सबद भेद : भगवत रावत की कविता



"सूरज के ताप में कही कोई कमी नहीं
न चन्दमा की ठंडक में
लेकिन हवा और पानी में जरूर कुछ ऐसा हुआ है
कि दुनिया में
करुणा की कमी पड़ गई है,"

वरिष्ठ कवि भगवत रावत नहीं रहे. उनका संघर्ष मृत्यु से लम्बा चला. उनकी कविता की तरह उनकी जिजीविषा भी गहरी थी. दुनिया में करुणा की खोज़ की एक अनवरत यात्रा है उनका काव्य संसार. इस आलेख में कवि आलोचक नन्द भारद्वाज ने भगवत रावत की कविताओं के मर्म की अंतर्यात्रा की है.
कवि भले ही अनुपस्थित हो जाए उसकी कविताएँ उपस्थित रहती हैं.



आदमी और घर की बेहतरी में कविता
नंद भारद्वाज


मकालीन हिन्दी कविता में कवि भगवत रावत का अपना एक खास मुकाम रहा है. उनकी  कविताएं हमें ऐेसे परिचित संसार के बीच ला खड़ा करती हैं, जिसमें रहते और जीते हुए भी हम उसे अनदेखा-सा किये रहते हैं. हम उन सचाइयों और वास्तविकताओं से जी चुराते, अक्सर इसी भरम में जीते हैं कि उस सचाई या वास्तविकता का वह बुरा असर शायद हम पर उतना नहीं है, या होगा, कि सीधे सीधे औरों से जुड़कर उसका सामना किया जाये, अथवा उस प्रयत्न में लगे लोगों से आत्मिक संवाद या साझे का कोई रिश्‍ता रखा जाये. भगवत रावत के साहित्यिक अवदान को स्‍मरण करते हुए वरिष्‍ठ कवि अरुण कमल ने बहुत सटीक टिप्‍पणी करते हुए कहा था – “पिछले चालीस वर्षों में हिन्‍दी कविता में अनेक मोड़ आए. मुहावरे बदलते रहे, रुचियां बदलीं और कविता को आंकने के पैमाने भी बदलते गए. कवियों के कई वृन्‍द आए. कई दशक आए. इस सारी अस्थिरता के बीच जो थोड़े-से कवि निरंतर अपने रास्‍ते पर चलते रहे अविचलित, अपनी भावधारा, अपने सौन्‍दर्यबोध और अपनी विचारधारा को सतत शक्ति और वेग प्रदान करते हुए, उनमें श्री भगवत रावत अग्रणी रहे हैं.“
     
भगवत रावत का पहला कविता संग्रह समुद्र के बारे में सन् 1977 में प्रकाशित होकर आया था, जबकि उनकी कविताएं साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के माध्‍यम से बहुत पहले से चर्चित हाने लगी थीं. विगत पांच दशकों एक कवि के रूप में उनकी जीवंत उपस्थिति को निरन्‍तर अनुभव किया जाता रहा. उनके अन्‍य प्रमुख कविता-संग्रहों में दी हुई दुनिया’(1981), ’हुआ कुछ इस तरह’(1988), ’सुनो हिरामन’(1992), ’सच पूछो तो’(1996), और बिथा-कथा’(1997) और हमने उनके घर देखे विशेष रूप से चर्चित रहे.
    
भगवत रावत की कविताएं बिना किसी आवेश, आरोह-अवरोह या आयोजन-भंगिमा के उन तमाम मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और शोषित उपेक्षित लोगों की जीवन दशा, उनके संघर्ष और अनुभव संसार को इतनी सहजता और अपनेपन से अपने कलेवर में समेट लेती हैं, कि कवि और पाठक के बीच का अलगाव अपने-आप खत्म हो जाता है.
    
भगवत रावत सातवें दशक के प्रारंभ से ही लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. हिन्दी कविता में वह ऐसा उथल पुथल का दौर रहा है - खास तौर से सन् 1962 के बाद का दौर - जिसमें किसी भी रचनाकार के लिए अपनी जमीन पर पांव टिकाए रखना आसान नहीं था. जहां हर तरह से अपने विकल्प खुले रखने और नये नये प्रयोगों को ही सबसे अधिक तरजीह दी जाती रही हो , वहां आप एक वैचारिक सोच की निरन्तरता और अपने स्वर-संयम पर टिके रहने वाले रचनाकार के प्रति किस तरह के रुख की कल्पना करते हैं ? भगवत रावत उसी दौर और उसी संयम के एक समर्थ रचनाकार रहे हैं. 1977 में जब उनका पहला कविता संग्रह समुद्र के बारे में आया तब तक वह ऊहापोह और प्रयोगों का उफान काफी कुछ नीचे बैठ चुका था, लेकिन यह देखना वाकई दिलचस्प है कि भगवत रावत ने उस दौर में भी अपने उसी संयत स्वर और सहज मुहावरे वाली सादगी भरी कविताओं के माध्यम से ही अपनी सार्थक उपस्थिति बनाये रखी.
    
अपने स्वभाव और स्वर में बुन्देलखण्ड की देशज संवेदना के गहरे असर के बावजूद उन्होंने अपनी कविता को जरूरत से ज्यादा आंचलिक नहीं होने दिया, बल्कि उसे समकालीन हिन्दी कविता के मुख्य स्वर के साथ ही बनाए रखा. कविता में अपनी अलग तरह की पहचान का अतिरिक्त आग्रह उनमें कभी नहीं रहा, बल्कि आग्रह शायद यही रहा कि वे अपने समय की वृहत्तर चिन्ताओं और उस लोकतान्त्रिक सोच में बराबर साझा करते रह सकें और अपनी कविता में उस आदमी की आवाज को असरदार बनाए रख सकें, जो हालात और व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित और प्रताड़ित है. भगवत रावत की कविताएं प्रकारान्तर से इसी आदमी की पीड़ाओं और उसकी सहन करने की क्षमता का आख्यान प्रस्तुत करती हैं - कभी छोटे-छोटे जीवन प्रसंगों पर आधारित छोटी कविताओं के रूप में और कभी देशकाल के व्यापक संदर्शें को समेटती किसी दीर्घ कविता के रूप में.  
हमने उनके घर देखे  भगवत रावत के पूर्व में प्रकाशित कुछ काव्य-संग्रहों में से ली गई चुनिन्दा कविताओं का ऐसा संचयन है, जिसकी अनुगूंज हिन्दी काव्य-जगत में बरसों तक सुनी जा सकेगी. उनकी कविता की विषयवस्तु और अन्दाजे-बयां पर तरतीब से बात शुरू करने के लिए इस संग्रह की शीर्षक कविता को ही लिया जा सकता है, जो कलेवर में बेशक छोटी हो, लेकिन अपने भाव-संवेदन, अर्थ-परिधि और व्यंजना में गहरा असर रखती है 

                    हमने उनके घर देखे
                    घर के भीतर घर देखे
                    घर के भी तलघर देखे
                    हमने उनके
                    डर देखे !
                         (हमने उनके घर देखे, पृ-208)
    
यह कविता बहुत नपे तुले शब्दों में उस शोषित-पीड़ित आदमी के भीतर परिपक्व होते अनुभव, विकसित होती संवेदना और गहराते आत्मविश्‍वास को नई ऊर्जा से भर देती है, जो धीरे धीरे यह जानने लगा है कि उसके अधिकारों और रोजी-रोटी के साधनों पर किस तरह कुछ मुट्ठी भर लोग कब्जा किये बैठे हैं. अपने इस अपराध के चलते, उनके भीतर का भय दिनों-दिन गहराता जा रहा है और वे बड़े-बड़े घरों और तलघरों में अपने तमाम सुरक्षा इन्तजामों के बावजूद बेहद डरे हुए व्यक्ति का-सा जीवन जीते हैं. यह डर कहीं बाहर जाहिर न हो जाये, इसी एहतियात के लिए वे सत्ता के गलियारों और अपने ही बनाए बाजार पर हरवक्त हावी बने रहने का आडम्बर रचते हैं, जबकि समय एक एक कर उनके सारे आवरण उतारता जा रहा है. उनके भीतर का यही भय भगवत रावत की कुछ और कविताओं में भी उसी सघन भाव के साथ व्यक्त होता है:

                    इतने डरे हुए हैं वे लोग
                    कि खतरे को खतरा कहते हुए
                    जुबान की तरह
                    खुद लड़खड़ाने लगते हैं.
                               (इतने डरे हुए हैं वे लोग, पृ-63)

   
ये वे लोग हैं, जो जीवन भर इसी भरम में जीते हैं  कि यह देश और दुनिया उन्ही के चलाए चलती है, वे ही उसके खैरख्वाह हैं. इसी भरम के चलते वे राजनीतिक-आर्थिक सत्ता की कुर्सी के हत्थे पकड़कर उस देश और दुनिया के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बघारने लगते हैं और शिकायत करते हैं कि देश उनकी बातों पर गौर नहीं कर रहा ! ऐसे ही श्रीमन्तों की मानसिकता को आम लोगों की जुबान में यह कविता कुछ इस तरह समझाती है:

                    देश तो देश है
                    ऐसा ही रहेगा
                    छोड़ें सब चिन्ताएं
                    आराम फरमाएं
                    नींद नहीं आ रही हो तो
                    हम सब मिल कर
                    जन गण मन / गाएं !
                                  (श्रीमन् , पृ-134)

     
ऐसे सभ्य और सुसंस्कृत श्रीमानों की जीवन-शैली को सभ्यता और संस्कृति का नमूना बनाये रखने वाली व्यवस्था को देश में पिछड़ापन बनाये रखना जरूरी लगता है. इस स्थिति पर  करारा व्यंग्य करती हुई एक कविता है - ‘सभ्यता और संस्कृति’:
                
सभ्यता सभ्य लोगों से जानी जाती है 
और सभ्य लोग पिछड़े हुए लोगों से जाने जाते है
इस तरह सभ्यता और संस्कृति के हित 
में                                                         
दोनों को अलग अलग बनाए रखना                                                  
देश की 
विवशता है
                                   
(सभ्यता और संस्कृति, पृ-213)

     
लेकिन कविता में ऐसे सभ्रान्तों तथा उनकी व्यवस्था पर व्यंग्य करना ही कवि का अभीष्ट नहीं है उनकी कविता का मूल उद्देश्‍य तो उस पिछड़े कहे जाने वाले आदमी को उसका असली चेहरा तथा उसका आत्मविश्‍वास लौटाना है और इस प्रक्रिया में स्वयं भी बराबर का साझीदार होना है. आत्मकथात्मक ढंग से लिखी गयी भगवत रावत की एक लम्बी कविता है जो भी पढ़ रहा है या सुन रहा है’. इसमें मध्यवर्गीय कवि श्रमिक वर्ग के एक पुरुष रामचरन और श्रमिक वर्ग की एक स्त्री भूरी से अपनी निकटता और दूरी की कथा कहता है और अपनी प्रतिबद्ध आकांक्षा इस प्रकार व्यक्त करता है:

                   मैं अपने घर को
                   सचमुच का घर बनाना चाहता हूं
                   अपने दोस्त रामचरन को
                   उसके गाने के साथ
                   उसका चेहरा वापस दिलाना चाहता हूं!
                   अपनी भूरी भाभी के
                   तांबई रंग के पीछे छिपे चेहरे को
                   वापस लाना चाहता हूं.
                                          (पृ-162)
     
इस पीड़ित और शोषित मनुष्य के पक्ष में खड़े होकर भगवत रावत न केवल उसकी हौसला-अफजाई करते हैं, बल्कि स्वयं आत्म-परिष्कार भी करते हैं. वे कवि-कर्म को अपनी खूबी या विशिष्ट उपलब्धि मानने का मोह नहीं पालते, इसीलिए वे बेलौस यह कह पाए हैं:

                   कितने सारे काम पड़े हैं करने को
                   इन्हें करते करते जो कुछ हो जाएगा
                   वही मेरे साथ जाएगा
                   केवल कुछ करने के लिए अलग से
                   कविता भी नहीं करूंगा.
                                            (पृ-232)
      
और यह बात इन कविताओं से साबित है कि भगवत रावत ने सिर्फ कुछ करने के लिए कविता नहीं की है - न उन सभ्रान्त श्रीमानों की जीवन-शैली पर व्यंग्य करने को अपनी कविता का उपजीव्य बनाया है और न उसकी पोषक-समर्थक सत्ता-व्यवस्था की कारगुजारियों पर रोष प्रकट करने में अपनी ऊर्जा को अनावश्‍यक जाया किया है. दरअसल कवि की दिलचस्पी उनके घरों में उतनी नहीं है, जितनी अपने आस-पास की दुनिया और उसमें रहने वाले आम लोगों की जिन्दगी में रही है. इसी दुनिया से लड़ते-झगड़ते/प्रेम करते/बोलते-बतियाते/समझते-बुझाते/ जो कुछ हो गया वही कवि का जीवन है और वही उसकी कविता.
     
इसी दुनिया में जीने वाले आदमी की पीड़ाओं, परेशानियों, चिन्ताओं और जीवन के सरोकारों की गहरी छानबीन करते हुए भगवत रावत ने अपनी कविता में एक ऐसे अन्तरंग संसार की रचना की है, जहां उसकी पीड़ाओं और परेशानियों से जूझने के रास्ते और संभावित हल उसी उसी की भाषा और लहजे में दर्ज दिखाए गये हैं.
      
डॉ. कमला प्रसाद ने इस संचयन की प्रस्तावना में सही लिखा है कि मेहनतकश आदमी के शरीर, चेहरे, आंख, हाथ-पैर और त्वचा के तमाम निशान भगवत की कविता में अंकित हैं. सारी कविताओं में मौजूद एक ऐसा आदमी है, जो अहर्निश भटक रहा है. झोला लिए बाजार में - उधारी की खरीद, सब्जी-मार्केट, इतवार की हाट, स्कूल, मैदान, सभा-गोष्ठी आदि कहीं भी, नुक्कड़ सभाओं में बोलता, समझता-समझाता, सम्बोधित करता-सम्बोधित होता - जीवन को जीने की फिक्र और बेचैनी में हांफता हुआ.’

यही हठी, स्वाभिमानी, मध्यवित्त और घरेलू आदमी इन कविताओं के केन्द्र में आता है, जो इस दी हुई दुनिया को लगातार समझने और उसे बदलने की जरूरत महसूस करता है. भगवत की ये कविताएं प्रकारान्तर से इसी प्रक्रिया को और तेज करने का इरादा जाहिर करती हैं:

               उस आदमी को कहो
               कि वह पृथ्वी को
               देखे पृथ्वी की तरह
               ठोस और विस्तृत .
                         (उस आदमी से कहो, पृ-60)
     
औरत घरेलू दुनिया और घर का आधार होती है और हंसते-खेलते बच्चे उसकी रौनक. संभवतः इसी बात को समझते-समझाते हुए कवि ने औरत और बच्चों पर अनेक तरल कविताएं लिखी हैं. दरअसल आदमी और औरत मिलकर अपने घर को बनाने, बचाने और उसे बेहतर बनाने में अपनी पूरी जिन्दगी खपा देते हैं. और मजे की बात ये कि यह घर किसी ईंट-गारे या दीवारों से नहीं बना होता - यह बना होता है, दो इन्सानों के बीच बनती आई आपसी समझ, एक-दूसरे प्रति लगाव और एक-दूसरे के साझे सरोकारों को समझने की भावना से. घर तो उनके बीच का वह रिश्‍ता है, जो उन्हें विश्‍वास की एक छत, आंगन और आसरे का सम्बल देता है. अपने इसी रिश्‍ते के बल पर ही तो वे गली-मोहल्ले-गांव या सड़क किनारे कहीं भी ठौर पाकर अपनों की अगवानी और आवभगत कर लेते हैं.   
     
सहने और सामना करने की अदम्य क्षमता रखने वाले इस सामान्यजन के जीवन-संघर्ष को अपने समूचे पारिवारिक परिवेश और उसके भीतर के भाव-लोक को कवि ने अपनी छोटी- छोटी कविताओं में इस खूबसूरती से सहेजा और रचा है कि हर कविता में व्यंजित वह जीवन यथार्थ अपने समय की विद्रूपताओं, सामान्य आदमी के साथ होने वाली नाइन्साफियों, बुरे बरतावों और यहां तक कि उसकी कमजोरियों तक का रेशा रेशा खोल कर रख देता है. इन कविताओं की विषयवस्तु और शिल्प में ऐसा अजूबा या अमूर्त कुछ भी नहीं है, जिसकी व्याख्या-विवेचन के लिए किसी आलोचक जैसे बाहरी व्यक्ति को अनावश्‍यक हस्तक्षेप करना पड़े. ये कविताएं अपनी सम्प्रेषणीयता में इतनी सहज और इतनी प्रभावशाली हैं कि कविता में सामान्य-सी दिलचस्पी रखने वाले पाठक भी उन्हें आसानी से समझते-सराहते हुए उनका अपेक्षित प्रभाव ग्रहण कर सकते हैं. विष्णु नागर ने भगवत रावत के बारे में ठीक ही लिखा है कि भगवत रावत महज एक सुन्दर-सा वक्तव्य देने के लिए कविता को बातचीत नहीं कहते, बल्कि वे सचमुच कविता के जरिये बातचीत करते हैं. भगवत रावत उन कवियों में हैं, जिनके अन्दर, बाहर की घटनाओं के कारण निरन्तर कुछ घटता रहता है, जिसे वे आपके साथ तुरन्त और अभी बिलकुल अभी  शेयर करना चाहते हैं."  
    
भगवत रावत की कविता में भाषा की सादगी पर जब हम बात करते हैं, तो निश्‍चय ही हमारा आशय उन सुधि आलोचकों की राय से कतई भिन्‍न होता है, जो भाषा और काव्य-संरचना में बरती जा रही सरलता या सीमित कलात्मकता को सादगी का पर्याय बना कर पेश करते हैं. किसी सधे हुए रचनाकार की भाषा और रचनाशीलता में सादगी और सहजता उस वैज्ञानिेक सोच, उस जीवन दर्शन को अपने में आत्मसात कर लेने की अवस्था और अपने संवेदनात्मक उद्देश्‍य  में निहित उस स्पष्टता, ईमानदारी और बयान की साफगोई से संभव हो पाती है, जो किसी रचनाकार का एक विरल गुण मानी जाती है. बकौल विष्णु खरे सबसे महत्वपूर्ण बात शायद यह है कि इन कविताओं में से अधिकांश में भगवत रावत भाषा की एक ऐसी विरल सादगी हासिल कर पाये हैं, जो अपनी संप्रेषणीयता में किसी तंतुवाद्य से जगाये गये सुदूर लेकिन गहरे संगीत की तरह है. भाषा को शिल्प और इन दोनों को कथ्य से अलग करके देखना हिमाकत है. इसलिए यह माने बिना काम नहीं चलता कि सच पूछो तो भगवत रावत की कविता अपने सारे आयामों में हिन्दी में ऐसी जगह बना चुकी है, जिसकी उपेक्षा कविता की अपनी समझ पर प्रश्‍नचिन्ह लगाकर ही की जा सकती है."
     
भगवत रावत की काव्य-भाषा में निहित यही विरल सादगी और सहजता, उनकी कविता को असाधारण असरदार और अपने समय के लिए महत्वपूर्ण बनाती है. ऐसे असाधारण कवि का हमारे बीच से विदा हो जाना एक ऐसा खालीपन है, जिसकी पूर्ति असंभव है 



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नंद भारद्वाज
09829103455
nandbhardwaj@gmail.com 
  

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  1. एक अत्यंत संतुलित आलेख. भगवत रावत की कविता के केन्द्रीय स्वर को रेखांकित करने वाला, और उनके महत्व को चिह्नित करने वाला भी. वह अपनी तरह के अकेले कवि थे. इसे जो भी कहा जाए, उनका समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया, तथा वह उस मान्यता से भी वंचित रहे, जो उनसे कम प्रतिभाशाली कवियों को सहज (?) ही प्राप्त हो गई. नंद को बधाई.

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  2. कवि को नमन..कवि जाता नहीं. भाषा की मिट्टी है वह ,जिसमें कविता का अरण्य विस्तार पाता है. भाषा का आकाश है वह जिसमें कविता खगोल हो जाती है.
    नन्द सर का आलेख कवि के मुख्य स्वर की अनुगूंज है.
    आज इंसान को क्या चाहिए ,ये तय कर पाना मुश्किल है पर इतना तो चाहिए ही ..

    पता नहीं

    आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए

    कैसी हवा कैसा पानी चाहिए

    पर इतना तो तय है

    कि इस समय दुनिया को

    ढेर सारी करुणा चाहिए।( रावत जी की कविता 'करुणा' से )

    नन्द सर का आभार और समालोचन को इस पोस्ट के लिए ख़ास शुक्रिया.

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  3. उनकी स्मृति में उन्ही की या कविता ....

    हाथ बढाओ और विदा दो
    देखो मेरे जाने का वक्त हो गया है

    वक्त जैसे जैसे नजदीक आता-जाता है
    मेरी हड़बड़ी बढती जाती है
    मै सह नहीं सकता
    गाड़ी चलने की देरी को

    खुद भी चल देना चाहता हूँ
    झटककर सब कुछ
    इसलिए नहीं
    कि किस तरह एक झटके में
    आदमी चला जाता है दूर
    एक दुनिया से निकलकर
    दूसरी दुनिया में

    बल्कि इसलिए हाथ बढ़ाओ
    और विदा दो
    ताकि
    वापस आ सकूँ | .....भगवत रावत

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  4. या कविता ....की जगह ...'यह कविता' पढ़ें

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  5. नंद भाई, उम्दा। ऐसे कवि काव्य परंपरा में नहीं, बल्कि जीवन की परंपरा में विश्वास रखते हैं। हस्तक्षेप भी करते रहते हैं। बहुत बधाई।

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  6. बड़ी तन्मयता से भागवत जी के रचना संसार का अवलोकन करता है नन्द जी का यह लेख !इस शानदार काम के लिए नन्द जी को बधाई और अरुण जी का आभार !

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  7. नंद जी ने भगवत दा की कविता के मर्म को लक्षित करते हुए जो विवेचन किया है, वह भगवत दा की कविता के नए अन्‍वेषण का मार्ग प्रशस्‍त करता है। सच तो यह है कि भगवत दा ने अपनी जिस काव्‍य परंपरा का सृजन किया, वह हिंदी में बहुत विरल है, सही तो यह है कि उनके जैसा दूसरा ऐसा जनभाषी कवि शायद ही हो... इसलिए पारंपरिक आलोचना के औजारों से उसकी व्‍याख्‍या भी संभव नहीं है। नंद जी ने बहुत मन और श्रम से हमारे समय के अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण कवि पर लिखा है, जो कि महज शोकांतिका नहीं है... इसे पढ़ना भगवत दा की परंपरा से खुद को जोड़ने जैसा लगता है मुझे... नंद जी को बधाई इस मूल्‍यवान श्रद्धांजलि के लिए।

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  8. सचमुच बहुत ही सामयिक और सार्थक पोस्ट......नन्द सर की नज़र से भगवत जी को देखना अच्छा लगा, सुंदर समीक्षा साझा करने के लिए आभार.....

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  9. सचमुच बहुत ही सामयिक और सार्थक पोस्ट......नन्द सर की नज़र से भगवत जी को देखना अच्छा लगा, सुंदर समीक्षा साझा करने के लिए आभार.....

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  10. बेहद सार्थक सारवान महत्वपूर्ण आलेख,आभार !

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  11. में अनुभव और बोध का एक पार्थिव द्वंद्व है. रचना के बुनियादी मैकेनिज्म में लोक और मानस के अमूर्त होते जाते सिलसिले के बीच उनकी कविता, जीवन-संघर्ष के नैसर्गिक नैरेटिव की तरह कौंधती है. भगवत जी को समझने की एक ईमानदार और व्यवस्थित कोशिश नन्द जी के द्वारा.........

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