सहजि सहजि गुन रमैं : अजेय









अजेय 

१८ मार्च १९६५, सुमनम, लाहुल-स्पिति (हिमाचल प्रदेश)

पहल, तद्भव ,ज्ञानोदय, वसुधा, अकार, कथन, अन्यथा, उन्नयन, कृतिओर, सर्वनाम, सूत्र , आकण्ठ, उद्भावना ,पब्लिक अजेण्डा , जनसत्ता, प्रभातखबर, आदि पत्र - पत्रिकाओं मे रचनाएं प्रकाशित
कविता संग्रह - इन सपनों को कौन गायेगा (दखल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य )
ई पता : ajeyklg@gmail.com






हिम का आंचल साहित्य में आता तो जरूर है पर अक्सर शैलानीपन की भावुकता और अजनबीपन से घिरा हुआ. कविता के प्रक्षेत्र में अजेय की कविताएँ अपनी धवलता, विराटता और संवेदना से यह विश्वास पैदा करती हैं कि प्रकृति ही मनुष्यता की आदिम और अंतिम शरणस्थली है. ऐसा संवेदित हिम सौंदर्य इस तरह से पहली बार सम्मुख है. अजेय की कविताएँ अपनी निर्मिति में भी सु-गढ़  हैं और जनजीवन के ठोस आधार पर टिकी हैं. 
पहाडों पर तापमान का बढ़ना कैसे उसके भीतर के तापमान को बढा देता है यह  देखना हो तो शिमला के एक एक डिग्री बढते तापमान पर लिखी कविता सीरीज देखनी चाहिए..

अमित सिंधु 





मेंतोसा1 पर एडवेंचर टीम


      कन्धों तक उतर आता है आकाश !
      यहाँ इस ऊँचाई पर
लहराने लगते हैं चारों ओर
घुँघराले मिजाज़ मौसम के
उदासीन
अनाविष्ट
कड़कते हैं न बरसते हैं
पी जाते हैं हवा की नमी
सोख लेते हैं बिजली की आग

कल कल शब्द झरते हैं केवल
      बर्फीली तहों के नीचे ठण्डी खोहों में
      यदा कदा
अपने ही लय में टपकता रहता है राग

परत दर परत खुलता है
अनगिनत अनछुए बिम्बों का रहस्य
जहाँ सोई रहती है छोटी सी
एक ज़िद
कविता लिख डालने की

      ऐसे कितने ही धुर वीरान प्रदेशों में
निरंतर लिखी जा रही होगी
कविता खत्म नहीं होती ,
दोस्त .......
संचित होती रहती है वह तो
जैसे बरफ
विशाल हिमनदों में
शिखरों की ओट में
जहाँ कोई नहीं पहुँच पाता
सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
सूरज भी नहीं

सुविधाएं फुसला नहीं सकतीं
इन कवियों को
जो बहुत गहरे में नरम और खरे हैं
लेकिन अड़े हैं
सम्वेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं मे
अपनी प्रेमिकाओं को  याद करते
नाचते गाते
दुरुस्त करते तमाम उपकरण
घुटन और विद्रूप से दूर
लेटे रहते हैं अगली सुबह तक स्लीपिंग बैग में 
ताज़ा कविताओं के ख्वाब संजोए
जो अभी रची जानी हैं .  


1.मेंतोसा = लाहुल (पश्चिमी हिमालय) की मयाड़ घाटी में एक पर्वत शिखर (ऊँचाई 6500 मीटर) 
     




ब्यूँस की टहनियाँ
(आदिवासी बहनों के लिए)

हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
दराटों से काट छाँट कर
सुन्दर गट्ठरों में बाँध कर
हम मुँडेरों पर सजा दी गई हैं

खोल कर बिछा दी जाएंगी
बुरे वक़्त मे
हम छील दी जाएंगी
चारे की तरह
जानवरों के पेट की आग बुझाएंगीं

हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
छिल कर
सूख कर
हम और भी सुन्दर गट्ठरों में बँध जाएंगी
नए मुँडेरों पर सज जाएंगी
तोड़ कर झौंक दी जाएंगी
चूल्हों में
बुरे वक़्त में
ईंधन की तरह हम जलेंगी
आदमी का जिस्म गरमाएंगीं.


हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
रोप दी गई रूखे पहाड़ों पर
छोड़ दी गई बेरहम हवाओं के सुपुर्द
काली पड़ जाती है हमारी त्वचा
खत्म न होने वाली सर्दियों में
मूर्छित, खड़ी रह जातीं हैं हम
अर्द्ध निद्रा में
मौसम खुलते ही 
हम चूस लेती हैं पत्थरों से
जल्दी जल्दी खनिज और पानी

अब क्या बताएं
कैसा लगता है
सब कुछ झेलते हुए
ज़िन्दा रह जाना इस तरह से
सिर्फ इस लिए
कि हम अपने कन्धों पर और टहनियाँ ढो सकें
ताज़ी, कोमल,  हरी-हरी
कि वे भी काटी जा सकें बड़ी हो कर
खुरदुरी होने से पहले
छील कर सुखाई जा सकें
जलाई जा सकें
या फिर गाड़ दी जा सकें किसी रूखे पहाड़  पर 
हमारी ही तरह.

हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
जितना चाहो दबाओ
झुकती ही जाएंगी
जैसा चाहो लचकाओ
लहराती रहेंगीं
जब तक हम मे लोच है

और जब सूख जाएंगी
कड़क कर टूट  जाएंगी.
  




आज कितनी अच्छी धूप है !
(हैलिकॉप्टर से ‘पीज’ गाँव के ऊपर से उड़ते हुए)


छतों पर खींद रख दिए गए हैं सूखने के लिए
भेड़ें, गऊएं गाँव से दूर निकल चलीं हैं
सप्ताह भर की बारिश ने 
खूब नरम पत्तियाँ उगाईं होंगीं
(हालाँकि हरियाली दिख नहीं रही है इस ऊँचाई से )
आज धूप कितनी अच्छी है !

बुज़ुर्ग अलसा रहे हैं आँगन की सलेटों पर
अधेड़ औरतें छज्जों पर बतियाती बाल सुखा रहीं हैं
बच्चे कक्षाओं में लौट रहे प्रार्थना खत्म कर
उतर रहे युवक पीठ पर झोले लाद
और दयार के स्लीपर
युवतियाँ भी –
दूध की कैनियाँ, बालन की गठड़ियाँ
गाँव की निचली ढलान पर
जहाँ बचा रह गया है थोड़ा सा जंगल
फिर नीचे ढाल पुर में तो बाज़ार ही बाज़ार है..... 

आज क्या कुछ बिकेगा ?
गुच्छियाँ
बोदि के फूल
चरस और थरड़े की थैलियाँ
कितना मुनाफा होगा .....
आज बहुत अच्ची धूप है !

प्रार्थना से लौटते  किसी एक बच्चे ने
ज़रूर सोचा होगा आज
कि क्यों गिरता जा रहा पहाड़
ढलान दर ढलान
टूट कर बिखरता जा रहा पहाड़
कि खूब कस कर पकड़ रक्खूँ
अपने पहाड़ को
अपनी नन्ही मुट्ठियों में ....

आज कितनी अच्छी धूप है ! 
                                           



तुम्हारी जेब में एक सूरज होता था
(ट्रंक में दिवंगत  माँ की चोलू – बास्केट देख कर) 

तुम्हारी जेबों मे टटोलने हैं मुझे
दुनिया के तमाम खज़ाने
सूखी हुई खुबानियां
भुने हुए जौ के दाने
काठ की एक चपटी कंघी और सीप की फुलियां
सूँघ सकता हूँ गन्ध एक सस्ते साबुन की
आज भी
मैं तुम्हारी छाती से चिपका
तुम्हारी देह को तापता एक छोटा बच्चा हूँ माँ
मुझे जल्दी से बड़ा हो जाने दे

मुझे कहना है धन्यवाद
एक दुबली लड़की की कातर आँखों को
मूँगफलियां छीलती गिलहरी की
नन्ही पिलपिली उंगलियों को

दो दो हाथ करने हैं मुझे
नदी की एक वनैली लहर से
आँख से आँख मिलानी  है
हवा के  एक शैतान झौंके से 

मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से
चुराना है एक दहकता सूरज
और भाग कर गुम हो जाना है
तुम्हारी अँधेरी दुनिया में एक फरिश्ते की तरह
जहाँ औँधे मुँह बेसुध पड़ीं हैं
तुम्हारी अनगिनत सखियाँ
मेरे बेशुमार दोस्त खड़े हैं हाथ फैलाए

कोई खबर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी अभी


सौंपना है माँ
उन्हें उनका अपना सपना
लौटाना है उन्हें उनकी गुलाबी अमानत
सहेज कर रखा हुआ है
जो तुम ने बड़ी हिफाज़त से
अपनी सब से भीतर वाली जेब में !



     


दोर्जे गाईड की बातें
(गङ – स्तङ हिमनद का दृश्य देखते हुए )

इस से आगे ?

इस से आगे तो कुछ नहीं है सर !

यह इस देश का आखिरी छोर है
इधर बगल मे तिबत है
ऊपर की तरफ कश्मीर
उधर जहाँ सूरज डूब गया है अभी अभी
और जहाँ यह नदी भागती चली जा रही है
वहाँ जम्मू है
उधर बड़ी गड़बड़ है
गड़बड़ पंजाब से उठ कर कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ हैं
सर उठा कर जीते हैं
सब को पानी पिलाते हैं
और दूर से इतने दिलकश दिखते हैं
पर ज़रा रुक कर देखो यहाँ .......

नहीं सर ,
वह वैसा नहीं है
जैसा कि अदीब लिखता है --
भोर की प्रथम किरणों की स्वर्णाभा
शंख धवल मौन शिखर
स्वप्न लोक, रहस्यस्थली
वगैरा वगैरा
      जिसे हाथों से छू लेने की इच्छा रखते हो
वो वैसा खमोश नही है
जैसा कि दिखता है

बड़ी हलचल है वहाँ दरअसल
बड़े बड़े चट्टान
गहरे नाले और खड्ड
खतरनाक पगडण्डिय़ाँ है
बरफ के टीले और ढूह
      भरभरा कर गिरते रहते हैं
गहरी खाईयों में
बड़ी ज़ोर की हवा चलती है
हड्डियाँ काँप जातीं हैं महाराज
साक्षात ‘शीत’  रहता है वहाँ !

      यहाँ सब उस से डरते हैं
      वह बरफ का आदमी
बरफ की छड़ी ठकठकाता
ठीक सकराँद के दिन
गाँव से गुज़रते हुए
संगम में नहाता है
इक्कीस दिनों तक सोई रहतीं हैं नदियाँ
दुबक कर बरफ की रज़ाई में
थम जाता है चन्द्र भागा का शोर
परिन्दे तक कूच कर जाते हैं
रोहताँग के पार
तन्दूर के इर्द गिर्द हुक्का गुडगुड़ाते बुज़ुर्ग
गुप चुप बच्चों को सुनाते हैं
‘शीत’   की आतंक कथा .

      नहीं सर
      झूठ क्यों बोलना ?
      अपनी आँखों से नहीं देखा है उसे
      पर सब कहते हैं
      घर लौटते हुए कभी चिपक जाता है
मवेशियों की छाती पर
औरतें और बच्चे
भुर्ज की टहनियों से डंगरों को झाड़्ते हैं --
     
“बरफ की डलियाँ तोड़ो
‘डैहला’  के हार पहनो
शीत देवता
अपने ‘ठार’  जाओ
बेज़ुबानों को छोड़ो”

सच महाराज, आँखों से तो नहीं......
कहते हैं
गलती से जो कोई देख भी लेता है
वहीं बरफ हो जाता है
‘अगनी’ कसम !!

अब थोड़ा अलाव ताप लो सर,
इस से आगे कुछ नहीं है
देश के इस आखिरी छोर पर
‘शीत’ तो है
और उस से डरना भी है
पर लड़ना भी है
यहाँ सब उस से लड़ते हैं जनाब
आप भी लड़ो. 

1890 का शिमला




शिमला का तापमान
(सामान्य से दस डिग्री उपर)

+10c
           
भीड़ कभी छितराती है
कभी इकट्ठी हो जाती है
तिकोने मैदान पर विभिन्न रंगों के चित्र उभरते हैं
एक दूसरे में घुलते हैं
स्पष्ट होते हैं
बिखर कर बदल जाते हैं
कभी नीली जीन्स की नदी सी एक
दूर नगर निगम के दफ्तर तक चली जाती है
पतली और पतली होती
जल पक्षियों से, डूबते, उतराते हैं 
उस पर रंग बिरंगी टी-शर्ट्स और टोपियां
धूप सीधी सर पर है एकदम कड़़क
और तापमान बढ़ा हुआ

+20c
           
बच्चे बड़े बड़े  गुब्बारे ओढ़ रहे हैं 
गोल लम्बूतरे 
बड़ी-बड़ी गुलाबी कैंडीज़ में से झाँकता
एक मरियल काला बच्चा
मेरे पास आकर रोता है -
अंकल ले लो न, कोई भी नहीं ले रहा’’
उसकी आंखें प्रोफेशनल हैं
फिर भी भीतर कुछ काँप सा जाता है 
तापमान पहले से बढ़ गया है 

+30c
           
प्लास्टिक का हेलीकॅाप्टर
रह रह कर मेरे पास तक उड़ा चला आता है
लौट कर लड़खड़ाता लेन्ड करता है
रेलिंग पर बैठा बड़ा सा बन्दर
दो लड़कियों की चुन्नी पकड़ता, मुंह बनाता, डराता है

लड़कियाँ
एक सुन्दर, गोरी, लाल-लाल गालों वाली
दूसरी साधारण, सांवली
प्रतिवाद नहीं करतीं
शर्म से केवल मुह छिपातीं, मुस्करातीं हैं
तापमान बढ़ता ही जा रहा है

+40c 
     
इक्के दुक्के घोड़े वाले ठक-ठक किनारे किनारे दौड़ रहे हैं
घोड़े वालों की चप्पलों की चट-चट
घोड़े की टापों में घुल मिल रही है
दोनो हाँफ रहें हैं
गर्म हवा की किरचियाँ हैं
धूप की झमक है
दोनों की चुंधियाई आँखों में आँसू हैं
गाढ़े सनग्लास पहने सैलानी स्वर्ग में उड़ रहा है 
बड़े से छतनार दरख्त के नीचे
आई जी एम सी में इलाज करवाने आए देहाती मरीज़ सुस्ता रहे हैं
बेकार पड़े घोड़े भी निश्चिन्त, पसरे हैं 
लेकिन घोड़े वाले परेशान, दाढ़ी खुजला रहे हैं
ग्राहक की प्रतीक्षा में उन की आँखे सूख गई हैं
एकदम सुर्ख और खाली 
एक लकीर भर डोल रही है उनमें 
यह लकीर घोड़े और घोड़े वाले में फर्क बताती है 
तापमान कुछ और बढ़ गया है 

+50c
            
उस बड़े बन्दर को दो युवक
(एक चंट / दूसरा साधारण ढीला ढाला सा)
चॅाकलेट खिला रहे हैं
वह बन्दर उनके साथ गुस्ताखी नहीं करता
वे लोग बातें कर रहे हैं खुसर फुसर
युवक पंजाबीमें
बंदर बंदारीमें
क्या फर्क पड़ता है
देास्तीकी एक ही भाषा होती है
उनकी आपस में पट रही है / जोड़ तोड़ चल रहा है
तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है 

+60c  
     
हिजड़े और बहरूपिए मचक-मचक कर चल रहे हैं
उन के ढोली गले में रूमाल बांधे
अदब से, झुक कर उन के पीछे जा रहे हैं 
पान चबाते होंठों में लम्बी-लम्बी विदेशी सिग्रेटें दबाए
गाढ़े मेकअप व मंहगे इत्र से सराबोर
इन भांडों से बेहतर ज़िन्दगी और किसकी है ?
लंगड़ी बदसूरत भिखारिन भीख न देने वालों को गालियाँ देती है
उसके अनेक पेट हैं
और हर पेट में एक भूखा बच्चा
संभ्रांत सा दिखने वाला एक अधेड़
काला लबादा ओढ़, तेल की कटोरी हाथ में लिए
फ्रेंडशिप बैंड वाली तिब्बती लड़की के बगल में बैठ गया है
उस की बूढ़ी माँ  को फेफड़ों का केंसर है

गेयटी के सामने से एक महिला गुज़र गई है 
उसके सफेद हो रहे बाल मर्दाना ढंग से कटे हैं
कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ और गले में खूब चमकदार मनके
उसकी नज़रें एक निश्चित ऊँचाई पर स्थिर हैं 
उसकी बिंदास चाल में
समूचे परिदृष्य को यथावत् छोड कहीं पहुँच जाने की आतुरता है
तापमान काफी बढ़ गया है

+70c
           
हनीमून जोड़े फोटो खिंचवाते हैं 
कभी-कभी किसी-किसी का कैमरा
क्लिक नहीं करता
चाहे कितना भी उलट पलट कर देखो
कभी-कभी कुछ जोड़े
बिल्कुल क्लिक नहीं करते
फिर भी वे साथ-साथ चलते हैं
लिफ्ट में, बारिश्ता, बालजीज़ में
जाखू से उतरते हैं एक दूसरे से चिमट कर
स्केंडल पर गलबहियाँ डाले
और रिज पर एक ही घोड़े पर
ठुम्मक-ठुम्मक
घोडे़ की छिली पीठ की परवाह किए बिना ...........
तापमान एकदम बढ़ गया है ।

+80c
           
गुस्ताख़ बंदर रेलिंग पर से गायब है
लड़कियों के पास पंजाबी युवक पहुंच गए हैं 
चंट युवक सुंदर वाली से सटकर बैठ गया है
उसे यहां वहां छू रहा है
लड़की शर्म से पिघल रही है
आँखें नीची किए हंसती जा रही है
उसके ओठ सिमट नहीं पा रहे हैं
दंत पंक्तियाँ छिपाए नहीं छिप रही हैं

साँवली लड़की कभी कलाई की घड़ी देखती है
कभी चर्च की टूटी हुई घड़ी की सूईयों को 
जो लटक कर साढ़े छह बजा रही हैं
साधारण युवक की आँखें मशोबरा के पार
कोहरे में छिप गई सफेद चोटियों में कुछ तलाश रहीं हैं
वह बेचैन है मानो अभी कविता सुना देगा 
तापमान बेहद बढ़ चुका है

+90c       
     
कुछ पुलिस वाले
नियम तोड़ रहे एक घोड़े वाले को
बैंतों  से ताड़-ताड़ पीटने लगे हैं
घोड़े वाले की पीठ पर लाल-नीले निशान पड़ गए हैं 
गुस्सा पीए हुए उसके साथी उसे पिटते हुए देखते रह गए हैं
पुलिस वाले उसे घसीटते हुए ले जा रहे हैं
वह ज़िबह किए जा रहे सूअर की तरह गों-गों चिल्ला रहा है
गाँधी जी की सुनहरी पीठ शान्तिपूर्वक चमक रही है
इन्दिरा धूप और गुस्सा खा कर कलिया गई हैं
परमार चिनार के पत्तों में छिपे झेंप रहे हैं
तापमान भीतर से बढ़ने लगा है

+100
     
मेरे बगल में स्टेट लाइब्रेरी खामोश खडी है
साफ सुथरी, मेरी सफेद कॉलर जैसी
मेरी मनपसंद जगह !
वहां भीतर ठंडक होगी क्या ?
तापमान बर्दाश्त से बाहर हो गया है.
____________________________________________

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  1. Ajay mere priya kawi han. Wo nirale andaj wale kawi han. Neelee jeans si nadi kewal wahi dekh sakte han. Mere shimla prawas ko unho ne fir jinda ker diya.pahadi hawon k ghoke se man bheeg gaya subah subah.

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  2. अच्छी लगीं. लॉंग शॉट, क्लोज़ अप, संवाद... सभी कोणों से एक कोलाज बनता है. अजेय जी को और आपको बधाई.

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  3. अपने ही लय में टपकता राग- अजेय कुमार!

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  4. अजेय जी की कवितायें समकालीन कविता के इस संतोषप्रद-समय में अपने पहाड़, अपनी मिटटी को अपने भीतर संजोये कहन की बिलकुल ताज़ी प्रविधि में हम तक पहुँचती है. इन कविताओं में से कई कविताओं को मैं पहले भी पढ़ चुकी हूँ. यहाँ 'तापमान के बढ़ने' पर जो सीरीज है वह अनोखी है, वहां वे कोलाज़ तो बनाते ही हैं, पर उन्ही कोलाजों में विसंगतियों की बहुत बारीक आधी-तिरछी रेखायें भी हम देख पा रहे हैं जो कविता के मूल स्वभाव से गहन तादात्म स्थापित करती अपने गाँव-देस में पल-पल घट रही विसंगतियों की और ध्यान भी दिलाती है, हमारी संवेदनाओं से जोडती है. कवि अजेय के साथ समालोचन को भी हार्दिक बधाई.

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  5. हिमाचल मेरा प्रिय प्रदेश रहा है ..आरम्भ से ही ...कई बार गया हूँ ..घुमा हूँ ...पर अजेय की कविताओं ने इस पर्वत प्रदेश विषयक मेरी दृष्टि को नया आयाम सा दिया है ...सुन्दर कवितायेँ ..कवि को बधाई और समालोचन का आभार

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  6. करीब दो वर्ष पूर्व हमारी एक मित्र सुनीता ने दो कविताएँ अजेय जी की पढवाई थीं।एक कविता "माँ"पर थी और दूसरी यहाँ समालोचन पर है,"ब्यूँस की टहनियां". दो साल बाद भी कविता स्मृति की तरह मन में है। कविता की ताकत है यह।
    "शिमला का तापमान"सिरीज़ पढ़ने के बाद लगा कि अजेय जी की पुस्तक अभी तक घर की शैल्फ पर क्यों नहीं आई ..
    कवि की संवेदना पर्वत प्रदेश से इस तरह एकमेक है कि उसकी विराटता और उसमें छिपा दर्द का संगीत व्यथित करता है। हम इन्हें पढ़ रहे हैं और कई छायाएं हमारे भीतर बन रही हैं ..मिट रही हैं।।अनुभूति के जिस स्तर तक ये कविताएँ ले गई हैं वहां अब गहरी विकलता है ....अपने साथ सिरीज़ की इस कविता को भी ले जा रहे हैं ...

    बच्चे बड़े -बड़े गुब्बारे ओढ़ रहे हैं
    गोल लम्बूतरे
    बड़ी-बड़ी गुलाबी कैण्डीज़ में से झांकता
    एक मरियल काला बच्चा
    मेरे पास आकर रोता है -
    "अंकल,ले लो न,कोई भी नहीं ले रहा "
    उसकी आँखें प्रोफेशनल हैं
    फिर भी भीतर कुछ काँप -सा जाता है
    तापमान पहले से बढ़ गया है

    जवाब देंहटाएं
  7. अच्छी बात यह कि अरुणदेव को यह पता है कि मुझे क्या टैग करना है और क्या नहीं। अजेय कुमार की इन कविताओं को देखने के बाद मुझे निराला जी के एक कथन और अपने तीसरे संग्रह ‘‘ जापानी बुखार ’’ की कविताओं की याद आयी। जिसमें पूर्वांचल अपने दर्द की तीव्रता के साथ मौजूद है। निराला ने कभी कहा था कि कविता परिवेश की पुकार है। अजेय की इन कविताओं में भी अपने परिवेश का दुख है। सच तो यह कि ये सारी कविताएँ एक लंबी कविता का हिस्सा हैं, जिनमें अभी कुछ और कविताएँ आएँगी। जो कवि अपनी कविता में अपने परिवेश और समाज और देश को जीता नहीं है, उसकी कविताएँ पकड़ में आ जाती हैं कि यह बाहर की कविताओं की नकल है। पिछले दिनों कहानी की एक पत्रिका द्वारा प्रायोजित बहस कुछ नकली कविताओं को प्रतिष्ठित करने के लिए थी। बहरहाल, अजेय कुमार को ‘अपनी (अच्छी) कविताओं’ के लिए बधाई।

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  8. बड़ी अच्छी कवितायें .. मुझे ख़ास यह लगा कि शीर्षक पढ़ते ही कविता पढने की भूख जग गयी .. पहली दो चार पंक्तियों को पढ़ते ही कविता का स्वाद भाने लगा और हर कविता पूरी होने तक तृप्त कर गयी .. इसी प्रतिक्रिया में इन कविताओं के लिए कहीं एक जगह मैं 'रोचक' शब्द भी लिखना चाहता हूँ .. याद रहने लायक शब्द और बिम्ब हैं श्री अजेय की कविताओं में ..

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  9. हिमांचल के मनोहारी बिम्बों में मनोभावों को खूबसूरती से पिरोये हुए अनोखी कहन वाली इन कविताओं में सब कुछ है ! भाव और सौन्दर्यानुभूति से समृद्ध इन कविताओं केलिए अजेय को बधाई !समालोचन की एक सराहनीय प्रस्तुति !

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  10. मैं क्या कहूँ? अजेय मेरे इतने प्रिय हैं कि 'दख़ल प्रकाशन' की योजना ही उनकी किताब के लिए बनी पहली बार. यह किताब पुस्तक मेले में होगी...आप सब आमंत्रित हैं वहां

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  11. इन कविताओं में ( और अजेय की अन्य कविताओं में भी) मैं जिस इंसान को मैं देखता हूँ वह कुछ अलग - सा लगता है। इसलिए नही कि कि वह एक 'अलग -सी दुनिया' में रहता है जो आमतौर पर 'दुर्गम' है, 'भीषण सुन्दर' है बल्कि वह उस परिवेश की बात करता है जो हिन्दी साहित्य के जरिए बहुधा रुमानी बनाकर पेश किया जाता रहा है मानो धुर हिमालयी दुनिया एक अलग द्वीप है सौन्दर्य ,रहस्य और अध्यात्म की धुंध लिपटी - सिमटी ;गोया वहाँ मनुष्य रहते ही न हों। अजेय अपनी कविताओं में वहाँ की माटी, मनुष्य और मौसम की बात सीधे , सहज सरल शब्दों में करते हैं ।यह एक ऐसी सहजता है जो संवेदना और शब्द के प्रति सच्ची ईमानदारी से उपजती है। ये एक प्यारे इंसान की प्यारी कवितायें है। शुक्रिया 'समालोचन'।

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  12. बेहतरीन कवितायें....बार बार पढ़ने को जी चाहे..ऐसी...
    अजेय जी को बधाई....
    आपका शुक्रिया
    सादर
    अनु

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  13. अजेय अजेय हैं .....लोक और जनपदीय चेतना के कवियों में एक अलग तरह का स्वर......उनकी कवितायेँ लफ्फाजी से एकदम दूर हैं.......निरंतर एक बेचैनी झलकती है इनसे....एक अपूर्णता का अहसास हमेशा कवी के भीतर बना रहता है जो कवी को बेहतर लिखने को प्रेरित करता रहता है.

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  14. अजेय की इन कविताओं को पढ़ते हुए पहाड़ी जीवन की श्रमसाध्‍य परिस्थितियां और वहां का भीषण संघर्षशील जीवन आंखों के सामने तैरता जाता है। दुनिया को दिखते सौंदर्य के पीछे कवि जिन वास्‍तविक चीजों को देखता है वही वहां का जीवंत सौंदर्य है और कविता का सच है। इन कविताओं के लिए समालोचन का आभार। अजेय को बधाई उनके कविता संग्रह के लिए।

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  15. प्रकृति और पहाड़ी जीवन के विभिन्न बिम्बों वाली बिलकुल अलग तरह की प्रवाहपूर्ण कवितायें.लोगों और स्थितियों को बहुत करीब से समझकर संवेदनशीलता से व्यक्त किया गया है.

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  16. व्यूंस की टहनियाँ और शिमला का तापमान शीर्षक कविताएँ मुझे अधिक पसन्द आईं ।पहली कविता एक सांग रूपक लगती है ।दूसरी रचना में पहाड़ी जीवन के विविध दृश्य हैं ,जो यथार्थ के चित्र हैं ।अजेय मुझे नवोदित सफल कवि दिखता है ।

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  17. पहाड, पहाडों में अवस्थित गाँव, गाँव के पास से बहती नदी, और सर्दियों मे पहाडों को ढकती सफेद बर्फ, पहाडों से शान्त गाँववाले, गाँववालों के दिल सा साफ वातावरण और वहाँ से दिखती निर्मल आकाश - सब को अपने साथ लेकर चलनेवाला कवि यानी अजय कुमार ...

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  18. पहाडी आंचलिकता का सुन्दर प्रकटीकरण है ,बच्चे का निहोरा ,हिजडो बहरूपियों को बेबाक स्पष्ट चित्र देना ,..बहुत अच्छा लगा ,अच्छी कविताओ के लिये बधाई ।

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  19. संवेद्य-श्‍लाघ्‍य,स्‍थनीयता का आवश्‍यक वि‍स्‍तार

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  20. आप लोगों की टिप्पणियों से प्रेरित हुआ हूँ . आभार !

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  21. अजेय जी की कवितायेँ हमेशा बांधती है ..बहुत अच्छी रचनाएं ..पहाड़ों तक हाथ पकड़ ले जाती हुई

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  22. अजेय को कई सालों से पढ़ रहा हूँ। अजेय मेरे प्रिय कवि हैं।

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  23. अजेय की यह प्रिय कविताएं मेरी भी प्रिय कविताएं हैं ।
    -निरंजन देव शर्मा

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  24. कहा तो सब जा चुका है , उसमे मुझे भी शामिल करें और बधाई स्वीकार करें ..|खासकर शिमला के तापमान के लिए ...

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  25. अजेय कि कवितायेँ पहली बार सामने से गुजरी है और बिना किसी लाग लपेट के अपनी सहज़ता ,सुंदरता और और अर्थवत्ता कि वज़ह से छु गयी ........हिंदी में महानगरीय कवियों कि भरमार है .....लेकिन सुदूर स्थानों से जो कवितायेँ आ रही है उनमे गज़ब की मिठास और अपने परिवेश की जीवन्तता है .........अजेय की कवितायेँ बहुत अच्छी हैं ........कवि को बधाई .....और शुभकामनाएं

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  26. Aise kitne hi dhur viran pradesho'n me
    Nirantar likhi ja rahi hogi
    Kavita khatm nahi hoti,
    Dost.....
    Sanchit hoti rahti hai vo to
    ......

    Main janti hoon ki kavitaye Ajay ke mann me, lahaul ki Bheeshan sardi aur kathin jeevan se lagataar pravahit ho rahi hai...

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  27. ajey ko parha aur shayad samjha bhi hai.hmare himachal me nalu ka pani jaisa hai.jo hmesha sukoon deta hai.is kavi ke jriye barf ke niche sadiyon se dabi kuch awaajen sunne jaisa sukh milta hai.____________ mohan sahil_-_ theog.

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  28. अभी अभी हिमाचल की यात्रा से लौटा हूं ।पहाडों की बहुत सी स्मृतियां मेरे पास है.उनका नाम हरनोट आत्मारनजन रजनीश निसांत सुंदर लोहिया मुरारी शर्मा गणेशगनी हुकुम ठकुर है .मनाली में अशेष मिले.दिलचश्प बाते हुई
    इन बातों में अजेय का भी जिक्र हुआ। उनकी ये कविताये पढ कर पहाड देओदार चिनार घाटियां याद आ रही है
    पहाड में अच्छे कवि है। उनको मह्त्व दे कर आपने कविता के मूल उत्स को पहचाना है । अजेय को वेहतर कविताओ के लिये शुभकाम्नाये
    स्वप्निल श्रीवास्तव

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  29. ये कविताएँ हमें अपनी ही सृजनात्मक घाटियों की ऐसी यात्रा कराती हैं जो हमारे अपने लिए भी अभी अनछुई हैं.

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