सबद भेद : अज्ञेय और मैं : आशुतोष भारद्वाज

चित्र : ओम थानवी के सौजन्य से 







परम्परा से परे जाने के लिए भी परम्परा को पार करना होता है. धँस कर गहरे अंदर. कलाओं में इसी लिए घर, घराने और परम्पराएं होती हैं. युवा कथाकार आशुतोष भारद्वाज का लेख अपनी लेखन की जड़ों की तलाश में अज्ञेय तक जाता है. आशुतोष को अज्ञेय आत्मलिप्त आख्ययाक लगते हैं. शेखर एक जीवनी और नदी के द्वीप जैसे उपन्यासों से होते हुए यह लेख अज्ञेय को एक अलग आयाम से देखता है. इस तरह देखने को भी मूल्यवान मानते हुए समालोचन की यह प्रस्तुति.

कोई आहट नहीं                                                              

आशुतोष  भारद्वाज 




क लेखक और सामान्य पाठक के पाठ में शायद गहरा फर्क है. किसी रचना से गुजरते वक्त उनके सरोकार भिन्न हो सकते हैं. लेखकखासकर उन लम्हों में जब वह उस विधा में रची गयी कृति से गुजरता है जिसे वह खुद भी बरतता हैउसे पाठकीय से कहीं अधिक लेखकीय आइने में टटोलना चाहता है. आरंभिक लेखक तो ख़ासकर. उसके पास समय कम हैभयाक्रांत हड़बड़ी में जीता अपने पुरखों की किताबों के वजन तले कुचला जाता वह कम समय में अधिकाधिक लिखपढ़ लेना चाहता हैइस प्रक्रिया में उन किताबों के सानिध्य में अधिक समय बिताता है जो उसके लेखकीय नक्षत्रमंडल में सितारे मढ़ती हैं. पाठक के मानवीय संसार का विस्तार किसी भी कृति की उपलब्धि है लेकिन इस युवा लेखक को इतने से तृप्ति नहीं होती. वह इन रचनाओं की कोशिकाओं में वे सूत्र ढूढ़ता है जिनसे उसकी हफ्ते भर से अटकी कहानी आगे बढ़ सकेउसके अधूरे किरदारों को बूंद भर रोशनी मिल सकेउसकी उपमाओं में उड़ानमुहावरों में मस्ती आ सके. पगलाये प्रेम के लम्हों में नवजात प्रेमी हर लड़की में अपनी प्रेमिका तलाशता हैउसी तरह यह नवजात कथाकार हर कथा में अपने किरदार खोजता हैउस किताब से भागतेउचटते हुये गुजर जाना चाहता है जहां उसका आख्यान अपनी परछांई नहीं देख पाता. शायद उसका यह पाठ उस किताब के साथ न्याय न होलेकिन उसके भीतर तमाम संवेदना उड़ेलते हुए भी रचना प्रक्रिया रचनाकार को इतना निर्मम तो बना ही देती है कि वह हर उस शै को नकारना चाहता हैनकार भी देता है जो उसके रचना संसार को समृद्ध नहीं करती है.       

इस दृष्टि से अज्ञेय के मशहूर उपन्यास शेखर: एक जीवनी के साथ मेरा गल्पकार कोई रिश्ता नहीं जोड़ पाता. इस उपन्यास और इसके नायक ने बीती पीढ़ियों के कई रचनाकारों को जबरदस्त सम्मोहित किया हैलेकिन अज्ञेय के रचनात्मक अवदान का सम्मान करते हुयेसृजन कर्म के प्रति उनकी निष्ठा से उर्जा ग्रहण करते हुये भी मेरा गल्पकार उनकी कथा से कुछ हासिल नहीं कर पाता. उनका आख्यायकीय स्वरउनका नायकइस नायक का संवेदन तंत्र --- शायद कहीं कुछ नहीं जो मेरे लेखकीय संसार को समृद्ध कर सके.

इस उपन्यास से मेरे अलगाव का पहला बिंदु यह है कि इसके आख्यायक को नायक शेखर पर और खुद शेखर को अपने ऊपर शायद रत्ती भर भी संशय नहीं है. वह ऊपरी तौर पर भले ही तमाम चीजों पर प्रश्न करता दिखाई देता हो लेकिन सतह उघाड़ कर देखेंवह किसी चीज को हासिल करने के संघर्ष में नहीं डूबा. उसकी मुद्रा बतलाती है कि वह पहले ही सभी क्षमताओंगुणों को अर्जित कर आया है और उपन्यास में महज उनकी पुनर्स्थापना कर रहा हैउन्हें दोहरा रहा है. शब्द उसकी आंतरिक यात्राओं में उठाये जोखिम के वाहक नहीं बनतेउसके अपने आत्म के संग हुई सिहराती मुठभेड़ की कथा नहीं कहतेकिन स्थलों पर वह जूझाटूटास्खलित हुआ नहीं बतलातेशब्द महज माध्यम हैं उसके लिये अपनी उपलब्धियों की गाथा सुनाने के.

शेखर सही मायनों में प्रश्नाकुल नहीं है. वह अपने संशयअंतर्द्वंद अभिव्यक्त करने के लिये नहींबल्कि पूर्वनिर्धारित निष्कर्षों को हासिल और सत्यापित करने के लिये ही प्रश्न  करता है. उसकी सारी क्रियायें उसे वैधता प्रदान करने के लिये हैं. एक जगह नायकजब वह सिर्फ चौदह-पंद्रह साल का हैका अपनी मां से झगड़ा होता हैमां उसे नाकारा समझती हैउस पर विश्वास नहीं करती. वह अपना कमरा बंद कर डायरी में लिखता है ---

अच्छा होता मैं कुत्ता होताचूहा होतादुर्गन्धमय कीड़ा होता बनिस्बत ऐसे आदमी के जिसका विश्वास नहीं है.’ फिर वह जोर से कहता है --- आई हेट हरआई हेट हर. वह घर से बाहर निकल आता हैप्रतिज्ञा करता है उसे कागज पर लिखता है कुछ ऐसा काम नहीं करेगा जिससे माँ को उस पर रत्ती भर भी विश्वास करना पड़े. पर तभी --- पर तभी उसके भीतर एक और परिवर्तन हुआउसने उस कागज के चिथड़े कियेउन्हें गीली जमीन पर फेंका और पैरों से रौंदने लगा तब तक जब तक कि वे कीच में सनकर अदृश्य नहीं हो गये ---

मैं योग्य हॅूंयोग्य रहॅूगा. उसमें विश्वास की क्षमता नही तो मैं क्यों पराजित हूँगा.

एक चौदह पंद्रह साल के लड़के का मां से तीखा झगड़ा हुआ है. माँ को उस पर भरोसा नहीं रहा है लेकिन उसे अपने कर्मों पर पुनर्विश्वास अर्जित करने में जरा देर नहीं लगती. अपने को सत्यापित करते वक्त वह मां और उनके संशय को सुनवाई की जगह भी नहीं देता है. महज पंद्रह का लड़का.

यह नायक बहुत महान होगाबुद्ध होगा (उपन्यास में शेखर के जन्म पर उपन्यासकार कुछ भिक्षुओं से यह भी कहलवा देता है कि “यह शिशु बुद्ध का अवतार है”), लेकिन मेरामेरे किरदारों का शायद इसलिए इस लड़के से कोई संबंध नहीं जुड़ पाता. मेरा नायक कितना ही आत्मविश्वस्त होपंद्रह नहीं पच्चीस या पैंतीस का होअपने से प्रश्न करेगा क्यों उसने विश्वास खोयाकभी इस सरलीकृत दंभ की शरण नहीं लेगा कि मैं योग्य हॅूंयोग्य रहॅूगा.

उपन्यासकार बड़े मासूम ढंग से अपने नायक को महानायक बनाता चलता है. एक जगह वह लिखता है --- शेखर को एक बड़ी खतरनाक आदत पड़ गयी -- वह अकेला बैठ-बैठकर सोचने लगा.

अकेले ‘बैठ-बैठ कर’ सोचने लगने को उपन्यासकार बड़ी खतरनाक आदत बतलाता है. तमाम उपन्यासों के नायक अकेले में चिन्तन करते हैं. क्या यह वाकई एक खतरनाक आदत है या सहज मानवीय कर्म हैनायक को इतने सरल ढंग से परिभाषित करनाएक सहज कर्म को इस कदर महिमंडित कर दिखलाना क्या आख्यान की विकट तकनीकी और वैचारिक खामी है या उपन्यासकार का नायक के प्रति विराट सम्मोहन का सूचक है?

निर्मल वर्मा ने लिखा है कि एक अच्छा उपन्यासकार अपने किरदारों को समान मात्रा में सहानुभूति बांटता हैलेकिन एक महान उपन्यासकार इस सहानुभूति के विरूद्ध संघर्ष करता है. अपराध और दण्ड का राश्कोल्निकोव भी गहन आंतरिक वैचारिक संसार में जीता हैअपने को कुरेदता है लेकिन दोस्तोयवस्की उसका महिमागान नहीं करतेउसे बीच रास्ते में छोड़ देते हैं जहाँ वह बाकी सभी किरदारों से बहस करता हुआअपने विचारों को परखता हुआ एक निरीह युवक बतौर उभरता हैअंततः अपनी वैचारिक सीमा और अपना गुनाह स्वीकारता है.  

शेखर निरीह नहीं हैं. भले वो पांच साल का बालक हो या बीस का युवक. उसमें अनछुई निरीहतातुतलाती मासूमियतबेबाक छटपटाहटबेखौफ वासनाचिल्लाती हवस का अभाव है. वह किसी शिखर पर पहुंचा नायक हैदुनियावी आवेग व संशय या तो मिट गये हैं या उपन्यासकार की नायक पर और खुद नायक की अपने उपर घनघोर आस्था के जरिये उनका सरलीकृत समाधान हो गया है. किन रास्तों से होकिन जख्म-खरोंच अपने जिस्म-रूह पर झेलकर वह वहां पहुंचाआस्था हासिल की इसका जिक्र अज्ञेय नहीं करते. शेखर के भीतर द्धंद्ध नहींउसे अपने कर्म और विचार की वैधता घनघोर पूरा भरोसा है. उसका अलगाव महज बाह्य सृष्टि से हैएक छोटी सी खाई जिसे वह सहजता से संसार को ठुकरा या एकांतप्रकृति के सुनहरे सानिध्य में आ मिटा देता है. न उसके भीतर भटकावविचलन न बिखराव. चॅूंकि वह हमेशा अपने को सही मानता है उसके भीतर अपराध बोध भी नहीं. ऐसा नहीं कि वह जड़ हैवह विचारमग्न हैसंवेदनशील भीलेकिन बेहतर और उससे बेहतर का संघर्ष उसके भीतर नहीं. वह नहीं कहेगा अबकी बार लौटूगा तो वृहत्तर हो लौटूगा. वह आरंभ से ही खुद को वृहत्तर माने बैठा है.

शेखर मेरा नायक नहीं है. मेरा नायक स्खलित होता हैअपनी रूह आत्म-भर्त्सना के नुकीले खंजर पर अटकी थरथराती पाता है. अज्ञेय का नायक कभी स्खलित नहीं होतापाठक को उसका स्खलन-पतन दिखलाई दे भी जायेवह आश्वस्त जीवन जीता चलता है.  इसे हम मनुष्य की सिद्धावस्था भी कह सकते हैं. सूरदास व तुलसीदास में फर्क करते हुये रामचन्द्र शुक्ल लिखते थे कि सूर की कविता लोकमंगल की सिद्धावस्था है जबकि तुलसी लोकमंगल की साधनावस्था का साहित्य रचते हैं. शेखर सिद्धावस्था के शिखर पर दिखाई देता है. वह सब कुछ पहले ही अर्जित कर चुका हैं महज उसे प्रतिपादित करनापाठक को दिखलाना बाकी है.

इस सिद्धावस्था से मेरा कोई सरोकार नहीं. मेरी दिलचस्पी उस साधना में है जो सिद्धि की तरफ ले जाती है --- सिद्धि जो किसी कलाकार के लिए शायद सबसे बड़ा छलावा हैजिसके पीछे वह खिंचता चला जाता हैलेकिन जो शायद उसे कभी हासिल नहीं होती. वह दुर्गमकठिन रास्ता जिस पर मनुष्य लुढ़कता हैगिरता हैबदन पर खरोंचें आतीं हैंआत्मा लहूलुहान होती हैउसी पीड़ा की राख से नायक का पुनर्जन्म होता है.


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नायक शेखर की इस अवस्था के बीज क्या इस उपन्यास की बुनावटइसकी आख्यान शैली में निहित हैंक्या यह उपन्यास जिस स्वर में कहा गया उसकी परिणति इसी किस्म के आत्मुग्ध नायक में होनी थी?

इस उपन्यास की एक विशेषता यह है कि कुछेक स्थलों के सिवाय यह भले ही तृतीय पुरुष में खुद को कहता है लेकिन न सिर्फ इसका वादी स्वर बल्कि संवादी स्वर भी सिर्फ नायक शेखर के जरिये व्यक्त होता है. हम समूची कथा शेखर की निगाह से ही देखते हैंबाकी किरदारों व घटनाओं के बारे में हम लगभग सिर्फ वही जान पाते हैं जो शेखर उनके बारे में सोचता है. अज्ञेय इस तरह से कथा बुनते हैं कि अमूमन तृतीय पुरुष में व्यक्त हुआ यह आख्यान प्रथम पुरुष कथा बनकर उभरता है.

उपन्यास की भूमिका भी इस प्रथम पुरुष स्वर को पुष्ट करती है. अज्ञेय उन बिरले उपन्यासकारों में हैं जो उपन्यास से पहले उसकी लम्बी लेखकीय भूमिका देते हैं. यह भूमिका कथा की भूमि निर्धारित कर देती है.

वे भूमिका में अपने बंदी जीवन और क्रांतिकारिता का उल्लेख करते हैंउपन्यास को एक विराट चित्रघनीभूत वेदना की एक रात में देखे हुये विजन को शब्दबद्ध करने का प्रयास  बतलाते हैंयह भी मानते हैं कि उनको जानने वाला पाठक इसमें उनके अपने जीवनदेशाटन इत्यादि के सूत्र पायेगा लेकिन पाठक को यह भी मनवा देना चाहते हैं कि आत्म-घटित ही आत्मानुभूति नहीं होता इसलिए मुझे मानना पड़ेगा कि इलियट के कथनानुसार मैं बहुत बड़ा आर्टिस्ट हो सका हॅूं (इलियट का प्रसिद्द निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत).

लेकिन यहाँ दिलचस्प अंतर्विरोध यह है कि दो पंक्ति बाद ही वे स्वीकारते हैं कि तथापि मेरी अनुभूति और मेरी वेदना शेखर को अभिसिंचित कर रही है...शेखर में मेरापन कुछ अधिक है इलियट का आदर्श मुझसे निभ नहीं सका है.

उनका यह आग्रह कमोबेश हर किताब की भूमिका में बना रहता है. अपनी रचना को पाठक के सम्मुख रखने से पहले अज्ञेय को आखिर क्यों जरूरत पड़ती है अपने बचाव कीवे क्यों हमें बतलाना चाहते हैं कि उन्हेंउनकी कृति को किस तरह पढ़ा जाये किस तरह न पढ़ा जायेउन्हें अपने पाठकउसकी समझ पर भरोसा क्यों नहीं?

शेखर कोई बड़ा आदमी नहीं हैवह अच्छा भी आदमी नहीं है....लेकिन उसके अंत तक उसके साथ चल कर आपके उसके प्रति भाव कठोर नहीं होंगेऐसा मुझे विश्वास है. औरकौन जाने आज के युग में जब हमआप सभी संष्लिष्ट चरित्र हैंतब आप पायें कि आपके भीतर भी कहीं पर एक शेखर है जो बड़ा भी नहींअच्छा भी नहींलेकिन जागरूकस्वतंत्र और ईमानदार हैघोर ईमानदार.
  

कौन उपन्यासकार भूमिका में अपने नायक की ऐसी अर्चना करेगाइलियट की निर्वैयक्तिकताअहं के विलयन आदि सिद्धांतों पर अज्ञेय का निरंतर बलाघातउन सबका क्या

अपने स्वर को वैधानिक होने का प्रमाण पत्र देती चलती यह भूमिका क्या उपन्यास को एक आत्मवक्तव्य में परिवर्तित करती है खासकर तब जब लेखक स्वीकार चुका है कि शेखर में ‘उसकापन’ अधिक हैवह कहीं गहरे लेखक ही प्रतिरूप हैक्या यह भूमिका यह इंगित करती है कि उपन्यास शायद लिखा ही नायकउसके जीवनउसकी दृष्टि और प्रकारांतर से शायद खुद लेखक को महिमामंडित करने के लिये गया है?

किसी कृति के पन्नों में लेखक की इस कदर सशक्त उपस्थिति कोई समस्या नहीं है लेकिन अज्ञेय के सामने समस्या यह उभरती है कि वे जिस मुद्रा से स्वघोषित तौर पर बचना चाहते हैं उसे अगली ही पंक्ति में जगह भी दे देते हैं. इतना विकट अंतर्विरोध आखिर किस तरह संभव होता हैऔर यह कथा को किस तरह निर्धारित करता है?

इन प्रश्नों से पहले आख्यान की प्रकृति पर चर्चा जरुरी है.

किसी रचना का आख्यायकीय स्वर --- प्रथमद्वितीय या तृतीय पुरुष -- न सिर्फ उस रचना का प्रेक्षण स्थल यानि वैंटेज प्वाइंट निर्धारित करता है कि उसे किस धरातल से देखा जाये बल्कि उसका परिप्रेक्ष्य चीन्हने में भी मदद करता है.

प्रथम पुरुष आख्यायक के संदर्भ में हेनरी जेम्स ने फ्लूयिडिटी आफ सैल्फ रैविलेशन  उर्फ आत्मउद्घाटन की तरलता का जिक्र किया है. आख्यान की एक ऐसी तकनीक जिसमें लेखक के आत्म की किरदारों पर आरोपण की सम्भावना बनी रहती है. हालाँकि जेम्स की यह प्रस्तावना अपवाद के साथ आती है ( प्रथम पुरुष में कहे गए तमाम उपन्यास आत्मउद्घाटन की इस तरलता से मुक्त हैंमसलन अल्बैर काम्यू का अजनबीपॉल ऑस्टर का द न्यूयॉर्क ट्रिलजीकृष्ण बलदेव वैद का तमाम लेखन इत्यादि)लेकिन यह शेखर: एक जीवनी की रचना-दृष्टि और सृष्टि को समझने में मदद करती है. अगर हम उपन्यास की भूमिका को लेखक का मैनिफेस्टोउसके नायक के जीवन और हसरतों का संकेतक मानचित्र मानें तो क्या यह कह सकते हैं कि अगर उपन्यासकार ने अपने जेहन में शेखर को शुरूआत में ही निर्धारितपरिभाषित नहीं कर दिया होतातो उसे कहीं तटस्थक्रूर और निर्मम निगाह से देख-उकेर पातातब शेखर इतना आत्ममोहित नायक नहीं होता?
  
एक दिन वह (शेखर) जंगल में घूमता हुआ भटक गया. यह उसके अत्यंत असहाय --- सहायता के प्रति उपेक्षा किये --- अकेलेपन का प्रमाण है कि वह घबराया नहींइधर उधर भागा नहीं (जो कभी जंगल में भटके हैंवे समझ सकते हैं कि उस समय न घबराना क्या चीज है!)अपनी छाती तक लम्बी सांस को दबाकरआसन-सा बनाकर बैठ गयाऔर बादलों को देखने लगा.

कोई नायक अगर जंगल में भटकने पर घबराता नहीं है तो क्या यह आवश्यक है कि यह भी बतलाया जाये कि चूँकि “उस समय न घबराना” भी “क्या चीज” हैजिसका प्रकारांतर से भाव यह है कि जो घबराते हैं वे हीनतर हैंइसलिए ही शेखर के न घबराने का महत्व है. क्या उपन्यासकार अपनी कथा के बहाने उन अवसरों की तलाश में है कि किस तरह इस नायक को सबसे अलहदाश्रेष्ठतर दिखलाया जायेएक आधुनिक उपन्यासकार से शायद यह अपेक्षा करनी ही चाहिए कि वह अपने नायक को देवत्व और बुद्धत्व (यानि भक्त कवि की रचनात्मक मुद्रा) प्रदान करने से बचेगा. 

क्या अज्ञेय के कथाघर में न सिर्फ फ्लूयिडिटी ऑफ़ सैल्फ रैविलेशन  हैबल्कि सैल्फ ग्लोरिफिकेशन यानि आत्म-मुग्धता भी?
  
ऐसा नहीं कि प्रथम पुरुष स्वर हमेशा ही स्वयंभू-स्वप्रमाणित होता है या होना चाहता है. इसी विधा में आख्यायक द्वारा अपने को नकारती अनेक कथायें मिलेंगी. इस स्वर की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि इसमें कही गयी कथा कुछ ऐसा आत्मीय अवकाश रच देती है जहाँ पाठक पाठ से कहीं सघन तादात्म्य महसूस कर सकता हैरचनाकार भी मनचाहे रस्ते से अपने पात्र के भीतर गहरे उतर उसकी रूह उघाड़ सकता है. ‘मैं’ से विकसित होते आख्यान के अवकाश में आत्मचिंतनएकालाप व इकबालिया बयान बड़ी सहजता से घटित हो जाते हैं. तृतीय पुरुष में कही कथायें भी अक्सर प्रथम पुरुष की ओर मुड़ जाती हैं ज्यों ही उनके किरदार आत्मचिंतन की मुद्रा में आते हैं. स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनैस तो अमूमन प्रथम पुरुष स्वर में ही विकसित होती है. मसलन यह दो अंश:

मैं एक बीमार आदमी हूँ...  मैं एक जलनखोर आदमी हूँ. मैं एक बदसूरत आदमी हूँ. मुझे लगता है मेरे कलेजे में कोई रोग घुसा हुआ है. लेकिन मुझे अपने रोग के बारे में जरा भी नहीं पताठीक ठीक नहीं मालूम आखिर मुझे क्या बीमारी हुई है. मैं इसके लिये किसी डॉक्टर से भी संपर्क नहीं करताकभी नहीं कियायद्यपि मैं दवाईयों और डॉक्टरों का सम्मान करता हॅूं. और फिर मैं घनघोर अंधविश्वासी भी हॅूं .... मैं इतना तो शिक्षित हॅूं ही कि अंधविश्वासी न होऊंलेकिन मैं अंधविश्वासी हूँ नहींमैं अपनी जलन की वजह से डॉक्टर की सलाह नहीं लेता.
  
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सरे हुए पिशाच सा यह मकान मानो गिरते गिरते संभल गया हो और अब संभलते संभलते गिर रहा हो. इस उपमा तक पहुँचने में मुझे काफी कष्ट हुआ. कई बार उठकर टहलना और बैठकर हांफना पड़ा. जब सर पर बाल हुआ करते थे तो कई बार टहलने की बजाय उन पर हाथ फेरने से भी कलम चल जाया करता था. फिर एक दौर ऐसा भी आया था जब बाल बहुत तेजी से उड़ने लगे थे और बचे खुचे कमजोर बालों को खींचने से ही उपमायें उतरा करतीं थीं. और फिर आखिर खोपड़ी बिल्कुल खाल हो गयी.

अगर आगाही के लिये दर्द की जरूरत है तो क्यों नहीं अपने उस सुराख में अंगुली या अंगूठा घुसेड़ कर चिचिला लेताजवाब है कि यह सवाल वही साला कर सकता है जो यह न जानता हो कि एक हद के बाद अंगुली या अंगूठा तो एक तरफ उसमें कोई कील ठोकने से भी कुछ महसूस नहीं होता. और तो और बवासीर के बेर भी एक हद के बाद झड़ जाते हैं और किसी कौंच से नहीं झनझनाते.

तकरीबन सौ वर्षों के अंतराल में लिखी गयी इन दो उपन्यासों --- फ्योदोर दोस्तोयवस्की के नोट्स फ्रॉम द अंडरग्राउंड और कृष्ण बलदेव वैद के दूसरा न कोई --- के ‘मैं’ क्या अज्ञेय के नायक से एकदम विपरीत धरातल पर खड़े हो खुद को देखते हैंआत्म-भर्त्सनाखुद पर हंस सकने की क्षमता जो इन नायकों में हैक्या वह शेखर के भीतर दर्ज होती हैअगर नहींतो जैसाकि ऊपर कहा क्या अज्ञेय की आख्यायकीय मुद्रा में कुछ ऐसा अंतर्निहित है जो उनके स्वर को यह स्वरुप देता है?
  
अज्ञेय की यह आत्मविश्वस्त सिद्धावस्था उनके लेखन में अन्यत्र भी पर्याप्त दिखाई देती है. मसलन उनके कविता संकलन चुनी हुई कवितायें में उनकी यह लम्बी भूमिका जो कई दशक पहले लिखी गयी शेखर की भूमिका के विस्तार बतौर सरीखी पढ़ी जा सकती है.
  
इस चयन का पाठक यदि इसे पढ़ने के बाद मेरे सम्पूर्ण काव्य संग्रह सदानीरा - भाग 1-2 तथा उत्तरकालीन नयी रचनाओं की ओर आकृष्ट नहीं होगा तो मुझे निराशा होगीयह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं है. ऐसे पाठक के काव्य-प्रेम और काव्य-विवेक को भी मैं अधूरा समझूंगाऐसा भी मैं अहंकारी कहाने का संकट उठा कर भी स्वीकार करूँगा.... यह संग्रह पढ़ने के बाद वह ऐसा न समझ ले कि अज्ञेय के काव्य को पूरा जान लिया बल्कि इसके विपरीत यही अनुभव करे कि अज्ञेय के काव्य को पूरा पढ़ना जरूरी है.

अज्ञेय का रचनात्मक-आत्म आखिर किस जगह से सृष्टि को देखता हैयह कौन सी स्थिति है जहाँ बैठकर लेखक पाठक की समझ पर बेखटक-बेधड़क संदेह कर सकता हैखुद अपनी समझ पर कोई शुबहा नहीं उसेखुद को अंहकारी मानने की खतरा भी उठा लेता है अगर इस किताब के पाठक उसकी समूचे कृतित्व की ओर नहीं मुड़ते. यह कौन सी भावभूमि है जहाँ लेखक अपने पाठक को इतनी भी मोहलत नहीं देता कि वह उनकी कविताओं का अपनी इच्छानुसार पाठ कर सके? (यहाँ एक गौरतलब बिंदु यह भी हैजो एक दिलचस्प विरोधाभास को इंगित करता हैकि अज्ञेय अपने नायक कोजिसमें उनका आत्म “कुछ अधिक” ही हैबुद्धयानि एक अपार सहिष्णु मनुष्यका अवतार भी बतलाते हैं). इस कविता संग्रह की भूमिका में झलकते “अहंकार” को इस तरह भी देखा जा सकता है अपनी कविताओं में अज्ञेय सभी सर्जकों को केवल आंचल पसार कर लेने को प्रेरित करते हैं लेकिन उन्हीं कविताओं को ले अपने आत्मवक्तव्य में इतने असहिष्णु हो उठते हैं कि अपने पाठक को असहमति तो दूर अपाठ का भी अवकाश नहीं देते. रचना और रचनाकार के मध्य फांक कोई नयी घटना नहीं है. इन्हें अमूमन नजरअंदाज दिया जाता हैलेकिन अगर वह लेखक की कला के प्रति बुनियादी प्रस्तावना पर ही प्रहार करेअज्ञेय के आत्मवक्तव्य उनकी काव्य-स्थापनाओं को ही प्रश्नांकित कर दें?
  
क्या इसी ‘अहंकार’ की वजह से ही उनका कथा-नायक इतना आत्मविश्वस्त है कि विचलन की संभावना से परे हैंउसके आत्म में अंतर्विरोधी परतें नहीं हैक्या उपन्यास की भूमिका में उनका यह दावा कि “आपके उसके (शेखर) प्रति भाव कठोर नहीं होंगेऐसा मुझे विश्वास है”, यह इंगित करता है कि लेखक का अपने किरदारों पर आख्यायकीय शिकंजा इस कदर जबरदस्त है कि उन्हें अपनी राह चुनने का अवकाश नहीं मिल पातावे लेखक के पूर्वनिर्धारित दार्शनिक एजेंडा के वाहक बन रह जाते हैंक्या उनकी यह आख्यायकीय विधा गल्प के तंतुओं के समुचित दोहन को मुश्किल बनाती हैयह विडंबना ही है कि आत्म व उसकी स्वाधीनता पर निरंतर बलाघात देने वाले इस रचनाकार का प्रतिनिधि नायक अपने रचयिता का बंदी प्रतीत होता हैं. अज्ञेय जेम्स जॉयस के “पैरिंग नेल्स इन द कार्नरयानि कोने में चुपचाप नाखून तराशते आख्यायक नहींबल्कि एक सर्वव्याप्तआत्मलिप्त आख्यायक नजर आते हैं. 
  
यह आख्यायक मेरे आख्यायक से एकदम विपरीत है जिसका समूचा संघर्ष सर्जना की इस वेदी पर टिका है कि कैसे अपने किरदारों को सर्जक की उँगलियों से मुक्त किया जाये जहां वे सर्जक से स्वतंत्र हो वासनाफरेबप्रेमहसरतचाहनाकमीनेपनपवित्रता की अपूर्व द्धंद्धात्मक बारूदी सुरंग में धंसी अपनी रूह के भीतर होते विस्फोट को अनुभूत कर सकें.  
  
हालाँकि यहाँ अज्ञेय के बाकी दोनों उपन्यासों पर विस्तृत चर्चा का समय नहीं हैलेकिन संक्षेप में कहूँ तो नदी के द्वीप और अपने अपने अजनबी भी आख्यायकीय समस्याओं की गिरफ्त में हैं. नदी के द्वीप के किरदार किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के भागीदार प्रतीत होते हैंएक निर्धारित कार्यक्रम के तहत उन्हें लेखक ने स्क्रिप्ट थमा दी हैवे अंतहीन रौ मेंबिना थमे बोले चले जाते हैं. हो सकता है ऐसे भी नायक-नायिका होते होंलेकिन मेरे लिये ऐसे किरदार असंभव है जिनके शब्द नहीं लड़खड़ातेअपने कहे पर संदेह नहीं करते. नदी के द्वीप में क्रियाहीनता भी है. इसके किरदार किसी कर्म में रत नहीं दिखतेअपनी क्रियाओं के जरिये उद्घाटित नहीं होतेउनकी चेतना का विस्तार उनके आत्म व बाह्य जीवन के बीच हुए घर्षण से नहीं होता. अपने काव्य में अपूर्व शब्द-संयम अर्जित करते अज्ञेय गल्पात्मक संकट से शायद अनभिज्ञ रहे आते हैं. उनको पाठक की समझ पर भरोसा नहींवे अपने किरदारों के बारे में सब कुछ खुद ही कह देना चाहते हैं.

अपने अपने अजनबी  के कथानक में विलक्षण संभावनायें हैं. बर्फ में दबे एक घर में कैद दो किरदार --- एक बुढि़याएक लड़की. राशन खत्म हो रहा है. मौत का खौफ इस कदर कि लड़की बुढि़या का कत्ल कर देना चाहती है. लेकिन अज्ञेय कथा को गढ़ते-बुनते नहीं. यह उपन्यास एक आवेगहीन रास्ते पर चलता खत्म हो जाता है. निर्मल वर्मा ने इस उपन्यास की भाषा के बारे में कुछ यूँ लिखा था कि अज्ञेय मानो अपने धुलेधवल पांयचे ऊँचे करते हुए कीचड़ से बचते हुए निकलना चाहते हैं.

इस उपन्यास में भी क्रियायें नहीं हैंकिरदार खुद को क्रियाओं के जरिये व्यक्त नहीं करते. अ स्टोरी टैलर मस्ट शोनाट टैल. एक अच्छा कथाकार वक्ता या उपदेशक नहीं होतावह कथा दिखलाता हैबतलाता नहीं. क्या अज्ञेय दर्शन और गल्प के सम्भोग को अपनी कथा में साध नहीं पाते?

दूसरा न कोई का नायक भी एक अकेला मरता बूढ़ा है. लेकिन यह उपन्यास मानव नियति को अंतिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहता है. यह क्रियारत बूढ़ा है. हमेशा किसी हरकतफितूरशगल में लिप्त. वह एक दृश्य की तरह आपके समक्ष अपनी समूची वासनाखब्तनिराशाऊब के साथ उद्घाटित होता है. वह अपने को व्याख्यित नहीं करता कि वह सनकीखब्ती हैघनघोर हवस से हरहरा रहा है. आप उसकी हरकतों से उसकी अदम्य लिप्सा को जान पाते हैं. एक बायस्कोप चलाते लेखक की तरह वैद पाठक और अपने किरदारों के बीच से खुद को मिटा देते हैं. लेखक का दर्शन किरदार की क्रियाओं और करतबों से जाहिर होता है.


निर्मल वर्मा कई अर्थों में मेरे सृजनात्मक पिता रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में मेरा गल्पकार उनसे मुक्ति पाने के फेर उनसे दूर हुआ है लेकिन अभी भी निर्मल के रचनात्मक डीएनए की कोशिकायें अपनी धमनियों में स्पंदित होता पाता हॅूं. विचित्र यह है कि अज्ञेय निर्मल के सृजनात्मक पिता रहे हैंनिर्मल ने शेखर से अपने गहन अतंर्संबधों का जिक्र किया है. यानी अज्ञेय मेरे पितामह हुये और संभव है निर्मल से होकर गुजरते उनके कुछ अंश मेरे भीतर भी आये होंगे. मैं अपनी धमनियों में उन कोशिकाओं को टटोलता हूँ. लेकिन अज्ञेय कहीं नहीं दिखाई देते. बिना किसी पूर्वाग्रह के चाहता हूँ इस कृतिकार से कोईदूर का ही सहीसंबंध जोड़ पाऊंलेकिन नहीं.
  
अज्ञेय की मृत्यु पर जनसत्ता में प्रभाष जोषी ने संपादकीय लिखा था -- सोने के पंख लगा कर गरुड़ उड़ गया. अज्ञेय की सर्जनात्मक उपस्थिति को स्वीकारते हुये भी श्रीकांत वर्मा की पंक्तियों से थोड़ा खेलते हुये अंत करना चाहॅूंगा --

गिद्धराज आओ 
गरुड़ को किसने देखा है 
जिन्होंने गिद्ध नहीं देखा 
गरुड़ सिर्फ उनकी कल्पना में मंडलाता है 
मंडलाने दो 
गिद्धराज आओ 
गरुड़ को किसने देखा है
गरुड़ महज मेरी कल्पना में परिंदा है

(यह मार्च २०११ में भारत भवन, भोपाल, में आयोजित सेमिनार अज्ञेय और मैंके दौरान पढ़े गए आलेख का संशोधित प्रारूप है.)
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पत्रकार, कथाकार. युवा आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह,
कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं.
इधर इंडियन एक्सप्रेस में छतीसगढ़ के नक्सली इलाके से लगातर रिपोर्टिंग और डायरी प्रकाशित हो रही है.
कथादेश के विशेषांक कल्प कल्प का गल्पका  संपादन .

ई पता : abharwdaj@gmail 

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  1. बढ़िया आलेख है. निस्संग विश्लेषण के ज़रिये अज्ञेय के चिंतन और रचना कर्म के बीच "प्रभाव-ग्रहण-करने" की यांत्रिकता द्वारा खड़ी की गई कठिनाइयों की दीवार को भी सही लक्षित किया है.Fluidity "आर्द्रता" खटकता है, "तरलता" होता तो बेहतर होता. आर्द्रता humidity होती है. बधाई आशुतोष भारद्वाज को.

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  2. आलेख बढ़िया है..पर विश्लेषण की ये निगाह सभी पाठकों की निगाह होगी; जरुरी नहीं. शेखर को लेकर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं रहेंगी. ये ऐसा किरदार है जो समाज की पूर्वधारणाओं का आख्यान बोध नहीं..वैयक्तिक आचरण की सरणियाँ अनुभवजनित अधिक हैं...प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में उसके अपने विकल्प और प्रतिबद्धताएं होती हैं..वे भिन्न-भिन्न रहती हैं. पेड़-पौधों की तरह वहां चीज़ें fix नहीं हैं.

    पंद्रह साल के शेखर में जो घट रहा है..वह अपने समय से थोड़े आगे का शेखर है..यानी आज का शेखर. वैधता प्रदान करना..ये भी एक तरह का नेगेटिव -नेगेटिव द्वंद्व होता है. डिफेन्स मेकेनिज्म ये आपसे करवाता है. दो गलत के बीच आप विकल्प की तलाश में हैं..तो आप एक को वैध ठहराएंगे. युवा मन अपने द्वंद्वों को लेकर बहुत साफ़ नहीं रहता, इसलिए ये उहा-पोह वहाँ रहता है. शेखर का वैधता स्थापित करना या सत्यापन एक मानसिक स्थिति अधिक है..इसे आत्म उद्घाटन कहकर हम ख़ारिज नहीं कर सकते.
    बड़े होते शेखर में प्रश्नाकुलता है..मैं इसे द्वंद्व कहूँगी. सेक्स को लेकर, भय को लेकर..ये एक तरह का moral individualism है..

    शेष, अच्छा विश्लेषण..पाठक को (ख़ास) शेखर की तरफ ले जा रहा है... अपने तरह से सोचने के लिए बाध्य कर रहा है. आशुतोष जी को बधाई.

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  3. मुक्तिबोध ऐसे लेख को 'सभ्यता-समीक्षा'के वर्ग में रखते.शेखर अंग्रेजी hypocracy के खिलाफ,तथाकथित 'अच्छे'होने के खिलाफ 'सच्चे'होने की भी एक साहित्यिक जंग है.इस और से अज्ञेय को समझने की प्रस्तावना हेतु आशुतोष जी को बधाई.विचारधारात्मक आलोचना द्वारा फैलाये भ्रमों को धीरे-धीरे काटती समालोचन को भी शुभकामना.

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  4. अज्ञेय को समझते समय हमेशा यह दुविधा रहती है कि रचनाकार और रचना को साहचर्य में देखा जाय अथवा नहीं.. मात्रा का सवाल भी उत्पन्न होता है कि रचना पर खुद को आरोपित करने की मात्रा कितनी और कितनी मात्रा निरपेक्ष कल्पना की. जैसे जब मैं शेखर को देखता हूँ तो नीत्शे, काफ्का, सार्त्र, मार्क्स, लेनिन, गांधी, टैगोर आदि तमाम विचारों का आरोपण और विश्लेषण करते अज्ञेय मुझे नजर आते है और शेखर गायब हो जाता है. शेखर के व्यक्तित्व के चित्रण में निश्चय ही अज्ञेय ने अपनी अनुभूतियों को केंद्र में रखा होगा और फिर कभी तय- तैयार कल्पना तो कभी लेखकीय बहकाव (इसे एकदम घटित मानें) में इसे आकार दिया होगा. इसी उपन्यास में अज्ञेय यह कोशिश करते साफ़ नजर आ जाते हैं कि शेखर को शुद्ध अज्ञेय नहीं समझा जाय. मुझे अज्ञेय 'संदेह' के प्रयोग के निष्णात खिलाड़ी नजर आते हैं जहाँ पाठक के मन में एक दुविधा उत्पन्न कर रचना विशेष की उपस्थिति हमेशा उसके जेहन में बनाये रखना चाहते हैं.. और अज्ञेय ने यह खूब सोच समझ कर किया है. एक बात और जो मुझे आकर्षित करती है अज्ञेय की ओर वह उनका अत्यंत आत्म विश्वासी होना है.. शेखर की भूमिका लिखने में अज्ञेय ने उत्कृष्ट किस्म की साहित्यिक कूटनीति का प्रयोग किया है.. एक ओर आपके जेहन में उठ सकने वाले सबसे पहले सवालों को खुद एक एंगल से जवाब देकर वे आपको फंसाते हैं और फिर सोच के कुछ ऐसे एंगल आपके मस्तिष्क में छोड़ देते हैं जिसका ख्याल आपने न किया होता इस भूमिका के बगैर. थोड़े संदेह के साथ मैं यह भी कह सकता हूँ कि रचना में पाठकों के लिए (हर तरह के पाठक..आलोचक व समीक्षक भी ) एक चैलेन्ज छोड़ना अज्ञेय की प्रवृति रही है और यह सायास है.
    आलेख बढ़िया है.. वस्तुपरक रखने का प्रयास सराहनीय ... विमर्श का शास्त्रीय स्टायल कंटेंट को कंसिस्टेंट रखने में सफल. बहुत शुक्रिया आशुतोष जी का.. शुक्रिया समालोचन.

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  5. कल 15/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  6. आशुतोष जी और समालोचन दोनों को एक बहुत ही उम्दा लेख के लिए धन्यवाद | साहित्य के मुझ जैसे नए विद्यार्थी लेख और उस पर हुई सुंदर परिचर्चा से निश्चित ही लाभान्वित होंगे |शेखर को और शायद अज्ञेय को भी एक नए तरीके से देखना अच्छा लगा |

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  7. अज्ञेय की यह विडंबना उनके समूचे लेखन को चौतरफा छेंकती और अंतत: निगलती हुई ही प्रतीत होती है कि उनके पात्र क्रियात्‍मकता से सर्वथा दूर क्‍यों हैं। जीवन के धड़कते मानचित्र को चिंदी-चिंदी बिखेरते और शिथिल चिथड़ों में तब्‍दील कर देने पर आमादा कोरा चिंतन-चुनचुनाहटें। उनके यहां क्रिया का यह संपूर्ण इन्‍कार वस्‍तुत: प्रतिक्रिया की अतिव्‍याप्ति की मानसिकता का परिणाम है। कम से कम आशुतोष भारद्वाज के इस गहराई में उतरकर किए गए विश्‍लेषण-मंथन का तो यही निष्‍कर्ष दिखाई पड़ता है। बहुत ही सधा हुआ, सार्थक और साथ-साथ सहमत बनाता चलता आलेख।... बधाई आशुतोष जी और आभार अरुण देव जी...

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  8. उम्दा लेखन , सूक्ष्म आलोचकीय नजरिया . स्वागत है .

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