बहसतलब : २ : कही रहता है एक कवि : वन्दना शुक्ला


कवयित्री कथाकार वन्दना शुक्ला ने बहसतलब -२ (साहित्य का भविष्य) को आगे बढाते हुए सिलसिलेवार ढंग से साहित्य और कविता के समक्ष चुनौतिओं को रखा है और यथा सम्भव उनके कारणों की पहचान भी की है. कुछ रास्ते भी सुझाएँ हैं जिन पर बात आगे बढ़ सकती है. 


कहीं रहता है एक कवि                          
वन्दना शुक्ला


स्थूल परिभाषा कविता की कह सकते है कि अपने जीवन के अनुभवों को अपनी भाषा में उतार देना ही साहित्य/कविता है'. दूसरे शब्दों में कविता वह विधा है जो रोजमर्रा के साधारण जीवन में अपनी पैठ बनाती हुई सहजता से मनुष्य के आतंरिक जगत से अपना रिश्ता कायम कर लेती है. कविता में न सिर्फ प्रेम, विरह, आध्यात्म, सार्वभौमिक समस्याएं और दुःख का लेखा जोखा या व्यवस्था के प्रति रोष, जोश हो बल्कि रोजमर्रा के जीवन में छिपी रहस्यात्मकता को व्यक्त करना व भरोसा पाना /दिलाना भी उसी का एक महत्वपूर्ण प्रयोजन है, होना चाहिए. और यदि ऐसा है और कविता का भविष्य (अथवा वर्तमान) संदेह के घेरे में है तो चूक कहाँ हो रही है क्या हम सरोकार को स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं. क्या हम संप्रेषणीयता में मात खा रहे हैं अथवा भाषा की दुर्दशा और अ-लोकप्रियता इसका प्रमुख कारण है सिलसिलेवार यदि इस विषय पर पर विचार किया जाय तो कुछ मुद्दे सामने आते हैं जैसे

(१) 
सबसे प्रमुख वजह है भाषा. जिस भाषा में कविता लिखी जा रही है उसका सरल होने के बावजूद उसमे आमपाठकों की रूचि न हो पाना हिन्दी कविता की अ-लोकप्रियता की प्रमुख वजहों में से एक है. गौरतलब मुद्दा ये है कि अस्सी नब्बे के दशक की पीढ़ी के बाद हिन्दी का पतन क्रमशः और तेज़ी से हुआ है. समाज में हिन्दी आमतौर पर दोयम दर्जे की भाषा मानी जा रही है (क्षेत्रीय भाषाओँ की स्थिति और भी बदतर है) जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है, अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों ने इस मनोवृत्ति में आग में घी का काम किया है, नतीज़तन इन एक दो दशकों के दौरान की उत्तर आधुनिक पीढ़ी चेखव, मोपासा, यीट्स, अर्नेस्ट हेमिंग्वे जैसे विदेशी रचनाकारों के अंग्रेज़ी/हिन्दी अनुवाद तो पढ़ना चाहती है पर अंग्रेज़ी साहित्य की तुलना में हिन्दी साहित्य से परहेज़ करती दिखाई देती है.

(२) 
कहना गलत न होगा कि साहित्य में राजनीति के बढते हुए दखल और निस्संदेह गुटबंदी ने भी अच्छे और डिज़रविंग (नए रचनाकारों को पीछे धकेला है. आत्मविश्वास को कम किया है. प्रचार प्रसार के आधुनिकतम तरीकों को अपनाते और उनको प्रसिद्धि से जोड़ दिया जाना भी इसी विडम्बना-क्षेत्र के अंतर्गत आता है. हलाकि अदम जेगेव्स्की कहते हैं साहित्य में राजनीति नहीं की जा सकती , राजनीति  चाहे तो साहित्य का सहारा ले सकती है.
संभवतः हम कविता के इस पतनोन्मुख होने से भयग्रस्त भी हैं और चिंतित भी (स्वाभाविक है) और कहीं ना कहीं आत्मविश्वास और उम्मीद भी खो रहे हैं यदि ये सच नहीं तो फिर हम क्यूँ यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि मार्खेज़ जैसी प्रतिभा को हिन्दी में पैदा होने के लिए कम से कम सौ वर्ष लगेंगे?

(३)
कभी कभी लगता है कि क्लिष्टता के चमत्कार को कवियों /कहानीकारों ने उत्कृष्ट साहित्य का पर्याय मान लिया है. निस्संदेह प्रयोगधर्मिता समकालीन साहित्य कला का आभूषण है. साहित्य को पिछले युग से आगे ले जाने के लिए ज़रूरी है, लेकिन शाब्दिक क्लिष्टता और कठिन शिल्पगत प्रयोग (प्रायः) आम पाठक के साहित्य के प्रति सरोकार की भावना को धूमिल करते हैं. सहज शब्दों में गहन अर्थ क्यूँ नहीं ?



मै स्तुति करना चाहता हूँ उसकी
जो दीवार पोतता है
और कड़ी धूप में इमारतों में लगाने के लिए ईंटें सिर पर ढोता है ....
(अंत)-मेरी कविता उन सबके सामने सिर झुकाती है .
जो हमारी दुनिया को संभव और सुन्दर बनाते हैं
बिना जाने या जताए, कि वे ऐसा कर रहे हैं
आज मेरी कविता सिर्फ उन की स्तुति है .
अशोक वाजपेई 

या ....

इस इतने बड़े शहर में कहीं रहता है एक कवि
वह रहता है जैसे कुँए में रहती है चुप्पी,
जैसे चुप्पी में रहते हैं शब्द .....
केदार नाथ सिंह – महानगर में कवि 

शमशेर जी ने तो किसी सरलता का उदाहरण देते हुए यहाँ तक कह दिया
‘’सरलता का आकाश था जैसे त्रिलोचन की कवितायेँ ‘’.

आम पाठक की हिन्दी के प्रति उदासीनता का एक कारण ये भी हो सकता है. इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि आम भाषा और साहित्यिक भाषा को एक हो जाना चाहिएसाहित्य क्षेत्र से पृथक (कला क्षेत्र होने के बावजूद रंगमंच इसका सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है. हिन्दी भाषा की अ-लोकप्रियता की मार रंगमंच ने भी झेली है, यहाँ तक कि हिन्दी नाटकों के न लिखे जाने की लंबी समयावधि के उपरान्त इसके भी अंत की बकायदा घोषणा कर दी गई थी, लेकिन रंगमंच ने स्वयं को बहुत सावधानीपूर्ण ढंग से उस दयनीयता से लगभग निकाल लिया और शायद यह कहना गलत नहीं होगा सुलभ जी और अरविन्द गौण, संजय उपध्याय आदि जैसे जुझारू रंगकर्मियों के द्वारा किये जा रहे रंगमंचीय प्रयोगों, लेखों के द्वारा ही रंगमंच अपनी छवि से बाहर आ सका है. निस्संदेह जिसमे नुक्कड़ नाटकों, लोक और संगीत प्रधान नाटकों, समाज से जुड़े सरोकारों आदि के प्रयोगों ने ही उसमे पुनः सांस फूंकी है. आपने जो मित्र कवियों और अमित्र आलोचकों से बाहर निकलने की बात की है. सच ये है कि कवि अपनी रचनाओं का सबसे पहला आलोचक होता है (होना चाहिए ).

(४) 
कबीर, से लेकर मीरा तक और कालिदास से बिहारी तक इन कवियों की लोकप्रियता और कालजयी साहित्य के कुछ विशेष कारण थे उनकी श्रेष्ठ रचनाओं की बावजूद. इसी प्रकार १९४७ के पूर्व या इसके आसपास लिखी ओजपूर्ण और देशभक्ति की कविताओं ने पाठक को आकर्षित किया. कहने का तात्पर्य यह कि कि उनके लेखन में बहुधा समकालीन विषयएक निश्चित भाव और उद्धेश्य-पूर्णता  रही जैसे कबीर (निर्गुण)और मीरा आध्यात्म के कवि रहे और कालिदास, बिहारी का लेखन उससे बिलकुल अलग प्रेम विरह जैसे विषयों पर केंद्रित रहा. गौरतलब है कि तुलसीदास, मीरा कबीर जैसे अध्यात्मिक कवियों की लोकप्रियता तत्कालीन समय में एक उपासक या भक्त के रूप में रही. उनके कवि रूप की छवि (वृहद रूप में, बाद में व्याख्यायित की गई. स्वतंत्र भारत के लोकतान्त्रिक माहौल व अभिव्यक्ति की आज़ादी के बावजूद हिन्दी का कवि असमंजस में दिखता है एक भटकाव सा कुछ .(हो सकता है ये दो शताब्दियों के संधिकाल का प्रभाव हो ). राजेश जोशी कहते हैं ‘’इस समय जो कवितायेँ लिख रहा है वह एक ऐसा कवि है जो दो शताब्दियों के बीच आवा-जाही कर रहा है उसके पास पिछली सदी में बुने व टूटे स्वप्न हैं स्मृतियाँ हैं,और अब इस सदी की वास्तविकता भी .

(५) 
आज की कविता अपने लिए या अपने से सम्बंधित ज्यादा है सार्वभौमिकता का भाव उसमे अपेक्षाकृत अल्प है. हलाकि उसे बतौर प्रतिनिधि के परिपेक्ष्य में भी कहा जा सकता है. यानी कविता वैयक्तिक है और उसका उद्देश्य समाज के बीच जाना, समाज द्वारा उसका चिंतन मनन करना नहीं बल्कि अपनी लेखनी को पुस्तक रूप में देखकर मन्त्र मुग्ध होना है. वस्तुतः कविता हो या कहानी रचना को गहन संवेदना की ही नहीं बल्कि परिपक्वता की भी ज़रूरत होती है .

हजारों लोग आजकल पर्सनैलिटी डेवलपमेंट से लेकर राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक या दर्शन संबंधी विषयों पर अंग्रेज़ी हिन्दी में लिख रहे हैं पर क्या वजह है कि सलमान रश्दी, चेतन भगत जैसे लेखक ना सिर्फ अपनी लोकप्रियता का रिकॉर्ड अंक दर्ज कर रहे हैं बल्कि आलोचकों की निन्दाओं का भी शिकार हो रहे हैं आलोचना से परे हटकर गंभीरता से ये सोचना होगा कि ‘’विषय चयन अथवा विवादात्मक मुद्दों के अतिरिक्त उनमे क्या शिल्पगत जैसी विशेषताएं हैं जो एक स्कूली छात्र से लेकर बुज़ुर्ग व्यक्ति तक उनके लेखन में खुद की समस्या या कोई ना कोई सरोकार महसूस करता है?

(६) 
इतिहास साक्षी है कि सार्वभौमिक चिंतन अथवा मानवीय सरोकारों व समग्रता के लिए लिखा गया साहित्य कालजयी हुआ. उदहारण स्वरुप  प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध के समय लिखा गया साहित्य (गोर्की,मोपांसा,चेखव ,विलियम फौकनर,अर्नेस्ट हेमिन्वे आदि ) साहित्य जगत में मील का पत्थर माना जाता है अधिकतर कहानीकारों /कवियों ने उन्हें अपने जीवन के अनुभवों को ही लिपिबद्ध किया है बगैर किसी नोबेल पुरूस्कार अथवा कालजयी लेखक के रूप में भविष्य में प्रसिद्द होने की मंशा के.

(७) 
जहाँ तक साहित्य और कलाओं दौनों के पतन और दुर्दशा का प्रश्न है और इसमें एक मुद्दा भाषाई भी माना जाए तो शास्त्रीय संगीत में तो स्वरों की तुलना में भाषा लगभग नगण्य ही है पर ये कला भी अपनी अंतिम सांसें ही गिन रही है ? संगीत में शब्द का महत्व कम होता गया. अब कलाओं में भी ‘’अर्थपूर्ण’’ और लोकप्रिय के बीच जबरदस्त विभाजन है.

कोई भी कला हो या साहित्य भले ही मरणासन्न हो जाये पर उसकी सांसे कभी नहीं टूटतीं कोई ना कोई शक्ति उसे जिलाए रखती है. कुछेक मुद्दे जैसे हिन्दी को सम्मानीय स्थिति में लाना, स्तरीय साहित्य को उचित स्थान दिलाना, आलोचकों समीक्षकों को तटस्थ निश्छल भाव से उत्तरदायित्व निर्वहन, गुटबंदियों को तोडना, ईर्ष्या भाव अथवा पूर्वाग्रहों की दीवारों को तोड़ सह्रदयता और सहजता से अच्छे को अच्छा कहने का माद्दा रखना व अपने लेखक मित्रों को प्रोत्साहित करना जैसी कुछ बदलाव हों तो कोई वजह नहीं कि हिन्दी कविता अपने उस स्थान को हासिल कर ले जिसकी वो वस्तुतः हक़दार है.अ

‘’एक कविता पलती है अंतर्विरोधों पर,लेकिन उसे ढँक नहीं पाती .’’(अदम)

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  1. विचारणीय पोस्‍ट। आभार...

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  2. जब हम अपने बच्चों से हिन्दी मे बात करने मे ही शर्म महसूस करते हैं....चाहते भी है कि हमारा बच्चा अंग्रेज़ी मे ही गिटपिट करे सबके सामने....फिर हिन्दी कविता तो बहुत दूर की बात रह जाती है....आपने स्कूलों मे हिन्दी की दुर्गति का जो मुद्दा उठाया है वही हिन्दी के भविष्य को सुधारने की दिशा मे काम कर सकता है....फिर हम हिन्दी कविता उज्जवल के भविष्य के बारे मे भी सोच सकते हैं....वरना तो वर्तमान पीढ़ी के साथ इसे खत्म होना है है....

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  3. अच्छा है लेख, वंदना. स्कूल, माध्यम और पाठ्यक्रम के साथ अन्यान्य कारण.
    विदेशी भाषाओँ के साथ हिंदी पर स्थानीय भाषाओँ का प्रभाव.
    सरोकारों को न समझने की स्थिति ..या उनकी उपेक्षा
    सार्वभौमिकता, राजनीति ..लगभग सभी बातों को समेटते हुए लेख लिखा है. बधाई!

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  4. वंदना ने सहज ढंग से हरेक बिंदु का स्पर्श करते हुए अपनी बात कही है. हिंदी के प्रति व्यापक पाठक वर्ग की उदासीनता और साहित्यिकों की गुटबंदी की ओर सही इशारा किया है. राजनीति-विचारधारा और गुटबंदी को गड्डमड्ड न किया जाए तो बेहतर हो.बधाई तो बनती ही है.

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  5. कविता की शक्ति को लोगों ने अपनी सुविधानुसार अपहृत कर लिया, अब उससे मुखर हो जाने को कहा जा रहा है..

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  6. इससे अच्छा नोट्स तो एम.ए. हिन्दी का विद्यार्थी भी लिख सकता है...क्या लेखिका ने "कविता क्या है" पढ़ी है..उनकी कविता की परिभाषा पढने के बाद मुझे संदेह है.
    दूसरी बात , रंगमंच को लेकर उनके अग्यान का , जिसके अंत की घोषणा पता नहीं किससे उन्होंने सुन ली..वे जिन तीन नामों का उल्लेख करती है, उसके बाहर हिन्दी रंगमंच का विशाल दायरा है..जहां नाटक भी लगातार लिखे जा रहें हैं...
    शास्त्रीय संगीत को भी मरणासन्न मानना...अपने खोल से बाहर ना देखने का परिचायक है...शास्त्रीय संगीत बकायदा फल फूल रहा है. यकीन ना हो तो स्पिक मैके सर्च कीजिये...
    भाषा की लापरवाही इस लेख में कई स्थलों पर है..अब ऐसे हाथों में ही अगर कविता रहेगी तो उसका भविष्य के बारे में संशय तो होगा ही.

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  7. धन्यवाद श्रोत्रीय जी ,आपकी टिप्पणी मेरे लिए महत्वपूर्ण है |

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  8. बहुत उपयुक्त और समसामयिक लेख| कविता के सामने खड़ी लगभग हर चुनौती को देखने का ईमानदारी से प्रयास किया है वंदना जी ने और न केवल समस्याएं ही बल्कि उनका तर्कसंगत समाधान भी सुझाने का कर्तव्य भी निर्वाहा है |
    मैं निजी तौर पर इस लेख के लिए लेखिका का आभारी हूँ और आश्वस्त हूँ कि हमारे बीच में से ही बहुत सारे लोग है जो इस समस्या को सही रूप में देख रहे हैं और उसका समाधान भी उन्हें दिखायी दे रहा है|
    मैं आशावान हूँ कि इस तरह की बहस से हिंदी कविता समाज जरूर स्वयं पर एक निगाह डालेगा|

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  9. वंदनाजी ने बहसतलब -२ - साहित्य का भविष्य में कविता और हिंदी की व्यथा को शब्दों में गढ़ा , वास्तव में विषय तो चिंतनीय है ही लेकिन इसके मूल में कोई भी जाना ही नहीं चाहता, हिन्दी साहित्य में अग्रेजियत की घालमेल और कमाई हिन्दी से और गीत गए अंग्रेजी के ... खेर यह बहस लम्बी है इसलिए इतना ही कहना है की वास्तव में गद्य-पद्य हिन्दी सहित्य को जिन्दा रखना है तो मुंशी प्रेम चंद बनना होगा ...

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  10. सुनीता सनाढ्य पाण्डेय21 जुल॰ 2012, 7:07:00 pm

    वंदना जी.....बहुत अच्छी बातें उठाई आपने.......मेरा खयाल है कि जब हम अपने बच्चों से हिन्दी मे बात करने मे ही शर्म महसूस करते हैं....चाहते भी है कि हमारा बच्चा अंग्रेज़ी मे ही गिटपिट करे सबके सामने....फिर हिन्दी कविता तो बहुत दूर की बात रह जाती है....आपने स्कूलों मे हिन्दी की दुर्गति का जो मुद्दा उठाया है वही हिन्दी के भविष्य को सुधारने की दिशा मे काम कर सकता है....फिर हम हिन्दी कविता उज्जवल के भविष्य के बारे मे भी सोच सकते हैं....वरना तो वर्तमान पीढ़ी के साथ इसे खत्म होना ही है....अरुण जी आपका भी आभार....

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  11. अच्छी विस्तृत टिप्पणी है. बिना किसी फतवे के, न ही कुछ स्थापित करने की जल्दबाजी है इसमें. सहज लगा.

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  12. इस पूरी बहस में कईं महतवपूर्ण बातें सामने आई हैं .....एक साथ उस पर लिख पाने का सामर्थ्य मुझ में नहीं और न ही इतना धैर्य ...........फिर भी कुछ बातें मैं एक पाठक के तौर पर जोड़ना चाहूँगा......... .जैसे पिछले कुछ वर्षों में जिन कवियों को हिंदी कविता का भविष्य बता कर प्रचारित किया गया .......... आप उन की कविताओं से ये उम्मीद नहीं कर सकते ........ कि वे हमारे समाज के एक सामान्य पाठक से कोई रिश्ता कायम कर पायेगी ........ हम उन कवियों का स्तुतिगान करने में मग्न हैं ....... जिन्होंने अपने शिल्प के चमत्कार से अपने कवि मित्रों और आलोचकों की आँखें चुंधिया दी हैं ........ इस तरह हमने देखा कि शिल्प के नयेपन को मौलिकता का पर्याय समझा गया ... ........और इसका परिणाम ये हुआ कि दृश्य में अपनी तरह से कविता कहने वाले छा गए ........... मगर अपनी तरह की कविता कहने वालों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया .............और इस तरह हमारे समय की कविता कह कर प्रचारित की गयी कविता ने पाठक को भयभीत किया ....... क्यूंकि ये कविता उसकी समझ से परे थी ...... इसमें कुछ दोष यदि कविता की बुनावट का था ......तो कुछ दोष कविता को पढाये जाने के उस दकियानूसी तरीकों का भी जिसके माध्यम से ये पाठक कविता की दुनिया से परिचित हुआ था और ऐसी कविता का अभ्यस्त नहीं था .......

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  13. आनंद द्विवेदी जी ,आपने गौर किया टिप्पणी पर,और एक तटस्थ प्रतिक्रया दी इसके लिए आपका आभार |

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  14. नरेंद्र जी ,सुनीता जी,प्रभात जी,प्रदीप सैनी जी दरअसल कविता ही नहीं बल्कि मुझे लगता है हर विधा में यही समस्याएं और जटिलताएं हैं|चूँकि मै पिछले लगभग पन्द्रह वर्षों से रंगमंच से जुडी रही हूँ ,नाटकों में अभिनय (दूरदर्शन एवं मंच प्रदर्शन )के द्वारा ,प्रेमचंद की कुछ कहानियों का नाट्य रूपांतरण और दो नाटकों का निर्देशन भी किया है और लगभग इतने ही वर्षों से संगीत (शास्त्रीय)सेभी जुडी हूँ |(एम म्यूज़ खैरागढ़ से किया है),मै जितनी सम्बंधित पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं ,(क्यूँ कि एक कसबे में रहती हूँ )या अपने होम टाउन भोपाल से खरीदकर पढ़ती हूँ और साहित्य व कलाओं में क्या विशेष हो रहा है टच में रहती हूँ या रहना चाहती हूँ |ऊपर लिखी गई टिप्पणी अपने इन्हीं कुछ देखे पढ़े गए अनुभवों पर आधारित हैं |मुझे खुशी है कि आप सभी ने मेरे मंतव्य को समझा और सराहा एवं अपनी अमूल्य प्रतिक्रियाएं दीं |अरुण जी की विशेष आभारी हूँ जो समालोचन के माध्यम से इस तरह के गंभीर विषय उठा रहे हैं और बहस के लिए आमंत्रित भी कर रहे हैं |पुनः आप सभी का आभार

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  15. वंदना जी को बधाई .. एक अच्छा आलेख ..
    सही मूल्यांकन ..

    बहस को पढ़ना अच्छा लग रहा है सही दिशा में बढ़ती हुई बहस देखते हैं और किन रूपों में सामने आती है ..अरुण जी आपका आभार ..

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