परख : अदृश्य भारत : भाषा सिंह



“उन तमाम महिलाओं और उनके साथिओं के नाम जिन्होंने जाति-व्यवस्था के इस सबसे बर्बर और घिनौनेरूप के खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ी. इन औरतों के भी नाम जो सिर पर सदिओं से रखी इंसानी मल की टोकरी को चाह कर भी इस सभ्य समाज के चेहरे पर उलीच नहीं पायीं.”

भाषा सिंह


अदृश्य भारत 
भाषा सिंह
पेंगुइन बुक्स
संस्करण - २०१२
मूल्य - १९९


मैला ढोने के बजबजाते यथार्थ से मुठभेड़ करती भाषा सिंह की किताब अदृश्य भारत इस वर्ष पेंगुइन बुक्स से छप कर आई है. भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और कई अखबारों से होते हुए इस समय आउटलुक से जुड़ी हुई हैं.
वरिष्ठ दलित लेखक और चिन्तक के.एस.तूफ़ान की समीक्षा.


अदृश्य भारत : सफाई की गुलामी

के.एस.तूफ़ान

हमारा देश विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों एवं समुदायों का देश है. यहां विविधता में एकता के दर्शन होते हैं. मेरा भारत महान, शाइनिंग इंडिया परमाणुशक्ति से लैस भारत में एक ऐसा भी भारत है. जो स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता. वह भारत उन अकूत जातियों की स्थानीय स्थिति का दर्शन करता है जो वर्ण व्यवस्था एवं जातिवाद का शिकार होकर सिर पर मैला ढोने के लिये अभिशप्त हैं. यह समुदाय समस्त समाज की उपेक्षा, छुआछूत, भेदभाव तथा ऊँच नीच का शिकार है. इस नारकीय जीवन बिताने वाले आंखों से ओझल भारत से हमारा परिचय कराती हैं प्रसिद्ध पत्रकार भाषा सिंह अपनी पुस्तक ‘‘अदृश्य भारत’’ के द्वारा.

इस चर्चित पुस्तक के माध्यम से मैला ढोने के बजबजाते यथार्थ से मुठभेड़ करते हुए भाषा सिंह भारत के दस प्रदेशों अथवा प्रान्तों की यात्रा करते हुए नग्न सत्य के दर्शन कराती हैं और अनेकों नगरों का भ्रमण कर कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक उन दीन, हीन, अछूत तथा भेदभाव के शिकार व्यक्तियों की दास्तान उकेरती हैं. जिसकी सुधी 65 वर्ष की स्वतन्त्रता के बाद भी किसी ने नहीं ली. पुस्तक की विशेषता यह है कि भाषा सिंह ए.सी. कमरे में बैठकर कोई कहानी नहीं गढ़ती हैं. मलिन बस्तियों  की गली, मोहल्ले में जाकर उन महिलाओं  से बातचीत करती हैं. और उनका साक्षात्कार लेती हैं जो शुष्क शौचालयों की सफाई अपने हाथ से करती हैं और फिर अपने सिर पर मैला ढो उसे निश्चित स्थान पर फैंकती हैं. मैला ढोने वाली इन महिलाओं को बंगाल में डब्बूवाली, कानपुर में बाल्टि वाली, बिहार में टीना वाली, हरियाणा, पंजाब में टोकरी वाली, लखनऊ वाली कमाने वाली, दक्षिण भारत में पोट्टीकार, पाकी, पीती, उड़ीसा में तथा कश्मीर वातल पुकारा जाता है.  

सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा के विरुद्ध केन्द्र सरकार ने शुष्क शौचालय निर्माण एवं उन्मूलन अधिनियम 1993’ बनाया है. इसकी धारा 14 के अनुसार मानव विष्ठाको शरीर पर ढोना अथवा प्रेरित करना दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है. इसके बावजूद पूरे भारत में ऐसा कोई उदाहरण नहीं हैं कि इस कानून के अन्तर्गत किसी को सज़ा मिली हो. इसके विपरीत भारत की लगभग सभी राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट में यह झूठे हलफनामे दिये हैं कि उनके राज्य में सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त हो गयी है. रोचक तथ्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र व राज्य सरकारों को फटकार लगाने के विपरीत, याचिका कर्ताओं को यह सुझाव दिया है कि वे अपने-अपने राज्य के हाईकोर्ट में याचिका दायर करें.

सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा  से वाबस्ता व्यक्तियों को देश के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है. इसमें भंगी, वाल्मिकी, धानुक, डुमार, मेहतर, डोम, हादी, बास्फोर, हल्लालखोर, लालबेगी, बालशाही, चूड़ा, मादिका, वातल, उल्गाना, चन्डाला, रेहली, दासू, अरून्धीतयार पुकारा जाता है.  वैसे नाम इनका कुछ भी हो,  सफाईकर्मी सम्पूर्ण भारत में नारकीय जीवन बिताते हैं. देश के विभिन्न भागों में यह घृणित काम करने वाले व्यक्ति हिन्दू,  मुस्लिम में, सिख तथा ईसाई धर्मों से सम्बद्ध हैं. किन्तु सभी स्थानों पर मानवीय अधिकारों से वंचित हैं. इनके मन्दिर अलग, मस्जिद अलग, गुरूद्वारे अलग तथा चर्च अलग हैं. भेदभाव तथा छुआछूत की पराकाष्ठा तो यह है कि इनके कब्रिस्तान अथवा श्मशान भूमि भी अलग होते हैं. शवदाह के बाद जब ये लोग हरिद्वार में अस्थि विसर्जन करते हैं तो वह संस्कार कोई ब्राह्मण नहीं कराता. वरन वाल्मिकि समाज का ही व्यक्ति यह अस्थि विसर्जन का संस्कार कराता है.

गांधी जी को दलितों का परमहितैषी बतलाया जाता है. वे सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को पुण्य का कार्य कहते थे. उनका कथन था ‘‘बच्चों का मलमूत्र तो माता-पिता साफ करते हैं, यह तो पुण्य का काम है. इस कार्य में लगे लोगों को यह पुण्य का कार्य करते रहना चाहिए. उन्होंने यह भी कामना की थी कि मेरा अगला जन्म भंगी के घर हो.’’ इस बात पर बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर इतने तिलमिलाये थे कि उन्होंने तुर्की-ब-तुर्की कहा था- गांधी जी को अगला जन्म लेने की प्रतीक्षा क्यों करनी चाहिये वे इसी जन्म में यह काम कर सकते हैं. हमने बहुत पुण्य कमा लिया, अब गांधी जी अपने अनुनाइयों को यह कार्य कराकर पुण्य और लाभ (भाग्य) दोनों कमायें.’’ भाषा सिंह को आजादी के छह दशक बाद भी गुजरात भ्रमण के दौरान कुछ ऐसे दृश्य देखने को मिले जो मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की मानसिकता को उजागर करते हैं. नरेन्द्र मोदी भी इस कुप्रथा को पुण्य का काम मानते हैं. राज्य सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित ‘‘कर्मयोगमें मुख्यमंत्री का कथन (2007) इस प्रकार छपा है.’’ किसी न किसी समय में किसी को दिव्य ज्ञान हुआ होगा कि समूचे समाज और भगवान की खुशी के लिये उन्हें यह काम करना है. यही कारण है कि सदियों से यह सफाई का काम उनकी आन्तरिक आध्यात्मिक गतिविधि के रूप में चलता रहा. इसी तरह यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहा.’( पृ. 83)

सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा समाप्त करने की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहराव ने 15 अगस्त 1992 को लालकिला की प्राचीर से की थी. केन्द्र सरकार ने 1993 में राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोगकी स्थापना की. इसके प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष राजस्थान के वाल्मीकि नेता श्री मांगीलाल आर्य को बनाया गया. बाद में यह आयोग राजनीति का शिकार हो गया और इसके अध्यक्ष पर पर गैर वाल्मीकि/गैर सफाईकर्मियों की नियुक्ति होने लगी. राजग सरकार ने अनिता आर्या को अध्यक्ष बनाया तो संप्रग सरकार ने संतोष चैधरी को अध्यक्ष मनोनीत किया. दिलचस्प यह है कि दोनों ही महिलाएं सफाईकर्मी समाज से नहीं थीं. पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने आयोग के अध्यक्ष पद पर गुजरात निवासी कमला गुर्जर को अध्यक्ष बनाया है.

वाल्मीकियों/सफाई कर्मियों के लगभग 300 गोत्रों में गुर्जर नामक गोत्र नहीं है. अतः इस बात की पूरी आशंका है कि कमला गुर्जर सवर्ण अथवा पिछड़े वर्ग से हैं. इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि सफाई कर्मचारी आयोग का अध्यक्ष पद किसी गैर सफाईकर्मी को सौंपा जा रहा है. यह सरकार की नीयत में खोट को उजागर करता है. क्या ऐसे आयोग से सफाई कामगार समुदाय के भले की बात भी सोची जा सकती है. कानपुर भ्रमण के दौरान भाषा सिंह की भेंट राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के पूर्व अध्यक्ष पन्नालाल तांबे से हुई. उन्होंने अपनी पीड़ा इस प्रकार प्रकट की-‘‘जब हम गन्दगी को ख़त्म कर सकते हैं, शुष्क शौचालय ख़त्म कर सकते हैं, तो सरकार क्यों नहीं कर सकती? वह चाहती नहीं, इसलिए ख़त्म नहीं हो रहा. पूरा तन्त्र ही इस बर्बर प्रथा को ख़त्म करने के बारे में गम्भीर नहीं है. आज़ादी के बाद देश में इतना बदलाव आ गया, पर यह इतनी अमानवीय प्रथा, इन्सान को जानवर से भी बदतर बनाने वाली प्रथा मौजूद रही, तो इसके पीछे कोई-न-कोई बड़ा कारण तो होगा ही! वह कारण है, जाति-प्रथा. योजना में भी जातिगत सोच, उत्पीड़न का भाव हावी रहा है और आज भी है, तभी तो लाखों महिलाओं के सिर पर मल से भरी टोकरी है. वरना........

यह कहते-कहते गहरी साँस भर कर पन्नालाल कहते हैं, दुख है कि राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग भी बाक़ी सरकारी विभागों की तरह हाथ-पर-हाथ रख कर बैठा है. करोड़ों रुपये इस मद में आ रहे हैं, पर मैला ढोने वालों को वैकल्पिक रोज़गार तक नहीं दिया जा रहा है. जब तक इन बाल्टीवालियों को इस नरक से नहीं निकाला जायेगा, विकास के सारे दावे सौ फ़ीसदी झूठे ही रहेंगे. 

भाषा सिंह अपनी पुस्तक अदृश्य भारत के माध्यम से किसी रूमानी संसार की रचना नहीं करतीं, वरना एक ऐसे यथार्थ से परिचय कराती हैं जिसे देखकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं. नरेन्द्र मोदी के गुजरात में सिर पर मैला ढोने वाली वह महिला जीतू बेन तल्खी से कहती है ‘‘माथे मैलु उठा कर देखो, तब बीमारी का पता चलेगा. जो मैला ढोयेगा, वह ठीक रहेगा क्या? तुम्हारे लिए और बाक़ी समाज के लिए तो खोजने की बात यह भी है कि इतना गन्दा काम करने के बाद भी हम ज़िन्दा कैसे हैं? बच्चा कैसे जनते हैं, क्यों जनते हैं? कुछ समय पहले एक विलायती डाक्टर ने यहाँ आ कर बहुत आँसू बहाये और कहा कि यहाँ सबकी नसबन्दी करा देनी चाहिए ताकि बच्चे ही न हों? समझीं! बाहर की दुनिया को हम आवारा कुत्ते या सुअर नज़र आते हैं कि सबको पकड़ कर नसबन्दी करा दो........’ (एक गन्दी सी गाली देकर थूक दिया जीतू बेन ने)’’ (पृष्ठ 89-90)

पश्चिम बंगाल  में भाषा सिंह ने जो कुछ देखा, वह किसी का भी सिर घुमाने के लिए काफी है. ’’35 साला मुनसरी वासफो ने हाथा डब्बू बाल्टी में डालते हुए व्यंग्य से कहा,’कैमरा सँभालो, छींटा न पड़े! नीचे बैठ कर फ़ोटो मत लो और न ज़्यादा पास आओ, वरना कढ़ी और दाल छूट जायेगी. खा नहीं पाओगी.और सुन कर लगा, वाक़ई पल में सब कुछ बाहर आ जायेगा, पेट उछलने लगा.......भयानक गन्ध से बजबजाते गटर जैसे जंक्शन पर तो जब उन महिलाओं को बाल्टियाँ पलटते देख रही थी, तो वाक़ई कैमरा हाथ से फिसल ही गया, सिर घूम गया और बस, जाति की गँधाती सच्चाई पर चीखने का मन हुआ.’’ (पृष्ठ 53)

अपने भ्रमण के दौरान भाषा सिंह ने जो कुछ देखा, उससे उन्हें कम्युनिस्टों की नीयत पर भी सन्देह होना स्वाभाविक था. ‘‘सबकुछ अकल्पनीय! इतना घिनौना काम आज़ाद भारत की इन नागरिकों को कम्युनिस्ट शासन में भी करना पड़ रहा है! जो सिद्धान्ततः इन्सान पर इन्सान के जुल्म के ख़त्मे की बात करता हो, उस विश्वास को दोहराने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) - माकपा - के 29 साल के शासनकाल (2006 तक) में इन्सान इन्सान का मल उठाने को मजबूर है, इस नंगे सच को देखना भी कम कष्टकारी नहीं था. उस समय जिनमें से 52 स्थायी थीं. वहाँ कुल शुष्क शौचालयों की संख्या 487 थी. देश के बाक़ी राज्यों की तुलना में पश्चिम बंगाल में उनकी आर्थिक स्थिति कमोबेश ठीक थी. अस्थायी को रोज़ के 85 रुपये और स्थायी को तनख्वाह 5-6 हज़ार रुपये महीना बैठती थी. बाक़ी राज्यों में तो रोज़ के 10-12 रुपये और महीने के 500-600 रुपये, बस. उत्तर प्रदेश में कानपुर में तो एक-एक घर से 20 रुपये ही मिलते थे बाल्टीवालियों को. यहाँ सब सरकारी रेट पर काम करती थीं, चाहे स्थायी हों या अस्थायी.’’ (पृ. 54)

खाने की बात का उल्लेख भाषा सिंह ने भूमिका में ही इस प्रकार किया है ‘‘इस समुदाय की औरतें हल्दी का इस्तेमाल बहुत ही कम करती हैं. पीली दाल खाना उनके लिये बेहद मुश्किल होता है. वे ख़ुद आपको आगाह करेंगी कि आप उन्हें मैला उठाते हुए न देखें, नही तो आप भी नहीं खा पायेंगे वंचित करता है.  

भारत एक ऐसा विचित्र देश है, जहां जाति कभी नहीं जाती. आप देश के किसी भी कोने में चले जायें, जातिवाद का भूत आपका पीछा नहीं छोड़ेगा. यों तो ब्राह्मणवाद, मनुवाद वर्ण-व्यवस्था एवं जातिवाद का शिकार समस्त दलित समाज है किन्तु सफाई कामगार समुदाय छुआछूत एवं भेदभाव ऊँच नीच के व्यवहार से अत्यधिक परेशान है. छुआछूत के कारण सफाईकर्मियों के बच्चे स्कूल में शिक्षा तक ग्रहण नहीं कर पाते. भाषा सिंह ने चर्चित पुस्तक में इसका अनेक पृष्ठों में हृदय विदारक वर्णन किया है. ‘‘गुजरात के भावनगर  ज़िले में 14 साल के विशाल कुमार रमेशभाई वाघेला ने कहा, ‘मैं सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता हूँ. स्कूल के टीचर हमसे भेदभाव करते हैं. हमें क्लास में सबसे पीछे वाली क़तार में बैठना पड़ता है. टीचर हमंे पढ़ाने-समझाने में भी कोई रुचि नहीं दिखाते. स्कूल में होने वाले किसी तरह के मुक़ाबले के लिए भी हमारा नाम नहीं लिखा जाता. मुझे लगता है कि मैं फ़ेल हो जाऊंगा और इसलिए मुझे स्कूल आना बन्द कर देना चाहिए.सुरेन्द्रनगर ज़िले के ही 13 साल के भावेशभाई राजेशभाई लाढेर ने कहा, ‘हर सुबह और रात को मुझे अपनी माँ के साथ जूठन की तलाश में जाना पड़ता है. मैं मरे कुत्ते और बिल्लियाँ घसीट कर हटाता हूँ, जिसके लिए मुझे दस से पन्द्रह रुपये मिलते हैं. पूरे गाँव का सारा कूड़ा और गन्दगी वाल्मीकि इलाक़े में फेंक दिया जाता है. पूरे गाँव में आर.सी.सी. की सड़क है, सिवा वाल्मीकि इलाक़े के. गन्दगी के कारण वाल्मीकि बच्चे बीमार पड़ जाते हैं.’’

भावनगर ज़िले के 12 साल के राकेशभाई भानुभाई परमार ने कहा, मैं अपनी कक्षा की सफ़ाई करता हूँ, स्कूल परिसर से कचरा बीनता हूँ. मेरे स्कूल में शौचालय साफ़ करने के लिए तो सफ़ाईकर्मी रखे गये हैं.भावनगर ज़िले की ही 10 साल की पूजाबेन अजीतभाई वाघेला की आपबीती गहरे जातिहीनता के बोध की ओर बढ़ती बच्ची की है,‘स्कूल में दूसरी जाति की लड़कियाँ हमें छूतीं भी नहीं. हमारा छुआ गिलास भी वे नहीं छूतीं. हमारे पास बैठतीं तक नहीं.इसी तरह इसी ज़िले की दस साल की हेतल कालुभाई वेगडाड ने कहा, ‘मेरे स्कूल में टीचर केवल उन छात्रों की मदद करते हैं जो दलित नहीं हैं. वे हमसे भेदभाव करते हैं. वहीं खेड़ा ज़िले की दस साल की ललिता भोपाभाई हरिजन ने कहा, ‘वागरी, भारवाड़, ठाकुर और बाक़ी जातियों के बच्चे दोपहर के खाने में हमसे दूर बैठते हैं और मुझे कहते हैं कि मैं उनसे दूर रहूँ.’’ (पृष्ठ 98-99)

कश्मीर में शुष्क शौचालय साफ करने का काम करने वाले इस्लामधर्मी हैं. बाकायदा रोज़े रखते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं. इन्हें ‘‘वातल’’ पुकारा जाता है और सफाई के काम को ‘‘टच पाजिन’’ पुकारते हैं. इस्लामधर्मी होने के बावजूद इन लोगों में छुआछूत बढ़ती जाती है और स्कूल में इनके बच्चों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है. ‘‘ताहिर ने बताया कि यहाँ से कई लोग सफ़ाई कर्मचारी आन्दोलन की मैला मुक्ति यात्रा में शिरकत कर चुके हैं. वे फ़ार्म भी भर चुके हैं, लेकिन उन्हें उम्मीद कम थी कि इस काम से उन्हें मुक्ति मिल पायेगी. यहाँ भी उन्हें सबसे ज़्यादा दिक़्क़त इस बात से थी कि उनके बच्चों के साथ स्कूलों में भेदभाव होता है. टीचर भी कहते हैं, यह वातल का बच्चा है, मोची का बच्चा है, इसके साथ न बैठो. यह सुनकर लगता है कि हमारे बच्चों का क्या भविष्य है. क्या ये बच्चे कभी इस गाली से मुक्त हो पायेंगे? शायद नहीं. 40 वर्षीय शबीर ने बताया कि इस मोहल्ले के पास के सरकारी स्कूल को लोगों ने नाम ही दे दिया है, वातल स्कूल, और यहाँ बाक़ी समुदायों के बच्चे बहुत मजबूरी में ही पढ़ने आते हैं. इस मोहल्ले में कई लोग कमेटी (नगर पालिका) के कर्मचारी थे, कुछ स्थायी तो कुछ अस्थायी. अस्थायी को 3,000 रुपये महीने मिलता है, तो स्थायी को 10-12 हज़ार रुपये तक. ज़्यादातर अस्थायी हैं. (पृ. 10)

पश्चिमी बंगाल में लगभग 28 वर्ष तक मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार रही है. ये अपने को मजदूरों तथा दलितों के सबसे बड़े हितैशी घोषित करते हैं किन्तु पश्चिमी बंगाल में आज भी सोनागाछी में ऐशिया का सबसे बड़ा वैश्यालय स्थित है. कोलकाता नगर में मनुष्य आज भी घोड़ा अथवा जानवर की भांति अपने कंधे पर रिक्शा खींचता है तथा सफाई कामगार समुदाय के सिर पर आज भी गंदगी से भरा टोकरा रखा है. भाषा सिंह ने सिर पर मैला ढोने वाली महिलाओं का जो आंखों देखा हाल लिखा है वह कल्पनातीत है. ‘‘गटर का दृश्य बताना-लिखना असम्भव है. मल-ही-मल था चारों तरफ़.....उफ्फ! उसे पार करते हुए वे उस जगह गयीं जहाँ जाली लगी हुई थी. उन्हें बाल्टी से मल उस जाली के ऊपर ही डालना होता था ताकि पानी या तरल मल अन्दर जाये और ठोस मल बाहर रहे. मैं जहाँ खड़े हो कर फ़ोटो ले रही थी, वहाँ पैर के नीचे से पत्थर हिला और मैं मल की गँधाती नदी में गिरने को हुई. पीछे खड़े देबाशीश ने देख लिया और दौड़ कर थाम लिया. अब पूरी तेज़ी से गले तक आ रही उबकाई को रोकना मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. मुझे किसी भी सूरत में उल्टी रोकनी थी, आख़िर मैं उनके साथ अपनी ज़िद से आयी थी. (पृ.52)

सिर पर मैला ढोने की समस्या के निदान हेतु अनेक संस्थाओ ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए आन्दोलन चला रखा है बस उन्होंने सुप्रिम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया. चर्चित पुस्तक में भाषा सिंह ने लिखा है. ‘‘ग्यारह साल तक देश की सर्वोच्च अदालत में चक्कर काटे. इस दौरान देश के दो प्रधान न्यायाधीशों समेत शीर्षस्थ 16 जजों के सामने अपनी व्यथा-कथा रखने, सरकारों के झूठ को बेनक़ाब करने वाले अकाट्य सबूत पेश किये. फ़ोटो के साथ ये दस्तावेज़ पेश किये कि देश के 14 राज्यों में सिर पर मैला ढोने का ग़ैर-क़ानूनी और घोर अमानवीय काम हो रहा है. लेकिन नतीजा क्या निकला, सिफ़र! इतना कुछ सामने रख देने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने इस ग़ैर-क़ानूनी प्रथा को ख़त्म करने में देश की तमाम सरकारों की नाकामी पर कोई कड़ा फै़सला देने, या लचर सरकारी मशीनरी को लताड़ने, या क़ानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई करने की बजाय, कमोबेश हाथ खड़े करते हुए कहा कि न्याय की उम्मीद लगाये बैठे मैला ढोने वालों को 22-23 राज्यों के उच्च न्यायालयों के दरवाज़े खटखटा कर गुहार लगानी चाहिए. जबकि उम्मीद क्या थी? कि कोर्ट सीधे-सीधे इस प्रथा को ग़ैरक़ानूनी करार दे कर सरकार को इसे तुरन्त बन्द करने और इस काम में लगे लोगों का पुनर्वास करने का ख़ुद एक-दो लाइन का फ़ैसला देती. इसकी बजाय उसने गेंद उच्च न्यायालयों के पाले में डाल दी.

किसी भी संगठन के लिए इतने उच्च न्यायालयों के दरवाज़ों पर जाना, अपने केस के लिए वकील करना, कितना मुश्किल है, इसका सहज ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. वह भी तब, जब वह पिछले छह-सात साल से न्याय की उम्मीद में पहले ही देश की सबसे बड़ी अदालत के चक्कर लगा चुका हो.

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के 12 जनवरी 2011 को आये इस ताज़ा निर्देश के बाद अब यह मामला 22 राज्यों के उच्च न्यायालय में सुना जायेगा. यह दीगर बात है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मुद्दे पर बीच-बीच में जारी किये गये निर्देशों को ध्यान में रखें. कोर्ट का कहना था कि इस याचिका को परख कर उसने पाया कि इसमें कई तरह के अनुरोध शामिल हैं. कोर्ट एक दशक से मामले की सुनवाई कर रही है और कई विस्तृत दिशा-निर्देश दे चुकी है, अब इन्हें लागू कराने के लिए अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के पास जाना चाहिए.

अब यह सवाल उठना लाज़िमी है कि भला सुप्रीम कोर्ट को ऐसा फै़सला क्यों देना चाहिए था? आख़िरकार, सुप्रीम कोर्ट से मैला ढोने वालों का प्रतिनिधित्व कर रहे सफ़ाई कर्मचारी आन्दोलन (एस.के.ए.) ने क्या माँगा था, महज़ इतना ही न कि कोर्ट यह घोषित करे कि मैला ढोने का काम और शुष्क शौचालयों का जारी रहना संविधान की धारा 14,17,21 और 23 का उल्लंघन है. इसके साथ ही यह 1993 में बनाये गये क़ानून का भी सरासर उल्लंघन है. एस.के.ए. की यह  अपेक्षा भी थी कि कोर्ट इस बात का निर्देश जारी करे कि केन्द्र और राज्य सरकारें इस प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने के समयबद्ध कार्यक्रम की घोषणा करें और अब तक इस काम में लगे रहे लोगों  के सम्मानजनक पुनर्वास की व्यवस्था करे. (पृ.153-154)

सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुडे व्यक्ति सांसद डी.राजा तथा भाषा सिहं के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंड़ल के रूप में संसद भवन जाकर लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार तथा कु. शैलजा से भी भेट की मगर सभी ने हाथ खडे़ कर दिये. भाषा सिंह लिखती है ‘‘प्रतिनिधि मंडल में शामिल अनुराधा अपने गुस्से को रोक नहीं पा रही थीं. लम्बे समय से राजनीति के बन्द दरवाज़ों पर दस्तक देते-देते उपजी खीझ उनके चेहरे पर थी. आस-पास के परिवेश से बेख़बर हो कर उनका बोलना जारी था, ‘एक तरफ़ केन्द्र सरकार और उनके मन्त्रालय तथा राज्य सरकारें लगातार देश की सर्वोच्च अदालत में झूठ बोलती रहीं, वहीं देश के शीर्ष नेता इस कुप्रथा के आगे घुटने टेकते रहे और अब इसके ख़त्मे के आगे बेबसी का बयान देते हैं. बड़ी विचित्र बात है कि लोकतन्त्र में लोग नेताओं को ताक़त सौंपते हैं. यह हमस दियों से झेल रहे हैं, लेकिन अब और नहीं....इन बातों के सहारे हमने संसद के गलियारे पार कर लिये और खुले आसमान के नीचे आ गये.

सत्ता में बैठे दलित नेताओं के रुख़ के ज़रिये इस कुप्रथा के जारी रहने की अन्तर्कथा के राजनीतिक आयाम को समझा जा सकता है. आख़िर किस तरह से जातिगत व्यवस्था का यह सबसे विकृत रूप राजनीतिक सहमति और राजनीतिक वरदहस्त के साथ आज़ादी के साठ साल बाद भी जारी है और अदृश्य बना हुआ है. अव्वल तो शायद नीति-निर्धारण में दलित नेतृत्व की बहुत चलती नहीं रही है और फिर मूल शोषणकारी व्यवस्था में रद्दो-बदल उनकी अपनी प्राथमिकता में भी नहीं रहा. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अभी जो सर्वे चल रहा है, उसमें उत्तर प्रदेश में मैला ढोने वालों की बड़ी संख्या सामने आ रही है.

एक और वजह जिसने इसे अनदेखा बनाये रखा, वह यह कि मैला ढोने वाले वैसे भी संख्या में कम हैं और बिखरे हुए हैं इसलिए वोट बैंक के रूप में भी उनकी उपस्थिति भारतीय राजनीति में नहीं दिखायी देती. एक दलित समूह के तौर पर वे संगठित नहीं रहे और लम्बे समय तक इस समुदाय ने अपने ऊपर होने वाले जातिगत उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द भी नहीं की. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ा चुकीं, जन स्वास्थ्य मामलों की विशेषज्ञ इमराना क़ादिर का यह कहना सही लगता है कि चूँकि मैला ढोने वालों की मौजूदगी से पूरी व्यवस्था में किसी को कोई परेशानी नहीं होती, इसलिए किसी ने उनकी मुक्ति के बारे  में सोचा नही (पृ.164-165)

भाषा सिंह की पुस्तक में आप को भाषा की अलंकारिकता, लयात्मक्ता तथा सुन्दर मुहावरो का प्रयोग भले ही दृष्टि गोचर न हो, मगर इसमें उस अदृश्य भारत के दर्शन अवश्य होते है. जहां दुर्गन्ध है, सडान्ध है, बीमारीया है, गन्दगी है, आसू, टीस, दर्द, हताशा, निराशा, कुन्ठा तथा उदासीनता चहुंओर बिखरे मिलेगे. समीक्षा पुस्तक हेतु भाषा सिहं ने शोध किया है पसीना बहाया है मलीन बस्तीयो के दौरे किये है तथा सिर पर मैला ढोने वाली महिलाओं से बहनापा स्थापित कर साक्षात्कार लिये है यह पुस्तक उन दलित लेखको को बेचैन कर सकती है जिसका मानना है की दलितों पर ईमानदारी से केवल दलित कुलोत्पन्न व्यक्ति ही लिख सकता है. दरअसल लेखन के लिए संवेदना की आवश्यकता होती है जो भाषा सिहं में प्रचूर मात्रा में विद्यमान है. पुस्तक पढते समय पाठक आक्रोश से भर जाता है कि क्या यह वही भारत है जो चन्द्रमा पर अपना चन्द्रयान तो भेज सकता है मगर सिर पर मैला ढोने को कुप्रथा को समाप्त नही कर सकता है.

वास्तव में सफाई कामगार समुदाय समस्त भारत में विभिन्न नामो से जाना जाता है और उसका वोट बैंक से सम्बंध कोई प्रेसर ग्रुप नही है जिसकी ओर भाषा सिह ने भी संकेत किया है अतः राजनितिक दल, संसद, मत्रीमण्डल, शासन तथा प्रशासन इनकी भलाई के लिए चिन्ता नही करतें. अदृश्य भारत पुस्तक लिखते समय भाषा सिहं ने अत्यंत परिश्रम किया है एक प्रकार से उन्होंने मैले से भरा टोकरा सभ्य समाज के मुह पर उलीच दिया है. यह पुस्तक समाज के समक्ष आईना है. कि देखो इसमें अपना दागदार चेहरा और उन व्यक्तिीयो के लिए कुछ भला करने की सोचो जो सदियो से नारकीय जीवन जी रहे है. भाषा सिंह ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि यदि दलितो पर ईमानदारी एवम निष्पक्षता से लिखा जाये तो वह ‘‘दलित साहित्य’’ भी उत्तम हो सकता है. मुझे पूर्ण विश्वास है कि 25 चित्रो एवूम अनेक मानचित्रो से सज्जित भाषा सिहं की यह पुस्तक दलित साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध होगी.
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के.एस. तूफान
३ जून १९४४ भनेड़ा (नजीबाबाद)

वरिष्ठ दलित चिंतक और कथाकार
अनेक वर्षों तक मकप से जुडे रहे, नंदीग्राम घटना के बाद मोहभंग

लहरों का संघर्ष, स्वप्न भंग, टूटते संवाद (कहानी संग्रह)
तन मन गिरवी कब तक, अँधेरे में रोशनी, सफाई का नरक (आलोचना-पुस्तक)
उत्तर प्रदेश से सर्जना पुरस्कार से सम्मानित
मो. 098 97 48 66 40.
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अदृश्य भारत  का एक हिस्सा आप यहाँ पढ़ सकते हैं.

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  1. अदृश्य भारत ...में उत्पीड़न दृश्यमान है, पर उसे केवल सरकारों ने ही नहीं;टुकड़ों-टुकड़ों में बँटे समाज ने भी अनदेखा किया है. शिक्षित और अशिक्षित के अलावा जितने भी वर्ग यहाँ दिखाई देते हैं उनमें स्वाभविक रूप से जो आर्द्रता और तत्परता होनी चाहिए वह है ही नहीं. किसी रूढ़ संस्कृति से हम करुणा, दया , ममता जैसे शब्दों को उठाकर बार-बार मानवीय परिदृश्य को जिन्दा दिखाने की कोशिशें करते हैं, जबकि एक इकाई के रूप में, एक व्यक्ति रूप में हम विरोधाभासों, प्रतिवादों, विपर्यय का समुच्चय हैं.
    गुजरात में और संभवतः अन्य राज्यों में भी इन मैला ढोने वालों के बीच विसंगतियां हैं...इनमें भी वर्ग भेद.
    धार्मिक कर्म काण्डों, उत्सवों पर हम करोड़ों खर्च करते हैं. इसे अर्थतंत्र का शोषण कहना चाहिए...और इस देश में दोहन से कहीं अधिक शोषण हुआ है..
    भाषा सिंह ने जो काम करने के बाद पुस्तक लिखी है, वह आसान काम नहीं है. बातें चिह्नांकित तो हुई हैं..बदलाव कब, कैसे ,कितना आएगा इसके लिए आशान्वित होने पर संदेह है.
    समालोचन और भाषा सिंह का आभार!

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  2. मुझे याद आता है कि कुछेक वर्ष पहले इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इस मामला विशेष पर कैम्पेन किया था...शायद तब कुछ रिपोर्टें भाषा जी की भी रही हों.. प्रस्तुत पुस्तक और उसपर प्रकट तूफानी जी के इस आलेख के आलोक में सबसे पहले जो दो बातें मेरे जेहन में आयीं वही कह देना चाहता हूँ.. [१] यह देश सवर्णों और सवर्ण मानसिकता वाले दलितों का देश है..यहाँ सारी सरकारें.. सुप्रीम कोर्ट, एन जी ओ, मीडिया सब सवर्णों की है... अगर आप यह कह रहे हैं कि नहीं ऐसा नहीं कह सकते तो फिर मैं पूछ रहा हूँ कि यह घृणित कुप्रथा एवं ऐसी अन्य कुप्रथा ( फिर सुबह होगी की बेडिया जनजाति वाली कुप्रथा , मरे जानवर खाने वाले बिहार के डोम ) फिर ख़त्म क्यों नहीं हो रही..
    [२] देश के दलित विमर्श में दम नहीं है.. आप पूछ रहे हैं कि आज़ादी के ६० सालों में भी ऐसी कुप्रथाओं पर रोकथाम क्यूँ नहीं.. और मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि भाई साब ६० सालों बाद भी आपके पास दूसरा आंबेडकर क्यों नहीं.. साहित्यिक दलित विमर्श और दलित पत्रकारों के छिटपुट बयानबाजियों से तो काम नहीं चलना.. नायकर चाहिए आपको.. दिलीप मंडल और मुसाफिर बैठा कहाँ हैं.. उनके मित्र अविनाश दास कहाँ हैं.. पत्रकारिता वाले प्रोफ़ेसर प्रधान कहाँ हैं.. बेचारे मजबूर बंगलादेशी घुसपैठिये दीखते हैं आपको पर ये टीना वाली नहीं दिखती..

    फ्री सलाह- सड़कों पर आन्दोलन छेड़ा जाय.. [इतिहास रहा है कि दलितों पिछड़ों को हक हकूक केवल आन्दोलनों से मिला है] ... इस बात की गारंटी मैं दे सकता हूँ कि सवर्णों से किया गया आग्रह [कि 'इन टीना वालियों का सहयोग नहीं लिया जाय] और टीना वालियों से किये गए अनुरोध [कि आप यह कुप्रथा बंद करें] में अनुपालन की मात्रा सवर्णों की तरफ से ज्यादा आएगी.. बाकी रही बात उनके रोजगार विकल्प की तो भाई साब कम से कम इसके लिए कुछ रचनात्मक उपाय तो आप सुझा ही सकते हैं और तमाम 'सवर्ण' सरकारें इन्ही तमाम 'सवर्ण' मीडिया के दवाब में उसमे सहयोग को बाध्य होगी ही..

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  3. शिक्षा जहां असफल रही, मैं नहीं समझता सरकार को दोष देना उचित है. सरकार नियम बना सकती है, मानसिकता नहीं. ये बदलाव वैयक्तिक तौर पर ही आ सकता है. इसी लिए बहुत धीमे धीमे आएगा. इस दिशा में प्रेरित करने के लिए लेखिका एवं समालोचन को धन्यवाद

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  4. समय आ गया हाशिये पर रहते शोषित लोगों की व्यथा को हम अपनी लेखनी का व्यापक हिस्सा बनानें ....तूफान जी के इस ज्ञानवर्धक लेख से स्पष्ट है किस तरह भाषा जी ने अपने भावों को काबू रखा होगा ...समाज ने इन लोगो का जीवन नरक बनाया हुआ है और बाकायदा एक संगठित व्यवस्था के द्वारा, मैला ढोने वालों को लेकर तो और भी घिघौना रूप सामने आता है... लोकतंत्र आ चुका है , समाजवाद के सपने सजौएँ जा रहे हैं ,अस्मिताओं का संघर्ष चल रहा , लेकिन इन लोगों के जीवन पर किसी का ध्यान नहीं हैं ..भाषा सिंह जी ने यह नेक काम हमें उपलब्ध करवाया है ...इसका उनको आभार. साथ मैं तूफान जी व समालोचना का धन्यवाद करता हूँ .. इतना महत्वपूर्ण लेख हमसे साझा किया .

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  5. मैंने यह किताब अभी ख़त्म की है, भाषा सिंह बधाई की पात्र तो हैं ही हम सब के धन्यवाद की भी पात्र हैं. अपने विषय के साथ गहरे जुडाव और लगाव के साथ लिखी गई पुस्तक में अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को बिना किसी शोर शराबे के अपने वर्णनों में ही अंतर्गुम्फित किया है. शानदार ! तथाकथित सभ्य समाज को तो इस पुटक को जरूर पढ़ना चाहिए.

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  6. सुनीता सनाढ्य पाण्डेय31 अग॰ 2012, 3:01:00 pm

    धन्यवाद समालोचन इस ज़रूरी बात की तरफ ध्यान दिलाने हेतु...लेखिका का भी धन्यवाद...इसे शब्दों मे ढालना भी बहुत ही हिम्मत का काम था और वे सफल हुई हैं...लेख पढ़ कर ऐसा लगा...मैंने बचपन मे यह सब देखा है कि वाकई इन लोगों को जो सबकी गंदगी साफ करते हैं, कितनी हिकारत भरी नज़र से देखा जाता था उन्हे...आज भी गावों मे कमोबेश स्थिति मे फर्क तो आया है पर बहुत नहीं है ये...आज की युवा-पीढ़ी को आगे आना चाहिए यह अंतर कम करने मे....एक बार फिर धन्यवाद अरुण जी आपका...साथ ही के. एस. तूफान जी का भी धन्यवाद....

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  7. यह दुखद है कि हमारे बीच आज भी ऐसी व्यवस्था जिन्दा है....भाषा सिंह का काम वाकई सराहनीय है ..जबकि पुस्तक के कुछ अंश पढना ही मुश्किल है ..ऐसे में उनके बीच से उनका सच लेकर आना ...बड़ी चुनौती है ..भाषा सिंह ने कुछ जायज सवाल उठाये हैं .. पश्चिम बंगाल की सरकार को लेकर, देश की न्याय-व्यवस्था और नेताओं की इस मुद्दे पर संवेदनशीलता को लेकर और मैला ढोने वालों की वोट बैंक के रूप में कमजोर उपस्थिति को लेकर...तूफ़ान साहब ने ठीक ही कहा है..'.लेखन के लिए संवेदना की आवश्यकता होती है जो भाषा सिंह में प्रचुर मात्रा में विद्यमान है. '

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  8. मैं उस काल की क्रूरता की कल्पना मात्र से काँप जाता हूँ जब कुछ लोगों को मैला ढोने पर ववश किया गया होगा ! अवश्य ही मैला उठाने वालों की आवश्यकता शौचालयों की आवश्यकता के साथ पैदा हुई होगी !

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  9. व्यक्ति रूप में हम विरोधाभासों, प्रतिवादों, विपर्यय का समुच्चय हैं....

    व्यक्ति का अनुकूलन जिस तरह होता रहता है वह अपने व्यक्ति रूप को उसी तरह देखता है..उसकी क्षमताएँ उस अनुकूलन के भीतर अधिक रहती हैं. हाँ, कुछ इस घेरेबंदी को तोड़ते हैं..जिन्हें उस समय ठुकरा दिया जाता है..फिर इसी ठुकराए को समाज जैसे वर्षों तक परीक्षित करता है और अपनी सुविधा अनुसार उसे स्वीकृति या अस्वीकृति देता है.
    एक दार्शनिक और वैज्ञानिक इसे सबसे अधिक भोगता है..फिर समाज सुधारक,लेखक, कलाकार..
    किसी भी श्रेणी में विभाजित न करते हुए एक "इंसान" जिसकी क्षमताएँ अनंत हैं पर जिसके चारों ओर समुच्चय के रूप में समाजतंत्र और अर्थ तंत्र मकड़जाल की तरह बुने हैं...

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  10. व्यक्ति का अस्तित्व बराबर एक दबाब में जीने की प्रक्रिया है...यह दबाब केवल बाहर का ही नहीं होता; उसके भीतर का भी होता है..कभी उसकी अपनी इच्छाओं का, कभी महत्वाकांक्षाओं का तो कभी अंतर्द्वंद्वों का..जो इस दबाब से मुक्त सहज मानव है, वह हर युग में उपलब्धि रहा है..बस सम्यक रूप से ऐसी उपलब्धियां सभ्यताएँ कब-कब पाती हैं, इस पर निर्भर करता है..
    और बदलाव तो प्रकृति की स्वाभविक विकास की सबसे बड़ी प्रक्रिया है..जो सभ्यता इसे नकार देती है वह पराभव देखती है...

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  11. भाषा सिंह की यह किताब अस्पृश्य बना दिए गए हमारे सामाजिक-सयात्रियों के जीवन की त्रासदी को पुनः चर्चा के केंद्र में लाएगी... और निश्चित ही उनके जीवन में कुछ और उजाला, कुछ और स्पर्श बांटेगी.. ये उम्मीद है !! भाषा सिंह को बधाई !!

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  12. अशोक कुमार पाण्डेय2 सित॰ 2012, 10:17:00 am

    भाषा का यह काम हमारे समय का एक बेहद महत्वपूर्ण काम है

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  13. पीड़ा को भाष में व्यक्त कर, भाषा सिंह ने सराहनीय कार्य किया है।

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  14. यह एक जरूरी आलेख है, जिस पर बातें होनी ही चाहिए, हालाँकि इसके राजनीतिक तेवर से बचने की जरूरत है।

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