव हुआ। अरुण देव जी बहुत समर्पित भाव और अपने प्रतिभा कौशल से यह पत्रिका सम्हाले हुए हैं।
    अनामिका जी की सारी सारगर्भित बातें उनके अनुभव का निचोड तो हैं मगर इतनी सरलता और सहजता से सामने आई हैं कि सीधे दिल में उतरती हैं, दिल से जो कही हैं।
    सबका आभार।

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  12. aprna jee dhanyvaad aapne atyant saargarbhit saakshatkaar se laabhanvit karaya
    maine anamika jee ko B.H.U.SEMINAAR me kuchh mahino pahle dekha aur suna ,aur tabhi unke komal aur samvedi man ko jaanane ka awasar mila, aapka punh aabhaar

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  13. Leena Malhotra Rao17 मई 2012, 11:51:00 am

    अनामिका जी एक चिन्तक हैं.. अद्भुत बिम्ब उनकी बातचीत में उतर आते हैं.. सामान्य बातचीत करते हुए ही वह इतनी व्यंजना और बिम्बों का प्रयोग कर डालती हैं कि कवितायेँ बन जाती हैं.. उनका ये साक्षात्कार भी इसी का उदाहरण है ...

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  14. अनामिका जी से अपर्णा जी की बातचीत बहुत सारे प्रश्नों को खंगालती है..बहुत कुछ स्पष्ट करती है अच्छा अनुभव है इस बातचीत को पढ़ना.

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  15. कविताओं के बाद उनका यह साक्षात्कार ...धन्यवाद समालोचन

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  16. अनामिका जी के कॉलेज से हूँ, दो दशक से से उन्हें एकतरफा जानती थी! अब कई बार मिलना होता है, वे मेरी प्रिय कवयित्री थी, हैं, उन्हें सुनना चाहे कविता हो, या सामान्य बातचीत, मेरे लिए अविस्मरनीय रहती है, वही शैली, वही बिम्ब, ठेठ देसज शब्द, रिश्ते नाते, आत्मीयता....स्त्री विमर्श पर जब वे बात करती हैं तो उनका चेहरा दमक उठता है, वे अनवरत बात करती हैं, और हर दूसरा वाक्य ऐसा होता है जिसे आप बोलना चाह रहे थे, वे सब कुछ इतनी सहजता से कह जाती हैं, जीवनानुभव जब विमर्श बनते हैं तो मौलिकता सामने वाले को बिन मोल जीत लेती है, उन्हें पढना हमेशा भाता है, ये प्यास कभी ख़त्म नहीं होती, हाँ हर बार थोड़ी तसल्ली और मरहम जरूर पाती हूँ, आज भी पाया.....धन्यवाद अरुण जी

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  17. I am fond of poems of Anamika.Interview is highly impressive and thought provoking.

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  18. बातचीत बहुत सहज, सरल और अच्‍छी है। अनामिका जी ने भारतीय मिथकों में स्‍त्री की स्थिति पर बहुत अच्‍छा काम किया है और विश्‍व साहित्‍य से बेहतरीन अनुवाद भी किये हैं। संभव है कि बातचीत के दौरान समय की सीमा रही हो, लेकिन 'स्‍त्रीत्‍व का मानचित्र' जैसी अभूतपूर्व किताब पर बात नहीं हुई, यह कुछ अटपटा लगा। बहरहाल एक सर्जनात्‍मक बातचीत तो है ही, शुक्रिया।

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  19. अनामिकाजी से यह बातचीत दरअसल एक मॉडल है, ये है एक कवि का बात करने का तरीका। कितनी अनौपचारिक, कितनी लोचदार और क्‍या बतकही का अंदाज। अच्‍छी बात ये कि अपर्णा ने सवालों में किताब की भाषा को करीब नहीं फटकने दिया। अन्‍यथा हो जाती यह भी किसी बुझे हुए ज्ञानी की सी उलटबांसियों से भरी अमूर्त जिरह। ऐसा लगा जैसे सारी बातचीत चूल्‍हे-चौके के आस-पास खड़े रहकर ही पूरी कर ली हो। कविता, कथा, स्‍त्री-प्रश्‍न, नयी पीढ़ी की विडंबनाएं, बाजार, विज्ञापन - कुछ भी तो नहीं छूटा अनछुआ और क्‍या झपक भाषा में बोलती हैं अनामिकाजी। सिंपली सुपर्व।

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  20. अपर्णा जी, मेरा अनामिका जी की कविताओं से पुराना परिचय रहा है, लेकिन 'स्‍त्रीत्‍व का मानचित्र' पढ़ने के बाद उनके प्रति मेरा सम्‍मान बहुत बढ़ गया था... मैं बहुत संकोची हूं और वे बरसों से मुझे जानती हैं, लेकिन हर बार मैं उन्‍हें अपना परिचय देता हूं...इस बार तो उन्‍होंने मुझे डांट ही दिया था इस वजह से... खैर, छोडि़ये इन बातों को... मुझे लगा अगर उनसे इन किताबों के बहाने बात की जाती तो बहुत सी नई चीजें सामन्‍य पाठकों के लिए ही नहीं, हमारे लिये भी सामने आ सकती थीं... जैसे रिल्‍के पर उनका काम अभूतपूर्व है... मेरे पास रिल्‍के की शोकगीतों की किताब है अंग्रेजी में... एक मित्र ने पुस्‍तकालय से चुराई थी, मैंने उसके यहां से चुराई... बरसों उसका मुरीद रहा... अब कई बार अनामिका जी के अनुवाद के साथ अंग्रेजी में पढ़ता हूं तो और आनंद आता है कि वाह क्‍या अनुवाद है... तो अनामिका जी से मेरा लेखक-पाठक का जो रिश्‍ता है वो आपकी बातचीत में ''कहीं कुछ कमी-सी है'' वाला रहा, इसलिये कहा... आप इसे बिल्‍कुल भी अन्‍यथा ना लें... शुभकामनाएं...

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  21. बलिहारी अपर्णा जो अनामिकाजी से अच्छी तरह मिलवा दिया.उनसे कभी फुर्सत से नहीं मिल पाई मैं.अनामिकाजी मेरी प्रिय लेखिका हैं जो खूब प्रोत्साहित करती हैं.

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  22. कवि अपने भविष्य को पूरी उम्मीद से देखता है ...... बस यही काफी है कविता के लिए .

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  23. अनामिका जी के कविता के कल्पित गेह से साहित्य में अदभूत उजाला है.
    अपर्णा जी बधाई हो...!!!
    सादर !

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  24. Anamika ne mere sath jeise bat kartee hai, wonderful isi tarah hee baat kee hai ish intervew me.WONDERFUL .She is a good soul .

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  25. गंभीर विषय पर सहज माहौल में बहुत ही सार्थक चर्चा अपर्णा जी और अनामिका जी को बहुत - बहुत बधाई !!

    अनुपमा तिवाड़ी

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  26. सार्थक बातचीत।तार्किक ,संतुलित और संयत।बधाई

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