कथा - गाथा : सईद अयूब









सईद अयूब कहानीकार के रूप में अपनी पहचना बना रहे हैं. उनकी कहानिओं के विषय  खासे असुविधाजनक होते हैं. जिन्नात में जहां उन्होंने मदरसों में बच्चों के यौन शोषण का मुद्दा उठाया है वही शबेबरात का हलवा में मुस्लिम समाज में प्रेम के लिए जगह तलाश करते एक युगल की दिलचस्प कथा है. प्रस्तुत कहानी साम्प्रदायिक सोच को लेकर लिखी गई है.  
यह कहानी समकालीन  जीवन के उस यूज एंड थ्रो दर्शन का भी परिचय देती है जिसमें सब कुछ कमोडिटी है - पुरुषों के लिए स्त्रियां भी. कहानी में गालिओं का खुलकर प्रयोग हुआ है. स्त्री के वस्तुकरण से न्यूडिटी भी आ गई है. और एक बड़ा सवाल भी कि  हम क्या केवल दो पहचान भर हैं. 


फ़िरे ख्याल                                  hर

सईद अय्यूब



नींद संभवत: सर में भयानक पीड़ा और बेचैनी से खुली थी लेकिन पलकें अभी भी बोझिल-बोझिल सी थीं. गला प्यास के मारे सूख रहा था परंतु आँखे भी ठीक से नहीं खुल पा रही थीं. आँखें खोलने की कोशिश में मन ही मन रात को पी गयी व्हिस्की को एक भयानक गाली दी....मादरचो....कई बार सोचा है कि बस अब और नहीं, कई बार तौबा की है कि हाथ नहीं लगाना है हरामज़ादी को...रम पी लो, वोदका पी लो, बीयर पी लो या कुछ भी किंतु यह साली व्हिस्की...एक कप कॉफी की तलब उठी. बिस्तर से उठना चाहा तो पैर कहीं फँसे से लगे. आँखों को मिचमिचा के खोला और सर की पीड़ा को बर्दाश्त करते हुए एक नज़र अपने पैरों की तरफ़ डाली और फिर सारा माज़रा समझते देर नहीं लगी. नीना के पैर मेरे पैरों में फँसे हुए थे. वह करवट लेकर लेटी थी और अपने पैरों को मेरे पैरों में फँसा रखा था. ऐसा लगता था कि उसकी रात की भूख अभी भी शांत नहीं हुई है. बिस्तर से उठने की कोशिश में चादर खिसक कर थोड़ा ऊपर हो चला था और नीना की गोरी जाँघ उभर कर सामने आ गयी थी. उसके पैरों के रोयें मुझे सबसे अधिक पसंद थे और अब वे सबके सब मेरे सामने खुलकर मुझे ललकार रहे थे. 

रात की अपनी और नीना की सारी हरकतें एक-एक कर याद आने लगीं. और इसी क्रम में मैंने नीना के उरोजों को अपनी छाती पर महसूस किया. वह जिस तरह से मुझसे लिपट कर सोयी थी, मुझे उस पर फिर से प्यार आने लगा और बदन अपने आप एक कसाव का शिकार होने लगा किंतु तभी एक तेज उबकाई ने बदन के सारे कसबल ढीले कर दिए. मैंने उबकाई को किसी तरह से रोका और नीना के पैरों के बीच जकड़े अपने पैरों को अलग किया. चादर हटाने के बाद महसूस हुआ कि मैं मादरजात नंगा था. मैं इस तरह से न जाने कितनी बार नंगा हो चुका था. पिछले चार महीनों से तो नीना के साथ ही हो रहा था पर अजीब बात थी कि जब भी मैं होश की दुनिया में वापस आता था, मैं इस नंगेपन को बुरी तरह से महसूस करता था. मुझे लगता था कि सामने सोई हुई औरत मेरी माँ है और मैं अभी-अभी उसके स्तनों से दूध पीकर हटा हूँ. मुझे लगता था कि दुनिया की सभी औरतें मेरी माँ हैं, दुनिया के सभी मर्दों की माँ हैं और मर्द उनके सामने एक छोटे बच्चे की तरह कभी भी नंगे हो सकते हैं. यह एक सिरफ़िरा ख्याल था, पर था तो ख्याल ही. कभी-कभी मुझे लगता था कि मुझे किसी साइकेट्रिक की ज़रूरत है पर वह दिन आज तक नहीं आया कि मैं किसी साइकेट्रिक के पास जा सकूँ.     

जैसे ही मैं बिस्तर से उतरने को हुआ, नीना ने एक खास अदा से अंगड़ाई ली और मेरा हाथ पकड़ लिया.

      “कहाँ चले?”
      “कॉफी चाहिए?”
      “नहीं”
      “फिर”
      “फिर...तुम आ जाओ न...”
      “नो, मेरा मन नहीं है. यह साली व्हिस्की...तुमको कई बार बोला है कि मुझे व्हिस्की सूट नहीं करती पर तुमको...”
      “अच्छा, तुम मत आओ, पर उसको तो भेज दो”
      “किसको?”

और यह सवाल पूछते ही अपनी बेवकूफ़ी का ध्यान आया. मादरचोद यह व्हिस्की...जो न करवाए वह थोड़ा. भला इतनी देर से मुझे उसकी याद भी नहीं आयी. रात तो हम दोनों एक ही बेड पर थे. बल्कि हम तीनों. मैं, वह और बीच में नीना. मुझे याद आया कि वह मुझसे ज़्यादा उत्साहित था जैसे नीना के साथ उसका पहली बार हो. पता नहीं क्या बात थी? पर वह बहुत खुश था और उसकी खुशी का अंदाज़ा उसकी हरकतों से हो रहा था. एक दो बार तो नीना ने उसे झिड़क भी दिया था पर उसका उसपर कोई असर नहीं पड़ा था. ऐसा भी नहीं था कि उसने हम दोनों से ज़्यादा चढ़ाई हो. शराब के मामले में वह बहुत एहतयात से काम लेता था. वह शुरू बहुत जोश से करता था पर उसे अच्छी तरह से मालूम था कि कहाँ बंद करना है और उस सीमा के बाद एक बूँद भी नहीं चाहे कुछ भी हो जाए. पर शबाब के मामले में एकदम उल्टा...शुरुआत हिचकिचाहट के साथ पर उसके बाद रुकने का नाम नहीं और बीच में कोई सलीका भी नहीं. वैसे भी वह सलीकेदार नहीं था और मुझे उसकी इसी बात से चिढ़ थी.

“बाथरूम में होगा, आएगा तो खुद बुला लेना. वैसे उस साले को बुलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. वह तो मस्त साँड की तरह खुद ही आएगा.”

मैं किचन से कॉफी के साथ निकला तो नीना उसी तरह से बिस्तर पर पड़ी थी. वह एक बार फिर सो गई थी या सोने का बहाना कर रही थी. चादर उसके शरीर से अलग होकर नीचे ज़मीन पर पड़ा था. उसके गोल-गोल उरोज अपनी पूरी आब-व-ताब के साथ दावत देते मालूम हो रहे थे.

“रात भर की इतनी ज़बरदस्त कसरत के बाद तो इनको थोड़े ढीले पड़ जाने चाहिए थे” मैंने मन ही मन सोचा “पर यह नीना भी...किस चीज़ की बनी है यह छोकरी? कोई और वक़्त होता तो...”

पर रात की बात याद आते ही मन फिर उसकी ओर डोल गया. कहाँ है वह? इतनी देर बाथरूम में तो नहीं लगनी चाहिए. कॉफी का मग हाथ में पकड़े-पकड़े ही मैं बाथरूम की तरफ़ बढ़ा. बाथरूम खुला था और वह वहाँ नहीं था. फ़्लैट में मौजूद दूसरे बाथरूम में भी वह नहीं था. वह पूरे फ़्लैट में कहीं नहीं था. मन में एक अजीब सी आशंका जन्म लेने लगी. वह ऐसा ही था. उसका हर क़दम किसी न किसी आशंका को जन्म देता था. वह पहले भी कई बार यह फ़्लैट छोड़ कर जा चुका था. यह एक ऐसी बात थी जिसकी मैं कभी परवाह भी नहीं करता था. दो-चार महीनों की इधर-उधर की आवारागर्दी के बाद वह फिर लौट आता था. मैं न तो उससे कोई सवाल पूछता था कि वह इतने दिनों कहाँ रहा? क्या कर रहा था? वापस क्यों आया? कितने दिन रहेगा? और न ही वह बताना उचित समझता. पिछली बार तो वह इस लिए चला गया था कि मेरे साथ रहने वाली लड़की श्यामा ने उसके साथ सोने से इंकार कर दिया था. ऐसा नहीं था कि उसे दूसरी लड़की नहीं मिल सकती थी या कि शहर में लड़कियों का टोटा हो गया था. मैंने उसे समझाया भी कि,

“देख, सबकी अपनी अपनी पसंद होती है. श्यामा अगर तेरे साथ नहीं सोना चाहती तो क्या फ़र्क पड़ता है. और लड़कियाँ भी तो हैं? और हो सकता है कुछ दिन बाद श्यामा मान ही जाए.” 

पर न जाने क्यों वह कुछ भी सुनने और मानने को तैयार नहीं था और सुबह होते ही बिना बताए निकल गया था.

पता नहीं क्या था उस शख्स के अंदर. अपनी तमामतर बेतरतीबियों और अख्खड़पने के बावजूद वह न जाने कबसे मेरे वजूद का एक अहम हिस्सा बन गया था. वह जब तक मेरे पास नहीं होता था, मुझे उसकी ज़्यादा परवाह नहीं होती थी पर जब वह मेरे पास होता था तो एकदम मेरी जात का एक हिस्सा बन जाता था. मेरे पूरे फ़्लैट पर उसका एक तरह से कब्ज़ा था. कभी कभी तो मुझे डर लगता था कि एक दिन वह कह देगा कि तुम यह फ़्लैट छोड़ कर चले जाओ और बावजूद इसके कि फ़्लैट मेरा है और कागज़ात मेरे पास सुरक्षित हैं, शायद मैं उसके कहने से यह फ़्लैट छोड़ कर चला ही जाऊं. वैसे अन्य बहुत सारे ख्यालातों की तरह यह भी एक सिरफिरा ख्याल भर ही था. और फ़्लैट ही क्या, वह मेरी हर चीज़ बेझिझक इस्तेमाल करता था. मेरे कपड़े, तौलिए, शेविंग के सामान, जूते गो कि उसको थोड़े बड़े आते थे और न जाने कब से ऐसा हुआ कि मेरी गर्ल फ्रेंड्स भी...और यह अजीब बात थी कि लाखों नाज़-नखरें वाली यह लड़कियाँ भी उसके सामने ऐसे बिछ जाती थीं जैसे वही उनका असली ब्वाय फ्रेंड हो. कई बार मन ही मन मैं कुढ़ कर उसे गाली भी देता कि साला कोई जादूगर है. ज़रूर कोई जादू-टोना जानता है. वर्ना ये लड़कियाँ तो बड़ों-बड़ों को घास नहीं डालती फिर...पिछले दो वर्षों में बस एक श्यामा ही थी जिसपर उसका जादू नहीं चल पाया था और श्यामा ने उससे साफ़-साफ़ कह दिया था कि उसके साथ सोना तो दूर, वह उसका चेहरा भी नहीं देखना चाहती. पता नहीं क्या बात थी, पर श्यामा के इस उत्तर से मुझे मन ही मन खुशी हुई थी. शायद मैं उससे जलता था...शायद नहीं, मैं उससे जलता ही था, पक्का. पर मेरी गर्ल फ्रेंड्स के साथ उसके सोने का मतलब यह नहीं है कि हम दोनों एक ही साथ, एक ही बिस्तर पर उस गर्ल फ्रेंड के साथ होते थे. वह मेरे टाइम से वाकिफ़ था और उस समय पर कभी दखलंदाज़ी नहीं करता था. पता नहीं इतना सलीका कहाँ से आ गया था उसमें? एक साथ एक लड़की को भोगने का ख्याल अचानक मेरे ही मन में उठा था. मेरे अन्य ख्यालों की तरह यह भी एक सिरफिरा ख्याल ही था पर मैं इस ख्याल की लज़्ज़त को पाना चाहता था और इसलिए एक दिन यह प्रस्ताव उसके सामने रख ही दिया. मेरा प्रस्ताव सुनकर वह बहुत देर तक ख़ामोश रहा. वैसे भी वह अधिकतर ख़ामोश ही रहता था. उसकी लंबी खामोशी से उकता कर जब मैं बीयर का दूसरा ग्लास भरने लगा तो उसने अपनी खामोशी तोड़ी-

“लौंडिया मान जाएगी?”
“बात करूँगा. उम्मीद तो है.”
“एक बात बता...यह ख्याल क्यों आया तेरे को?
“बस यूँ ही...मज़े के लिए”
“रात को कोई फिल्म तो नहीं देखी?”

“तू जानता है कि मैं बी.एफ. नहीं देखता. जब सब कुछ सामने है तो फिल्म की क्या ज़रूरत?” मेरा लहज़ा थोड़ा तल्ख था.

“देख लौंडिया तक तो ठीक है पर उसके बाद अगर तू मेरी तरफ़ बढ़ा या अगर मुझसे यह चाहा कि मैं तेरे साथ कुछ करूँ तो मैं उसी दिन चला जाऊँगा.”

“भोंसड़ी के...” न चाहते हुए भी मेरी आवाज़ थोड़ी और तल्ख़ हो गयी, “तू मुझे होमो समझ रहा है?”
“अभी है तो नहीं, पर बनने के लक्षण हैं”, वह कभी-कभी ही मुस्कुराता था और अभी मुस्कुरा रहा था. मेरा मन किया कि बीयर का पूरा ग्लास उस के चेहरे पर उड़ेल दूँ.

नीना को समझाने और मनाने में वक़्त लगा लेकिन आखिरकार वह इस एक्सप्रिमेंट के लिए तैयार हो गयी और शायद धीरे-धीरे उसे इसी में मज़ा आने लगा था.

“पर अभी कहाँ गया बास्टर्ड?”

कॉफी ने सर की पीड़ा और बेचैनी दोनों को काफ़ी हद तक कम कर दिया था. नीना ने बेड पर बेचैन करवट ली और अब उसकी दोनों जंघाओं के बीच की घाटी साफ़ दिखाई दे रही थी.

“मादरचो...” पता नहीं मैंने किसको गाली दी. 

कोई और समय होता तो मैं गाली देने के बजाय अब तक नीना पर दोबारा चढ़ चुका होता पर इस समय तो सारा ध्यान उस कमबख्त पर लगा हुआ था. नीना की पहाड़ियों और घाटियों पर एक उचटती सी नज़र डालते हुए मैंने कॉफी की आखरी घूँट भरी, खूंटियों पर टंगे अपने कपड़े पूरी बेतरतीबी के साथ पहने, फ़्लैट को लाक किया और कार लेकर निकल पड़ा. फ़्लैट की एक चाबी नीना के पास थी, इसलिए मुझे उसकी चिंता नहीं थी.

इतनी सुबह वह कहाँ जा सकता था? शहर के कुछ बार और रेस्टोरेंट के अलावा उसका कोई दूसरा ठिकाना भी नहीं था और वे सब के सब इस समय बंद थे.

“कहीं हवाखोरी की सनक तो नहीं समा गयी?” 

मन ही मन सोचा और आस-पास के सारे पार्क और वे जगहें देख डाली जहाँ उसकी यह सनक परवान चढ़ सकती थी. रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के दो-दो चक्कर लगा डाले. था तो शहर में ही कहीं, क्योंकि कोई भी ट्रेन या बस इतनी सुबह शहर से बाहर नहीं जाती थी.

“आखिर गया कहाँ मादरचोद?” 

मन की खीज बढ़ती जा रही थी और साथ ही उसके साथ किसी अनहोनी की आशंका से भी मन भरा जा रहा था. मन में उसके इस तरह अचानक, रात भर मज़े करने के बाद, इतनी सुबह कहीं चले जाने के कारणों को लेकर भी उथल-पुथल मचा हुआ था. बार-बार एक सवाल दिमाग में कौंध रहा था कि कहीं रात को, नशे की हालत में मैंने उसके साथ कोई गलत हरकत तो नहीं कर दी, या फिर उसने मेरी किसी बात या हरकत का गलत अर्थ तो नहीं ले लिया. इस संदर्भ में वह पहले ही चेतावनी दे चुका था. तमाम तरह की आशंकाओं से घिर कर मैंने अपनी कार कब स्थानीय पुलिस स्टेशन की तरफ़ मोड़ दी, मुझे पता ही नहीं चला. आशंकाओं का एक कारण आजकल के शहर के हालात भी थे. गो कि शहर में शांति थी पर माहौल डरावना हो गया था. दो महीने पहले हुए दंगों की काली घटा से शहर अभी तक आज़ाद नहीं हो पाया था. वर्षों के अपनों के मन में भी एक दूसरे को लेकर शक, नफ़रत और दुर्भाव का जो वातावरण तैयार हो चुका था, वह कभी भी विस्फोटक हो सकता था. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं, जो उसके गायब हो जाने का कभी नोटिस ही नहीं लेता था, इस बार उसको लेकर इतना बेचैन क्यों था. शायद उसकी वजह इस बार का शहर का वातवरण भी था. इस विस्फोटक स्थिति में मैं चाहता था कि मेरे साथ, मेरे आस-पास कोई रहे. एक से भले दो...किसी आपात स्थिति में वह कुछ न भी कर पाता तो भी मन में एक भाव तो रहता कि वह साथ में है. वैसे उसका डील-डौल देखकर कोई भी उससे उलझने से पहले कई बार सोचता. शायद मैं स्वार्थी था पर सच तो यह है कि सबके अंदर कुछ न कुछ स्वार्थ हमेशा रहता है.

कार पुलिस स्टेशन की तरफ़ भागी जा रही थी. अचानक एहसास हुआ कि मैंने बहुत देर से सिग्रेट नहीं पी है. सिग्रेट सुलगा कर कार का शीशा खोला ही था कि सामने वह नज़र आ गया. सड़क के किनारे हनुमान जी के मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा हुआ. मुझे आश्चर्य का एक झटका सा लगा. मंदिर और वह? कार एक झटके से रुकी और कुछ ही पल में मैं उसके सामने था.

“यह क्या बेहूदगी है?” 

मेरी आवाज़ थोड़ी तेज़ थी पर इतनी नहीं कि कोई और सुन सके. मंदिर में लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी यद्यपि भीड़ अभी नहीं हुई थी. हैरत की बात थी कि इस शहर में इतने दिनों से रहने के बावजूद मुझे नहीं पता था कि इस जगह पर कोई मंदिर भी है.

उसने एक नज़र उठा कर मुझे देखा, पर बोला कुछ नहीं.

“मैं कुछ पूछ रहा हूँ?”
वह चुप.
“बोलते क्यों नहीं?”
वह चुप.
“क्या हो गया है तुमको?”
वह चुप.
“सुबह-सुबह क्यों गायब हो गए?”
वह चुप.
“यहाँ क्यों बैठे हो?”
वह चुप.
“चलो, घर चलो”
वह चुप.
“क्या हो गया यार?”
वह चुप.
“रात को कुछ हुआ क्या?”
वह चुप.
“मैंने कोई गलत हरकत तो नहीं की? 
तुम जानते हो, रात को मैं होश में नहीं था. व्हिस्की...”
वह चुप.
“नीना ने कुछ कहा?”
वह चुप.
“अबे, कुछ बोलता क्यों नहीं बे?
वह चुप.
“मुँह में दही जमा रखा है क्या?”
वह चुप.
“साले...”
वह चुप.
“अबे साले, क्या हो गया है तुम्हें?
वह चुप.
“अबे भोंसड़ी के...”
वह चुप.
“मादरचोद...पागल हो गया है क्या?
वह चुप.
“अबे मादरचोद...”
वह चुप.
“अबे मादरचोद, साले...”
वह चुप.
“कुछ मुँह से तो फूट बहन के लौड़े...” न चाहते हुए भी मेरी आवाज़ तेज़ होती जा रही थी.
वह चुप.
“मादरचोद...अबके नहीं बोला तो मैं तुझे जान से मार दूँगा.”
“हाँ, मार डाल...इसके अलावा ” पहली बार उसका मुँह खुला.
“इसके अलावा क्या...?” उसकी इतनी देर की चुप्पी के बाद इस तरह बोलना...
मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था.
“इसके अलावा और आता क्या है तुम लोगों को?” 

मैंने पहली बार उसकी इतनी तेज़ आवाज़ सुनी थी. यहाँ तक कि मंदिर में आने-जाने वाले चंद लोग भी इस तेज़ आवाज़ पर ठिठक गए.

“तुम्हें हुआ क्या है आज?” मैंने अपने गुस्से को भरसक दबाते हुए पूछा, “बात हमारे-तुम्हारे बीच हो रही है. यह ‘तुम लोगों’ कौन हैं?”

“तुम लोगों का मतलब तुम लोगों से ही है.” 

पहली बार उसके लहज़े में नफ़रत जैसा कुछ था.
“क्या मतलब है तुम्हारा? खुलकर क्यों नहीं बोलते?”
“टी.वी. देखी आज?”
“नहीं, क्यों?”
“सुबह-सुबह उठकर टी.वी. देख ली होती, तो यह सवाल नहीं करता?”
“तुम्हें मालूम है, मैं टी.वी. जैसी फ़ालतू चीज़ पर अपना वक़्त बर्बाद नहीं करता? 
तू बताता क्यों नहीं कि बात क्या है?”
“मेरे शहर में बम ब्लास्ट हुआ है. रेलवे स्टेशन पर. 
बीस लोग मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हैं.”
“ओफ्फ़...मुझे...?”
“इसमें अभी तक चार लोग पकड़े गए हैं और वे सबके सब मुसलमान हैं.”
“होंगे बहनचोद...पर तू मुझसे इस तरह से क्यों बात कर रहा है.?”
“क्यों कि तू भी मुसलमान है. उनका दीनी भाई....”
“मैं...?”
“हाँ, क्या तू मुसलमान नहीं है?”
“हूँ, मगर...?”

“मगर क्या भोंसड़ी के...तुमने एक बार नहीं कहा था कि सारे मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं.” उसके लहज़े की नफ़रत साफ़ पहचानी जा सकती थी.

“कहा होगा, याद नहीं...पर उसका सन्दर्भ...”
“चुप मादरचोद...”

उसके लहज़े की नफ़रत और आवाज़ में इतनी तेज़ी थी कि मेरी नींद खुल गई. मैंने देखा कि नीना की टाँगे मेरी टांगों के बीच फँसी हुई हैं, चादर का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है. नीना की पहाड़ियाँ और घाटियाँ पूरी बेहेयाई से सैर करने का आमंत्रण देती हुई लग रही थीं. वह नीना के बगल में सोया हुआ था. उसका एक हाथ अभी भी नीना की गोलाइयों पर था और उसके होठों पर एक तृप्ति भरी मुस्कान फैली हुई थी.  
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सईद अय्यूब१-जनवरी,१९७८. कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश)
उच्च क्षिक्षा जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से
अमेरिकन इंस्टीट्यूट आफ इंडियन स्टडीज में अध्यापन
संस्थापकसह-निदेशक S.A. Zabaan Pvt. Ltd
पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशन

ई-पता: sayeedayub@gmail.com

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  1. सईद भाई! आपकी यहाँ मौजूद सारी कहानियां पढ़ गया.. अरुण देव जी को बहुत धन्यवाद इन्हें सामने लाने के लिए.

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  2. Nawal Kishore Sharma14 नव॰ 2012, 9:52:00 am

    सईद भाई, आपकी कहानियाँ पहले भी पढते रहे हैं पत्रिकाओं में , यहाँ भी मज़ा आ गया भाई , बधाई .

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  3. laa-jabaab abhibyaktee aap ko ek sunder rachna prastut karne ke liye.rahi baat shabdo ki, ov thoda aashaan nahi thaa sweekaar ne mein ,par aaj-kal aisa hi chalta hai gaali-galauj bhash ki , bahut-bahut dhanyawaad aap ko

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  4. कहानी के लिए सईद को बधाई . समालोचन आभार ..

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  5. रिश्‍तों की अन्‍तरंगता के चरम क्षणों को जीते इन्‍सानों के बीच मजहबी पहचान का यह अकल्‍पनीय अन्‍तर्विरोध स्‍तब्‍ध करता है। इस कहानी के गहरे निहितार्थ वाकई लाजवाब हैं। बधाई सईद।

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  6. मैंने पहली कहानी पढ़ी है सईद भाई की बहुत बोल्ड विषय ... मूल भाव उभर कर आता है कहानी का मगर कई जगह लगता है सेक्स और गालियों को केवल प्रगतिशीलता दिखाने के लिये भरा गया है |

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  7. सईद को बधाई, इस अलहदा किस्म की कहानी के लिए.

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  8. सईद भाई, ऐसे बोल्ड विषय पर अच्छी कहानी, मज़हब वाला एंगल ज़बरदस्त है... बहुत बढ़िया....!!

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  9. गंभीर विषय को दर्शाती,यथार्थ चित्रण समाज के नग्न रूप का !!!
    जातिवाद ,उफ्फ्फ्फफ्फ्फ्फ़ !!! बस भी हो अब .....
    उस पहलू की तरफ ध्यान खींचती जिधर ध्यान देने और समझने की सख्त ज़रुरत है ...

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  10. सईद भई मुबारकबाद कबूल करें .,.... टिप्पणी पढ़ने के बाद ...
    आपका
    भरत

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  11. कहानी पढ़े हुए आधे से अधिक दिन बीत चुका है, लेकिन हिम्‍मत नहीं जुटा पा रहा कि इस पर क्‍या लिखूं... गालियों के होने या न होने से कहानी में कोई फर्क नहीं पड़ रहा, इसलिये उनकी उपयोगिता समझ में नहीं आई।... कथ्‍य बोल्‍ड है, लेकिन इस बोल्‍डनैस में सांप्रदायिकता वाला मसला बुरी तरह दब जाता लगता है... मेरे ख़याल से इस पर कुछ और काम किया जाना चाहिये... सईद भाई की प्रतिभा से वाकिफ हूं, इसलिये कह रहा हूं कि वे इसे लाजवाब कहानी में बदल सकते हैं... अल्‍बर्तो मोराविया ने ऐसे बोल्‍ड कथ्‍य से लाजवाब कहानियां लिखी हैं, जो पहली नज़र में पॉपुलर किस्‍म की सेक्‍सी कहानियां लगती हैं, लेकिन गहराई में मानवीय और सामाजिक रिश्‍तों की कई परतें खोलती चली जाती हैं।

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  12. Sayeed sahib ko jadeed kahaniyon ke urdu me tehreek se bahar aana hoga..Razia Sajjad ki ' aftari ; se lekur hasan jamal tuk aisi kayee kahaniyaan hein ....Hindi ke pathkon ke liye bhi nayee naheeh he..haan Hindi ke typed pathkon ko shayad radical lag rahee hein.

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  13. सईद, कहानी पढ़ी, "बोल्डनेस" मुझे तो इस कहानी में निहायत ग़ैर-ज़रूरी लगी...थीम बहुत मार्मिक है, वह आशंका, भय और अविश्वास...लेकिन निर्वाह के लिए मेहनत करनी होगी....Prem Chand Gandhi जी की टिप्पणी ग़़ौरतलब है, मुझे बहुत अच्छा लगा कि तुमने बहुतेरे युवाओं की तरह उनकी तरफ बंदूक नहीं तान दी बल्कि उनकी बात पर ध्यान दिया...
    सीखने का यह जज्बा बनाए रखोगे यकीन है मुझे....

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  14. mitr mai amooman kuch kahte in dino dartaa hu....khaaskr FB pr. pr purusottam ji...ke aane se himmat kr kah rahaa hu....kuch nirmam ho jaiye apne prati ....or mugdh bhi .
    bhaasha me awasthit ho ...usse nirwaasit hona .....inke madhya se vh maarak pal kahin hota hai jo chamak kr hamare likhe ko koi soorat deta h. hum kalaa me kewal mar sakte hai ...jiski aapki is kahaani me bhi gunjaaish hai.

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  15. कहानी पढ़ी ..दोनों विषय थोड़े अलग तरह के हैं , और मुझे ऐसा लगता है कि इन्हें जोडकर निर्वाह करने में कुछ रह गया | यही कारण है , कि पहला विषय उस समय तक ठीक गति से चल रहा होता है , और उतना नहीं अखरता , जब तक कि दूसरा आकर उसे आच्छादित नहीं कर लेता | फिर भी कहूँगा , कि पठनीयता तो जबरदस्त है , बस जुड़ाव रह गया मित्र ...

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  16. Hammad Farooqui Sahab, meri kahani par aapki nazr-e-inayat padi, yah mere liye bahut badi baat hai. Aapki salah sar-aankhon par. Waise Urdu men, sach kahoon to Manto, Krishn Chandar, Bedi, Ismat, Khwaja Ahmed Abbas ke baad ke afsaanon kaa mera mutaa'la bahut hi mehdood hai. Padha hai bahut logon ko, Razia Sahiba ko bhi padha hai aur unke kai afsanon ka mureed raha hoon, Hasan Jamal sahab ko bhi padha hai par maine 'Aftari' nahi padhi aur koi aur aisa afsana ya kahani bhi mujhe yaad nahi hai jo meri kahaani ki tarah ho par yah bhi sach hai ki Urdu-Hinid ki kahani ka i'laaqa itna wasee'ya hai ki kisi bhi kahani ki zameen aur style kahan jaakar takraayegi, kaha nahi jaa sakta. Doosri baat, yah sirf meri ek kahani hai. Doosri kahaniyon men mera andaaz bahut muktalif hai. Main is field men bilkul naya hoon, ek tarah se anadi lekin main kisi naye andaaz ki khoj me nahi hoon. Main maanta hoon ki mujhe likhna chaahhiye agar mujhe imaandari se lagta hai ki main likh sakta hoon. Lekin likhne se pahle mujhe bahut padhna chaahiye, jitna abhi tak padha hai, usse kahin bahut zyada. Aapki salah lagaatar mere jehan men rahegi. Agar samalochan par hi maujood meri doosri kahaniyon par aapki nazre inaayet ho jaye aur kuch aur salah mil sake to mamnoon haounga. Main kahani likhne ko kisi halke kaam ki tarah nahi le raha. Isliye aap jaise logon ki salah mere kitne kaam aayegi, batana mushkil hi hai. Ek baar phir se bahut bahut shukriya!

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  17. Prem bhai, पहले तो बहुत बहुत आभार आपकी इस बहुमूल्य टिप्पणी के लिए. गालियों के प्रयोग और बोल्डनेस को लेकर आनंद द्विवेदी जी ने भी प्रश्न उठायें हैं और मैं जानता हूँ कि ऐसे प्रश्न और आएँगे तो उन पर मैं जल्दी ही अपनी स्थिति स्पष्ट करूँगा. आप मेरी प्रतिभा से वाकिफ़ हैं पर सच कहूँ तो मैं कहानी के क्षेत्र में अभी बिल्कुल अनाड़ी हूँ. मुझे एक अच्छा कहानीकार बनने के लिए बहुत मेहनत करनी है और बहुत पढ़ना है. मैं लगातार कोशिश कर रहा हूँ और उम्मीद है कि कुछ अच्छा कर पाउँगा. मुझमें इतना विश्वास रखने के लिए एक बार पुनः आभार!

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  18. Purushottam Agrawal, सर, सबसे पहले तो आपकी टिप्पणी के लिए आभार! आप इतने व्यस्त रहने के बावजूद हम लोगों की रचनाएँ न केवल पढ़ लेते हैं बल्कि अपनी टिप्पणी और सलाह भी देते हैं, यह हमेशा एक सुखद आश्चर्य की तरह होता है. उससे जो ऊर्जा और उत्तसाहवर्धन मिलता है उसका कोई मोल नहीं है. सर, मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि मैं अभी सीखने की प्रक्रिया में हूँ. यह प्रक्रिया तो जीवन भर चलेगी पर स्वयं से ही यह आशा करता हूँ कि ज्यों-ज्यों लोगो की सलाह मिलेगी, ज्यों-ज्यों मैं और पढूँगा, शायद कुछ अच्छा लिख सकूँगा. कोशिश कर रहा हूँ सर सीखने की, अब कहाँ तक सफल होता हूँ, यह तो समय ही बताएगा.एक बार पुनः बहुत बहुत आभार सर!

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  19. Anirudh Umat ji, पहली बात, बहुत बहुत आभार आपकी सलाह के लिए. दूसरी बात, कृपया मेरे लिखे के प्रति आप भी निर्मम हो जाएँ मतलब आप को (या किसी को भी) मेरे प्रति या मेरी लेखनी के प्रति कुछ कहते / लिखते हुए बिलकुल ही हिचकिचाने की आवश्यकता नहीं है. जो कुछ फेसबुक पर चल रहा है उससे मैं अनभिज्ञ नहीं हूँ और जानता हूँ कि कई लोग अपनी आलोचनाओं पर बहुत ही हिंसक प्रतिक्रिया देते हैं. मेरे विषय में ऐसा बिलकुल नहीं है. पहली बात तो यह कि मैंने कुछ लिखना अभी सीखा भी नहीं है, बस सीखना शुरू ही किया है ऐसे में आप जैसे अनुभवी लोगों की सलाह मेरे कितने काम आएगी, बताने की आवश्यकता नहीं है. दूसरी बात, मेरा मानना है कि मुझे जीवन भर सीखते ही रहना है और जो कुछ लिखूँगा वह इस सीखने की प्रक्रिया में ही लिखूँगा. तीसरी बात, मेरा लेखन किसी लक्ष्य (पुरुस्कार, हिंदी साहित्य में स्थान आदि) को लेकर नहीं है (यह स्वान्तः सुखाय भी नहीं है क्योंकि मैं चाहता हूँ कि मैं जो भी अच्छा बुरा लिखूँ, वह लोगों तक पहुँचे) इसलिए इस बात से भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैंने कितना लिखा या कितने संग्रह आए, या कहीं प्रकाशित हुआ या नहीं, पर इस बात से अवश्य फ़र्क पड़ता है यदि मैं दो कहानियों के लेखन के बीच कुछ नहीं सीखता हूँ या किसी की सलाह को पूरी तरह अनदेखा करता हूँ. इसलिए कृपया मेरी किसी भी रचना पर खुल कर कहें, जो भी कहना है. आप लोगों के विचार, सलाह, आलोचनाएँ सब मेरे लिए बहुत बहुत अहम हैं. एक बार पुनः आभार!

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  20. sayeedujjma ayub ji....lajwab kahani...bdhai sweekar kre.

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  21. फिर एक दिलचस्प कहानी...
    समय के बदलाव के साथ-साथ बदलती भाषा भी पकाऊ/उबाऊ नहीं लगती। सईद भाई को बधाई।

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  22. सुमन केशरी17 नव॰ 2012, 4:46:00 am

    सईद, थीम दिलचस्प है, काम की जरुरत है, क्या ऐसी बोल्डनेस कहानी की मांग है?..संबंधों पर यह बेहद मार्मिक कहानी हो सकती है अगर धैर्य से लग कर काम किया जाए, अभी चौंकाती है...

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  23. kahani bandhe rakhne me to puri tarah sakchham hai....mool samvedna thodi dabi lagi....sir....padte waqt thoda asahaj bhi mahsoos hua boldness ke karan sir....

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  24. वाकई यह जबर्दस्त कहानी हो सकती है सईद .. आपने किरदारों को उनके परिवेश में थोडा और आकार लेने दिया होता .. आपका किरदार जो भाषा बोल रहा है उसी भाषा परिदृश्य को कमरे में दिखाइये .. किरदार अपने परिदृश्य में फंस रहा है .. नीना को कहानी में सूत्रधार की तरह इस्तेमाल करके उस साम्प्रदायिकता वाले एंगल को थोडा और विस्तार दिया जाय तो मजा आएगा .. मैं यह भी सोच रहा हूँ कि कहानी के बोल्डनेस को और तल्ख़ करके इसे आम फहम बोल्ड कर दिया अथवा बोल्डनेस ख़त्म कर दी जाय तो यह कहानी संतुलित होकर और असर कर सकती है ..

    कहानी पर ब्लॉग सम्पादक की टिप्पणी अत्यंत कमजोर है .. फर्स्ट हैण्ड में यह कहानी फिलवक्त समालोचन पर लगने लायक नहीं थी ..

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  25. सईद कुल जमा अच्छी लगी मुझे कहानी.. पर थोड़ी बड़ी की जा सकती थी कहानी... गालियाँ भी ज्यादा थीँ.... जज़्बाती बैचेनी से ज्यादा उग्रता नज़र आई इसमेँ... हाँलाकि कहानी का ख़ाका तुम्हारा था तो तुम बेहतर समझ और समझा पाओगे इस चीज़ को... मुझे हिर्सो-हवस और दीनी-ख़ौफ़ का एक बिस्तर पर एक ही साथ होना भी ज्यादा समझ नहीँ आया।

    अन्यथा मत लेना कमेँट को..

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  26. न तो लेखक हूँ न समीक्षक इसलिए मेरी टिप्पणी जादा मायने नहीं रखती
    इन आल बहुत अच्छी कहानी
    " मेरे शहर में बम ब्लास्ट हुआ है ......
    तू भी मुसलमान है " ये वाक्य कहानी के बाहर भी कचोटते हैं
    परन्तु कहानी जिस उद्देश्य से चली थी उसमें इतनी बोल्डनेस की आवश्यकता नहीं थी

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  27. dharmik riti riwajon,mahan darsanon,samrajya nirmanon,rajnaitik samikarno aur sampradayik sauhardon ke liye kab tak aurat ko jalil karte rahenge hum log.nayepan ke chakar main kuchh jayada ki auraton ko aapne jalil kar diya hai.sahitya ki meri samajh thodi kum hai lekin nina kaa charitra chitran thoda khatka.kahin aap sampradayik sauhard ke aaveg main istri-vidvesh ki or to nahi chale gaye hain.sochiyega

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  28. सईद भाई आपको बहुत नहीं पढ़ पाया हूँ। बस एक कविता पढी थी जिसमे सिगरेट का धुंआ बहुत था और आज यह कहानी। ऊपर बड़े बड़े लोगों की टिप्पणी है ऐसे में कुछ कहना बनता नहीं है। लेकिन बस इतना कहना चाहूँगा कि इस बोल्डनेस और खुलेपन की जरुरत बिलकुल भी नहीं थी। इधर अपने प्रकाशन के सिलसिले में देश के बड़े बड़े कथाकारों की कम से कम दो सौ कहानियां एक साथ पढने का मौका मिला है लेकिन कहीं भी इस तरह का खुलापन नहीं मिला। मैं कोई लेखक या आलोचक नहीं हूँ फिर भी मुझे लगता है कि भाषा की शालीनता ज़रूरी है। कहानी बनाने से पहले ख़त्म हो गई। यदि बोल्डनेस न हो तो कहानी में कुछ नहीं है।

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  29. सईद भाई की यह कहानी मुझे कई तरह से एक महत्त्वपूर्ण कहानी प्रतीत होती है. मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर दो मुसलमानों की स्वप्न में बातचीत का बिम्ब अत्यंत सार्थक बन पड़ा है, गालियों का प्रयोग उत्सुकता को उभारने हेतु बड़े सार्थक ढंग से किया गया है. यह कहानी इस नज़रिए से प्रभावशाली बन पड़ी है की इसमें सेक्स पर साम्प्रदायिकता की जीत दिखाई गई है और स्त्री के कमोडिटी में बदलने की त्रासदी व्यंजित हुई है. मुझे लगता है की नीना के करेक्टर को और विस्तार दिया जा सकता था और बोल्डनेस के साथ बम कांड में यदि फर्जी ढंग से 'उसे' फंसाने की कथा भी होती तो उसकी चुप्पी और अधिक प्रभावशाली बन सकती थी, लेकिन यह लेखक का विशेषाधिकार है की वह कहानी को कैसे नरेट करे. कुल मिलाकर एक नई और बेहतरीन कहानी के लिए सईद भाई को बहुत बहुत बधाई और अरुण जी को ऐसी कहानी छापने का विवेक और साहस दर्शाने के लिए बधाई.

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  30. सईद, कहानी के बारे में बात करने से पहले कुछ और बातें करना चाहूंगा।
    1. स्‍त्री विमर्श के एक पहलू 'स्‍त्री को कमोडिटी मानने का भाव' के बारे में बात करने के लिए कतई जरूरी नहीं बात बात में नंगापन लाया जाए।
    2. बोल्‍डनेस का अर्थ नंगापन नहीं होता।
    3. भ्रम में हूं कि कि बाजार के इस युग में आइडेन्‍टिटी डिज़ाल्‍व हुई है या मजबूत हुई है। दो दोस्‍तों के संदर्भ में

    अब कहानी के बारे में दो बातें
    कहानी बेहद संवेदनशील मुद्दे को बेहद कमजोर तरीके से डील करती है। दंगों में मुसलमानों के हाथ होने और खुद के मुसलमान होने के इस तथ्‍य को जोडने के लिए कहीं से दो मित्रों का गर्लफ्रेंड केसाथ एक साथ हम बिस्‍तर होने का कोई लेना देना मुझे समझ में नहीं आता
    कहानी इतना अब्‍रप्‍टली सपने के टूटने से खत्‍म होती है कि सारा ताना बाना जो पहले बुना था बेमानी हो जाता है।

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  31. sayeed bhai...aadaab... bahut logon ne kaafi kuch kah diya hai..so main ziyadah kya kahun..haan kahani ka kendriya bhaav mujhe pasand aaya...yah painting bhi kahani ke saath khoob aayi.. :)

    Duaayen

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  32. सईद सर!बढ़िया थीम , मगर एक बात बुरी लगने की हद तक समझ से परे है--हमारी प्रगतिशीलता के लिए औरतों का नंगापन क्यों ज़रूरी है!

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  33. मैं थोड़ा लेट हो गया। लेकिन अपनी तरफ से इतना जरूर कहूंगा बोल्डनेस ने कहीं भी कहानी के विजन पर असर नहीं डाला है बल्कि उसे और मारक एवं सम्प्रेष्य बनाया है। और जो वरिष्ठ लोग बोल्डनेस को कम करने और विजन पर और ठहर कर चर्चा करने की सलाह दे रहे हैं। उनसे बेहद आदर के साथ कहता हूं कहानी और कविता कथ्य की व्यंजनाओं में है। वैसे भी सईद भाई सांप्रादायिकता पर कहानी लिख रहे हैं कोई लेख नहीं तैयार कर रहे हैं।

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