परिप्रेक्ष्य : गणेश पाण्डेय : कविता की पृथ्वी




वाद विवाद से संवाद की ओर जाना होता है पर जब विवाद व्यक्तिवाद के जंगल में हिस्र हो जाए और आरोप – प्रत्यारोप के पीछे ईर्ष्या, कुंठा और ‘ठिकाने लगाने की’ बनैली इच्छाएं काम करने लगे तो संवाद की  संवादहीनता का खतरा पैदा हो जाता है. देखना यह भी है कि आलोचना विनाश के लिए है या विकास के लिए. कान्हा प्रकरण पर कवि-आलोचक गणेश पाण्डेय ने प्रवृतिओं को ध्यान में रखा है. एक हस्तक्षेप.
(वैसे तो गणेश पाण्डेय ने युवा पीढ़ी को ध्यान में रखा है पर ये प्रवृतियाँ  कमोबेश सर्वत्र  हैं)


कविता की पृथ्वी पर लौट आओ साथियो...

गणेश पाण्डेय


दोस्तो, कुछ लोग नेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहते हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि फिर कागज पर जो दुनिया होती है, वह क्या है ? वह आभासी नहीं है. सचमुच की है. सचमुच की है तो कागज फट नहीं जाएगा ? कागज लोहे का है क्या ? कितना मजबूत लोहा है कि पृथ्वी का भार संभाल लेगा ? इसे छोड़िए,ये साहित्य भी क्या सचमुच की दुनिया है ? ठोस भी, तरल भी, जिसे इंद्रियों से अनुभव कर सकें ? फिर नेट की दुनिया ही आभासी क्यों ? बाकी दुनिया आभासी नहीं है क्या ? उसे छूकर और देखकर नहीं जान सकते हैं क्या ? जीवन नेट पर नहीं है क्या ? कोई समाज नेट पर नहीं है क्या ? विचार और समय की आवाजाही नेट की दुनिया में नहीं है क्या ? मेरे डिपार्टमेंट के कुछ नेट विरोधी दाएँ बाजू के नन्हे विचारक इतना तो मार्क्सवाद को तुच्छ नहीं समझते हैं, जितना इस कथित आभासी दुनिया को. मार्क्सवादी आचार्य भी इसे कौतुक की दृष्टि से देखते हैं, वे खुद भी जो एक कौतुक ठहरे. बहरहाल,कहना यह है कि यह दुनिया आभासी है या विश्वासघाती, इसके चक्कर में नहीं पड़ना चाहता. सिर्फ अपनी बात कहना चाहता हूँ. जो कहना है, उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं.

मसलन, आज ही खरा कहने का दावा करने वाले खरे जी का एक मेल आया है. दूसरे मित्रों के पास भी गया होगा. उसमें एक जंगल में बैठ कर कविता की बात करने पर सख्त सजा दी गयी है-कुछ उम्रकैद जैसी. गनीमत यह कि उसी जंगल में ही उम्र कैद नहीं दे दी गयी है. मेरा ख्याल है कि इसके बाद अब किसी और सजा की जरूरत नहीं है. हालाकि मुझे भी मेरे शहर के कुछ लोग मेरी आक्रामता की वजह से पसंद नहीं करते हैं. यह अलग बात है कि उनके लिए जो भाषा और तेवर शाकाहारी नहीं है अर्थात भूसे की तरह बेजान और प्रभावहीन नहीं है, सब खराब है. उनके लिए खराब का मतलब आग्रहपूर्ण होना या बेइमानी करना नहीं है. लेकिन मैं जिन अर्थों में मेल से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ, उसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि वह लेख की शक्ल में तार्किक कम और खबर की शक्ल में चटपटा अधिक है. उस लेख में क्या है, यह बताना यहाँ प्रयोजन नहीं है. मैं क्या सोच रहा हूँ, इससे मुझे सरोकर है.

नेट पर हाल ही में उस कविता कांड पर काफी कुछ कहा गया है. पक्ष और विपक्ष आप से आप फाट पड़े. सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठ. एक आयोजन जंगल में हुआ, कुछ लोग वहाँ गये और कुछ लोग वहाँ इसलिए नहीं गये कि उन्हें वहाँ बुलाया नहीं गया. लीलाधर मंडलोई  मित्रों के मित्र हैं. इलाहाबाद से कोई बुलाया गया और गोरखपुर से कोई नहीं बुलाया गया ? पर हे मित्रो शपथपूर्वक कहता हूँ कि मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगा. क्योंकि मैं जानता था कि वहाँ से कविता की कोई गंगोत्री नहीं फूट रही है कि पहुँच जाऊँ या न पहुँच पाने का कोई अफसोस करूँ. बहुत से अच्छी कविता करने वाले मित्र वहाँ नहीं शामिल थे. जो थे सब अच्छे ही थे, ऐसा भी नहीं. यह अलग बात है कि विजयकुमार और मंडलोई और दूसरे लोग वहाँ थे. इसलिए यह भी मानने में दिक्कत है कि सब वहाँ खराब ही हुआ होगा. कविता पर ढ़ंग से बात नहीं की गया होगी, यह स्वीकार करना मुश्किल है. पर मुश्किल कुछ और है. मुश्किल यह कि वहाँ हुआ क्या-क्या और बाहर आया क्या-क्या ? कई कवयित्रियों ने वहाँ के फोटो थोक में नेट पर आभासी दुनिया में जारी किए तो लगा कि बस वहाँ सिर्फ और सिर्फ यही हुआ. यह तो किसी ने ढंग से ब्योरेवार बताया ही नहीं कि वहाँ कविता पर यह-यह बात हुई या इन-इन अच्छी कविताओं का पाठ हुआ. बहस के नतीजे क्या रहे ? कोई एजेंडा तय हुआ या नहीं ?   जहाँ तक आभासी दुनिया को पढ़ना सीख पाया हूँ, हुआ यह कि इन फोटो-फाटो से संदेश दूसरा गया और (शायद) लोगों ने समझा कि वहाँ सब अंभीर हुआ. अरे भाई अगंभीर तो दिल्ली में भी किया जा सकता था. इतने बड़े समूह में इतनी दूर जाकर अगंभीर करने की क्या जरूरत थी ? यह कोई पिकनिक था तो पिकनिक पर तो कोई भी कहीं जाए, क्या फर्क पड़ता है. यह फर्क पड़ा क्यों ?

एक दूसरी विचारधारा का आदमी जाकर कुछ खराब किया तो अच्छी विचारधारा वालों ने वहाँ क्या अच्छा किया, यह बताना नहीं चाहिए था ? बताने में यह कमी कैसे हुई ? आभासी दुनिया में जैसे अंतरिक्ष में कोई भिड़ंत हो, एक भिड़ंत हो गयी. कहें कि भिडंत भी अकेली नहीं, टक्कर पर टक्कर हाल ही में पृथ्वी के नीचे प्रयोगशाला में हुई महाटक्कर जैसी. एक दिन, दो दिन, कई दिन. पक्ष और विपक्ष. जैसे होड़ लग गयी हो विचार व्यक्त करने में. मेरे जैसे आदमी की मुश्किल यह कि कोई उम्र में बीस साल छोटा तो बारह-पन्द्रह साल छोटा. करूँ तो क्या करूँ ? कविता को लेकर आग लगी हो तो दूर बैठ कर तमाशा कैसे देखूँ ? हालाकि वहाँ जाने वाले कुछ मित्र भी चुपचाप तमाशा देख रहे थे. इसे उनकी कविता के प्रति प्रतिबद्धता और साहस की कमी कह सकते हैं. पर यह कहना यहाँ प्रयोजन नहीं है.

प्रयोजन बहुत सीधा-सा है. वाद-विवाद का तूफान थम गया है. छोटे-बड़े महारथी वापस लौट चुके हैं. पर प्रश्न...सामने है. बहस के बीच एक जगह मुझे न चाहते हुए भी कहना पड़ा कि ‘‘ मैं कुछ कहना तो नहीं चाह रहा था. कहता भी तो शायद आगे किसी लेख में. पर इस विवाद में मेरे कई मित्र शामिल हैं. उनमें से कुछ के बीच पहली बार साहस की झलक देखने का अवसर मिला है तो कुछ मित्र अपने पक्ष को लेकर काफी नाराज दिख रहे हैं. ऐसे में मेरी कोशिश है कि इस आग पर थोड़ा-सी राख या बालू या पानी पड़ जाय तो बेहतर. चाहता यही हूँ कि सब कविता की प्रतिष्ठा को सबसे ऊपर समझें. अपने दुख को क्रम से कहना चाहूँगा.

1-युवा पीढ़ी ऐसे आयोजनों में यदि अपनी सार्थकता का अनुभव करती है, तो मुझे दुख है.
2-युवा पीढ़ी कविता का भविष्य कविता से इतर गतिविधियों में ढ़ूँढ़ती है, तो मुझे दुख है.
3-युवा पीढ़ी अपने समय के महाजनों के पथ पर चल कर अपनी मुक्ति चाहती है तो मुझे दुख है.
4-युवा पीढ़ी कविकर्म के फल या कविता के प्रयोजन के रूप में यश और चर्चा को स्वीकार करती है, तो मुझे दुख है.
5-युवा पीढ़ी कविता लिख देने के बाद अलग से प्रमोशन के लिए सक्रिय होती है, तो मुझे दुख है. (यहाँ बात साफ कर दूँ कि कविता लिखने के बाद कवि सम्मेलन में पढ़ने का उपक्रम कविता को राजाओं के दरबार से निकाल कर जनता के बीच ले जाने के लिए हुआ था.)
6-युवा पीढ़ी अपनी कविता में अपनी बात कह नहीं पा रही है, तो मुझे दुख है.
7-युवा पीढ़ी कविता के लिए अपने भीतर गहरे में प्रेम का जज्बा नहीं पैदा नहीं कर पा रही है तो मुझे दुख है.
8-युवा पीढ़ी कविकर्म की विफलता से डर रही है तो मुझे दुख है.
9-युवा पीढ़ी अपने को कविता का कलगीदार मुर्गा समझ रही है कि उसके बाँग देने से ही कविता का भला होगा, तो मुझे दुख है.
10-युवा पीढ़ी कम महत्व की रचना से कविता का विश्वविजय करना चाहती है ,तो मुझे दुख है.
11-युवा पीढ़ी सिर्फ और सिर्फ अपनी बात को ही सच मान रही है, तो मुझे दुख है. इन छोटे-छोटे दुखों के बाद कुछ बड़े दुख भी हैं-

(1)‘संगमनके कार्यक्रम को युवा पीढ़ी कोई बहुत जरूरी उपक्रम समझती है तो मुझे दुख है. एक बार कुशीनगर में संगमन का कार्यक्रम किया गया था, जिसमें मैं इसलिए नहीं जा पाया कि उस कार्यक्रम में ऐसे लोगों को महत्वपूर्ण बनाया गया था, जो लेखक ही नहीं थे. कुछ तो औसत से भी कम थे. मेरी प्रियंवद से फोन पर बात भी हुई थी. उन्होंने आश्वस्त भी किया था कि वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो स्तरीय न हो. लेकिन हुआ वही. आशय यह कि संगमन में न जाने के बाद भी मैं कथारचना करना भूल नहीं गया.
(2)- कथाक्रम के आयोजन में गोरखपुर से जो कथाकार और आलोचक जाते रहे, उनसे बहुत खराब उपन्यास या आलोचना नहीं लिखा है.
(3)-कोई बीस-पच्चीस साल से हंस नहीं देखता हूँ, फिर भी कथालेखन भूल नहीं गया.

बड़ा दुखः
1-यह कि युवा पीढ़ी अपने ऊपर भरोसा कब करेगी ? कब तक कविता या साहित्य के शार्टकट पर अमल करेगी ?
2-यह कि अपने समकालीन मित्रों के बीच अहंकार और ईर्ष्या-द्वेष की भावना से काम करेगी ?
3-यह कि युवा पीढ़ी बच्चों जैसी अगलीसीट पर बैठने की जिद कब तक करेगी. (मैंने तो दिल्ली जाने वाली सारी सुपरफास्ट गाड़ियों को छोड़कर साहित्य की सबसे धीमी गति से चलने वाली माल गाड़ी पर बैठ कर सफर करना मुनासिब समझा है, भाई).

यह सब कहने का आशय अपने को महान बनाने की बेवकूफी करना नहीं है. बस यह चाहता हूँ कि अरे मेरे युवा बड़े-बुजुर्ग, आप लोग अब आपस में यह सब बंद करो. साथ रहकर कविता का काम नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं भाई. अलग-अलग रह कर कविता का काम करो. इसमे बुरा क्या है ? पर यह याद रखो कि ईमानदारी से अपना काम करो. यह पहले तय कर लो युवा दोस्तो कि तुम कविता का भला चाहते हो कि सिर्फ अपना भला ? कविता की प्रतिष्ठा समाज में चाहते हो कि कविता के नाम पर अपनी प्रतिष्ठा ? यह सब मैंने शास्त्रार्थ के लिए नहीं कहा है. जिसे मेरी बात अच्छी न लगे, अपना गुस्सा थूक दे और मुझे कविता का बुरा आदमी समझ कर क्षमा कर दे.’’ जहिर है कि मेरी इस टिप्पणी से मेरे कुछ युवा मित्र दुखी भी हुए होंगे. पर उनका बड़प्पन यह कि मेरी इस टिप्पणी पर कुछ बुरा-भला नहीं कहा. सच तो यह कि अब मुझे अनुभव हो रहा है कि इस आभासी दुनिया में हर समय विचार वमन खतरे से खाली नहीं है. खतरे से मैं डरता नही पर खतरे में लेखक समाज पड़ जाय, इससे डरता हूँ. हमारे युवा मित्र आपस में भिड़ंत करके लहूलुहान हो जाएँ. एक-दूसरे को देखना न पसंद करें. एक-दूसरे की जड़ में मट्ठा डालने लगें, तो जाहिर है कि ऐसे में मेरा मन बहुत दुखी होगा. अरे भाई बड़े-बुजुर्ग तो यह सब कर ही रहे हैं, गुरु तक शिष्यों का हत्याकांड करने में लगे हुए हैं-

पहला बाण
जो मारा मुख पर
आँख से निकला पानी.
दूसरे बाण से सोता फूटा
वक्षस्थल से शीतल जल का.
तीसरा बाण जो साधा पेट पर
पानी का फव्वारा छूटा.
खीजे गुरु मेरी हत्या का कांड करते वक्त
कि आखिर कहाँ छिपाया था मैंने
अपना तप्त लहू.
(गुरु सीरीज)

हमारे छोटे मित्र भी आपस में यही सब करने लगेंगे तो फिर कविता देवी का क्या होगा ? अरे भाई स्वाभिमानी लोग अपने आकाश से तनिक नीचे आओ कविता की धरती पर. अपने उन साथियों को देखो जिनके गले में तुम्हारी बाहें अब तक झूल रही हैं. वे तुमसे कुछ पूछ रही हैं ? कविता का सम्मान क्यों तुम्हारे अपने सम्मान से कम है ? मेरे युवा मित्र न नाराज हों तो जानना चाहूँगा कि पृथ्वी का बुरे से बुरा आदमी भी क्या कविता की अच्छी किताब को छूने का अधिकारी नहीं है ? क्या आप कर्फ्यू लगा देंगे कि मुक्तिबोध की कविता को कोई दक्षिणपंथी छुएँ नहीं या कक्षाओं में पढ़ाएँ नहीं ? यह तो अधिक हो जाएगा भाई. ज्यादती है. यह ठीक है कि आप अपनी प्रतिबद्धता के नाते ऐसे लोगों के साथ कविता के मंच पर नहीं बैठना चाहते हैं. हम आपकी इस भावना का सम्मान करते हैं. लेकिन इसका अर्थ क्या यह है कि फिर कोई बात ही नहीं. कविता का काम ही बंद कर दिया जाय. मित्र लोग शत्रु हो जाएँ ? अरे भाई टकराने के लिए अपने मित्र नहीं होते. टकराने के लिए हिंदी के दुश्मन क्या कम हैं ? मित्रों की आलोचना करें, ऐसे टकराएँ नहीं कि उनका रामनाम सत्य हो जाए. कहीं कुछ गलत दिखे तो उन्हें खूब डाँटें. पर प्यार से. यह मैं इस पीड़ा से दो-चार होते हुए कह रहा हूँ कि मेरा एक प्यारा दोस्त इधर यहाँ मुझसे नाराज है. अरे भाई छूटने वाले दाग के लिए शर्ट फाड़ देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? कम से कम कविता के अँगरखे को नुकसान न पहुँचाओ कविता के युवा साथियो! मेरी प्रार्थना सुन लो! लौट आओ.......
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गणेश पाण्डेय
प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दी.द.उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
संपादक: यात्रा साहित्यिक पत्रिका
ई पता: yatra.ganeshpandey@gmail.com

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  1. यह कि युवा पीढ़ी बच्चों जैसी अगली सीट पर बैठने की ज़िद कब तक करेगी.

    मालगाड़ी की यात्री को यह बात पसंद आयी.

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  2. आपके दुःख में हम अपना दुःख भी शामिल करते है , और उस प्रार्थना में भी , जों व्यर्थ नहीं जायेगी , ऐसी उम्मीद करता हूँ | कल इस मुद्दे पर 'सबद'में विष्णु खरे का लेख पढ़ा था , और आज 'समालोचन'पर आपका | इन दोनों लेखों को पढकर इस अंतर को समझा जा सकता है , कि हम अपने परिदृश्य को 'बदतर' बनाने के लिए लिख रहे हैं, या उसे 'बेहतर' बनाने के लिए ...| मेरी राय में प्रत्येक युवा कवि को आपके 'दुखों के क्रम की सूची' अपने पास रखनी चाहिए |मैं तो इसे संभालकर रखता हूँ ...| बहुत आभार सर आपका इस शानदार लेख के लिए |

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  3. प्रो0गणेश पांडेय जी ने अत्‍यंत चिंतातुर होकर कविता पर दो टूक बातें कही हैं। बधाई। वाद विवाद संवाद साहित्‍य की अंतर्धारा के अनिवार्य अंग हैं। इससे साहित्‍यिकों के स्‍वास्‍थ्‍य पर अनुकूल असर पड़ता है। चिंता की कोई बात नही है। पांडेय जी भले शाकाहारी हों,उनकी बातें गैरशाकाहारी नही हैं, उसमें समकालीनता के गुरूर में खोए कवियों पर सनातनता की फटकार है। उनकी बात कोई हँसी में न उड़ाए इसके लिए कविवर गुलाब खंडेलवाल का एक शेर पेशेखिदमत है:

    उसे अपने मन के गुरूर से न सुना किसी ने तो क्‍या हुआ?
    वो ग़ज़ल किसी से तो कम न थी जिसे हम सुना के चले गए।

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  4. बिलकुल निष्पक्ष होकर आपने अपनी बात रखी है .. दरअसल इर्ष्या ही वह हथियार है जिससे व्यक्ति दूसरों को मारने का सपना देखता है लेकिन अंततः आत्महंता बन जाता है..लेकिन इसमें किसी की भी हत्या हो कविता का घायल होना निश्चित ही है.. आभार गणेश सर बहुत साफगोई से बिना लाग लपेट आपने सीधी सीधी बात कह डाली

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  5. सचमुच अफ़सोस हुआ यह सब जान कर .........चिंता होना स्वाभाविक है जब युवा पीढ़ी सिर्फ अपने बारे में सोचने लगे और मेहनत का मार्ग छोड़कर शोर्ट कट का रास्ता अपनाने लगे .....आगे बढ़ना है तो राह बनाओ .दुसरे की रह रोक कर कोई आगे नहीं बढ़ पाया आज तक ........बहुत ही सार्थक शिक्षाप्रद लेख .

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  6. लाजवाब गणेशजी। मेरे दुख भी लगभग वही हैं, जिन्‍हें आपने सूचीबद्ध् किया है, बल्कि दो चार और जोड़ देने की इच्‍छा होती है। उस बहस में भी मैं यही कोशिश करता रहा कि वह अप्रिय और मनमुटाव के मुकाम तक न जा लगे, पर तय यही हो तो कोई क्‍या कर लेगा। आयोजनों का उद्देश्‍य सिर्फ आयोजक का सुख होकर रह गया है, साहित्‍य संस्‍कृति का क्‍या भला होना है, उसके बारे में आश्‍वस्‍त होकर कहना मुश्किल है, सरकारी आयोजन आवंटित वित्‍तीय संसाधनों का उपयोग कर लेना भर होकर रह जाते हैं, ऐसे में कम से कम लेखक मित्र आपसी सद् भाव को बनाये रख सकें। तो बेहतर है। सारी संघर्ष शक्ति यहीं चुक जा रही है, ये वाकई दुखद है।

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  7. बहुत सुचिंतित-सुविचारित लेख. तीन श्रेणियों में रखे गए उनके सत्रह बिंदु एक अत्यंत गंभीर और आवश्यक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की तरह हैं. आत्म-प्रदर्शक फ़ोटोप्रेमी कवियों की उन्होंने अच्छी ख़बर ली है. उन्होंने एक सच्चे मित्र आलोचक की भूमिका अदा की है. यह दूसरी बात है कि "तुरत-प्रतिष्ठा-आकांक्षी" कवियों की युवतर पीढ़ी आलोचकों से कुछ और उम्मीद करती है.
    गणेशजी को मन से बधाई, साफ़गोई और बेबाक़ी को हर हाल में बनाए रखने के लिए.

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  8. नयी पीढ़ी के लिए बहुत कुछ... छूटने वाले दाग के लिए शर्ट फाड़ देना कहाँ की बुद्धिमानी है... बस यही सहिष्णुता और सम सीख जाएँ सब...

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  9. bahut aatmiyata or gambheerta se likha gaya dukh h.
    sach h hamare samaj me pratipaksh ke prati sahishnuta kum hoti ja rahi h. kasaab ko faansi dedo...ka nara batata h ki hamare bheetre sahaj dheeraj or vivek nyoon hota ja rahaa h.
    ab virodh
    i ko goli maarne ka time h.
    virodhi ki chaaya matr se apvitr hone ka bhav...asprishyta ka bhav bhi h.
    hamare nagar me to vivaah or anya kaam me sub saamil hote h...sabhi vicharon ke log.kya rss vale ki beti yadi kisi waam priya ke ghar h to use khaap ke tahat des nikala denge.

    is desh me n rss n waam ki atiwadi vichardhara chal sakti ....ye desh sahishnuta ke gaandhi marg pr hi chalega.
    itne barso tk ye vicharpriya log us boodhe Gandhi se ye n seekh sake.

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  10. इस लेख को मैं "युवा कवि के नाम सन्देश" कह कर पुकारना चाहता हूँ ... बड़े दिनों बाद किसी ने बिना खेमेबाजी के कुछ अच्छा कहा है (अथवा मैंने पढ़ा है) | कविता का एक छात्र होने के नाते गणेश जी को आदर और समालोचन को आभार !

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  11. गणेश जी एक जिम्मेवार लेखक और गरिमामय परम्परा के निर्वाहक तथा हिंदी कुनबे के वरिष्ठ सदस्य होने के नाते आपने बहुत सही,सहज और सार्थक टिप्पणिया की हैं। बात बहुत सीधी थी कि एक आयोजक ने, जो कविता का प्रकाशक भी है, एक आत्मीय आयोजन किया, जिसका कोई निश्चित एजेन्डा नहीं था। बस बात कविता सुनने-सुनाने और उस पर अनौपचारिक रुप से चर्चा करने की मनसा थी। ऐसे आयोजन दिल्ली में लगभग रोज़ ही होते हैं, पर अधिकांश कार्यक्रमों में दिल्ली से बाहर के कवि मित्र नहीं आ पाते हैं, इसलिए सोचा गया कि दिल्ली से बाहर एक आयोजन हो जहाँ बिना किसि पूर्वघोषित एजेन्डे के, बड़े सहज भाव से सभी ने आने की स्वीकृति देदी।
    एक बार में ही सारे कवियों को एक जगह बुला पाना शायद संभव न रहा हो इसलिए इसको साल में दो या तीन बार करने का प्रस्ताव था। फिर ऐसा ही कार्यक्रम कहानी पर करने की बात थी। हम सभी जानते हैं की हिंदी लेखन से और खास कर हिंदी कविता से किसी कवि का घर नहीं चलता। सभी किसी ना किसी अन्य काम में अपनी दाल-रोटी के लिए लगे हैं। ऐसे में एक दिल्ली या अन्य दूरस्थ स्थानों से नान ए सी थ्री टायर में, बरसात के समय जब कान्हा बंद हो जाता है और लगातार बारिश से बाढ़ की संभावनाओं के समय में चालीस हिंदी के वह कवि जो किसी न किसी समय में अपना योगदान हिंदी कविता में सिद्ध कर चुके हैं, अपनी तमम व्यस्तताओं और वहाँ पहुँच कर एवम रास्ते में हुई असुविधाओं के बाद बिना किसी चूँ चपड़ के तीन दिन रहे कविता हुई, उस पर बात हुई और सब विदा हो गए। ना कहीं किसी को कोई धन मिला, ना कोई मीडिया की चकाचौंध और पब्लिसिटी की बात दिखी। हाँ एक अनौपचारिक बात जो यहाँ भाग दौड़ में नहीं हो पाती, वह हुई। वहाँ उपस्थिति कवि युवा हो या वरिष्ठ किसी के मन में यह नहीं था की वहाँ जाकर वह कोई महाकवि का दर्ज़ा पा जाएगा। ऐसे भी कई महाकवि थे जिन्होने पहले अपना नाम दिया, सोविनियर में छपे और बाद में नहीं आए, कुछ अन्त तक पूछते रहे की कमरे ए सी हैं की नहीं। कार से आएंगे तो कितना भाड़ा मिलगा इत्यादि, उनकी भी बात होनी चाहिए, कुछ ऐसे भी हैं,जो पहले न नुकुर करते रहे, फिर कार्यक्रम सफल हो गया तो उन्हें चींटियां काटने लगी। यह उनका अपनी मनोवैज्ञानिक समस्या हो सकती है-कविता की समस्या नहीं है। सब समझदार हैं, जनते हैं कहां जाना चाहिए कहा नहीं।

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  12. एक महत्वपूर्ण व उत्तरदायित्वपूर्ण लेख। सब कुछ तोड़फोड़ देने की साजिशों के बीच भी `कुछ' बचाकर रखने की जिद्द ही `बहुत कुछ' बचा पाती है। कविता और साहित्य का जितना अनर्थ व्यक्तिगत सम्बन्धों ने किया है उससे अधिक ही व्यक्तिगत वैर और मानापमान की भावना ने किया है। इस लेख के निहितार्थ के साक्षात होने की कामना करती हूँ।

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  13. एक सुंदर आलेख जो पत्र सरीखा है। युवा पीढ़ी के प्रति आपकी चिंता अकारण नहीं है। इसका ठोस कारण आपने देने की कोशिश की है। लेकिन अंततः सवाल फिर से खुद पर भरोसा करने का आता है। कितने युवा वहां गए थे, उनकी क्या प्रतिबद्धता थी,उनका क्या स्तर था,उन्होनें कविता पर कितनी सार्थक बात की, उससे कविता के कुल का उसकी देवी का कितना भला हुआ,इसके बारे में तो आयोजन करने वाले,उसमें शरीक होने वाले,उस पर पैनी नजर रखने वाले औऱ वरिष्ठ लोग जाने जिनके अनुभवी अनुमान बड़े सटीक होते हैं।

    मैं बस एक बात कहना चाहता हूं कि चंद लोगों को कोई युवाओं का प्रतिनिधि मानने की हिमाकत कैसे कर सकता है, भारत में युवाओं की दुर्दशा पर बड़े-बड़े आलेख पढ़कर बड़ी हैरानी होती है। हमारे वरिष्ठ इतने चिंतातुर क्यों हैं? उनकी चिंता के चिंता होने पर भी संदेह होता है। वह पारंपरिक धाराप्रवाह भाषण सरीखा लगता है। जिसके बार-बार दोहरान से बासी होने का आभाष मिलता है। तो लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाना चाहिए। चाहे वे किसी भी उम्र के हों। संवादहीनता के साम्राज्य को बनाए रखने में वरिष्ठ जनों की खेमेबाजी और प्रतिबद्धताओं के खूंटे ने ज्यादा अड़ंगा लगाया है। आपकी इस बात से सहमत हूं कि सबको सभी धाराओं के लोगों को पढ़ना चाहिए। उस पर बात और संवाद करना चाहिए।
    दुनिया में जितनी किताबें हैं औऱ रोज-बरोज लिखी जा रही हैं। हम ढेर सारा साहित्य बिना पढ़े जहां से जाने वाले हैं। तो खेमेबाजी के कारण लेखकों के आपसी झगड़ों को समझदार नादानी की संज्ञा दी जा सकती है। एनसीईआरटी के आठवीं क्लॉस में एक वरिष्ठ साथी का लिखा हुआ पाठ हैं....जिसका नाम है "क्या निराश हुआ जाए.".। पाठ के चयन पर एनसीईआरटी के पाठ चयन कमेटी को बुरा-भला सुनाया जा सकता है। लेकिन पाठ को पढ़ते हुए पता चलता है कि कौन ज्यादा निराश है ? काबिल-ए-गौर बात है कि आशावाद का थोथा पाठ पढ़ाने वाले पाठ की पंक्तियों से बूंद-बूंद रिसती निराशा...बालमन को अपने चपेटे में लेती है।
    अंत में एक बात कहना चाहुंगा कि युवा पीढ़ी को लेकर निराश न हो। जिंदगी अभी खत्म नहीं हुई है....।

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  14. गणेश पांडेय जी ने दिल की सारी बातें कह दी उसके आगे जोडने को कुछ नहीं बचता है.........

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