कथा - गाथा : सुमन केशरी




सुमन केशरी की इस कहानी में स्त्रिओं का साझा डर बयाँ है. अलग वर्ग और पृष्ठभूमि के बावजूद एक स्तर पर उनके संत्रास एक ही तरह के हैं. एक ऐसी कथा - भूमि जो हमारे सामने है पर हम जिसे देखते नहीं, देखना नही चाहते.



डर                           
सुमन केशरी

साढ़े पांच बज चुके थे. मीता के गुस्से का पारा धीरे धीरे चढ़ रहा था…"क्या समझती है यह लड़कीआने दो आज इसे अभी इसका हिसाब चुकता करती हूं- मज़ाक बना रखा है हर चीजकल कितनी बार समझाया था कि शाम को जल्दी आ जानाढेर सारे मेहमान आयेंगेकई डिशेज़ बनानी हैंपर शायद मेहमानों के बारे में बताकर ही तो गलती कर डालीअब क्यों आएंगी महारानी जीकाम जो ज्यादा करना पड़ेगा…"कोफ्तों को तरी में डालते हुए मीता बड़बड़ा रही थी.
दरवाजे की घंटी ने उसकी बड़बड़ाहट पर जैसे ब्रेक लगाया… "अरे कहीं वे लोग तो नहीं? नहीं नहींसाढ़े-सात-आठ का टाईम दिया है- अभी तो छह ही -" सामने मल्ली खड़ी थीबिल्कुल मुरझाया हुआ चेहरा.  एकदम काला...

"अरे क्या हुआ तुझे ?" मीता का गुस्सा मानो ग्लानि में बह गया.
"'बोल तो सही क्या हुआतबियत तो ठीक है तेरी?"
"हां ठीक ही है"एक ठण्डी गहरी साँस-सी निकली
"तो फिर देर कैसे हो गई?…आज तुझे चार बजे बुलाया था…"
"वो रिंकी के पापा आ रहे हैं न इतवार को…"
"तो ऐसे मुँह क्यों लटकाए हुए हैतू भी तो यही चाहती थी कि वो यहां आकर कोई काम धाम शुरू कर ले…"
सर झुकाए मल्ली बर्तन धोने लगी कभी हाथ से चम्मच छूटा तो कभी कटोरी
"अंटी जी बड़ा डर लग रहा है…"
मीता चौंकी  "क्यों मारपीट करता है क्या ?"
"हां  बात बात पर हाथ उठा देते हैं और गाली की तो क्या कहूं"...उसने फिर गहरी साँस ली, पर वो बात नहीं है
"तो फिर क्या बात है ?"
"अब क्या कहूं ?…" चेहरे पर पलभर को लाली दौड़ गई और नजरें झुक गईंपर अगले ही पल चेहरा और काला दिखने लगा

अजब पहेली बन गई थी छोकरी.  अभी कल तक तो इसे झिड़कना पड़ता था कि अब और कान न खाए और काम में मन लगाए.  आज इसकी बोलती एकदम बंद हो गई थी. मीता को उसकी चुप्पी खटकने लगी. तभी उसकी निगाह घड़ी पर पड़ी.  साढ़े छह हो चुके थे और अभी भरवें के लिए खोखले किए शिमला मिर्च मुँह बाए पड़े थे 'बाप रे!उसके हाथ तेजी से चलने लगे. उसने मल्ली को चावल भिगोने और आटा गूंधने का आदेश दुहराया. पर लड़की जाने किन ख्यालों में थी.
'मल्ली चावल भीगने को रख दिए ?' उसकी आवाज में झुंझलाहट थी .
'हुं अंटी जी'

'तीन गिलास चावल भिगो दोआवाज़ की तुर्शी ने मल्ली को झकझोरा. उसने अपनी कमीज़ में ही गीले हाथ रगड़ दिए और टंकी से चावल निकालने को झुकी.
"कितना भी समझाओ तुम लोगों की गंदी आदतें जाएंगी नहीं"मीता की फुंफकारती हिकारत भरी आवाज़ ने उसे पूरी तरह वर्तमान में ला पटका.  उसने घबराकर टंकी का  ढक्कन वापस रख दिया. हाथ फिर धोए और किचन टॉवेल से पोंछ कर उसने चावल निकाला
भरवां शिमला मिर्चो की प्लेट माइक्रोवेव में सरकाते हुए मीता ने उसे ऑन किया, "मल्ली किचन सेट करके सलाद काट लेना…  रोटी बनाने से पहले कपड़े बदलना मत भूलियो आज जाने तेरा दिमाग कहाँ खोया हुआ है …" कहते कहते मीता किचन से निकल गई…  "मैं तैयार होने जा रही हूं कोई आए तो ऐसी भूतनी बनी दरवाजा मत खोल देनामैं खोल दूंगीकितनी बार कहा था जल्दी आ जानापर कोई सुनता है क्या…" कमरे के अंदर से मीता की बड़बड़ाहट जारी थी.


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डोर बेल की आवाज़ ने मीता को नींद में झकझोराआंखे खोलीं तो बाहर अंधेरा ही थाकौन आ गया इस वक्त रात को खाते-पीते-गपियाते साढ़े बारह-एक बज गए थे. किसी तरह रजायी से बाहर हाथ निकाल उसने बेड स्विच ऑन कियाछह अभी नहीं बजे थेशायद नींद में खलल पड़ने से सुधीर की साँसे खर्राटों में बदलने लगी थींहल्की झल्लाहट हुई उसे…  उसी की नींद इतनी कच्ची क्यों है. उसने रजायी परे सरका दी. दरवाजा खोला तो सामने  मल्ली खड़ी थीबगल में रात को पहने कपड़े की पोटली दबाए.

"नमस्ते अंटी जी रात में ज्यादा बर्तन हो गए थे न…"
"अरे आज तो छुट्टी थी…"
"आज छुट्टी है ? काहे की…?"
"तुझे पता नहीं आज संडे है…"
"संडे है  ? सौरी अंटी जी याद ही नहीं था…"

"धीरे धीरेबर्तन पटकियो मतसाहब सो रहे हैं अभी" फुसफसाती मीता वापस बेडरूम में चल दी. उसे सुनायी पड़ा …"संडे है आज अगले इतवार यानी संडे को …" टन्न से एक कटोरी हाथ से छूटी लौट पड़ी मीता, " तुझे कहा न आराम से बर्तन धो रसोई का दरवाजा भिड़ा ले - साहब सो रहे हैं पति के आने की खबर क्या सुनी काम में मन ही लगना बंद हो गया है. " पांवों पर रजायी डालते मीता भुनभुनायी, " काम छोड़ने का मन होगा महारानी का पतिदेव जो आ रहे हैं अब वो कमाएंगे ये खाएंगी गरीबी कितनी भी होये लोग कामचोरी से बाज नहीं आएंगे- ये नहीं कि दोनों कमाएं तो घर की हालत कुछ सुधरे…" पर मल्ली के काम छोड़ने की संभावना भर से मीता को घबराहट होने लगी. सालभर मग़जखपायी के बाद वह लड़की को अपने हिसाब से ढाल पाने में कुछ सफल हुई थी. अभी भी लड़की सूगलापन दिखाने से बाज नहीं आती थी पर फिर भी रोजमर्रा का खाना उसके हिसाब से बनाने लगी थी बर्तन-सफाई में तो खासी निपुण हो गई थी  अब दूसरी ढूंढनी पड़ेगी फिर वही ककहरा…  चिंता के मारे मीता की नींद पूरी तरह खुल गई.  उसने बिस्तर छोड़ दिया और लॉन की तरफ बढ़ गई

चाय-नाश्ते के बाद मीता ने महसूस किया कि लड़की का चेहरा रातभर में और संवला गया है. उसे उस पर दया सी हो आई.  चार साल और ढाई साल की उम्र के दो बच्चों की इस मां की अपनी उम्र इक्कीस बाइस से ज्यादा न होगी.  आधे से ज्यादा बाल झड़ जाने की वज़ह से चोटी अभी से पुछल्ली-सी लगती थी. पीठ और कमर में लगातार दर्द की वज़ह से वह पीठ जरा झुका कर ही खड़ी होती थी. दो रोटी के साथ सब्जी रखते रखते उसकी उंगलियों ने तीसरी रोटी भी उठा ली, " मल्ली आ पहले नाश्ता कर ले तेरी चाय ठंडी हो रही है…"

"अंटी जी आज भूख नहीं लग रही…  पन्नी में रख दीजिए घर ले जाऊंगीं…"
"क्यों भूख क्यों नहीं लग रही?"  डांटते हुए मीता ने पूछा, "चुपचाप खाने बैठ जा …" इस घर में सुबह का नाश्ता करना मल्ली के लिए जरूरी था… "सुबह पेट भर खा ले फिर कहीं भी काम करती रहियो …" मीता अक्सर कहा करती थी…  "अब जल्दी आ जा…"
खाने की प्लेट लेकर मल्ली सर झुकाए दरवाजे के करीब ही जमीन पर बैठ गई .
"क्या बात है मल्ली तेरा तो दूल्हा आ रहा है और तू है कि मातम-सा मना रही है क्यों खुश नहीं है वैसे तो फोन कर करके उसे बुलाती रहती थी…"

"वो बात नहीं है अंटी जी वो आएंगे तो अच्छा ही लगेगा पर आप मेरी बात समझेंगी नहीं मेरी मजबूरी नहीं समझेंगी …".." हां भई कैसे समझूंगी तेरी बातकालों का दुख दर्द काले समझेंगे और दलितों के दलित…  मैं भले ही तेरी तरह औरत हूं  पर तेरी तरह की गरीब जो नहीं हूँ और न तेरी जात बिरादरी की हूँ तो तेरी बात भला मुझे क्यों समझ में आएगी …" मीता मन ही मन भुनभुनायी पर ऊपर से बोली, " अरे तू बता तो शायद कोई रास्ता निकल आए तेरी परेशानी का ."
लाली फिर एक बारगी मल्ली के  चेहरे पर दौड़ गई .  फिर सकुचाते हुए और चबाते चबाते तुतलाती-सी बोली

"मोनू के होने के बाद से मैं मां-बाबूजी के पास ही थी. फिर रिंकी के पापा मां के यहां लिवाने आए. मैं तो कई दिन तक इनसे बोली नहीं.  एक दिन बहुत गुस्से में मां-बाबूजी के पास गए और झगड़ा करने लगे.  धमकाए भी कि अगर मैं इनके साथ वापस गांव नहीं गई तो दूसरी शादी कर लेंगे. लड़की वाले भी चक्कर लगा रहे हैं.  अगले रोज ही माँ ने मुझे ससुराल भेज दिया - उसी साल रिंकी हुई…  इसके साल भर के होते न होते फिर दिन चढ़ गए वो तो पानी लाने में पैर फिसल गया बहुत हालत खराब रही तब से फिर यहीं हू आप समझ रही हैं न मेरी बात…"
ओह तो लड़की पति की मारपीट और गाली-गलौज से परेशान नहीं है . इसकी चिंता का तो कारण ही दूसरा है  मीता सन्न रह गई, " अरे पागल है क्या इसमें डरने की क्या बात है साफ साफ उससे बात कर …" मल्ली का सिर नहीं की मुद्रा सें दाएँ बाएँ हिल रहा था.  यह देख मीता को लगा कि कितनी औरतें बोल पाती हैं अपने मन की बात इस मामले पर और फिर इस तबके की औरतें.  फिर उसकी अपनी सहेलियां क्या वे भी ऐसे ही अपना दुखड़ा नहीं रोतीं. लेकिन वह खुद उसे सुधीर याद आए …   कितनी बातें समझ लेते हैं बिना कहे ही…  ही इज़ सो डिफरेंटबल्कि

इस पल उसे यह अहसास तक होने लगा कि उनके यहाँ तो उल्टी गंगा ही बहती हैसुधीर ने तो डॉक्टर से साफ़ कह दिया  था " नो कॉपरटी प्लीज़! "... उसे सुधीर पर दया आई और ढेर ढेर सारा प्यार भी उसे अपने भाग्य पर ईर्ष्या-सी होने लगी और उसके हाथ  'टचवुडकी शैली में टेबल को छूने लगे ….  मल्ली चौंक कर उसका मुँह ताक रही थी.  उसकी आँखों में गहरा अविश्वास था कि कोई औरत ऐसी बातें कह भी कैसे सकती हैफिर यह पेशोपेश भी कि शायद पैसे वाले, पढ़े-लिखे घरों में मीता ने ही बात आगे बढ़ाई , "सुनो मल्ली बात तो करनी ही पड़ेगी तुम दोनों आपस में सलाह करके ही कोई फैसला कर सकते हो न.. चाहे तुम उपाय करो या वो  पर ये बातें तो मिलजुल कर ही तय होंगी न."

मल्ली का चेहरा लटक गया, "आप नहीं समझेंगी मेरी परेशानी कभी मुँह से ऐसी बात भूल से भी निकल जाए तो मार मार कर पीठ फोड़ देंगे जाने क्या क्या तो नहीं कहेंगे यार-प्यार सब खोज निकालेंगे जाने कहीं किसी दूसरी को घर बिठा न ले…  अभी ही मुझे यहां आए साल से ऊपर हो गए वह तो मेरा भाग अच्छा हैनहीं अंटी जी आप उन्हें नहीं जानतीं " ..उसकी आँखें डबडबा गई  गला रूंधने लगा.

मीता का मन भर आया. दिलासा देते हुए बोली ,  "तू ऐसा कर आने दे उसे .. यहां लेती आना हम समझा देंगे उसे उपाय भी बता देंगे."  मीता को लगा कि पढ़ी-लिखी एन्लाईटेन्ड सिटीजन होने के नाते उसका भी कोई कर्तव्य है. मल्ली के   पति को समझा बुझा कर लाईन पर लाना उसे बहुत जरूरी लगने लगा. पर मल्ली यह सुनते ही जैसे बौखला गई, "अरे ऐसा भूल के भी मत कीजिएगा अंटी जी  अगर उन्हें यह पता चला कि मैंने इस बारे में आपसे बात की है सलाह ली है तो मेरा घर से निकलना भी बंद कर देंगे  उनके हिसाब से सती औरतें ये सब बातें नहीं करती  पाप लगता है.."

मीता का गुस्सा फट पड़ने को हुआ,  "सती औरतें ये बातें नहीं करेंगी पर सती औरतों के पति बच्चों की फौज खड़ी करते जायेंगे उसमें शर्म नहीं - पाप नहींनंगे-भूखों की फौज बनाने में" फिर जैसे मरहम लगाती बोली, "तुमने रिंकी के होने के बाद आपरेशन क्यों नहीं करवा लिया वहीं का वहीं सब निबट जाता  पता लगने पर क्या करता ? थोड़ी गाली गलौज और कर लेता - हो सकता है खुश हो जाता कि मुसीबतों से बचे…"

"सोचा तो यही था - बात भी कर ली थी डागडरनी से. पर ऐसे भाग कहाँ है मेरे…  रिंकिया ऐसी चुहिया-सी हुई कि डागडरनी को लगा जाने ये बचेगी या नहीं. मैंने तो जिद भी की थी लड़की जात है डागडरनी जीबिस दे दो तब भी जी जाएगी पर वो थी कि मानी ही नहीं अब मेरे हाथ में होता तो किस्सा खत्म हो ही जाता क्यों…" नाक सिड़ुकते हुए टपकते आँसुओं को उसने चुन्नी में पोंछा.

मीता को अस्साहयता का अजीब बोध होने लगा.  कोई रास्ता सूझ ही नहीं रहा था. अगर उसके आते ही इसे गर्भ ठहर गया तो और मुसीबत वैसे ही ठूंठ है…  फिर हारी-बीमारी…  छुट्टियाँ... ऐसे में न इसे रखते बनेगा न छुड़ाते.  मीता का सर जैसे तड़कने लगा वह पाजी आ ही क्यों रहा है सब कुछ कितना ठीक-ठाक चल रहा था - लड़की भी खुश थी और मीता भी….  अचानक उसकी सोच पर ब्रेक लगा -

"अच्छा सोच अगर तू गोलियाँ खाना शुरू कर दे तो ?" मल्ली के चेहरे परचमक कौंधी, "अंटी जी आप बता देंगी कौन सी गोलियाँ खाऊँ ?"
"तू टी.वी. नहीं देखती क्या ? इतना तो प्रचार करते रहते हैं"
"नहीं देखा नहीं कहां देख पाती हूँ टी.वी. भीघर का भी तो काम है ऊपर से वह खड़ खड़ ज्यादा करता है फोटो कम दिखाता है…"

"ऐसा कर तू डिस्पेंसरी चली जा वहां डाक्टर से बात कर लेना वो तुझे बता देगी…."
मल्ली हंस दी ,  "अंटी जी  डागडरनी लोग बताती होतीं तो आपको क्यों कहती जाने क्या क्या तो बोलने लगती हैं कभी डाटेंगी तो कभी मज़ाक उड़ाती हैं ऐसी ऐसी भद्दी बातें करती हैं जैसे उन्होंने तो कभी मरद का मुँह भी नहीं देखा हो छी ! मैं तो नहीं जाऊंगी वहां आपको कोई उपाय करना है तो ठीक है…"

सुधीर की पुकार पर जो बात उस समय रूकी तो फिर कोई बात करने का मौका ही नहीं आया. हाँ मीता मुहल्ले के केमिस्ट से गोलियां जरूर खरीद लाई.  निर्देश पढ़ते पढ़ते उसका दिल धड़कने लगा लड़की को माइग्रेन की शिकायत थी जब- तब आधे सर का  दर्द उसे बेहाल कर देता था. उस पर खुराक की नियमितता की जरूरत अगर किसी दिन गोली खाना भूल गए तो अगले दिन नियत समय पर दो गोलियां खाना जरूरी था.  क्या यह लड़की इतना सब निभा पाएगीवैसे ही भुल्लकड़ ठहरी. फिर डिप्रेशन, स्तनों में तनाव व भारीपन, घबराहट, पीलापन या वजन बढ़ने की शिकायत ये सभी बातें तो निर्देश में महीन अक्षरों में लिखी गई थीं .

पर मल्ली खुश थी.  उसका चेहरा ऐसे दमक रहा था मानों उसने जंग जीतने की पूरी तैयारी कर ली हो.  उसकी आंखें कृतज्ञता से नम हो आई थीं.  मीता ने बार बार निर्देश दुहराएबल्कि उसे रटवा दिया कि किन हालातों में दवाई रोक देनी है और डाक्टर की सलाह लेनी है.  जितनी बार उसने निर्देश पढ़ा, मीता को उतनी ही ज्यादा घबराहट होने लगी और उसे ध्यान हो आया कि उसके आदमी के आने में तो कुल चार-पाँच दिन ही बचे थे पता नहीं इतने कम वक्त में गोली कोई काम कर भी पाती. उसने मल्ली से कहा, "मल्ली तुम्हारे आदमी के आने में टाईम कम रह गया है   जाने ये गोलियाँ काम करेंगी या नहीं …" यह कहते ही मीता का दिल धड़कने लगा.  उसे ध्यान हो आया कि जितनी आसानी से उसे गोलियों के छहः पैकेट कैमिस्ट से हासिल हो गए थेकिसी विकसित देश में उसकी कल्पना भी असंभव थी.  स्त्री रोग विशेषज्ञ के स्पष्ट निर्देश के बिना तो कोई गोली कहीं से खरीद ही नहीं सकता था, उस पर से नियमित जांच ...पर यहां तो सबसे सस्ती चीज़ जान है इंसान की जान और उस पर भी औरत की जान.  यहां दूसरी तीसरी औरत पा लेना उतना ही आसान है जितना कि किसी कसाई के दड़बे से मुर्गियां पा लेना  बल्कि साथ में दान दहेज भी और उस पर मर्द और उसके परिवार वालों को यह संतोष भी मिल जाता है कि एक औरत का उद्वार हो गया.

ये सब बातें ध्यान आते ही मीता ने गोलियां अपनी ओर सरका ली  " नहीं मल्ली रहने दे बेटा जाने कभी गर्भ ठहर जाए तो कितना कम वक्त रह गया है तेरे आदमी के आने में जाने कौन कौन से हारमोन होते हैं- बच्चा रह गया तो इन दवाइयों का उस पर खराब असर भी पड़ सकता है तू रहने ही दे तू अपने आदमी को लेती आनाकिसी भी तरह उसे मैं समझाऊँगी.. तुझे डाक्टर के पास ले जाऊंगी … "मीता की आवाज में घबराहट साफ़ उभर आई थी .
पर मल्ली ने झपट कर गोलियां उठा ली, "अंटी जी आप नहीं जानती आप क्या कह रही हैं उन्हें तो आप इन गोलियों के बारे में बताना भी मत कभी बड़े शक्की मिज़ाज के हैं रिंकी के पापा उन्हें अगर पता चल गया कि मैंने ये दवाइयाँ खाई हैं तो वे मेरा खानदान गिनाने लगेंगे उन्हें लगेगा कि मेरा उनसे दूर रहने में भी कोई भेद है गला ही रेत डालेंगे इनको खाने से अगर उन्हें कोई खुसी मिलेगी तो समझो सब सध गया. अपने आदमी को खुस करना तो  औरत का धरम ही ठहरा आप चिंता मत करो सती नारी की रच्छा - भगवान भी करेंगे …" और मल्ली गोलियां समेटती उसी वक्त रवाना हो गई.


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शॉवर के बाद मीता ने बेडरूम में कदम रखा तो चौंक गई. कमरा फूलों, अगरबत्तियों और परफ्यूम की गंध से गमक रहा था. एक सल्लज मुस्कान उसके होठों पर उभरी और दिल आशा से धड़कने लगा.  तभी सुधीर ने उसके कंधे पर हाथ रखा जब तक वह पीछे मुड़ती सुधीर उसके गले में मोतियों की सुंदर माला पहना चुके थे और अब सेंट से नहला रहे थे.
"अरे यह क्या कर रहे होअगर कुछ हो गया तो …"   मीता चौंकीउसने घबराकर सुधीर को परे ढकेल दिया और उठ बैठी.  डर से उसकी आवाज कांप रही थीं
"क्यों तुम तो पिल्स ले रही हो न पिछले महीने मैंने तुम्हारी ड्रआर में देखी थी आई थाट यू वांट टू गिव मी अ सप्राइज आफ्टर  माय रिर्टन फ्रॉम बेंकाक…"

" नहीं तो वो तो  मल्ली के लिए खरीदी थी उसका आदमी आ रहा था…" मीता हकलाई
"ब्हॉट उसका आदमी आ रहा था और मैं क्या आदमी नहीं हूं?" …सुधीर की आवाज में चिढ़ और तमतमाहट थी ," मैं कोई पत्थर हूं या खिलौना या डरती हो कि मुझे एच. आई. वी. एड्स  है ? आई हैव बीन सो कन्सीडरेट ऑल दीज ईयर्स यू जस्ट डोन्ट अन्डरस्टैंड मुझे तो लगा था कि शादी के दस साल बाद सही तुममें कुछ अकल आ रही हैउसी को देखो मल्ली को ..  शी इज बेटर दैन यू औरते जाने क्या क्या करती हैं अपने आदमी को खुश रखने के लिए उसका मन जीतने के लिए उसे बांध रखने के लिए एक तुम होयू आर जस्ट डम्ब …  मैं ही बेवकूफ हूं जो बढ़े हाथों और मौकों को ठोकर मारता रहा बस एनफ इज़ एनफ़.." परफ्यूम की नयी नकोर शीशी को फर्श पर पटकता  धम्म धम्म करता सुधीर कमरे से बाहर चला गया
मीता पत्थर बनी अपराधिनी-सी सर झुकाए बैठी थी हां उसने चादर लपेट ली थी जाने ठंड से बचने के लिए या गुस्से के बौछार से बस रह रह उसे झुरझुरी-सी आती थी और मुट्ठियां चादर पर कसती जाती थीं

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अगली दोपहर मीता फिर से कैमिस्ट की दुकान पर खड़ी थी..  "पर्ल" के छह पैकेट उसके हाथ में थे 

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सुमन केशरी : १५ जुलाई १९५८, मुजफ्फरपुर,बिहार.
शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और यूनिविर्सिटी आफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया से.
सभी पत्र –पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ एवं लेख प्रकाशित.
प्रकशन : याज्ञवल्क्य से बहस (कविता संग्रह)
संपादन : जे.एन.यू में नामवर सिंह
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (NDMA) में निदेशक
ई-पता. sumankeshari@gmail.com
99 न्यू मोती बाग, नई दिल्ली -110023

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  1. उफ़ रे ज़िंदगी क्या कहूँ तुझको
    रौशनी तेरी कितनी ये काली है
    ... शजर

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  2. गद्य में कहानी नहीं,कहानी में गद्य है.और फिर इसे कहानी कहें क्यों ? यह तो जीवन है,जो कहानी को आसमानों से नीचे उतार 'पर्ल 'के पैकेट थमा रहा है कि लो और अब बनों तो जाने !और एकबारगी पूरी विधा ही सन्न !

    इसके आगे गाली है,चुप्पी है,सिसकी है,उदासी है,पर कहानी ?अरे भाई !अब इसे और इसके आगे का कैसे लिखे.ये तो लगा रहता है.पर,'देवी,माँ,सहचरि,प्राण',परेशानियाँ तो यही हैं ना ?

    गुरुमाई ने हँसते हुए पर्दा उघाड़ दिया है कि लो अब इसे देखो और तब, बुदबुदाना छोंड, कुछ कह के दिखाओ तो बात आगे बढे.तसलीमा जी,मनीषा जी,अपर्णा जी,क्या आपने इसे सहा और पढ़ा ?

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  3. बेहतरीन कहानी . वर्ग का फासला ख़त्म हो जाता है, स्त्री को दोयम दर्जे में ठेलने, रखने और यथावत रखने के मामले में

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  4. ह्रदय को झंक्झोरती,बेहद करीब से जीवन रूप दर्शाती ......सशक्त ...यथार्थ बयाँ करती कहानी ....

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  5. इधर दीदी की यह दूसरी कहानी पढ़ी है. बहुत सहज और रोज़मर्रा की बातचीत से बुना कथानक इस कहानी को विशेष बना रहा है. प्रयोग, चमत्कार से दूर .कहानी की संवेदनशीलता पाठक को बांधे रखती है. बधाई दी..

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  6. समाज के नए-पुराने सभी पोथों में मिमयाती औरत की वही मिमयाती कहानी है.
    मार्मिक कथा!

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  7. स्त्री प्रगति के सारे दावों के खोखलेपन बहुत ही सहजता से को सामने लाती मर्मस्पर्शी कहानी।

    स्त्री किसी भी वर्ग की हो उसके जीवन का मकसद पति को खुश रखना है किसी भी कीमत पर।
    आज भी अधिकांश स्त्रियां इसी नियति को ढोने को मजबूर हैं।

    बधाई सुमन जी, आभार समालोचना।

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  8. दरअसल जीवन इसी चिड़िया का नाम है, जो दिखती है....आपकी आंगन में चहचहाती भी है और ढुंढों तो फुर्र से उड़ जाती है...दुसरी डाल पर बैठ जाती है छुप कर...शुक्रिया मित्रों ...

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  9. वाह ! बहुत आयरनीकल अंत है. सुमन जी शायद यही वह कहानी है न ! जिसका आपने ज़िक्र किया था. मनीषा कुलश्रेष्ठ

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  10. सुमन जी ,आपके कहानी की एक पंक्ति ध्यान खींचती है कि भारत में इंसान की जान कितनी सस्ती है। कितने प्रयोग हो रहै हैं। स्त्रियों के साथ भेदभाव वाले रवैये पर कहानी सवाल खड़ा करती है। हम खुद पूछ बैठते हैं कि खुश रखने की जिम्मेदारी का बोझ एकतरफा क्यों हैं...अगर साझे की जिंदगी चुनी है तो खुशी और गम दोनों की साझेदारी होनी चाहिए। रिश्तों के बुनियादी सवालों पर वर्गभेद टूटता सा दिखाई पड़ता है। इंसानी तकलीफ वहां पर अहम हो जाती है।
    मल्ली और मीता के आंसू एक जैसे हो जाते हैं। केवल परिस्थिति का फासला होता है। दोनों महिलाओं की जिंदगी के बीच। एक जैसा डर।

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  11. आप सभी की टिप्पणी कहानी में दर्ज दो भिन्न वर्गों की औरतों के जीवन की समानता को देख ौर बूझ पा रही है, सच में कोई कुछ भी कहे वास्तविक असमितावादी भेद यहीं परिलक्षित होता है. औरतों के सवाल पर सभी वर्गों, वर्णों और धर्मों के मर्द एकसरीखा ही सोचते हैं. आपस में तलवार चलाने वाले इस सवाल पर एकमत हो जाते हैंवहाँ

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  12. एक दासी दासी से लेकर महारानी तक स्त्री की एक ही स्थिति है ! चाहे अमीर हो या गरीब अनपढ़ हो या विद्वान ! अच्छी कहानी !

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  13. ओम् भाई आपने सही कहा, दासी से लेकर महारानी तक औरत की हालत एक सी रहती है...उसे किसी भी हाल में अपनी देह पर खेल कर घर को बचाना पड़ता है। लगता है कि घर ौर संबंध केवल औरतों के ही होते हैं...सचमुच जाने कब यह कहानी अतीत बनेगी, व्यतीत बनेगी...

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