मति का धीर : डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल











हंस के एक अंक में राजेन्द्र यादव ने प्रत्येक प्रदेश के प्रतिनिधि बौद्धिक की चर्चा करते हुए डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल का नाम उत्तर –प्रदेश से लिया था. कहीं पढा था कि प्रो. नामवर सिंह काशी हिंदू विद्यालय में इतिहास पढ़ने गए थे पर जब उन्हें पता लगा कि विश्वविख्यात इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल पटना चले गए हैं तब उन्होंने हिंदी में प्रवेश लिया. सरस्वती  में महावीरप्रसाद द्विवेदी  बड़े सम्मान से काशी बाबू को याद करते हैं. रामचन्द्र शुक्ल से उनके रिश्ते को लेकर भी कही-कही कुछ देखने को मिल जाता है.
पर हिंदी में डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल को लेकर अजब चुप्पी है. न उनके इतिहासकार की चर्चा होती है न उनके साहित्यकार की. यह आलेख इस उम्मीद से की बात आगे बढ़े. युवा इतिहासकार डॉ. कृष्ण कुमार मंडल का शोध आलेख. 



डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल की इतिहास दृष्टि                



काशी प्रसाद जायसवाल का जन्म 27 नवम्बर, सन् 1881 को मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) में एक सम्भ्रान्त वैश्य परिवार में हुआ था. उनके पिता साहु महादेव प्रसाद जायसवाल मिर्जापुर के एक बड़े व्यापारी थे. बिहार में भी उनका लाखों का कारोबार था. जायसवाल जी की कर्मभूमि बिहार रही और अन्त में उनका देहान्त भी बिहार की राजधानी पाटलिपुत्र में हुई.

जायसवाल जी की प्रारंभिक शिक्षा मिर्जापुर के लन्दन मिशन (आजकल बाबूलाल जायसवाल) हाई स्कूल में हुई. एन्ट्रेंस पास करने के बाद बनारस के क्वीन्स कालेज में आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनका नाम लिखाया गया. एफ०ए० तक वहाँ उन्होंने शिक्षा पायी किन्तु बाद में पढ़ाई छोड़ दी. कुछ वर्षों तक वे पिता का कारोबार देखते रहे पुनः 4 अगस्त 19060 को विलायत के लिए रवाना हुए और आक्सफोर्ड के जीसस कालेज में दाखिल हुए. वहाँ उन्होंने चीनी भाषा का अध्ययन किया और विश्वविद्यालय में डेविस छात्र  (डेविस स्कालर) रहे. सन् 19090 में आनर्स के साथ इतिहास में एम०ए० की उपाधि प्राप्त की; 19100 में लिंकन इन  से बैरिस्ट्री पास की और उसी साल जुलाई में भारत लौट आये. सर आशुतोष मुखर्जी, जो उन दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे, ने उन्हें अर्थशास्त्र एवं इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त किया था. यद्यपि उनकी नियुक्ति पर सरकार ने रोक लगा दी. इसके पहले उन्होंने कलकत्ता में प्रैक्टिस शुरू किया था लेकिन उसमें उनका मन नहीं लगा.



बिहार के अलग प्रान्त बनने के बाद सन् 1914 में वे पटना चले आये तथा प्रैक्टिस में मन लगाने की कोशिश करने लगे. सन् 1915 में भारतीय इतिहास के गंभीर शोध के लिए बिहार-उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी  की स्थापना की गई. जायसवाल जी उसके संस्थापकों में से एक थे. बाद में वे इस संस्था के और उसके जर्नल के लिए प्राण बन गए. जायसवाल जी के संपादन में प्रकाशित बिहार-उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी जर्नल का स्थान अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गया. . सन् 1917 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में टैगोर-ला प्रोफेसर नियुक्त हुए और मनु और याज्ञवल्क्य के नाम से उनके अंग्रेजी व्याख्यान प्रकाशित हुए. भारत के प्राचीन विधान-सम्बन्धी साहित्य में उनके इस ग्रंथ का सर्वाधिक महत्त्व है.



भारतीय इतिहास में 19050 से आगे का काल उग्रपंथी राजनीति का काल था. बंगाल और महाराष्ट्र में क्रांतिकारी संस्थाओं का जाल बिछा हुआ था. इस आन्दोलन पर हिन्दू पुनरुत्थानवाद का रंग चढ़ा हुआ था. इन संस्थाओं के नाम से ही अतीत संस्कृति के प्रति इनके प्रेम का भान होता है. दृष्टान्तस्वरूप, 19050 में जो अनुशीलन समितिस्थापित हुई  उसका अर्थ ही संस्कृति और शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाली समिति है. इन संस्थाओं से काशीप्रसाद जायसवाल का कोई संबंध था या नहीं, कोई साक्ष्य नहीं है, किन्तु बंगाल की सरकार ने उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में अपने पद से त्यागपत्र देने को बाध्य कर दिया था जिससे सूचित होता है कि वह उन्हें राजद्रोह की प्रचारशालाओं  का एक संभाव्य भावी सहयोगी मानती थी. प्राचीन भारतीय राज्यव्यवस्था पर रची गई महानतम कृति हिंदू पालीटी  के लिए भारत-विद्या (इंडोलाजी) स्वर्गीय काशी प्रसाद जायसवाल की ऋणी है.


भारतीय इतिहासलेखन के प्रवृत्तियों के दृष्टिकोण से 1920-1930 वाले दशक में लिखने वाले इतिहासकारों पर राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रभाव था, जो उनके ऐतिहासिक चिंतन में प्रतिबिंबित हुआ. काशी प्रसाद जायसवाल जैसे विद्वान मुख्य रूप से राजनीतिक और राजवंशीय इतिहास लिखते रहे, परन्तु उनकी व्याख्याएँ उन्होंने राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से की हैं. उन्होंने भारतीय अतीत को महिमामंडित किया है. इस प्रकार का महिमामंडन साम्राज्यवादी इतिहासलेखन की प्रतिक्रिया था और राष्ट्रीय आत्मसम्मान की भावना जगाने के लिए एक आवश्यक कदम भी. भव्य अतीत अपमानजनक वर्तमान की भरपाई करता था.

काशी प्रसाद जायसवाल ने प्राचीन भारत का चित्रण अपेक्षाकृत अपरिवर्तनशील  समाज के रूप में किया. यद्यपि उन्होंने जमीन में निजी स्वामित्व की बात कर एशियाई उत्पादन प्रणाली को खंडित भी किया. उनकी दृष्टि में स्थिरता का आधार प्राचीन आर्य संस्कृति थी. इसलिए साहित्यिक स्रोतों के काल को यथासंभव अधिक से अधिक पीछे ले जाने की कोशिश की और यह दिखलाया कि भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल और सार्थक पक्ष पूर्णतः देशी मूल के थे. भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक रूप में विश्लेषण किया गया और कहा गया कि यह भौतिकवादी पाश्चात्य सभ्यता के विपरीत थी, इस आधार पर निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति पश्चिम संस्कृति से श्रेष्ठ थी. राष्ट्रवाद से प्रभावित ऐतिहासिक व्याख्या की एक और विशेषता अतिप्राचीन काल से ही देश की राजनीतिक एकता पर जोर देने की प्रवृत्ति थी एवं प्राचीन भारत में गणतंत्र एवं मंत्रीपरिषद आदि की अस्तित्व की बात की प्रासंगिकता पर बल दिया गया, जिससे राष्ट्रीयता की विचारधारा को बल मिला. काशी प्रसाद जायसवाल की रचनाओं में भी ये बातें स्पष्ट रूप से दिखती हैं.

इनके इतिहास लेखन में प्राचीन काल को भरपूर समृद्धि एवं सामान्य संतुष्टि का काल मानने की प्रवृत्ति हावी थी जिसपर भारतीय का गर्व करना उचित था. लेकिन औपनिवेशिक काल-विभाजन पर कोई विशेष आपत्ति उठाए बिना स्वीकार कर लिया गया और हिन्दू/प्राचीन तथा मुस्लिम/मध्यकाल के बीच तीव्र भेद की दीवार खड़ी कर दी गई. उनके दृष्टिकोण में असली भारतीय सांस्कृतिक रूप हिन्दुत्व ही था. भारत की सभी खूबियाँ देशी मूल की थी. इस तरह की ऐतिहासिक व्याख्या जिसे हिन्दू राष्ट्रवाद से प्रेरित कहना ही सबसे उपयुक्त होगा, आज के ऐतिहासिक लेखन में भी प्रभावशाली धारा के रूप में विद्यमान है.

साहित्य एवं इतिहास के बीच सम्बन्ध इनकी इतिहास लेखन विधा की एक महत्वपूर्ण विशेषता है. जायसवाल जी का राहुल जी एवं दिनकर जी से गहरे सम्बन्ध थे. जायसवाल जी इतिहास को साहित्य से अलग नहीं मानते थे. उनके अनुसार साहित्य की परिभाषा व्यापक है. उस परिभाषा के अन्तर्गत इतिहास को भी साहित्य का अंग मानते थे. जब वे लंदन में थे, तब लन्दन म्यूजियम में एक ऐसे कवि का परिचय उन्हें मिला, जिसके संबंध में हिन्दी संसार को कुछ भी ज्ञात नहीं था, उस कवि का नाम था घनानन्द. आज के आलोचक मानते हैं कि घनानन्द प्रथम कोटि के कुछ ही कवियों के बीच रखे जा सकते हैं. घनानन्द और उनके साहित्य को हिन्दी वालों को देकर जायसवाल जी ने हिन्दी की बड़ी सेवा की है. उनकी यह सेवा सोने के अक्षरों में अंकित करने योग्य है.

जायसवाल जी ने विलायत-यात्रा का विवरण सरस्वती में लिखा था. सरस्वती में उनकी हिन्दी कविता भी निकली थी. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इन निबन्धों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी. हिन्दी साहित्य की उनकी सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को लगभग 250 वर्ष पीछे बढ़ाया है. इतिहास के पंडित मानते थे कि हिन्दी साहित्य का आरंभ लगभग 10000 के आसपास है. प्रथम बार उन्होंने अपनी खोज और अनुसंधान द्वारा यह प्रमाणित किया कि हिन्दी का आरंभ 7500 से माना जा सकता है. एक बार जार्ज ग्रियर्सन ने उन्हें लिखा था कि पूर्वी भारत पर, जिसका संबंध बिहार से है, कोई ग्रंथ नहीं मिलता. इसके जवाब में उन्होंने खोज कर पुरानी पूर्वी हिन्दी का अविच्छिन्न इतिहास और उदाहरण सन् 7500 से प्रस्तुत कर दिया. उनकी ही प्रेरणा से महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अतिप्राचीन हिन्दी साहित्य का शोध किया. राहुल जी ने यह स्वीकार किया है कि उनका शोध जायसवाल जी के सहयोग के बिना कभी भी पूरा नहीं होता. जब वे कलकत्ता छोड़कर पटना आये, उन्होंने साप्ताहिक पाटलिपुत्र का कुछ महीने संपादन भी किया था. उनका देहावसान 4 अगस्त, 19370 को हुआ.

भारतीय विद्वत्मंडली उनका सम्मान करती थी, और पश्चिमी विद्वान भी उनकी खोजों का लोहा मानते थे. सन् 1930 में गायकवाड़ स्वर्ण-जयन्ती व्याख्याता  (Golden Jubilee Lecturer) के सम्माननीय पद से सम्मानित किये गये थे. उनसे पहले केवल रवीन्द्रनाथ ठाकुर को ही यह गौरव प्राप्त हुआ था, और विज्ञानाचार्य रमन तीसरे व्यक्ति थे, जिन्होंने इस सम्मान को पाया. इसी साल वे ओरियन्टल कान्फरेन्स, पटना के स्वागताध्यक्ष हुए थे. सन् 1931 में वे पटना-म्यूजियम के प्रेसिडेन्ट बने और अन्त तक रहे.

सन् 1933 में वे बिहार-प्रान्तीय साहित्य सम्मेलन के भागलपुर अधिवेशन के सभापति हुए थे. उस वक्त उन्होंने चैरासी सिद्धों की हिन्दी कविता पर एक सुन्दर भाषण दिया और डा. ग्रियर्सन ने सिद्धों की कविता (8000) का होना स्वीकार कर लिया. सन् 1934 एवं 1936 में वे दो बार भारतीय मुद्रा-समिति (Numismatic Society of India) के सभापति हुए. वे पहले भारतीय थे, जिनका व्याख्यान लन्दन की रायल एशियाटिक सोसाइटी ने अक्टूबर, 1935 में मौर्य सिक्काविषय पर कराया था. पटना और काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टर आफ लिटरेचरकी उपाधि देकर उन्हें सम्मानित किया. उनके इतिहास सम्बन्धी ग्रंथों एवं लेखों की सूची निम्न हैं:
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(A)  BOOKS
1.           Manu and Yajnavalkya, Calcutta University, 1917.
2.           Hindu Polity, Bangalore city, 1924.
3.           History of India (150 A.D. to 350 A.D.), (Naga-Vakataka Imperial Period), Lahore, 1930.
4.           An Imperial History of India (700 B.C. to c. 770 A.D.), Lahore, 1934.
5.           Chronology and History of Nepal (600 B.C. to 880 A.D.), Patna, 1936.
6.           Descriptive Catalogue of Manuscripts in Mithila, Vol. I, Smriti Manuscripts, (ed.), with A. Banerjee Sastri, Patna, 1927.
7.           Descriptive Catalogue of Manuscripts in Mithila, Vol. II, Literature, Prosody (edited), Patna, 1933.
8.           Rajanitiratnakara of Chandesvara (edited), Patna.
9.           Lassen’s History of Indian Commerce (edited), with A. Banerjee Shastri, Patna.
10.       Vigrahavyavartiani of Acharya-Nagarjuna (edited), Patna.
11.       Adhyardhasataka of Matriceta (edited), with Rahul Sankrityayana, Patna.

(B)  ARTICLES
Journal of the Bihar and Orissa Research Society
1.                Saisunak and Maurya Chronology and the Date of Buddha’s Nirvana, I(I), 67.
2.                Republics in the Mahabharat, I(II), 173.
3.                The Empire of Bindusara, II(I), 79.
4.                Chronological Summary in the Puranic Chronicles and the Kali-Yuga Era, III(II), 246.
5.                Hathi-Gumpha Inscription of the Emperor Kharavela (173 B.C.-160 B.C.), III(IV), 425.
6.                Further Note on Hathi-Gumpha Inscription, III(IV), 473.
7.                The Brihadrath Chronology (c. 1727 B.C.-727 B.C.), IV(I), 26.
8.                The Terms ‘Anusamyana’, ‘Rajuka’ and Former Kings in Ashoka’s Inscription, IV(I), 36.
9.                A Note on Hathi-Gumpha Inscription (Elephant Ships), IV(I), 96.
10.            Asoka’s Inscription II, IV(II), 144.
11.            Revised Notes on the Brahmin Empire, IV(III), 257.
12.            Importance of the Janibigha Inscription of the year 83 of the Lakshmana-Sena Era, IV(III), 266.
13.            Hathigumpha Inscription Revised from the Rock (with plates), IV(IV), 364.
14.            Statues of two Saisunaka Emperors (483-409 B.C.), V(I), 88.
15.            Copper-Plates in Bhubneshwar Temple, V(II), 298.
16.            Chastana’s Statue and the Date of Kanishka, V(IV), 511.
17.            ‘Saisunaka Statue’, V(IV), 512.
18.            Another Saisunaka Statue, (c. 515 B.C.), V(IV), 550.
19.            The Statue of Wema Kadphises and Kushan Chronology, VI(I), 12.
20.            The Statue of Ajatasatru-Kunika and a Discussion on the Origin of Brahmi, VI(II), 173.
21.            A Judgement of a Hindu Court in Sanskrit, VI(II), 246.
22.            The Unexplained Passage, VII(II-III), 123.
23.            A Hindu Text on Painting, IX(I), 30.
24.            Contributions to the History of Mithila (King Nanya Deva of Mithila and an Inscription of His time), IX(III-IV), 300.
25.            Contributions to the History of Mithila, X(I-II), 37.
26.            Hridaya Narayana of Mithila, X(I-II), 47.
27.            Brahmi Seals Newly Discovered at Patna, X(III), 189.
28.            An Inscription of the Sunga Dynasty (with plate), X(III), 202.
29.            Lassen’s History of Indian Commerce (Vikramaditya to Later Guptas), X(III), 227.
30.            The Rajaniti-Ratnakar by Chandeshwara, X(IV), Appendix-a-i-I.
31.            New light on Hindu Political Science Literature, XI(I), 66.
32.            Bhatta-Svamin’s Commentary on Kautilya’s Arthasastra, (I) Appendix 1.
33.            Bhatta-Svamin’s Commentary on Kautilya’s Arthasastra, XI(II), Appendix, 25.
34.            Bhatta-Svamin’s Commentary on Kautilya’s Arthasastra, XI(III-IV), Appendix, 55.
35.            Bhatta-Svamin’s Commentary on Kautilya’s Arthasastra, XII(I), Appendix, 93.
36.            Bhatta-Svamin’s Commentary on Kautilya’s Arthasastra, XII(II), Appendix, 131.
37.            Bhatta-Svamin’s Commentary on Kautilya’s Arthasastra, XII(III), Appendix, 169.
38.            Hathigumpha Inscription of the Emperor Kharavela (Correction), XIII(III-IV), 221.
39.            The Sunga Inscription of Ayodhya, XIII(III-IV), 247.
40.            Revised Notes on the Brahmin Empire, XIV(I), 24.
41.            A Deed of Acquittance in Sanskrit, XIV(I), 63.
42.            Demetrios, Kharavela and the Garga-Samhita, XIV(I), 127.
43.            Hathigumpha Notes, XIV(I), 150.
44.            Date of Vardhamana, XIV(II), 311.
45.            Historical data in the Garga-Samhita and the Brahmin Empire, XIV(III), 397.
46.            The Paris Manuscript of the Garga-Samhita, XV(I-II), 129.
47.            On the Rule of Pusyamitra Sunga, XV(III-IV), 227.
48.            An Important Brahmi Inscription, Barli Stone (with plate), XVI(I), 67.
49.            Problem of Saka-Satavahana History, XVI(III-IV), 227.
50.            Purana Coin and the Date of the Manava-Dharma-Sastra, XVII(IV), 398.
51.            Kumaramatya, XVII(IV), 399.
52.            The Exact Data in the Reign of Asoka, SVII(IV), 227.
53.            Girdharpur Pillar Inscription, XVIII(I), 4.
54.            Saka-Satavahana Problem, XVIII(I), 7.
55.            Chandra Gupta II (Vikramaditya) and his Predecessor, XVIII(I), 17.
56.            The Book on Political Science by ‘Sikhara’, Prime Minister of Chandra Gupta II, VIII(I), 37.
57.            Chandra Gupta Maurya as ‘Vir Varshal’, XVIII(I), 79.
58.            A Note on Certain Sanskrit Geographical and Ethnic Terms, XVIII(I), 97.
59.            The Yaunus of Puranas and the last Kushana Emperor in India, XVIII(II), 201.
60.            A Passage in Samudra Gupta’s Inscription at Allahabad and Gupta Coinage, XVIII(II), 207.
61.            The Kakas — Their Location, XVIII(II), 212.
62.            A Note on ‘Tikin’ and ‘Khasa’, XVIII(II), 225.
63.            ‘Danta’, a Weapon, XVIII (III-IV), 391.
64.            History of India (c. 150 A.D.-350 A.C.) Naga-Vakataka Imperial Period), XIX(I-II), 1.
65.            Appendix to the History of India, 150 A.D. to 350 A.D. XIX(III), 289.
66.            Some Unpublished Seals, XX(I), 1.
67.            Six Unique Silver Coins of the Sungas, XX(I), 7.
68.            Dating in Lakshmanasena Era, XX(I), 20.
69.            Early Unique Silver Coins of India, XX(III-IV), 279.
70.            Early Signed Coins of India (Additions and Corrections), XXI(III), 191.
71.            Early Signed Coins of India (Additions and Corrections), XXI(III), 191.
72.            On Some Hindu Coins of Pre-Christian Centuries (With plates) XXII(II), 59.
73.            New Coins of Naga-Vakataka Period, XXII(II), 70.
74.            Rajgir (Maniar Math) Stone Image Inscription (with plate), XXII(II), 79.
75.            An Unrecorded Muhammadan Invasion of Nepal (with Appendix), XXII(III), 161.
76.            Nepal Chronicles on the Caste of the Guptas, XXII(II), 108.
77.            Chronology and History of Nepal (600 B.C. to 880 A.D.), XXII(III), 161.
78.            Rajaniti-Ratnakara by Chandesvara, XXII(IV), Appendix, 1.
79.            Branding Seals of the Second Century A.D. (with plates), XXIII(I), 128.
80.            Jaina Image of Maurya Period, XXIII(I), 130.
81.            Numismatic Notes on Some Hindu Coins of Pre-Christian Centuries, XXIII(I), 148.
82.            Adhyardhasataka by Matriceta, XXIII(IV), Appendix-i-I-I.
83.            Vigrahavyavarttani by Acharya Nagarjuna, XXIII(IV), Appendix-i-I-I.
Indian Antiquary
84.            The Harappa Seals, XLII, 203.
85.            The Date of the Mudra-Rakshasa and the Identification of Malayaketu, XLII, 265.
86.            The Rock Edicts VI of Asoka, XLII, 282.
87.            Origin of the Narada-Smriti, XLII, 306.
88.            Ethnic Origin of Tamralipti, XLIII, 64.
89.            Kautilya and the Arthas, XLIII, 124.
90.            The Historical Position of Kalki and his Identification with Yasodharman, XLVI, 145.
91.            Rao Bahadur R. Narasimhachar’s Architecture and Sculpture in Mysore, XLVI, 278.
92.            Bandhu-bhritya of the Mudra RAkshasa, XLVI, 275.
93.            Vijnapti Triveni, A Jaina Epistle, XLVI, 276.
94.            The Arthasastra Explains, XLVII, 50.
95.            Vaishnava Worship and Buddhism, XLVII, 112.
96.            The Week-days and Vikrama, XLVII, 112.
97.            Date of Panini and Katyana, XLVII, 138.
98.            Notes on Asoka Inscriptions : The Term Ashasu XLVII, 297.
99.            Identification of some of the Post Andhrabhritya Rulers of the Pusanic List, XLVII, 298.
100.        Saka-Parthiva, XLVIII, 12.
101.        The Yogimara Cave Inscription, XLVIII, 131.
102.        Places and Peoples in Asoka’s Inscriptions, XLII, 121.
The Modern Review
103.        An Introduction to Hindu Polity, 1913.
104.        An Inscription of the Sunga Dynasty, XXXIV, 430.
105.        Sanskrit Revival and King Bhoja’s Art Criticism of Lyrical Poetry, XLIII, 722.
106.        Origin of the Imperial Guptas, XLVI, 499.
107.        A Sand stone Head of the Gupta period, XLVII, 26.
108.        King Udayditya, LII, 171.
109.        Note on Terracotta Ramayana panel of Gupta period and on Sikhora Temple, LII, 148.
110.        Re-founders of the Imperial Hindu Throne, LII, 546.
111.        King Chhatrasal Champion of Hindu Independence, and Queen Kamalavati, the Devoted wife, LI, 545.
112.        Udaypur Temple of Malwa and its Builder, LI, 603.
113.        Buddha’s Hermitage, LIII, 179.
114.        Mahastan (Bogra) Mauryan Inscription, LIII, 508.
115.        Mauryan Rock cut Hermitage of Barabar, LIII, 705.
116.        Neglect of Monuments, LIII, 385.
117.        Dr. Hiralal, LVI, 319.
118.        Coins of Samprati Maurya, LV, 647.
119.        A Coin of Dasarath Maurya, LV, 516.
120.        Hindu Scientist of Earthquake, LV, 310.
121.        Great Resolution, LXI, 16.
122.        Lost Sanskrit Works Recovered from Tibet, LXI, 159.
123.        Self-Assertion of the Masses Inevitable, LXI, 387.
124.        Statues of Indian Scholars in Tibet, LXI, 401.
Epigraphia India
125.        The Text of the Sohgaura Plate, XXII, I.
126.        Shell character Rock Inscription at Ci-Aruton (Java), XXII, 4.
Journal of the Royal Asiatic Society, London
127.        Mauryan Symbol, 1936.
Annals of Bhandarkar (Oriental Research Institute)
128.        Historical Data in the Drama Kaumudi Mahotsava, XII, 50.
Journal of the Indian Society of Oriental Art
129.        Pataliputra Siva-Parvati Gold Plaque, II, I.
130.        Metal Images of Kurkihar Monastery, II, 70.
131.        Terracotta dug out at Patna, III.
132.        An Early Ivory, IV, 75.
The Jaina Antiquary
133.      Oldest Jaina Images discovered, 1937, 3.
134.     Proceeding and Transactions of All India Oriental Conference, Arch Stone, Second All Ind. O.C., 1922, 270.
135.        Presidential Address, Seventh All India, O.C., 1933, IX.
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
136.        ज्योतिषग्रन्थ गर्ग संहिता में भारतीय इतिहास, भाग 10, संवत् 1986, पृ0 1.
137.        श्री खारवेल प्रशस्ति और जैन धर्म की प्राचीनता, भाग 10, संवत् 1986, पृ0 499.
138.        भारशिव राजवंश, भाग 13, संवत् 1986, पृ0 85.
साहित्य
139.        नर नारायण के बीच, वर्ष 8, अंक 3, 1957, पृ0 85.
140.        तथ्य गीता.
पटना युनिवर्सिटी गद्य-संग्रह, पटना 1949
141.        हमारा संवत् और उसकी रक्षा, पृ0 323.
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डॉ. कृष्ण कुमार मंडल
सहायक प्रोफेसर
  इतिहास विभाग (भागलपुर विश्वविद्यालय), 
भागलपुर      

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  1. मंडल जी ऐसे नितांत परिचयात्मक लेख की अपेक्षा नहीं थी .

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  2. डा. काशी प्रसाद जायसवाल पर चर्चा, जरूरी हस्‍तक्षेप.. यह गंभीर चिंता का विषय है कि उन जैसे पातालभेदी दुर्गम उत्‍खनक इतिहासकार को हमारा शब्‍द समाज बिसार कर बैठ गया है.. प्रसंगवश, मेरे आगामी उपन्‍यास ' कंथा ' ( महाकवि जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित, जो 'नवनीत' में लगभग ढाई साल तक धारावाहिक छपकर इसी माह अर्थात् अक्‍टूबर 2012 के संपन्‍न हुआ है, अब पुस्‍तक रूप में निकट भविष्‍य में प्रकाश्‍य ) में डा. जायसवाल की विशिष्‍ट उपस्थिति उपलब्‍ध है..

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  3. क्या काशी प्रसाद जयसवाल की कोई पुस्तक इन दिनों उपलब्ध है? यदि हाँ, तो कहाँ से प्राप्त की जा सकती है?

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  4. आचार्य जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री ने एक संस्‍मरण ( ' स्‍मृति का वातायन ' में संकलित ) में लिखा है- '' बिहार यों ही नहीं जिया-मरा है, उसने हिंदी के लिए अपना फर्ज भी अदा किया है.. ...डा.काशी प्रसाद जायसवाल तो हमारे पूर्वज थे, हम किसी अभाव से पीडि़त नहीं है.. '' ( शब्‍दावली में कुछ अंतर संभव, क्‍योंकि स्‍मृति के आधार पर यहां लिखा है )

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  5. KPJ's daughter Dharamshila Lal was a lawyer at Patna High Court and had a beautiful house on the Exhibition Road. Her son Sanjay Lal was my contemporary at Patna College. He had his higher education in England and made significant contributions in Economics. Unfortunately, he died early. KPJ Research Institute, located in the premises of Patna Museum once attracted researchers from Bihar and outside, but, now, it is in a bad shape.

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  6. मैं एक बार फिर दोहराता हूँ कि जो नये लोग हिन्दी के वैचारिक जगत में काम कर रहे हैं उनके बीच आपसी संवाद और परस्पर मैत्री भाव का बनना और बना रहना ज़रूरी है. यह एक बडा प्रोजेक्ट है जिसपर बहुत सारे लोग एक साथ काम करेंगे और एक दूसरे के काम को 'अपने काम सा ' महत्त्व देंगे तभी बात आगे बढेगी.

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  7. जायसवाल जी पर परिचयात्‍मक ही सही शुरुआत तो हुई। बहुत से लोग तो इनका नाम भी नहीं जानते।

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  8. लेख परिचयात्मक है लेकिन संवाद की गुंजाइश तो है ही, निश्चित रूप से समालोचन और सामग्री उपलब्ध कराएगा.जैसा हितेंद्र जी ने कहा है .."यह एक बडा प्रोजेक्ट है जिसपर बहुत सारे लोग एक साथ काम करेंगे और एक दूसरे के काम को 'अपने काम सा ' महत्त्व देंगे तभी बात आगे बढेगी".



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  9. काशी प्रसाद जी का एक लेख हिन्दी प्रदीप के जनवरी 1899 अंक मे छपा था जिसका शीर्षक था-हिन्दी उपन्यास लेखकों को उलहना।यह लेख मेरी पुस्तक बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिन्दी आलोचना का आरंभ मे संकलित है।

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  10. इस आलेख के प्रारम्भिक (ARUN DEV"S परिचयात्मक) भाग में कुछ त्रुटियाँ है. जायसवालजी की मृत्यु १९३७ में हुयी, और उस समय नामवरजी मात्र ११वर्ष के थे. इसलिए यह कहना है कि नामवरजी BHU के प्रोफेसर के रूप में जायसवालजी का नाम सुनकर ' काशी विश्वविद्यालय में इतिहास पढने गए थे' गलत है. १९३३ से १९३७ तक राहुलजी (पटने के वकील) जायसवालजी के सबसे करीबी लोगों में से थे. मालवीयजी चाहते थे कि जायसवालजी बनारस आ जाएँ. जायसवालजी भी कल्प-द्रुम जैसी अपनी वकालती पेशा को लात मारकर BHU की प्राध्यापकी स्वाकार करना चाहते थे. लेकिन यह संभव नहीं हो पाया. राहुलजी लिखते हैं, "उन्होंने निश्चय कर लिया कि निर्वाह मात्र पर हिन्दू विश्वविद्यालय में चले जाएँ. मित्रों को पत्र भी लिख दिए किन्तु हिन्दू विश्वविद्यालय से वैसा आग्रह नहीं हुआ, और इधर घर की घटी-बढ़ी ने धर दबाया." जाहिर है "जायसवाल (बनारस की नौकरी छोड़कर) पटना चले गए हैं" वाली बात सही नहीं है.
    राहुलजी की योजना थी कि जायसवालजी की एक बृहत् जीवनी लिखी जाय, और उन्होंने बहुत सारी सामग्रियां भी जुटाई थीं. लेकिन दुर्भाग्यवश अत्यंत परिश्रम के साथ संग्रह की गयी शोध-सामग्रियां खो गयीं..लेकिन 'जिनका मैं कृतज्ञ' पुस्तक में उन्होंने जायसवालजी की संक्षिप्त जीवनी लिखी है. "जायसवाल-संस्मरण" नामक अन्य संक्षिप्त लेख भी उन्होंने लिखा है. दिनकरजी ने भी संस्मरण लिखा है. जायसवालजी से सम्बद्ध बहुत सारे आलेख और संस्मरण बिखरे पड़े हें.

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  11. alekh parichayatmak aur nirnayvadi hai. namvarji ke bare upar likhi baat bhi tathy rahit nikli...phir bhi jaiswalji ke baare me logon ko jankari hi huyee hai, etadarth shukriya.

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  12. के पी जायसवाल और पाटलिपुत्र -------------साप्ताहिक पाटलिपुत्र का प्रकाशन हथुआ नरेश महाराज महादेवाश्रम शाही के एक्सप्रेस प्रेस से 1914 ई. में हुआ था। आरंभ में इसके संपादक नामी बैरिस्टर एवं ख्यात पुरातत्ववेत्ता काशी प्रसाद जायसवाल थे। वे अंगरेजी राज की नजरों में ‘एक खतरनाक क्रांतिकारी’ थे। राष्ट्रवादी गतिविधियों में सम्मिलित होने एवं अंगरेजी सरकार के विरुद्ध आंदोलनकारियों से मिलकर कुचक्र करने का आरोप लगाकर उन्हें कलकत्ता हाईकोर्ट का जज बनने के अयोग्य घोषित कर दिया गया था। जब वे पटना आये तब भी अंगरेजी सरकार का संदेह दूर नहीं हुआ। इसीलिए यहां के जिला मजिस्ट्रेट और आरक्षी अधीक्षक को उनके क्रियाकलापों एवं संपर्कों की सूचना लेते रहने तथा उनपर नजर रखने का आदेश दिया गया था। शायद इसी कारण वे पाटलिपुत्र के आरंभिक अंकों में विद्वता एवं गंभीरता का पोषण करते रहे। किंतु स्थानीय राष्ट्रवादी लोगों के आग्रह पर उन्होंने अपने ओजपूर्ण अग्रलेखों से पाठकों में क्रांति की नई लहर पैदा करनी शुरु कर दी। 10 अगस्त 1914 के अंक में उन्होंने लिखा, ‘विश्व परिवेश में अंगरेजी सरकार युद्धों में फंस चुकी है और उसे अपन कमजोर स्थिति का आभास होने लगा है। इसीलिए भारतवर्ष के स्वातंत्र्य आंदोलन को भी वह सख्ती से कुचल देना चाहती है ताकि यह उपनिवेश भी कहीं उसके हाथों से न निकल जाय। परंतु सरकार को यह सोच लेना चाहिए कि वह देशप्रेम की व्यापक उत्तेजना को रोक सकने में अंततोगत्वा असफल रहेगी।’ जनता को अंगरेजी सरकार के विरोध में भड़काने वाली ऐसी बातें पढ़कर बिहार के तत्कालीन छोटे लाट का असंतुष्ट हो जाना अस्वाभाविक नहीं था, अतः उन्होंने हथुआ महाराज से अपनी नाराजगी प्रकट की। फलस्वरूप डा. जायसवाल को पदमुक्त कर दिया गया

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  13. के.पी. जायसवाल को सावधानी के साथ पढ़े जाने की जरूरत है. आप 'भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक थे और उनकी एक छोटी-सी मूर्ति सदा अपने गले में लटकाए रखते थे. भद्र-श्रीकृष्णाष्टमी के दिन उपवास और व्रत रखना आपने कभी भी नहीं छोड़ा. गंगा, गीता और गायत्री के महिमागान में आप इतने तल्लीन हो जाते थे कि आपको बाह्य संसार का कुछ भी ज्ञान न रहता था.' (देखें, 'हिंदी साहित्य और बिहार', चतुर्थ खंड,पृष्ठ ३७१-७२)

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  14. फरबरी १९३३ में राहुलजी के पास लिखे गए एक पत्र में उन्होंने लिखा 'मैं भी दुनिया से ऊब गया हूँ, और चाहता हूँ की बुद्ध का भिक्षु बनूँ. " उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था, इसलिए उनकी प्रामाणिक जीवनी वही लिख सकता है जो खुले विचार का व्यक्ति हो.

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  15. The first Indologist who coined the term 'magadhan imperialism' before the British Imperialism

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  16. साहित्य और इतिहास दोनों में जायसवाल सर की उपेक्षा आश्चर्यजनक है. यह उपेक्षा अपने आप में शोध का विषय है.

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  17. आदरणीय जायसवाल जी की लिखित पुस्तक अन्धकार युगीन भारत को भारतीय चाटुकारी इतिहासकारों नें क्यों नकार दिया ? उस पुनः विचार किया जाना चाहिए।

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  18. नामवर जी 11 वर्ष की उम्र में जायसवाल जी से इतिहास पढ़ना चाहते थे। धन्य है प्रोफेसर साहब।

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    1. जायसवाल नहीं, अल्टेकर। अल्टेकर जी बीएचयू से पटना चले गये थे। तब प्राचीन इतिहास विभाग का बहुत नाम था।

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  19. भंवर जी यह नामवर सिंह से समीक्षा ठाकुर की बातचीत में यह प्रसंग है कृपया पुस्तक मिले तो देखें.

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  20. वैसे इस तरफ पंकज मोहन ने पहले ही अपनी टिप्पणी में ध्यान खींचा था.

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