बहसतलब -२ : साहित्य का भविष्य और भविष्य का साहित्य



कविता ::

भूमिकाएं जहां से शुरू होती हैं                 


हिंदी कविता अपने कथ्य की संप्रेषणीयता और शिल्प की कलात्मकता में किसी भी विकसित भाषा की कविता के समक्ष और समतुल्य है. अर्थ के निकटतर जहां तक कविता जा सकती हैं हिंदी कविता गई है.  उसके पास कई भाषाओं के शब्दों का वैभव और उनकी परम्पराओं का बल है. उसके पास कालिदास हैं तो कबीर भी. मीर, ग़ालिब, फैज़ हैं तो पाब्लो नेरूदा भी. सामाजिक सरोकारों से अपने को जोड़ने और हस्तक्षेप की सार्थकता को उसने कई बार प्रमाणित किया है. आज भी कविता ही सबसे अधिक लिखी जा रही है.

इतने मजबूत विरसे के बावजूद हिंदी कविता अपनी पहचान और पहुंच को लेकर संशय में है. आज हिंदी भाषी समाज में कविता की एक पहचान हंसोड़ तुकबन्दियों से की जाती है तो दूसरी तरफ गीतों से. आम जन और मधयवर्ग जहां साहित्य पैदा होता है, जहां उसे पढ़ा जाता है, और जहां उसकी चर्चा होती है समकालीन हिंदी कविता से बेज़ार और बेलज्जत है.

आज हिंदी कविता की पहुँच का दायरा सीमित हो चला है. इसीलिए उसके प्रभाव का पता भी नहीं चलता. वृहतर समाज से उसके जुड़ाव से ही उसकी मुक्ति संभव है, उसकी सार्थकता प्रमाणित होनी है.

यह जानते और मानते हुए भी की उच्चतर कलाओं के सहचर, रसिक, सह्रदय हमेशा से कम होते हैं और आज के वैश्विक परिदृश्य में इनकी तादात हर जगह कम हुई है. लेकिन हिंदी में जो गत कविता की हुई है वह कही नहीं है, पड़ोस की उर्दू में भी नहीं.

हिंदी कविता अपनी व्यापक वैचारिकी और कलात्मकता में उर्ध्वाधर विकास को प्राप्त हुई है. आज उसके क्षैतिज विस्तार की भी आवश्यकता महसूस हो रही है.  कविता को मित्र-कविओं और मित्र-अमित्र आलोचकों से बाहर निकलना होगा. उसे साहित्य की राजनीतिक गोष्ठियों और गोष्ठियों की राजनीति से भी बाहर आना होगा. उसे सिर्फ छपने से संतोष नहीं करना होगा उसे सुना जाए उसे गुना जाए उसे प्रतिध्वनित होना होगा. उसे अंततः लोककंठ में जाना ही होगा. उसे बाजारू हुए बिना अपनी गरिमा के साथ लोगों के बीच जाना होगा. उसे हर शहर, हर कस्बे, हर गाँव में अपने कार्यकर्ता चाहिए.

यह सिर्फ कविता का मसला नहीं है यह भाषा और संस्कृति का मसला है. परम्पराएँ हमें बताती हैं कि कैसे कविताएँ धर्म ग्रंथों में बदल गई और शायद आगे धर्म ग्रंथों का स्थान कविताएँ ले लें. किसी भी समाज की सांस्कृतिक बुनावट और वैचारिकी की सघन पहचान कविताएँ कराती हैं. अगर कविता पढ़ने वाले नहीं होंगे तो तय मानिए कुछ दिनों बाद कविता लिखने वाले भी नहीं होंगे और तब शायद भाषा भी न रहे.

हिंदी कविता की इस दुर्गति के अनेक कारण तलाश किए जा सकते हैं. किए भी जाने चाहिए जिससे कि हम आगे सबक ले सके. इससे बाहर निकलने के भी रास्ते हैं जिन्हें खोजा जाना है.

इस बहसतलब आयोजन में आपका स्वागत  है.
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अरुण देव 
devarun72@gmail.com
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  1. यह सराहनीय प्रयास है भाई। इसमें हम सबको अपनी बातें खुलकर कहनी चाहियें। मैं भी इस विषय पर अपनी जैसी भी राय और चिंताएं हैं, अवश्‍य रखूंगा।

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  2. हम शब्दों को खो रहे हैं, भाषा के उन्नत करने की अभिलाषा है, दो दिशायें दूर दूर..

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  3. मुद्दा बहसतलब है। इन संशयों का गोमुख कहॉं है पहचानिए। कविता बेशक एक कला है, हर व्‍यक्‍ति कविता नहीं कर सकता। कविता वह यदि अपने लिए करता हे तब तो ठीक लेकिन यदि उसका समाज से कोई ताल्‍लुक है तो कुछ न कुछ वह समाज तक पहुचे भी,यानी रिसीव भी हो। आज वह समाज के गुणग्राहक वर्ग तक उस तरह से रिसीव नही की जा रही हे। इसलिए कोई भी कवि इस छटपटाहट में तो है कि उसकी कविता समाज तक पहुँचे कैसे,पर उसके लिए वह अपनी कविता को बदलने को तेयार नहीहै। लिहाजा कविता एक शुष्‍क गद्य और वैचारिकी की तरह प्रसारित प्रचारित की जा रही है। जैसे खराब कविताऍं सुनने के लिए अंत में सम्‍मेलनों में केवल जाजिम और शामियाना उखाड़ने वाले रह जाते हैं,अपनी ऊब लिए हुए,वेसे ही हिंदी कविता अपने वर्तमान स्‍वरूप में आगे चल कर कविता रसिक समाज को भी अप्रासंगिक बना देगी। वह यह भलीभॉंति जान जाएगा कि ये सब कठिन काव्‍य के प्रेत हैं जिनका अभिप्रेत केवल अपने समानधर्मा कवियों को यह जताना है तुम डाल डाल तो हम पात पात। इसलिए कवि के साथ नही , व्‍यापक समाज के साथ कविता को ले जाइए। इसे एक ड्राइंगरूम तक या सौ पचास लोगों तक सीमित न कीजिए। और यह सलाह कवि मित्रों के लिए है, आयोजकों के लिए नहीं। वे तो भला कुछ कर भी रहे हैं,वरना इतने सुनने वाले लोग भी न मिलते। कविता का चोला और मार्का बदलने की जरूरत है। या तो इसकी पेंच ज्‍यादा कस गयी है,या यह पहले से और ढीली हो चुकी है।

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  4. गंभीरता से आपने इस मुद्दे को उठाया है. बहस आगे चलनी चाहिए.

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  5. hasod kavitaaon me sampreshneeyta to hai lekin gahre saanskritik sarokaar nahi jabki gambheer uddesh vaali kavitaao me sampreshniyta ka sankat hota hai isliye yh aavashyk hai ki gambheer kavitaao ko apne liye samkaaleen sampreshn ki shailiyaan viksit karnee hongee nahi to ve kahi pahunch nahi paayengee ya fir unka istemaal popular medium bazaarvaadi laabh ke liye chupchaap karte rahenge !

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  6. बहस जरूरी है, बल्कि कविता और कवि के बचे रहने की शर्त है. निश्चय ही हिंदी में शानदार कवितायेँ लिखी जा रही हैं, लेकिन बकवास कविताओं के बीच भूसे की ढेर में से सुई ढूंढने जैसी हालत है. इस पहल के लिए बधाई.

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  7. साहित्य का नामकरण 'लोकप्रिय साहित्य' के रूप में कर दिया जाता है यदि कोई कवि जनमानस तक पहुँचने के लिए सरल भाषा जैसा प्रयोग करता है.. केवल कुछ ही लोग साहित्यकार होने का प्रमाण पत्र बांटने बैठे हैं यह भी दुखद है..और जो आक्रामक हैं वह ज़बरदस्ती अपना झंडा गाढने पर उतारू हैं .. अच्छी और बुरी कविता का फैसला तो कवि के जीवन काल के बाद ही होता है.. इसलिए किसका झंडा बाकी रहेगा ये देखने के लिए तो अगली पीढ़ी ही रहेगी ..आलोचकों की भूमिका भी नगण्य है..

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  8. साहित्य के प्रति रुझान लगभग खत्म सा है. स्कूली शिक्षा पूरी तरह व्यावसायिक हो चुकी है. पहले कक्षाओं में सप्लीमेंट्री reading होती थी. अब भाषा कम्यूनीकेटिव स्किल की तरह पढ़ाई जा रही है. LSRW में से R तो गायब हो चुका है. फिर कविता जिस तरह पढ़ाई जाती है वह मात्र अंक पाने तक रह गई. कविता के भविष्य के लिए जो जरुरी रुझान है , वह तक दिखाई नहीं देता. उसके सरोकारों तक बच्चे पहुँचते ही कहाँ है? क्या व्यवसाय देगी उन्हें कविता? कविता के सुख को सुख वे तभी समझेंगे जब एक माहौल बनेगा. IIM का एक छात्र पुस्तक लिखता है और वह बिक रही है..उसका बाज़ार एक ऐसी भाषा है जो global होने का दावा करती है. दूसरी तरफ एक भाषा का कवि या लेखक अपनी भाषा के अस्तित्व को लेकर ही संघर्ष रत है. उसे न तो प्रान्तों से अपनेपन का सुख मिल रहा है और न उसके अपने परिवार से..कविता घरों से ही बाहर कर दी हम लोगों ने. फिर कवि बस कवि को सुने ..प्रकाशक भी बाज़ार देख रहा है..खैर अच्छा मुद्दा उठाया प्रभात-अरुण ने. स्वागत..

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  9. अच्छे साहित्य को पढ़ने के लिए एक अच्छे समाज की जरूरत होती है, क्योंकि लिखने वाले व पढ़ने वाले वहीं से आते है ,इस बहस का निष्कर्ष इस मंच के बाहर होना होगा , ये साहित्य का काम नहीं है की वो अपने आपको कैसे बचाए , सबसे पहले तो भाषा को बचाना होगा ,ये rap व रॉक संगीत का समाज है

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  10. प्रमिला जी ने यह बात ठीक कही है। हम वैसा समाज अभी तक नहीं बना पाए हैं जो लिखने पढ़ने की क्रद करने वाला समाज हो। हिंदी भाषा के प्रति वही रवैया लोगों में है जैसे दलितों के प्रति। प्रबंधन से जुड़े लोगों को जैसे अंग्रेजी में ही मुक्‍ति नजर आती है। वे हिंदी अपनाते भी हैं तो संवैधानिक दबाववश। हालॉंकि वे अंग्रेजी में भी शायद कामकाजी स्‍तर से ज्‍यादा कुशलता नहीं रखते। तो भी हिंदी के प्रति उनका रवैया केवल मनोरंजनवादी भर होता है। तो एक तो दिक्‍कत इस भाषाहीन होते समाज से है। दूसरे, कविता के प्रति कवियों का समाज से विमुख होते जाना भी है। मुट्ठी भर लोगों ने मंच पर अपना आधिपत्‍य जमा रखा है और हमारे कवि इस बात से विमुख और केवल पाठ्यक्रमवादी राजनीति में उलझे हैं। हमने किसी किस्‍म की लोकप्रियता को स्‍तरहीन मान रखा है और समाज को अपनी तरह से देने के लिए हमने कोई ढंग की कोशिश भी नही की। जिस तरह उर्दू अदब के लोग एक एक शेर को सलीके से पढ़ते और दाद पानेके लिए पुरजोर कोशिशें करते हैं, हम हिंदी के लोग अपने को एक कोकून में बंद किए पड़े हैं। इसलिए पहले तो समाज साक्षर हो, उसमें साहित्‍य के प्रति दिलचस्‍पी हो। भाषा को सीखने बरतने का रुझान पैदा हो। तभी वह कविता से भी जुड़ेगा। यहॉ हम ये कतई नहीं कह रहे हैं कि हमारा अंदाज सिनेमाई हो जाए, हम मंचों के कुमार विश्‍वास बन जाऍं पर कुछ लचीलापन तो लाऍं। आखिर अष्‍टभुजा शुक्‍ल कविता में कभी कभी फेल हो जाते हैं और अपने पद कुपद पढ़ कर मंच लूटभी लेतेहैं। तो यह जो स्‍पेस एक कवि ने पैदा कियाहै वह क्‍या है। इससे सीखने की जरूरत है। वरना आप अपने कोपभवन में पड़े रहिए। दो चार सौ पचास पाठक मिल जरूर जाऍंगे। पर इस सवा अरब की आबादी में आपके मुहल्‍ले वाले भी यह न जान पाऍंगे कि यहॉ कोई कवि भी रहता था।

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  11. साहित्य के प्रति रुझान लगभग खत्म सा है. स्कूली शिक्षा पूरी तरह व्यावसायिक हो चुकी है. पहले कक्षाओं में सप्लीमेंट्री reading होती थी. अब भाषा कम्यूनीकेटिव स्किल की तरह पढ़ाई जा रही है. LSRW में से R तो गायब हो चुका है. फिर कविता जिस तरह पढ़ाई जाती है वह मात्र अंक पाने तक रह गई. कविता के भविष्य के लिए जो जरुरी रुझान है , वह तक दिखाई नहीं देता. उसके सरोकारों तक बच्चे पहुँचते ही कहाँ है? क्या व्यवसाय देगी उन्हें कविता? कविता के सुख को सुख वे तभी समझेंगे जब एक माहौल बनेगा. IIM का एक छात्र पुस्तक लिखता है और वह बिक रही है..उसका बाज़ार एक ऐसी भाषा है जो global होने का दावा करती है. दूसरी तरफ एक भाषा का कवि या लेखक अपनी भाषा के अस्तित्व को लेकर ही संघर्ष रत है. उसे न तो प्रान्तों से अपनेपन का सुख मिल रहा है और न उसके अपने परिवार से..कविता घरों से ही बाहर कर दी हम लोगों ने. फिर कवि बस कवि को सुने ..प्रकाशक भी बाज़ार देख रहा है..खैर अच्छा मुद्दा उठाया प्रभात-अरुण ने. स्वागत..

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  12. अपर्णा जी की बातें विचारणीय हैं।
    कविता आज भी सुखी समाज के आस्‍वादन की चीज है। दुखी समाज
    के सामने कविता से जरूरी अस्‍तित्‍व की लड़ाई है। लोक में भी
    जो संस्‍कार गीत हैं, लोकगीत हैं, वे सुख, श्रम और सृजन के क्षणों में जन्‍मे हैं।
    रोपनी से लेकर तीज त्‍योहार, जन्‍म और वैवाहिक उत्‍सवों तक
    में आम आदमी के चित्‍त से गीत के बोल फूट उठते हैं।
    कविता भले आह से उपजती हो, गाना तो सुख के क्षणों में ही संभव है।
    पर कविता का धीरे धीरे यह जो कुलीनतावादियों से रिश्‍ता जुड़ता गया है
    उससे कविता समाज से कटी है। वह हमारे मानसिक विलास का
    संसाधन बन चुकी है, मानवीय जरूरत नहीं।

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  13. कविता का सुख एक मानसिक स्थिति है. अलगोज़ा बज रहा है..लोकगीत चल रहे हैं , खेतों में फसल के साथ मंजीरे की आवाज़ है..श्रमिक थका है पर गुनगुना रहा है..ये सुख होगा ..किसी के लिए पूरा , किसी के लिए कुछ नहीं
    पर जब निराला "वह तोड़ती पत्थर "कहते हैं ..तो कविता आपके मन को तोड़ रही होती है ..ये सानिध्य ही कविता का सुख है.. इसका सम्बन्ध किसी वर्ग से तो नहीं होता..और ये नाता ही टूट रहा है. कविता विरेचन से लेकर जीवन की तरफ ले जाने वाली प्रक्रिया है. सुख का अर्थ कतिपय ये नहीं कि आप उसे वर्गों से जोड़ें. सुख वह है जो आपको जाग्रत करता है..आप जीवन के जिस पक्ष से अनभिज्ञ हैं उन्हें लेकर आलोडित करता है ..आपको ठेल कर जीवन की उस धारा की तरफ ले जाता है. empathy जाग्रत करता है..आपको साथ खड़ा करता है.याद पड़ता है कि जब सुभद्रा कुमारी की कविता बचपन पढ़ा करते थे तो वह उसी ज़मीन तक ले जाती थी जहाँ संवेदना का अतल है..इसका कारण शायद अध्यापक और परिवार रहे..पर आज ये ही कविता हमारे बच्चों को टस से मस नहीं कर रही..क्यों? वे उसे याद नहीं रख पा रहे.. ऐसे ही तमाम कोर्स की कविताएँ जो हम सभी को आज भी याद होंगी और उनका पुनर्पाठ हमें उस निकटता को ले जाता है जिसे मैं सुख कह रही हूँ ..पर वह आस्वाद आज बच्चों तक नहीं पहुंच रहा .. ये व्यतिक्रम अचानक कैसे पैदा हो गया.. क्यों बच्चों से कविता छूट ही नहीं गई ..दूर हो गई. दोष कविता और कवियों से कहीं अधिक उन संसाधनों का है जिसने हमें कहीं और ले जाकर पटक दिया है. गाँवों में कविता लोकगीतों के रूप में बची है , लेकिन वह भी विकृत हुई है .. उनके रिमिक्स आपको सुनाई देंगे..राजस्थान में जो लहरिया गाँवों में गाया जाता था उसका फ़िल्मीकारण हुआ ..अब असल गाँव के लोग भी भूल चुके हैं. इसी तरह मोरिया आछो बोलो रे ढलती रात में..इस लोकगीत को इला अरुण ने कुछ और रूप दिया ..अब वही गाया जा रहा है ..तो लोकगीत भी गए.. कहाँ बचा पाए हम उन्हें..न जीवन में , न कोर्स की किताबों में और न उन बच्चों के दिलों में जिनका मन कोमलतम होता है और जिनकी ग्राह्यता एक परिपक्व से कहीं अधिक होती है..

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  14. बुरी स्थिति यह है कि अगर कविता का अस्तित्व दो ही वर्गों के बीच उपस्थिति के रूप में तलाशा जाय तो यह दोनों जगह से गायब पायी जाती है.. वह मजदूर जमाने बाद भी अपने युग पुराने लोकगीतों में ही सुख पा रहा है तो आधुनिक कुलीन किसी फ्रेंच कवि में अपनी श्रद्धा को ढूंढ रहा है.. मध्यम वर्ग के बीच आज की कविताओं की उपस्थिति रोज के टीवी सीरिअल के रोज के एपिसोड की तरह ही है.. जैसे बढ़िया सीरियल के नाम पर हम लोग और भारत एक खोज को ही याद करते हैं वहीँ कविता की पंक्तियाँ दिनकर निराला मुक्तिबोध की ही याद रह रही है ..तो कवि और श्रोता/पाठक के साथ कविता पर भी फोकस की जरुरत है.. ये पाठ्य पुस्तकों में आज लिखी जा रही कविताओं और आज के कवियों की उपस्थिति इस दृष्टिकोण से बड़ी महत्त्वपूर्ण हो जाती है..

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  15. हिंदी साहित्य के प्रति अच्छी और सजग सोच के साथ लिखे गए विचार. श्री शिरीष जी का सही समय पर आया एक बहुत ही महत्वपूर्ण आलेख. ये सच है कि साहित्य समाज का आईना होता है.. पर ये भी उतना ही सच है कि जैसा समाज होता है वैसा ही साहित्य भी. शायद हिंदी साहित्य और हमारा समाज दोनों ही एक संक्रांति के दौर से गुज़र रहा है. ऐसे में इस विषय पर सकारात्मक बोध से मंडित संतुलित अन्वेषित सत्य का माहौल बनाना होगा ताकि हमारी हिंदी कविता व्यवस्थित वैचारिक, कलात्मक और क्षैतिज विस्तार और विकास की और अग्रसर हो सके.
    एक समय था जब उत्कृष्ट कवियों के साथ-साथ उत्कृष्ट पाठकों, खासकर आलोचकों की एक अच्छी खासी फेहरिस्त हुआ करती थी, हालाँकि आज भी है पर उस समय इस क्रिया में जोश भी था और स्वयं को स्थापित करने का आग्रह भी. इस सन्दर्भ में ओम निश्चलजी, प्रभात जी, अपर्णा जी आदि ने बहुत गहरी और महत्वपूर्ण बातों को रेखांकित किया है. उनकी पुनरावृत्ति न करते हुए इतना ज़रूर कहूँगा कि सर्वप्रथम तो कवि को स्वयं को भी संतुलित होना होगा तभी हिंदी कवित्व अपने क्षैतिज विकास के आड़े जमा रेत से निकल एक साफ़-सुथरी चेतना का ऊर्ध्व रूप तैयार करने में सक्षम होगा.
    आशा है संदर्भित बहस स्वस्थ और सकारात्मक माहौल निर्मित कर, इस सांझ के माहौल को पुनः ताज़ी धूप से तरोताजा कर पाएगी..बहुत कुछ विचार उठ रहे हैं.. समय मिलने पर अवश्य दर्ज़ कराना चाहूँगा. अरुण जी का आभार !

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  16. हिन्दी से जुड़े हर कला माध्यम और विधाओं की हालत एक जैसी है .... यहाँ तक की हिन्दी भाषा की भी हालत वैसी है .... मैंने रंगमंच और सिनेमा को काफी नज़दीक से देखा है और साहित्य को देख रहा हूँ .... हमारे समाज में जिसमें हम भी शामिल हैं, हिन्दी को लेकर सबकी निगाह में एक असम्मान है .... हिन्दी वालों को भी हिन्दी का सम्मान करते नहीं देखा है मैंने...

    जहां तक लोकप्रिय होने का सवाल है तो हम देखते हैं कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, या भिखारी ठाकुर के साथ लोकप्रियता की समस्या नहीं थी.... वे अपने जीवन में ही लोकप्रिय हो चुके थे... जबकि इनका साहित्य गंभीर भी है. लोकप्रियता की समस्या तब से शुरू हुई है जब से खड़ी बोली हिन्दी का साम्राज्यवाद शुरू हुआ... साम्राज्यवादी होने की वजह से खड़ी बोली हिन्दी का कोई क्षेत्रीय चरित्र नहीं रह गया है .....उसने हिन्दी सभी क्षेत्रों पर कब्जा किया है और आज मुख्यधारा का साहित्य खड़ी बोली हिन्दी में ही लिखा जाता है ....इसका अतिवाद आप देखिये, जहाँ तक मुझे ज्ञात है, कि साहित्य अकादमी से किसी भोजपुरिये, ब्रज भाषी, या अवधी के किसी कवि को हिन्दी साहित्यकार होने का सम्मान या पुरस्कार नहीं मिला .... मैंने ऊपर जिन कवियों का नाम लिया वह किसी ग़ालिब, निराला, और मुक्तिबोध से ज़्यादा लोकप्रिय थे और उनकी गंभीरता पर शक नहीं किया जा सकता .... अर्थात क्षेत्रीयता या आंचलिकता ही किसी रचना की जान भी होती है और उसके लोकप्रिय होने की पहली शर्त भी..... लेकिन मुख्यधारा के साहित्यिक किसी रचनाकार पर आंचलिकता का ठप्पा लगा कर उसके महत्त्व और सार्वभौमिकता को कम कर देते हैं, जबकि वह उसकी ताकत है...

    हम भूल जाते हैं कि खड़ी बोली भी किसी भी दूसरी बोलियों की तरह है .....

    आप देश के दूसरे क्षेत्र के साहित्य को देखें, वे लोकप्रिय भी हैं और गंभीर भी और उत्कृष्ट भी ....
    कम से कम विषय के स्तर पर हिन्दी की कविता को स्थानीय होना पडेगा.... तभी उसका कुछ भला होगा अन्यथा आपका कथन सही सिद्ध होगा कि जब पढ़ने वाले नहीं होंगे तो लिखने वाले भी नहीं होंगे और भाषा भी नहीं होगी ....

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  17. अपर्णा जी, आपने कुछ कुछ सूत्र पकड़ा है। बचपन में पड़े संस्‍कारों के कारण ही हम लिख पढ़ रहे हैं,कविता या गीत का महत्‍व जीवन में समझ पा रहे हैं। एक दोर था बाल गीतों का। पढ़ते ही कंठस्‍थ हो जाते थे। सेकड़ों लोग होंगे जिन्‍हें ऑंसू कंठस्‍थ होगी, आज भी। मेरे एक बैंकर मित्र हैं, मुक्‍तिबोध की दसियों लंबी कविताऍं कंठस्‍थ हैं। कितने लेाग हैं जिन्‍हें दिनकर, सुभद्राकुमार चौहान,श्‍याम नारायण पांडेय,प्रसाद की अनेक कविताऍं याद हैं। बिहार में नेतरहाट से निकले नौकरशाहों और डाक्‍टरों में अनेक को मैंने देखा है कि वे साहित्‍यचर्चा में उतर आऍं तो हिंदी की रोजी रोटी कमाने वाले उनके आगे फेल हो जाऍं। यह संस्‍कार की देन है जो अब कहॉं है। अब न रहे वे पीने वाले अब न रही वो मधुशाला। उदारतावाद ने रोजी रोजगार छीना, फिल्‍मों ने हमारे लोकगीत, जीवन के झंझावातों ने आम आदमी को इतना हलकान कर रखा है कि वह गाना ही भूल गया है। अब भी यदि रोपनी के समय, मेले ठेलेां के समय समूह में गाए जाते कुछ गीत बचे हैं तो इसे भी इस परंपरा की अवसान वेला ही समझिए। बच्‍चों के लिए गीत लिखने वालों में कितने ऐसे है जो द्वारिकाप्रसाद माहेश्‍वरी,सुभद्राकुमारी चौहान,देवसरे, दिनकर के बालगीतों जेसा लिख रहे हों। यों बालकवियों के कितने ही सतही संस्‍करण मौजूद हैं केवल तुकबंदी का उत्‍सव रचा रहे हैं और निष्‍ठा से विष्‍ठा का तुक(यह विचार कहीं 'पॉंच जोड़ बॉंसुरी' में आया है)मिला रहे हैं।

    सरल लिख कर हंगामा मचाया जा सकता है। बड़े कवियों में कुँवर जी को लें, कितने सरल हैं। पहले कठिन थे चक्रव्‍यूह और आत्‍मजयी के दिनों में बाद में सरल से सरलतर होते गए और कविता की मार्मिकता गहराती गयी। उनकी अनेक कविताएं याद हो जाने वाली हैं। इसलिए सरलता संरचना का अंग है,सरल संरचना में अनूठी बातें कही जा सकती हैं जो जटिल पदों में नहीं। अभिधा की मार बड़ी बेधक होती है। पर जहॉं अभिधा शक्‍ति है वहीं कमजोर कवि के हाथ पड़कर यह नि:सत्‍व भी हो सकती है। आज संस्‍कारों की कमी है। हमने अपने परंपरागत काव्‍य से अपने को काट लिया है और चाहते हैं कि हम विदेशी कवियों से प्रेरणाऍं पाते रहें। हम कालिदास को भूल बैठे है, रिल्‍के को याद रखते हैं। हमारी नित्‍यचर्या में ब्रेख्‍त,पॉज,लेनरी पीटर्स, ओकारा,वोल सोयिंका,मोंताले, उंगारेत्‍ती तो हैं, भवभूति,भास,बाणभट्ट, विशाखदत्‍त,तुलसी,सूर,कबीर,​मीरा,रसखान,रत्‍नाकर और जायसी नहीं। इसीलिए न हम रिल्‍के को समझ सके न अपने समाज को उसकी अपनी परंपरा के कवियों से जोड़े रख सके। वह भी धीरे धीरे इन्‍हें विसमृत करने लगा है। एक पीढी से दूसरी पीढ़ी तक इन संस्‍कारों की आमद खत्‍म हो रही है। समाज के कविता विमुख होने की यही वजहेंहैं।अज्ञेय तो कहा ही करते थे कि 'आम आदमी,जिसके लिए तुम कविता लिखने का भ्रम पाले बैठे हो, वह एक नारा है। कविता एक सुसंस्‍कृत समाज की चीज है।' पर आज उसकी डोर सुसंस्‍कृत समाज से भी ढीली पड़ती जा रही है। क्‍येांकि उसके समक्ष मनोरंजन और मनोविलास के अन्‍य तमाम संसाधन/माध्‍यम/ रूप उपलब्‍ध

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  18. ओम जी बस जो आपने कहा वही यहाँ कहना चाहा. पर रिल्के, ब्रेख्त , पाब्लो को पढ़ रहे हों ..ये भी नहीं हो रहा. पूरी तरह व्यवसाय से जुड़ा जीवन. अपने ही घर में साहित्य की पुस्तकों से बच्चों को परहेज़ करते देख रहे हैं.. उलटा वे समझाते हैं कि इन किताबों में ऐसा क्या है? time waste .. ऐसा नहीं कि उन्हें संस्कार देने को कोशिश न की गई हो पर जो उनके आस-पास है..जो साथी मित्रों से ग्रहण कर रहे हैं , जो स्कूली शिक्षा है ..अंग्रेजी माध्यम , जिसमें पढ़ाने की बाध्यता कहिये या विवशता.. बच्चों में अपनी भाषा के प्रति लगाव खत्म सा है. हिंदी वे २४ घंटे बोलते हैं लेकिन पढने और लिखने की बात आये तो उन्हें ऊब होती है..बच्चे किसी तरह का साहित्य नहीं पढ़ रहे . best seller की किताबें बस...

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  19. सच है यह। निर्मम सच। हमारे बच्‍चे भी कभीकभार कह देते है, पापा ये किताबें पढ़ ली हों तो इसे निकाल दें----यानी रद्दी में। यह सचाई है कि हमने जो तथाकथित मूल्‍यवान इकट्ठा कर रखा है, हमारे बच्‍चों की निगाह में उसकी कोई कीमत नहीं। एक बार मुनव्‍वर राना मुझसे कहने लगे कि ओम जी लखनऊ में एक लाइब्रेरी है मेरी । कभी आइये। अच्‍छा कलेक्‍शन है मेरे पास। बहुत कुछ पढने को मिलेगा वहॉं। कहा कि एक दिन मैं उसमें बैठा बैठा जोर जोर से रोने लगा। बेटी आई पूछा पापा, क्‍यों रो रहे हैं? मैंने कहा,इसलिए कि आज यह अब्‍बा की लाइब्रेरी है,कल न रहूगा तो तुम लोग कहोगे यह अब्‍बा का कबाड़ है कितनी सारी जगह छेके हुए। इसीलिए इन्‍हें देख कर रोना आ गया। बेटी ने कहा कि पापा, हम सब उर्दू पढेंगे और आपकी लाइब्रेरी को जीवित रखेंगे। मुसलमानों की नई पीढ़ी में उर्दू के प्रति रुझान खत्‍म हो रहा है। देवनागरी में शायरी परवान चढ़ रही है। खरीदार भी जब हिंदी में ज्‍यादा हों तो उर्दू में कौन प्रकाशक छापे। लिहाजा ऐसे भी शायर है जिनके दीवान हिंदीमें छप गए, उर्दू में नहीं। जबकि शायर वे उर्दू के हैं। आज एक जीवंत लिपि अपने लिए वारिस तलाश रही है। कितने दुख की बात है यह। देवनागरी बचाने की अपील आए दिन होती है। रोमन का बोलबाला इतना है कि उसके जरिए तीस प्रतिशत आबादी जो नेट से जुड़ी है, वह अंगेजी में टाइप कर हिंदी लिख रही है। सौ में 40लोग आज क्ष ज्ञ जैसे अक्षरनहीं लिख पाते। वे अपनी लिपि भूलते जा रहे हैं। यह स्‍थिति भयावह है। अभी तो हम अपनी लिपि ही बचा लें कि यह रोमन लिपि के कंधे पर आराम न फरमाने लगे, बाद में कविता बचाने की अपील पर आऍं।

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  20. ‎'' ऐ खुदा , तुझसे बस इतनी दुआ है मेरी
    मैं जो उर्दू में वसीयत लिखूं , बेटा पढ़ ले !''
    किसकी पंक्तियाँ है , याद नहीं आ रहा ! दूसरी लाइन सही है , पहली ठीक से याद नहीं !
    पर अपनी भाषा , अपनी ज़बान को लेकर जो तकलीफ है , समझ में आ रही है !

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  21. कुछ बातें और। कविता लिखना और उसका प्रजेंटेशन दोनों दो बाते हैं। कुछ लोग कविताऍं उम्‍दा लिखते हैं पर उन्‍हें प्रजेंट नही कर पाते। जबकि उन कविताओं में बला की फोर्स होती है। मैंने सभाओं के संचालकों को देखा है । या तो वे अपने संचालन को शेरो शायरी से भर देंगे या फिर ऊबे हुए सुखियों की भाषा में सभा को चलाऍंगे। कोई जोश नहीं। जैसे दो मिनट के मौन का आवाहन कर रहे हों। पुनश्‍चर्या पाठ्यक्रमों में किताबी भाषा के बोलने वालों को सुनकर किसे ऊब न होगी। देश में अच्‍छा बोलने वाले विद्वान कितने इनेगिने हैं। एक मदारी भी बंदर नचाने की कला में निष्‍णात होते हुए भी मजमा जुटाने की कला में भी महारत रखता है जबकि कविता कला में माहिर कवि कविता पढ़ने वाला समाज जुटा पाने में विफल रहता है। जबकि उसी की शायरी या पदावली पढ़ कर एक अच्‍छा संवादी या भाषणकर्ता दिल जीत लेता है। मैने मुक्‍तिबोध, धूमिल, राजेश जोशी, कुँवर नारायणा,केदारनाथ सिंह,लीलाधर जगूड़ी, उदय प्रकाश और गोरख पांडेय जैसे कवियों की यादगार कविता पंक्‍तियों को बैंक की ग्राहक सभाओं या बैंकर्स के सेमिनार के संचालन के काम में लेते हुए बहुधा पाया है कि उन पंक्‍तियों ने जादू का सा असर किया है---(और नीरज, दुष्‍यंत, रामावतार त्‍यागी, अदम गोंडवी, मुनव्‍वर राणा के उद्धरणों का तो कहना ही क्‍या।) वे कविता को नही जानते,पर कविता के असर को महसूस करते हैं, जानते हैं। वे यह बात खुल कर जताते भी हैं, एकाध तो वे पंक्‍तियॉं नोट भी करते हैं। हमने कविता की इस वाचिक गुणवत्‍ता से मुख मोड़ लिया है और इस उम्‍मीद में हैं कि कोई आएगा जो इसे नीरवता में स्‍थगित होने से बचा लेगा।

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  22. कविता जीवित है अब भी...आगे भी रहेगी...पर हाँ उसके लिया स्पेस कम हो रहा है. वजहें कई हैं: अर्थवादी मानसिकता जो कि ग्लोबल तंत्र की देन है, ने व्यक्ति की जीवन प्रणाली का बड़ा हिस्सा हथिया लिया है...मीडिया जो आज रिअलिटी को मैनुफक्चर कर रहा है ने सांस्कृतिक गतिविधियों के नाम पर एकआयामी उत्पाद देना शुरू कर दिया है, एकआयामी मनुष्यों का दौर बनता जा रहा है ये...कविता इस यूनीडाइमेंसनालिटी के प्रतिरोध में खडी होती है और इस लिए जनसंचार के साधनों में इसके लिए स्पेस असंभव है. एक मिथ्या चेतना आरोपित की जा रही है और लोग प्रतिरोध विहीन हैं...

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  23. इस एक पहल के लिए समालोचन का आभारी हूँ ...शायद अब कविता से ज्यादा कविता की राजनीति करने वालों पर भी कुछ बात हो सके !

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  24. केवल हिंदी की ही नहीं, किसी भी भाषा की कविता पाठकों द्वारा समझे जने के लिये एक विशेष चित्त वृत्ति और मानसिक अंतराल जी मांग करती है. जहाँ चित्त में गंभीर रूप से सघन दुर्भावना, अमानवीय प्रतिस्पर्धा और स्वार्थपरिता भरी होगी वहां कविता का समावेश असंभव है.इसलिए, कविता की भाषागत संरचना और उसके शिल्प की किसी बुनावट को कविता के समाज में स्वीकार्य न होने के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता, यह एक बात है. दूसरी बात यह है कि यह कविता कि ही जिम्मेदारी है कि वह समाज में मानवीयता, पारस्परिकता पैदा करे जिससे दुर्भावना और कुटिल वृत्ति उपजे ही नहीं. इसलिए कविता को सवालों से मुक्त नहीं किया जा सकता, भले ही अब सवाल उनकी भाषा शैली के नहीं होंगे बल्कि उसकी पहुँच के होंगे, कि वह क्यों जन वृत्ति को सवारने का काम नहीं कर पा रही है.. शायद इसका कारण है कि कवि की निजी अंतरंग दुनिया में अपने समाज की केवल तस्वीर है, उसका जीवंत स्पर्श नहीं है. तो कवि को जन की और जनजीवन की सहज अंतरंग छुअन जुटानी होगी और उसे अपना सतत परिवेश बनाना होगा, तभी बात बनेगी. अभी तो कवि ही उन तमाम आग्रहों कि गिरफ्त में नज़र आते हैं, जिनसे समाज को मुक्त करने का दायित्व उन के ऊपर है.
    स्थिति जटिल है भाई...
    अशोक गुप्ता

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