कथा - गाथा : हेमंत शेष



















28 दिसंबर, 1952, जयपुर (राजस्थान)
कविता, कला-आलोचना, कहानी
१४  कविता-संग्रह, १ कहानी संग्रह, ७ कला- आलोचना की किताबें, ८ पत्रिकाओं का संपादन 
कला - प्रयोजन के संस्थापक - संपादक
इतवारी पत्रिका और राजस्थान पत्रिका में कला पर नियमित स्तम्भ लेखन  
के के बिरला फाउन्डेशन नई दिल्ली के बिहारी पुरस्कार सहित कई अन्य राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान.
रेखांकनों, चित्रों और पोस्टर कविताओं की छह एकल प्रदर्शनियां
१९७७ से राजस्थान प्रशाशनिक सेवा में कार्यरत
     
40/158,  मानसरोवर, जयपुर,३०२०२० 
hemantshesh@gmail.com


ख्यात कवि और कला - समीक्षक हेमंत शेष ने कहानियाँ भी लिखी हैं. वाग्देवी प्रकाशन से 'रात का पहाड़' शीर्षक से उनका कहानी संग्रह प्रकाशित है.  हेमंत शेष की  कहानिओं में उनकी कविताओं की ही तरह भाषागत प्रौढ़ता और व्यंजना है, साथ ही उसमें एक चित्रकार की लक्षणा के सफल दृश्य- बंध है. इन अलग अलग कथा दृश्यों में स्मृति और यथार्थ के पठनीय  कोलाज हैं. 

रघु राय

1
गायब-घर

उनका नाम बरसों से लोहाखान वार्ड नंबर २७ भाग संख्या ३ की मतदातासूची में है, पर उनका घर है कहाँ ये पता ही नहीं लगता !
सड़क के कोने से ही घर शूरु हो जाता है और घर कब खत्म हो जाता है, पता ही नहीं लग पाता.
बस- एक कोठरी ही तो है कच्ची-दीवारों वाली- जिस पर प्लास्टिक की फटी हुई चादर जैसे-तैसे करके उढा दी गयी है. चादर- जो लू में झुलसती, बारिशों में टपकती सर्दियों में हाड़ कंपाती है. वे सब इसी में घुस जाते हैं रात को- दिन भर तो मुए फुटपाथ पर पड़े रहते हैं!
एक पूरा परिवार घर में बैठा रहता है और में समझता हूँ सड़क पर बैठा है. ट्रेफिक में बाधा पहुंचाता. श्रीमंतों के कित्ते वाहन गुजरते हैं!
इस तथाकथित घर की किसी लापरवाह बच्ची के बस उन के पहिये से कुचल जाने की देर भर है फिर देखिये कित्ता तमाशा होता है- इस घर में, जो सड़क के ऐन किनारे कुछ इस तरह है कि नज़र ही नहीं आता!
आप कहानी सुन रहे हैं न मनमोहन सिंह जी?

****


2
झलक

आज उसे फिर देखा. आज सुबह. हवा में लहराते नीम के बीच- एक झलक की तरह!
वह कोई झलक ही तो थी- छत पर बाल सुखाती हुई- और बाल भी तो आप देखिये- खूब घने, काले, लंबे.
अच्छा है मैंने सोचा देर से सूखेंगे- और वह कुछ देर और अब तक न लिखी गई इस कहानी के हित में एक झलक की तरह हवा से फरफराते नीम के बीच बनी रहेगी! उसका कोई तो नाम रखना ही चाहिए, मैंने अपने लिए सोचा (पाठक-वाठक की चिंता के बिना) झलक, हाँ ये नाम ठीक रहेगा!
झलक ज़रा नीचे आना तो....माँ ने ज़रूर चौक से चिल्ला कर उस से थोड़ी देर बाद कहा होगा.
अभी आई...मम्मी....झलक वहीं से चिल्ला कर बोली होगी. पर शुभ था कि उसे माँ की आज्ञापालन में कोई खास जल्दी नहीं थी.
मैंने बिना बोले उस से कहा- “बाल पूरे सूख जाने तक वहीं, अपनी छत पर जमीं रहना, झलक !
उसे देखे जाने का कोण कुछ ऐसा था कि वह अपनी छत से मुझे मेरी बालकनी में  यों बैठे नहीं देख सकती थी पर जादुई-चश्मे वाले किस्से जैसा मैं, उसे थोड़ा सा दाएँ झुकते ही खूब घने,  काले, लंबे काले बाल सुखाते बखूबी देख सकता था. हरा बड़ा नीम, मेरे और उस के बीच में एक ऐसा पर्दा था जिसे जब मन करो- हटा लो जब चाहे लगा दो थोड़ा सा दाएँ झुको..... हरा पर्दा हट जाएगा,  वापस बाएँ झुको हरा पर्दा बंद! बस. इत्ती सी बात और देखने का काम हो गया.
अगर वह मुझे यों खुद को देखते हुए देखती तो क्या फ़ौरन छत से हट जाती?  शायद हाँ.... शायद नहीं! शायद हाँ,  नहीं,  हाँ ! नहीं,  हाँ ! नहीं,  हाँ !
अब आप ही बताइये,  छत पर अपने खूब घने, काले, लंबे बाल सुखाने वाली बिचारी एक लड़की को इस तरह खुद से किये गए मेरे सवाल-जवाब से क्या मतलब? और शराफत से सोचा जाए तो मेरा उस से आखिर क्या लेना-देना ?  उसे तो ये तक पता नहीं कि उसे ले कर में मन में कोई कहानी-वहानी लिख रहा हूँ या उसका नाम अब तक जो कुछ था, उसे बदल कर पांचवीं लाइन में ’झलक’ कर चुका हूँ !
पर अगले दिन ये ज़रूर हुआ कि मैंने झलकशीर्षक से ऊपर खत्म कहानी लिखी.
अब वह भले कभी शेम्पू करे,  न करे,  नहाए, न नहाए,  खूब घने,  कालेलंबे बाल सुखाने धूप में छत पर आये,  न आये,  या नीचे चौक में मूंज की चारपाई पर बैठ कर ही सुखा ले....पर मैं या आप अब, जब चाहें, इस  झलक को अपने खूब घने काले लंबे बाल सुखाते देख सकते हैं- इस छपे हुए पन्ने की छत पर,  हवा में हिलते नीम के हरे परदे के  पीछे, देर तक बनी रह सकने वाली किसी झलक की तरह !  

*****

  
3
बेटियां

हमारी कॉलोनी के इस छोटे से सब्जी-बाज़ार में मेरी बहुत प्यारी बेटी नेहा की उम्र की ही एक लड़की सब्जियों की छोटी सी दुकान सजा कर सुबह से शाम तक बैठती है. धूप-छांव लू बारिश हवा की परवाह के बिना. मैं पिता हूँ- अपनी बेटी का, पर उसकी दूसरी उदास सी हमउम्र लड़की का पिता कौन है, जीवित है भी या चला गया, मुझे नहीं पता.
जब भी वहां से गुज़रता हूँ लगता है हू-ब्-हू उसका नहीं मेरी ही बेटी का चेहरा है- उस के धड़ पर... और जब जब सामने से गुज़रता हूँ, चाहता हूँ उसकी पूरी दूकान ही खरीद लूं.
पर इतनी सब्जियां तो दुनिया के बड़े से फ्रिज में भी नहीं समाएंगी. भले न आएं, उसकी मदद तो होगी और वह धूप में यों बैठने से तो बच जाएगी... पर कितने दिन? सारी सब्जियां बिक जाने पर क्या वह दुकान में बैठना छोड़ देगी?  
और कुछ इस तरह मैं एक दिन उसकी दुकान पर पहुँचता हूँ.
मुझे भी वह मामूली ग्राहक जान कर मेरी तरफ प्लास्टिक की एक पुरानी सी टोकरी फ़ेंक देती है. जब मैं किसी सब्ज़ी की तरफ हाथ नहीं बढाता, तो भी मुझे उपेक्षापूर्वक देखते हुए वह पिछले ग्राहकों द्वारा तितर-बितर किये बेंगनों को करीने से ज़माने लगती है.
जब मैं कहता हूँ नेहा! मुझे एकाध सब्जी नहीं तुम्हारी पूरी दुकान की ये सब सब्जियां चाहिएं, तो वह ठिठक कर मुझे देखती है और ज़रा सख्त से लहजे में कहती है- बाबूजी! मेरा नाम नेहा नहीं है.
शायद सोचती होगी मैं कोई बदमाश, सिरफिरा, नीम-पागल, या उसका मजाक बनाने वाला मनचला अधेड़ हूँ.
भरोसा दिलाने के लिए हज़ार रूपये के तीनों एक से महात्मा गाँधी हरी पालक के ढेर पर आहिस्ता से सम्मानपूर्वक रख देता हूँ. चार वैसे ही लाल नोट मेरे हाथ में और हैं उसे ये यकीन दिलाने कि लिए कि मैं दुकान की सब सब्जियां एक साथ खरीद सकता हूँ.
अब वह अचकचाती है. मदद के लिए आसपास कोई नहीं है.
हज़ार के तीन नोट अब भी पालक के टोकरे में लावारिस पड़े हैं. चार हाथ में हैं...
उसके भले और भोले-भाले चेहरे पर एक के बाद एक अविश्वास, हैरत, आशंका, संदेह, डर, बेबसी, जिज्ञासा, और खुशी के कई रंग एक के बाद एक आते और जाते हैं.
महीनों से हर दिन यही किस्सा रोज घटित होता है.
मेरा सारा घर तुरईआलू, मिर्च, गोभी, धनिया, अदरक, नीम्बूलौकी, कद्दू, कटहल से भर जाता है. गुसलखाने में जाता हूँ तो गोभियाँ टपकती हैं,  बेडरूम में कबर्ड में कमीजों की जगह कद्दू नज़र आ रहे हैं, पत्तागोभी का ढेर तो दालान की एन छत तक पहुँच गया है, बड़े-बड़े कटहल तो लोगों को गैरेज में ठुंसे पड़े दूर से ही नज़र आ जाते हैं, पालक बिस्तर पर चद्दर की तरह बिछ गई है और पोदीना हरा धनिया लॉन की जगह बगीचे के चप्पे-चप्पे पर फैल चुका है, घर के हर स्टोर और बुखारी में नीम्बू और टिंडे भरे हैं, खिड़कियों पर तुरई और घीया लटकी है, मैं देख रहा हूँ शिमला मिर्च का एक पेड़ तो मेरे तकिये में उग आया है, और...बाकी की सारी जगह मूली-गाजरों ने घेर ली है. न चलने फिरने की जगह बची है, न हिलने डुलने की....चूंकि गुसलखाना अरबियों और अदरक की गांठों से भरा हैमुझे नहाने के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत है....
ज्यों ही में अपने आप को मोहल्ले के हेण्डपंप पर नहाने-धोने के लिए अपने कपडे उतारता देखता हूँ, घबडा कर मेरी नींद टूट जाती है....कितना भयानक सपना है!
***
मैं सीधा अपनी बेटी के कमरे में जाता हूँ, धूप-छांव लू बारिश हवा की परवाह के बिना वह चैन से गहरी नींद सो रही है- उसका चेहरा ध्यान से देखता हूँ कि कहीं वह हमारी कॉलोनी के सब्जी-बाज़ार में बैठने वाली उस लड़की से तो नहीं मिलता.
मुझे ये जान कर बेहद खुशी होती है कि कतई नहीं मिलता....
***



4

यात्रा-मुहूर्तकी प्राचीन पांडुलिपि के बहाने दोस्त को न पोस्ट किया गया एक पत्र

प्रिय उमेश
मुझे ऐसी बहुत सी पुरानी सामग्री मिली है जिस से हमारे अतीत के समाज, मान्यताओं, लोक-विश्वासों, भूगोल आदि के बारे में बड़ी उपयोगी और मनोरंजक बातें पता लगती हैं.
ये अनूठी और अत्यंत मनोरंजक दुर्लभ सामग्री इतिहास की भूली-बिसरी किताबों, धर्मशास्त्र और ज्योतिष की प्राचीन पुस्तकों और गुमनाम हस्तलिखित पांडुलिपियों में दफ़न है.
पुराने ज़मानों में लोग सामान्यतः यात्रा करने या यात्रा का विचार करने के वक्त ज्योतिषशास्त्र मुहूर्त और अन्य बातों पर इसलिए विचार किया करते थे क्यों कि तब यात्रा करने का एक ही मायना था- घर छोड़ कर तकलीफें झेलते हुए अनजानी जगह घोर असुरक्षित-प्रवास!
तब, जब कि न यातायात के तेज साधन थे, न धर्मशालाओं के सिवा ठहरने के कोई मुफीद और आरामदेह ठिकाने; राजमार्गों तक पर ठगों, उचक्कों और उठाईगीरों, गिरहकटों और हत्यारों का एकछत्र दबदबा था, न ज्यादा पुलिस की चलती थी न कानून की, तब घर छोड़ कर यात्रा पर जाना सचमुच एक भयंकर अनुभव ही रहा होगा.....ऐसे में अगर सन 1889 ईस्वी की एक पांडुलिपि में मुझे ये पढ़ने को मिला तो कोई ताज्जुब नहीं हुआ! एक नमूना सेवा में:


 “ ज्योतिष व मुहूर्त से बढ़ कर जानवरों का एतकाद है कि आखातीज को जंगल में जा कर देखने से ज़माने आदि साल भर में नेक व बाद का ख्याल कर लेते हैं और फेर किसी के कोई काम की मनशा हुई है तौ दीतवार को शकुन देखेंगे / जो दिल में ठाना वो ही हुआ /मुकाम सिद्धि / अगर सफर जाना है तो वक्त रवानगी के दिन का तौ अव्वल बाएँ तीतर खर चील अरु दाएँ पालम्ब / हरण होने बाद दाएँ तीतर बाएँ पालम्ब / ऐसे मंजिल के अखीर में या दिन छिपते दाएँ तीतर बाएँ पालम्ब हरण तथा बीच में नाहर को खड़ा देखा तो अतीब शुभ जैसे राज्य का बचन/ परुन्तु इस को पूज कर के कई पहर ठहरना होगा/ और रात्री को बाएँ स्याल दाएँ कोचरी बहुत शुभ और बरखिलाफ २ मानते हैं सो ठहर कर अच्छा सगुन हुआ तो चलेंगे तथा जर्ख या नाग या नौलिया देखा रात्री को नाहर या कोई बोला तो नहीं चलेंगे/ अतीव नेष्ट है /हकीकत में शकुन जैसा फल होवे हीगा. तथा जानवरों के बोलने व देखने में बहुत बारीकियां भी कि निकालते हैं कि कोन सी दिशा में बोला, वहां कौन बार है, दरखत कैसे पे था, वगैरह वगैरह मगर सही ऊपर लिखा सो ही है......

इस उद्धरण से आप को क्या समझ में आया मुझे नहीं पता, पर मुझे ये पता ज़रूर चला:


 १. सन 1889 के बाद से हिन्दी ने कितना विकास किया है!
 २. तब मनुष्य के आसपास, जंगल, तीतर, हिरन, शेर-बघेरे, आदि इस क़दर इफरात में हुआ करते थे कि हमारे पूर्वजों ने उनकी बोली और उनके देखे जाने को ले कर यात्रा-शकुनजैसे विलक्षण शास्त्रों की रचना की, जिस पर पूरा समाज बेपनाह भरोसा करता था.
 ३. मेरे निजी अध्ययन-कक्ष में महामहोपाध्याय पंडित वसंतराज चक्रधर लिखित प्रवीण सागरजैसी जो भी सामग्री है वह आधुनिक ढंग की कवितायेँ और कहानियां गढ़ने के लिए मेरे बचे खुचे लेखकीय-जीवन के लिए पर्याप्त है!
 ४. मैं इन्हीं चीज़ों के सहारे कई बार तुम्हारे जैसे अनेकानेक मित्रों का मनोरंजन भी कर सकता हूँ!
५. कि उपर्युक्त सब बातें मनघडंत हैं- सिर्फ मेरे खाली दिमाग की उपज- जो शैतान का घर भी है. हा हा हा हा...क्यों कि में कहानी लिखता हूँ.....
***

5
हवादार-कहानी

रजनीगन्धा में तुलसी ब्रांड ज़र्दा मिलाते हुए मैंने अल्सुब्बह सिर्फ एक काम किया- हवा खाने का काम. वह बहुत तेज थी..... ठंडी भी. पता नही कहाँ से आ रही थी, कहाँ जा रही थी. मेरे आसपास के पेड़ों को झिंझोड़ते. भाईजान!  ऎसी प्यारी और प्रशिक्षित हवा गर गर्मियों के महीने में आप को मुनासिब हो तो क्या कहिये!
बस खाई और वही खाई. खाता ही रहा.
बीवी ने चाय ठंडी हो जाने की इत्तला दी तब भी ये भाई बालकनी में जमा था- जैसे बर्फ  जमती होगी . बस हवा थी और मैं था.
इस तरह एक हवादार सुबह मैंने वह किया जो मेरे मन में आया- रजनीगन्धा में ज़र्दा मिलाते हुए हवा खाने का काम.
और पत्नी-वत्नी की छोडिये न, उसे तो चाय ठंडी होने का मलाल था. और मुझे ये कि तेज ठंडी जानदार प्यारी हवा छोड़ कर उसे दुबारा गरम करवाने के चक्कर में भीतर आना पड़ा.
....वह भी आज ही अभी-अभी गुजर गई एक स्मरणीय सुबह है- कुछ कुछ ऎसी जिसकी ये हवादार-कहानी बनी.

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6
एकदम गहरी नीली हवाई-चप्पलें

मेरी नानी कुछ बरस पहले जब गईं तो उनके लिए आयोजित दशाहके शैय्यादान में मुझे धोती-कुरता आदि के अलावा इस कथा के शीर्षक में अंकित जैसी चप्पलें भी मिलीं. अब भी चल रहीं हैं - बाटा’  की हैं! जब जब पहनता हूँ , कहता हूँ- धन्यवाद! बड़े मामाजी.
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आभार एक कमरे मैडीका- जिसमें बगैर किराया दिए हम लोग बहुत अरसा रहे.
धन्यवाद! उस कोने वाले छोटे से मकान का- जिसने मेरी लाचार माँ, सात फेरे ले चुके पति की परित्यक्ता, को अपने निर्दोष दो बेटों समेत बरसों आसरा दिया. वही मकान- जिसे उसने यहाँ-वहां नौकरी कर कर के रहने लायक ठीक-ठाक कराया और जो हम सब को अधेड़ कर के खंडहर हो गया, एकाएक!
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कृतज्ञ हूँ उस अपार-अपरिभाषित प्रेम का, जो आप लोगों ने हम लोगों से किया, शैय्यादान में मिलीं बाटा की अजर-अमर चप्पलों सहित!
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एक लेखक के बतौर मैंने खुद से वादा किया है- आप न तो कभी इस कहानी को पढ़ पाएंगे, न कभी आप के आंसू निकलेंगे!
इत्ती सारी कही-अनकही उदारताओं के बावजूद क्या मैं आप को यहाँ आ कर दुखी करूँगा, इत्ती छोटी सी बात के लिए,  मामाजी?

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  1. बेटियां कहानी विशेष पसंद आई. कहानी का स्वप्न और द्वंद्व उसे पाठक के करीब ले जाता है. अच्छी लघु कथाएँ.

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  2. कहानियाँ ,प्रभावपूर्ण द्रश्य हैं !

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  3. hemant ji ki ye kahaniya m padhta rahaa hu. pahle inke anukool khud ko dhalne me time lagaa. ek baar taslmel ho jaane ke baad lagaa ki ye kahaniya oopar se jo kahti lagti h....vh darasl ek parda h....ek seedhi h. apne andaaj me jo baatoonipan ye jaahir karti h...vh darasl behad karuna ka kona h. inhe aap vyangya...ya haasya ki rachna nahi kah sakte ye hamaari bhasha or jeevan me aayee vidambna ka .....trasdi ka....paakhand ka....jatil manovigyan ka...ek rachnaakar ka pralaap h. hemanji bahut kusalta se apni kahaniyo ko hidi jagat ki kahaniyo se door rakh unki apni jameen di h. ve FB ya paarty ke lekhak nahi h. isliye ve KB Vaid ki trh....apne srijan me aatmghati pal tak apne sasth...apna aap h. aisa hona idhar kum dikhta h. inke peeche ke inke sooksham addgyayan....manovigya ko nahi bisraya ja sakta.
    hemant ji tastkalikta....lekahk sanghon ke dwara poshit lekhak nahi h.....jo apne ko kalaa me nahi bisraa saktaa....vh achha politician ho sakta h.....saadhak nahi. in kahaniyo ko padh bheetr ujaad kyon mahdoos hota ?
    kyon apni khaal ka namak rus deta h?
    kyon apna nastar man mohta h?
    kyon kahane ka andaaj n kah sakne ka mantr bun jaata h?
    kayee rachnaaye lekhak ke marne ka intjaar karti h....mera naam joker....paakeeja ki trh.
    barson baad hum sok sabha me un alakshit rahi chejon ko us kalaakaar ka mahaan kaam ghoshit kr sradhanjali dete h.
    sorry...roman me likhne ke liye. miri seema h. or samaalochan.....ko bhi.
    aapne aaj buniyaadi kaam kiya h.

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  4. Rajeshkumar Shukla ·6 अग॰ 2012, 10:36:00 pm

    gayab ghar kahani shahree samaj ke ativipanna varg ke abhav,santras aur vidambana ko reportas andaz me vyakt karti hai parantu yah apni drishti aur samvedna aur lakshana ke karan marmsparshee prabhav utpanna karti hai...jhalak kahani me na
    ri ke roop saundarya ke sammohan se upje atmnisth manovigyan ki sahaj sweekarookti atyant ruchikar hai...betiyan kahani me balman ki manodasha aur uske abhav ko fantasi ke madhyam se apni niji putri se jodkar atyant marmik aur prabhavi chitran kiya hai..apne kathya aur shilp me ye laghu kahaniya ek naveenta ka ehsas karati hai...badhai...rajesh kumar shukla

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  5. हेमंत शेष ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे जितने उत्कृष्ट कवि हैं, उतने ही अच्छे कथाकार भी हैं. उनकी ये कहानियां आम कहानियों की परिभाषा और बुनावट से अलग अपना स्वतन्त्र शब्द संयोजन तय करती हैं और लेखन की इस विधा को एक नया मुहावरा सा देती दिखती हैं. मैंने शायद इसी कथा संग्रह से अन्यत्र प्रकाशित दूसरी कहानियां भी पढ़ी हैं जो इतनी ही दिलचस्प और जादुई शब्द विन्यास से चमत्कृत करने वाली हैं. मेरा विश्वास है कि ये सारी कहानियां लघु-कथाओं में एक अलग शैली की स्थापना करेंगी.
    इन कहानियों से रूबरू कराने के लिए आपका धन्यवाद.
    कमलानाथ

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  6. अगर अरुण देव इत्ता बेहतरीन संपादन न कर रहे होते तो शायद ये कहानियां यहाँ नामुमकिन थीं...आप का आभार

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