सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेमचंद गाँधी


प्रेमचन्द गाँधी की संवेदनात्मक रचनात्मकता की यात्रा आज उस पडाव पर है जहाँ उनसे बेहतरीन की उम्मीद की जा सकती है. और वह इस सृजनात्मक-वैचारिक चुनौती  को लगातार स्वीकार कर रहे हैं. इधर उनकी कविताओं ने अपने लिए ऐसे ऐसे भूखंड तलाशे हैं जो अब तक साहित्य के लिए अनुर्वर थे. ‘नास्तिकों की भाषा पर उनके पास  एक अर्थवान काव्य- श्रृंखला है. प्रेम के शिल्प में अनके प्रयोग हैं और उसका काव्य – विस्तार है.

कविता में कुविचार उनकी नई कविता है, कुछ और कविताएँ भी हैं. साथ में रचना प्रक्रिया को समझने के सूत्र भी.

कविता में कुविचार अपनी सघनता और साहस के लिए जानी जाएगी. कवि की रसोई कवि का अपना रचना संसार है जहां से उसे प्ररेणा और पाठक मिलते हैं. नरमेध के नायक, निरपराध लोग और तानाशाह और तितली, शोषण, हिंसा और अमानवीयता के वन क्षेत्र में जन के साथ खड़ी कविताएँ हैं.

प्रेमचंद गाँधी की कविताओं पर विचार का यह ठीक समय है. 





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कविता में कुविचार                                                        

बर्फ-सी रात है और है एक कुविचार(अभी तक जो कविता में ढला नहीं है)
*इवान बूनिन

निर्विचार की रहस्‍यमयी साधनावस्‍था
अभी बहुत दूर है मेरी पहुंच से कि
जब विचारना ही नहीं हुआ पूरा तो
क्‍या करेंगे निर्विचार का

अभी तो जगह बची हुई है
कुछ कुविचारों की कविता में
वे आ जाएं तो आगे विचारें
मसलन, वासना भी व्‍यक्‍त हो कविता में कि
हमारी भाषा में बेधड़क
एक स्‍त्री कह सके किसी सुंदर पुरुष से कि
आपको देखने भर से
जाग गई हैं मेरी कामनाएं
या कि इसके ठीक उलट
कोई पुरुष कह सके
जीवन में घटने वाले ऐसे क्षणिक आवेग
कुछ अजनबी-से प्रेमालाप
लंबी यात्राओं में उपजे दैहिक आकर्षण
राजकपूर की नायिकाओं के सुंदर वक्षस्‍थल
अगर दिख जाएं साक्षात
तो कहा जा सके कविता में
किसी के होठों की बनावट से
उपजे कोई छवि कल्‍पना में तो
व्‍यक्‍त की जा सके अभिधा में
और फिर सीधे कविता में

इवान बूनि‍न!
एक पूरी शृंखला है कुविचारों की
जो कविता में नहीं आई
मसलन, मोचीराम तो आ गया
लेकिन वो कसाई नहीं आया
जो सुबह से लेकर रात तक
बड़ी कुशलता के साथ
काटता-छीलता  रहता है
मज़बूत हड्डियां - मांस के लोथड़े
जैसे मोची की नज़र जाती है
सीधे पैरों की तरफ़
कसाई की कहां जाती होगी
एक कसाई को कितना समय लगता है
इंसान को अपने विचारों और औजारों से बाहर करने में
महात्‍मा गांधी का अनुयायी
अगर हो कसाई तो
कैसे कहेगा कि
उसका पेशा अहिंसक है
जब गांधी के गुजरात में ही
ग़ैर पेशेवर कसाइयों ने मार डाला था हज़ारों को
बिना खड्ग बिना ढाल तो
उन कसाइयों के समर्थन में
क्‍यों नहीं आई कोई पवित्र धार्मिक ऋचा

घूसखोर-भ्रष्‍टाचारी भी लिखता है कविता
कैसे रिश्‍वत देने वाले की दीनता
कविता में करुणा बन जाती है
और घूस लुप्‍त हो जाती है
क्‍या इसी तरह होता है
कविता में भ्रष्‍टाचार का प्रायश्चित




::                                                                   

बर्फ-सी रातों में
ज़र्द पत्‍तों की तरह झड़ते हैं विचार
अंकुरित होते हैं कुविचार
जैसे पत्‍नी, प्रेमिका, मित्र या वेश्‍या की देह से लिपटकर
जाड़े की ठण्‍डी रातों में
खिलते हैं वासनाओं के फूल

जीवन में सब कुछ
पवित्र ही तो नहीं होता इवान बूनिन
अनुचित और नापाक भी घटता है
जैसे जतन से बोई गई फसलों के बीच
उग आती है खरपतवार

मनुष्‍य के उच्‍चतम आदर्शों के बीचोंबीच
कुविचार के ऐसे नन्‍हें पौधे
सहज जिज्ञासाओं के हरे स्‍वप्‍न
जैसे कण्‍डोम और सैनिटरी नैपकिन के बारे में
बच्‍चों की तीव्र उत्‍कण्‍ठाएं

ब्रह्मचारी के स्‍वप्‍नों में
आती होंगी कौन-सी स्त्रियां
साध्‍वी के स्‍वप्‍नों में
कौन-से देवता रमण करते हैं
कितने बरस तक स्‍वप्‍नदोष से पीडि़त रहते होंगे
ब्रह्मचर्य धारण करने वाले
कामेच्‍छा का दमन करने वालों के पास
कितने बड़े होते हैं कुण्‍ठाओं के बांध
जिस दिन टूटता होगा कोई बांध
कितने स्‍त्री-पुरुष बह जाते होंगे
वासना के सैलाब में

कुण्‍ठा, अपमान, असफलता और हताशा के मारे
उन लोगों की जिंदगियों को ठीक से पढ़ो
कितने विकल्‍पों के बारे में सोचा होगा
खुदकुशी करने से पहले उन्‍होंने
जिंदगी इसीलिए विचारों से कहीं ज्‍यादा
कुविचारों से तय होती है इवान बूनिन

मनुष्‍य को भ्रष्‍ट करते हैं
झूठे आदर्शों से भरे उच्‍च नकली विचार
इक ज़रा-सी बेईमानी का कुविचार
बच्‍चों की फीस, मां की दवा, पिता की आंख
और बीवी की नई साड़ी का सवाल हल कर देता है

कुछ जायकेदार कहीं पकने की गंध
जैसे किसी के भी मुंह में ला देती है पानी
कोई ह्रदय विदारक दृश्‍य या विवरण
जैसे भर देता है आंखों में पानी
विचारों की तरह ही
आ धमकते हैं कुविचार.



कवि की रसोई                                                                        

ज़रा आराम से बाहर बैठो
मेरे प्‍यारे श्रोता-पाठक
इधर मत तांको-झांको
आनंद लो खुश्‍बुओं का
आने वाले जायके का
मेरी कविता की कड़वाहट का

कुछ हासिल नहीं होगा तुम्‍हें
इधर आकर देखने से
बहुत बेतरतीबी है यहां
कोई चीज़ ठिकाने पर नहीं

सुना आज का अखबार पढ़कर
जो डबाडबा आये थे आंसू
उन्‍हें मैंने प्‍याले में जमा कर लिया था

पहले प्रेम के आंसू
बरसों से सिरके वाली बरनी में सुरक्षित हैं
किसानों के आंसुओं की नमी
मेरे लहू में है
भूख-बेरोजगारी से त्रस्‍त
युवाओं की बदहवासी
मेरे भीतर अग्नि-सी धधकती रहती है
जिंदगी के कई इम्‍तहानों में नाकाम
खुदकुशी करने वालों की आहें
मेरी त्‍वचा में है चिकनाई की तरह

विलुप्‍त होते जा रहे
वन्‍यजीवों के रंग मेरी स्‍याही में
जंगल और पहाड़ों के गर्भ में छुपे
खनिजों की गर्मी है मेरी आत्‍मा में
और इन पर जो गड़ाये बैठे हैं नजरें
पूंजी के रक्‍त-पिपासु सौदागर
उन पर मेरी कविता की नज़र है लगातार

अभावग्रस्‍त लोगों की उम्‍मीदों के
अक्षत हैं मेरे कोठार में
हिमशिखरों से बहता मनुष्‍यता का
जल है मेरे पास दूध जैसा
प्रेम की शर्करा है
कभी न खत्‍म होने वाली
दु:ख, दर्द और तकलीफों के मसाले हैं
चुनौतियों का सिलबट्टा है
कड़छुल जैसी कलम है
हौंसलों के मर्तबान हैं
कामनाओं का खमीर है मेरे पास

अब बताओ
तुम क्‍या पसंद करोगे ?


  
नरमेध के नायक                                                               

नहीं
वे कहीं से जल्‍लाद नज़र नहीं आते
उनकी शक्‍लें बिल्‍कुल आम होती हैं
वे दाढ़ी-मूंछ, लंबे बाल, सफाचट
कुछ भी रख सकते हैं
उनके हाथ-कपड़ों पर
कोई दाग़ नहीं होता खून का
वे बहुत साफ-सुथरे होते हैं
घृणा के विष में डूबे उनके विचार
अचानक ही प्रकट होते हैं
अन्‍यथा वे अत्‍यंत मानवीय
और सरल ह्रदय लगते हैं
बस, उनकी मुस्‍कान में ही गड़बड़ी है
जो भयग्रस्‍त लोग ही समझ पाते हैं
वे अक्‍सर शांति, समरसता और समन्‍वय की बातें करते हैं
उनके पास हमेशा होती हैं दलीलें
जिन्‍हें साबित करने के लिए वे
एक दिन, तीन दिन, नौ दिन और पूरे महीने
उपवास कर सकते हैं
उनके माथे पर तिलक, नमाज या प्रार्थना का
कोई भी निशान हो सकता है
वे अमूमन अपने पवित्र ग्रंथों से मिसाल देते हैं
और हमेशा किताबी सहिष्‍णुता की बातें करते हैं
वे जब भी अमन की बातें करते हैं
मेरे जैसे भयग्रस्‍त लोग डर जाते हैं
इतने सुंदर और भव्‍य हैं वे कि
उनसे डरना तो नहीं चाहिए
लेकिन क्‍या करूं
उनका सौम्‍य व्‍यक्तित्‍व
मुझे पुराने सेनापतियों के साथ
ऐतिहासिक युद्धों की याद दिलाता है
ओह नहीं, युद्ध में तो सेनाएं लड़ती हैं
लेकिन जंग के बाद मैदान में बिछी लाशें
वैसे ही जलती हैं
जैसे सौम्‍य नायकों के नरमेध में
सड़कों पर जलती हैं
अब तो इन सड़कों पर
चलने में भी भय लगता है
सत्‍ताधारी नायकों ने
इतनी भव्‍य बना दी हैं सड़कें कि
यहां फैले खून, आगजनी का कोई निशान नहीं बचा
आप सिर्फ सहमे हुए दरख्‍तों से
उस नरमेध की गवाही ले सकते हैं
एक बदकिस्‍मत बेचारा
जो किसी तरह बच गया था नरमेध में
कहता है उसकी तस्‍वीर का इस्‍तेमाल बंद हो
सोचिए डर की कितनी गहरी परतों के नीचे से
निकल कर आई है यह गुजारिश
मौत के मुहाने से बचकर आया आदमी
नहीं चाहता उस क्षण की तस्‍वीर देखना
इस दुनिया में आपकी ऐसी तस्‍वीरें भी होती हैं
जो खुद नहीं देखना चाहते आप
न लोगों को दिखाना चाहते
यही नरमेध के नायकों का करिश्‍मा है
सब कुछ शांत है
कहीं कोई अपराध नहीं
छल-कपट-चोरी-चकारी नहीं उनकी सल्‍तनत में
उद्योगपति तक खुश हैं उनसे
रंजिश नहीं, ग़म नहीं
ग़म भुलाने का इंतजाम नहीं
ऐसे महानायक हैं तो अब
उन्‍हें होना ही चाहिए चक्रवर्ती
लोग उतर आए हैं समर्थन में
अब पूरा देश प्रयोगशाला होगा
सावधान...



निरपराध लोग                                                                           

एक दिन वे उठा लिये जाते हैं या
बुला लिये जाते हैं
तहकीकात के नाम पर-
फिर कभी वापस नहीं आते

कश्‍मीर की वादियों से
तेलंगाना के जंगलों तक
कच्‍छ के रण से
मेघालय की नदियों तक
यह रोज की कहानी है

पिता, भाई, दोस्‍त और रिश्‍तेदार
थक जाते हैं खोजते
मां, पत्‍नी, बहन और बच्‍चे
तस्‍वीर लिए भटकते हैं
पता नहीं तंत्र के कितने खिड़की-दरवाजों पर
देते बार-बार दस्‍तक
बस अड्डे, रेलवे स्‍टेशन और चौक-मोहल्‍लों के
छान आते हैं ओर-छोर

हर किसी को तस्‍वीर दिखाते हुए पूछते हैं वे
इसे कहीं देखा है आपने...
और फिर रुलाई में बुदबुदाते हैं
खोए हुए शख्‍स से रिश्‍ता
अब्‍बा हैं मेरे... बेटा है... इस बच्‍ची का बाप है
लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिलता

वे किसी जेल में बंद नहीं मिलते
न किसी अस्‍पताल में भर्ती
न कब्रिस्‍तान में उनकी कब्र मिलती है
न श्‍मशान में राख और अंतिम अवशेष

जहां कहीं दिखता है उनका पहना हुआ
आखिरी लिबास का रंग
या उनकी कद काठी वाला कोई
घर वाले दौड़ पड़ते हैं उम्‍मीद के अश्‍वारोही बनकर
और उसे न पाकर मायूसी के साथ
याद करते हैं किसी अज्ञात ईश्‍वर को

वे सहते हैं अकल्‍पनीय यंत्रणाएं
वे अपने को निरपराध बताते कहते थक जाते हैं
कुछ भी कबूल करना या न करना
हर रास्‍ता उन्‍हें
मौत की ओर ले जाता है


पेट्रोल से भर दिये जाते हैं उनके जिस्‍म
जैसे तैरना नहीं आने वाले के पेट में
भर जाता है पानी
हाथ-पांव बांध लटका दिये जाते हैं कहीं
जैसे जंगल में शिकारी लटकाते हैं
पकाने के लिए कोई परिंदा या जानवर‍
मिर्च, पेट्रोल और डण्‍डे के अलावा
पता नहीं क्‍या-कुछ भर दिया जाता है उनके गुप्‍तांगों में
मिर्च घुले पानी से नहलाया जाता है उन्‍हें
तो याद आ जाता है उन्‍हें सब्‍जी के हाथ लगी
आंखों की छुअन का मामूली अहसास
पूरे बदन पर पेट्रोल डालकर
माचिस दिखाई जाती है उन्‍हें
तो याद आ जाते हैं उन्‍हें
सड़को पर जलते हुए वाहन
यातनाओं का यह सिलसिला जारी रहता है
उनकी देह में प्राण रहने तक

उनकी लाश बिना भेदभाव के
जला दी जाती है या दफना दी जाती है

सेना-पुलिस कहती है
हमने तो इस शख्‍स को
कभी देखा तक नहीं

ना जाने ऐसे कितने निरपराध लोगों के
लहू से सने हैं उनके हाथ, हथियार और ठिकाने
जिनके परिजन-परिचित उन्‍हें ताउम्र
एक नज़र देखने को तरसते रह जाते हैं

जहां दफ्न होती हैं या जला दी जाती हैं
ऐसे निरपराध लोगों की लाशें
वहीं तो उगते हैं
प्रतिरोध के कंटीले झाड़.


तानाशाह और तितली                                                    
( हिटलर की जीवनी पढ़ते हुए )


न जाने वह कौनसा भय था
जिससे घबराकर वह बेहद खूबसूरत तितली
तालाब के पानी में गिर पड़ी
भीगे पंखों से उसने उड़ने की कोशिश की
लेकिन उसकी हल्की कोमल काया
पानी पर बस हल्की छपाक-छपाक में ही उलझ गयी

किनारे पर की गंदगी में अनेक जीव थे
जो उसे खा सकते थे
लेकिन नन्ही तितली की चीख उनके कानों तक नहीं पहुँची
तितली ने ईश्वर से प्रार्थना की
ईश्वर ने भविष्य के तानाशाह की आँखों को
तितली की कारूणिक स्थिति देखने को विवश किया
छटपटाती तितली को देखकर उसका मन पसीज गया
उसे तैरना नहीं आता था
फिर भी वह पानी में कूद पड़ा

बड़े जतन के बाद वह तितली को बचाकर लाया
गुनगुनी धूप में तितली जल्द ही सूखकर उड़ने लगी
भविष्य के तानाशाह के कन्धे पर
वह तमगे की तरह बैठी और बाग़ीचे की तरफ उड़ चली

भविष्य के तानाशाह को तितली बहुत पंसद आई
अगले दिन से उसने सफाचट चेहरे पर
तितली जैसी सुंदर मूंछें उगानी शुरू कर दीं

                        
उस तितली के उसने बहुत से चित्र बनाये
उसकी भिनभिनाहट की उसने
कुछ सिम्फनियों से तुलना की
जिस दिन तानाशाह की ताजपोशी हुई
तितलियाँ बहुत घबरायीं
अचानक वे एक दूसरे राष्ट्र में जा घुसीं

तानाशाह ने तितलियों की तलाश में सेना दौड़ा दी
सैनिकों ने तलाशी के लिए
रास्ते भर के फूल
अपने टोपियों और संगीनों में टाँग लिये
लेकिन तितलियाँ उन्हें नहीं मिलीं

तानाशाह ने इस विफलता से घबराकर
तितलियों की छवियाँ तलाश की
जिन सुंदर पुस्तकों में तितलियाँ
और उनके सपने हो सकते थे
वे सब उसने जलवा डालीं
जहाँ कहीं भी तितलियों जैसी
खूबसूरत ख़्वाबजदा दुनिया हो सकती थी
वे सब नष्ट करवा डालीं

अपने आखि़री वक़्त में तानाशाह
पानी में डूबी तितली की तरह चीखा
लेकिन उसे बचाने कोई नहीं आया
जिस बंकर में तानाशाह ने मृत्यु का वरण किया
उसके बाहर उसी तितली का पहरा था
जिसे तानाशाह ने बचाया था.



मेरी रचना प्रक्रिया
मेरे पास कुछ कच्‍चे फल हैं                                      
प्रेमचंद गांधी


1.

मैं हिटलर की जीवनी पढ़ रहा था. मुझे पता चला हिटलर को तैरना नहीं आता था. वह चित्रकार बनना चाहता था, लेकिन उसे दाखिला नहीं मिला. एक बार एक तितली पानी में गिर पड़ी तो हिटलर ने तितली की जान बचाई. मुझे हिटलर की मूंछों में एक नन्‍हीं तितली की छवि दिखाई दी और फिर दिमागी उथलपुथल शुरु हुई. यह प्रसंग पढ़ने के बाद मैं उस किताब को अगले कई दिनों तक नहीं पढ़ पाया. हिटलर के जीवन की यह घटना उस वक्‍त की है, जब वह अपने जीवन की दिशा खोज रहा था और उसने मूंछें भी नहीं रखनी शुरु की थीं. मैंने कुछ पंक्तियां लिखीं और सोचता रहा कि एक क्रूरतम इंसान भी जीवन में कभी-कभी बेहद भावुक क्‍यों हो जाता हैअगर तैरना नहीं जानने वाला व्‍यक्ति पानी में कूदकर एक तितली की जान बचाता है तो वही आदमी लाखों लोगों को मौत के घाट क्‍यों उतार देता हैकुल मिलाकर यह पूरा मसला मुझे एक कविता के लिए उपयुक्‍त लगा और सहज ही कविता रचती चली गई, ‘तानाशाह और तितली.




2.

कविता
इतिहास और सच्‍चाई के बीच का स्‍थगित पुल है
यह इधर या उधर जाने की राह नहीं है
यह तो हलचल के भीतर की स्थिरता को देखने की क्रिया है
(ऑक्‍टोवियो पॉज)


ऑक्‍टोवियो पॉज जब कविता को ‘इतिहास और सच्‍चाई के बीच का स्‍थगित यानी सस्‍पेंडेड पुल कहते हैं तो बात कुछ समझ में आती है. पॉज का उपर्युक्‍त कवितांश एक छोटा-सा दृश्‍य है जो एक कवि की रचना-प्रक्रिया को मेरे निजी अनुभव के तौर पर स्‍पष्‍ट करता है. हॉलीवुड की बहुचर्चित फिल्‍म ‘स्‍पीड’ के एक दृश्‍य में बस एक अधबने हाइवे के बीच जब पहुंचती है तो चालक को पता चलता है कि आगे एक पुल है जो अधूरा बना पड़ा है. बीच का एक खासा लंबा हिस्‍सा सड़कविहीन है. फिल्‍म में बस जब स्‍लो मोशन में उस लंबी खाई जैसे विशाल अंतराल को पार करती है तो दर्शकों की सांसें थमी रह जाती हैं. लेकिन एक कवि-रचनाकार तो हमेशा ही उस जगह खड़ा होता है, जहां एक स्‍थगित, अर्धनिर्मित पुल के दो सिरों का केंद्र होता है. शायद कवि का काम उस पुल को बनाना है, जिसे वह जिंदगी भर करता रहता है और वो पुल कभी नहीं बनता, बस उसकी छवियां बनती हैं, जिनके आधार पर पाठक उस अंतराल को पार करते रहते हैं. 




3.

मैं अपनी कविताओं में बहुत प्रश्‍नवाचक होता हूं तो शायद इसीलिये कि मुझे सवालों के जवाब चाहिये. ये सवाल कभी-कभी व्‍यक्तिगत होते हैं तो अधिकांश सार्वजनिक, क्‍योंकि एक लेखक का निजी रचनात्‍मक संसार भी वस्‍तुत: सार्वजनिक ही होता है और सार्वजनिक तो रचना के स्‍तर पर बेहद व्‍यक्तिगत हो ही जाता है. इसलिये लेखक को दोनों स्‍तरों पर जूझना पड़ता है. शायद यही एक भिन्‍न प्रकार का आत्‍मसंघर्ष भी है. मैं इस संघर्ष में हमेशा लड़ता ही रहा हूं, लेकिन किसी कविता के आखिर तक आते-आते मैं कभी-कभार ‘निर्णायक’ यानी जजमेंटल हो जाता हूं. एक कवि को शायद ऐसा नहीं करना चाहिये. लेकिन मेरे पास कुछ कच्‍चे फल हैं, मैं उन्‍हें चारे की भूसी में या अनाज के ढेर में दबाकर देखना चाहता हूं कि वे कब पकते हैं. यह प्रक्रिया मैं एक जल्‍दबाज आदमी की तरह हर बार करता हूं.





4.

प्रेम’ मेरे लिए कविता का सर्वाधिक प्रिय विषय है. असफल प्रेम और दैहिक प्रेम से परे एक अलग किस्‍म का अनुपम प्रेम, जो मीरा से टैगोर और केदारनाथ अग्रवाल के रास्‍ते होता हुआ मुझ तक आया है. यह शायद आज के साइबर युग में अर्वाचीन नज़र आए, लेकिन मैं वहीं रहना चाहता हूं. क्‍यों कि मेरा प्रेम देह से अधिक एक सामाजिक-मानवीय संबंध में निहित है, जो मुझसे एकाकार होते हुए भी अपनी स्‍वतंत्र सत्‍ता रखता है. प्रेम किसी भी कवि को सबसे अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाता है, इसलिये निरंतर प्रेम में रहना कवि की नियति है. प्रेम का अर्थ कवि के लिए महज स्‍त्री-पुरुष के बीच का प्रेम नहीं है, मनुष्‍य के सभी संबंधों में निहित है.




5.

दरअसल इसे किसी गृहिणी की पाक कला से भी जोड़कर देख सकते हैं जिसके लिए मसाला ही असल मसला है, बाकी तो खाली तसला है. हमारे राजस्‍थान में जहां साग-सब्जियों की बहुत कमी होती है, वहां मसाले बहुत कारगर होते हैं, इसे मैंने बचपन से देखा है. गाजर-मूली के पत्‍ते, ग्‍वार-खींप की फलियां, गाजर और बहुत सारी सब्जियां और उनके पत्‍ते सुखा लिये जाते हैं और गर्मियों में इनसे ही सब्‍जी बनाकर काम चलाया जाता है. इतना ही नहीं हमारे यहां तो रोटी की भी सब्‍जी बनाई जाती है. घर में सब्‍जी नहीं हो तो सूखी रोटियां मसालों में पका ली जाती हैं. अब तो बाजार में चोकर अलग से मिलता है, हमने तो बचपन में अभाव के दिनों में चोकर को आटे में मिलाकर पकाई गई रोटियां खाई हैं. तो बचपन से ही अपने परिवेश से यह जानने को मिला कि चीजों को कितने विविध तरीकों से देखा जा सकता है, कि कोई चीज अनुपयोगी नहीं, सबका कोई न कोई इस्‍तेमाल किया जा सकता है. हमारी गुवाड़ी में मिट्टी का एक बड़ा कुंडा या कि तसला होता था. गुवाड़ी में हमारे परिवार के ही चार घर थे. तो गुवाड़ी में कोई भी अनुपयोगी कागज जैसे खाली लिफाफा वगैरह उस पानी भरे मिट्टी के तसले में डाल दिये थे और जब कुंडा भर जाता तो एक दिन महिलाएं उसे खाली कर कागज के मजबूत उपयोगी भगोने के आकार के बर्तन बनाती थीं और इस तरह मैंने लिखने-पढ़ने से पहले कागज का जीवन में उपयोगी इस्‍तेमाल देखा. घर-परिवार की स्त्रियों को मैंने इतनी तरह के रचनात्‍मक और मेहनती काम करते देखा कि आज सोचता हूं तो उनकी रचनात्‍मकता समझ में आती है. चीजों को अलग ढंग से देखने की दृष्टि कदाचित वहीं से मिली. हमारा घर रेत के एक टीले के पास था. हम उस टीले पर खेलते थे और मैं रेत पर चढ़ते-चलते चींटों-चींटियों को देखकर सोचता था कि वे पहाड़ पर चढ़ रही हैं, कितना संघर्ष करना पड़ता है उन्‍हें अपनी नन्‍ही जान के साथ. ...और पहाड़ हमारे घर से बहुत दूर नहीं था, जिस पर जाकर आने वाले संगी-साथी उसके किस्‍से सुनाते थे. इस तरह एक कल्‍पनाशीलता ने जन्‍म लिया था. मुझे महिलाओं के गीत बहुत पसंद थे और मैं अक्‍सर उनके बीच ही रहता था, इसलिए मुझे बहुत-से गीत याद हो गये थे. शायद उन गीतों को सुनते हुए ही रचने की मानसिकता बनी हो.





6.

अब देखिये कुम्‍हार अपनी सारी सृष्टि खुले में रचता है. मतलब कुदरत की छाया में, हवा, धूप, पानी और तमाम किस्‍म की बदबुओं और खुश्‍बुओं के बीच. तो मैं भले ही घर के अपने कमरे में बैठकर लिखता हूं, लेकिन ज़ेहन के सारे दरवाजे कुदरत की इन नायाब चीजों के लिए खोलकर रखता हुआ ही रचता हूं. जैसे चाक पर बैठकर कुम्‍हार प्रजापति हो जाता है, लेखक भी सर्जक हो जाता है. अब उसकी जिम्‍मेदारी होती है कि वह कुम्‍हार की तरह उपयोगी रचे, जो लोगों के काम आ सके. कुम्‍हार तो मौसम और लोगों की जरूरतें देखकर रचता है, लेखक अपने समय और भविष्‍य को देखकर. कोई रचना खराब हो जाती है तो कुम्‍हार उसे वापस मिट्टी में मिला देता है और फिर से रचता है. लेखक को भी यही करना चाहिये. खराब या असुंदर, अधकचरी रचनाएं खारिज कर देनी चाहियें, मैं ऐसा करता रहता हूं, मेरे पास बरसों पुरानी अधूरी रचनाएं हैं, जो शायद समय आने पर कभी पकेंगी तो कुछ अच्‍छा निकल सकेगा. कुम्‍हार के पास यह सुविधा होती है कि कच्‍ची मिट्टी के लौंदे से अगर सही आकार की इच्छित वस्‍तु नहीं बनी तो वो उसे वापस मिट्टी में मिला देता है, कवि-लेखक उसे भ‍विष्‍य के लिए सम्‍हालकर रख लेता है कि इस कच्‍चे खयाल को पका कर कभी अच्‍छा बनाया जा सकता है.





7.

सआदत हसन मंटो ने अहमद नदीम कासिमी को एक ख़त में लिखा था, ‘मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं, मगर कमजोरी... वह स्‍थायी थकावट, जो मेरे ऊपर तारी रहती है, कुछ करने नहीं देती. अगर मुझे थोड़ा सा सुकून भी हासिल हो, तो मैं वो बिखरे हुए ख़यालात जमा कर सकता हूं, जो बरसात के पतंगों की तरह उड़ते रहते हैं, मगर... अगर अगर... करते ही किसी रोज़ मर जाउंगा और आप भी यह कहकर ख़ामोश हो जाएंगे, मंटो मर गया.‘ मेरा मानना है कि हरेक सच्‍चे रचनाकार के आसपास मंटो की तरह ही ख़यालों के पतंगे चक्‍कर काटते रहते हैं, देखना यह है कि हम कितने ख़यालों को तरतीब दे सकते हैं. असंख्‍य कविताओं के बिंब हमसे बारहा छूट जाते हैं, क्‍योंकि बेख़याली में हम उन पर ध्‍यान ही नहीं दे पाते. इस पर मुझे मायकोव्‍स्‍की की एक बात बहुत याद आती है, उन्‍होंने कहा था कि एक कवि के पास अपनी कविताओं की डायरी हमेशा रहनी चाहिए. मायकोव्‍स्‍की का कहना इस मायने में महत्‍व रखता है कि अगर आपके पास आपकी नोटबुक होगी तो आप तुरंत किसी भी उड़ते हुए ख़याल को लिख सकते हैं, जो बाद में रचना में रूपांतरित हो सकता है.


मैंने कुछ बरस इन बातों का ध्‍यान नहीं रखा और बहुत पछताता हूं कि उस दौर में ना जाने कितनी बेहतरीन कविताएं मुझसे छूट गईं. अब कुछ सालों से इसे ठीक से निभा रहा हूं तो देख रहा हूं कि कितना कुछ महत्‍वपूर्ण हासिल हो रहा है. कवि मित्र गिरिराज किराडू से एक दिन किसी प्रसंग में मैंने कह दिया कि नास्तिकों की भाषा में सांत्‍वना के शब्‍द नहीं होते. यह बात मैंने नोट कर ली और करीब एक साल तक इस पर विचार करता रहा, फिर एक दिन कुछ पंक्तियां आईं तो अगले तीन दिन तक पूरी शृंखला डायरी में उतरती चली गई. इसी तरह एक दिन जयपुर के पुराने इतिहास के बारे में कुछ पढ़ रहा था कि खुद को किसी बारादरी में टहलते हुए पाया. यह भाषा की बारादरी थी, जिसमें तमाम दिशाओं से भाषा, समय और समाज की चिंताएं मुझे तेज़ चहलक़दमी करने के लिए उकसा रही थीं. उस बारादरी में जब मैं तेज़-तेज़ चल रहा था, तो मेरा बीपी बेतहाशा बढ़ रहा था, और हाथ कांपते हुए बड़ी तेज़ी से लिखे जा रहे थे. अगले तीन दिनों मैं उसी बारादरी में टहलता रहा.





8.

जब आप चीज़ों को बड़े पैमाने पर देखते हैं तो इतिहास, वर्तमान और भविष्‍य सब एकमेक हो जाते हैं. अपने समय के सवालों के जवाब के लिए पता नहीं कहां-कहां मन आपको लिये जाता है. अनजान, गुमनाम और अदेखे प्रदेश आपकी आंखों में दृश्‍यमान होते जाते हैं. कवि-कथाकार मित्र दुष्‍यंत ने पूछा कि भाषा वाली सीरिज में क्‍या अब भी कुछ बाकी बचा है?  मुझे लगा कि अरे सच में इस पर और विचार करते हैं, तो एक दिन राह चलते ‘भाषा का भूगोल’ शीर्षक आया. फिर इस कविता ने मुझे करीब दो महीने बेहद तनाव में रखा, इसके दो ड्राफ्ट कर चुका हूं, लेकिन अभी भी यह पूरी नहीं हुई है. यह बहुत बड़ी और मेरी सबसे महत्‍वाकांक्षी कविता है, इसे अगर मैंने ठीक से निभा लिया तो शायद मेरा कविता लिखना सार्थक हो जाएगा.





9.

मैं एक घनघोर किस्‍म का नास्तिक आदमी हूं, इसलिये मुझे अपने लिए ताकत कई जगह से बटोरनी होती है. मेरी पत्‍नी मधु मेरी सबसे बड़ी ताक़त है और मेरी बेटियां भी. उनका समय चुराकर ही मैं लिख-पढ़ पाता हूं, उनका विश्‍वास और हौसला मुझे मज़बूत बनाए रखता है. भगत सिंह मेरी दूसरी बड़ी शक्ति है और शायद यही अंतिम भी. हर संकट में मुझे कविता बचाये रखती है, पता नहीं कैसे, किसी भी मुसीबत में मैं कविता के पास जाता हूं और वह मुझे एक नया मनुष्‍य बना देती है.




10.

प्रत्‍येक मानवीय संबंध मुझे बहुत नैसर्गिक लगता है और जब मैं इनकी समीक्षा करता हूं तो बहुत भावुक हो जाता हूं और यह भावुकता मनुष्‍यता के संबंधों को वैश्विक आकार में देखने के लिए अपने साथ लिये चलती है. इसी वजह से मुझे मनुष्‍यता पर गहरा विश्‍वास है, इसलिए मैं बहुत-सी जगह निर्भय रहता हूं, क्‍योंकि मुझे यक़ीन रहता है कि मनुष्‍य अगर अच्‍छे हैं तो सब ठीक रहेगा, अगर उनके विचार धर्म, संप्रदाय और जाति आदि कारणों से दूषित नहीं हो गये. इसी मनुष्‍यता को बचाये रखने की जद्दोजहद मैं करता रहता हूं. हमेशा से मानता आया हूं और इसी पर कायम रहता हूं कि जो रचेगा, वही बचेगा. ईश्‍वर नाम की काल्‍पनिक सत्‍ता भी इस दुनिया को रचने के मिथ के कारण ही बची हुई है.

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प्रेमचन्द गांधी की कुछ और कविताएँ और अनुवाद यहाँ पढ़िए.


पेंटिग चित्रकार कुंवर रवीन्द्र के हैं.

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  1. आभारी हूँ इस अनमोल पोस्ट के लिए....
    सहेजने योग्य...

    सादर
    अनु

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  2. निरंतर प्रौढ़ होते जाते कवि हैं प्रेम चंद गांधी. "कुविचार", "कवि की रसोई", नरमेध के नायक" और "तानाशाह और तितली" देर तक टिकने वाला असर छोड़ने में सक्षम कविताएं हैं. रचना-प्रक्रिया में जिस कच्चे माल का ज़िक्र है, उसमें काफ़ी कुछ कच्चा नहीं रह गया है, ठीक से पक गया है. बधाई, प्रेम चंद को.

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  3. कविताएँ पढने से पहले कवि की रचना प्रक्रिया जानने का कौतूहल हुआ -तो पाया कि हर कीमियागर रचाव के एकान्तिक पलों में जीवन-जगत से होता हुआ मानवीय संबंधों पर आकर रुकता है -उसे लेकर भावुक हो उठता है। यही कारण है कि कवि हिटलर के जीवन से बची हुई तितली को तलाश लेता है. सभी कविताएँ देर तक प्रभाव छोड़ती हैं। समालोचन का आभार इस पोस्ट के लिए . प्रेमचंद जी को शुभकामनाएँ .पेंटिंग्स के लिए कुंवर रवीन्द्र जी को बधाई . यहाँ दो कलाकारों को देखना भला लगा .

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  4. प्रेमचंद सर की ये कवितायें खूब अच्छी लगी और सोने पर सुहागे जैसे लगे उनकी डायरी के ये पन्ने भी...खूब बधाई प्रेम सर को और धन्यवाद समालोचन को....समालोचन का यह प्रयोग खूब अच्छा लगा....पता चला कि कवि किन स्थितियों-परिस्थितियों मे कविता गढ़ता है....
    सुनीता सनाढ्य पाण्डेय

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  5. प्रेमचंद गांधी की इन सघन संवेदना और वृहत्‍तर सरोकारों वाली कविताओं को एक साथ पढ़ना अनूठा अनुभव है, इन कविताओं को उनसे अलग-अलग जरूर पढ़ा-सुना, लेकिन तब उनका प्रभाव मन पर इस तरह नहीं बन पाया, जो आज 'समालोचन' पर एक साथ पढ़कर बना है। इन कविताओं के माध्‍यम से कवि मानवीय चिन्‍ताओं और सरोकारों के ऐसे धरातल की ओर ले जाता है, जहां यह अहसास साकार दिखाई देता है कि आज कोई भी संवेदनशील व्‍यक्ति इस निर्मम समय की मार से निरापद नहीं है। 'कवि की रसोई', 'नरमेघ के नायक' और 'तानाशाह की तितली' जैसी कविताएं दूर तक अपना असर बनाये रखती हैं। बहुत असरदार कविताएं रची हैं इधर प्रेमचंद ने। इन कविताओं के साथ कवि ने अपनी रचना-प्रक्रिया और रचनाशीलता की पृष्‍ठभूमि पर जो टिप्‍पणियां लिखी हैं, वे भी बेजोड़ हैं। बधाई और शुभकामनाएं।

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  6. प्रेमचंद गाँधी मेरे समकालीन सबसे श्रेष्ठ और मेरे प्रिय कवियों में हैं .....इसे आराम से पढता हूँ ...बहुत आभार् अरुण जी

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  7. मनुष्‍य को भ्रष्‍ट करते हैं
    झूठे आदर्शों से भरे उच्‍च नकली विचार...

    बिल्कुल सही बात...
    वैसे भी आदर्शों का पालन दिल से होता है,दिमाग से नहीं...
    कुविचार दिमाग में आते तो है,पर अगर दिल पवित्र हो, तो उनका दमन दिमाग मे ही हो जाता है...



    सभी कवितायें समाज की नंगी और खौफ़नाक सच्चाई को बयां करती हैं...

    एक ऐसे कवि और विचारक से परिचय और उनके विचारों एवं कविताओं से मेल-जोल अच्छा लगा, जिनकी सोच सामयिक एवं प्रासंगिक है...

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  8. कवि, कवि के विचार कवि की कवितायें सभी तो बेजोड हैं ………क्या कहूँ ? हर तरह के विचारों को सूक्ष्मता से देखना और उन्हें कविता में ढालना कि अपनी सी लगे हर बात यही तो लेखन की सम्पूर्णता है जिसमें कवि सफ़ल हैं।

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  9. 'कच्‍चे फल' और 'पके फल' दोनों ही सफल. और प्रभावशाली.

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  10. याद आ गयी जयपुर की वह शाम जब ऐसे ही किस्मत से श्री नंद भारद्वाज जी, श्री अरुणदेव जी, सुश्री अपर्णा मनोज जी, श्री माया मृग जी और श्री सईद अयूब जी जैसे ख्याति प्राप्त साहित्य मनीषियों के सानिघ्य में, श्री प्रेम जी की यही कविता 'कविता में कुविचार' को उनके द्वारा ही सुनने का सौभाग्य मिला था... तब से हमेशा प्रेम जी की कविताओं के प्रति सहज उत्सुक रहता हूँ ..और यहाँ (समालोचन पर)तो उनके रचना संसार को, उनके विचार को (कुविचार को भी)ठीक से समझने का भी मौका मिला है !
    आभारी हूँ समालोचन का और बधाई देता हूँ भ्राततुल्य श्री प्रेम जी को ! सारी रचनाएं बेहद गंभीरता से पाठन की अपेक्षा रखती हैं !

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  11. बहुत साहसिक पहल जो ...जो शब्द कही निकलने से कतरातें है उसको पिरोना इतना भी आसन नहीं ...प्रेम स्वरुप प्रेम में अभिव्यक्त करने उनका इस तरह निचोड़ निकलना ..अद्भुद लगा सामजिक ताने बने से बुना समाज कहा खड़ा है/??? उसको पटल पर ला कर रख दिया ..बधाई प्रेम जी को ...समालोचन को इस सहरानीय कार्य के लिए शुभकामनाये !!!!!

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  12. Prem bhai aaj ki kavita k bahut mahtvpooran nakshatr hain ..kavitaon me vishaya vevidhay or shilp soushtav apratim hai ..arun ji ka shukria in kavitaon ko ham tak lane k liye ..bhai ko hardik shubhkmnayen ...

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  13. sari kavitayen baar baar padhne aur gunane jaisi...badhai samlochan ko..prem ji ki in behtariin kavitaon se rubru karane ke liye...badi kavita...maanikhej..mahtwpuran...maan ko jhakjhorati...ya ki akaant me baithh kar gahan vichaar me daalne wali kavitayen..badhaii prem ji...dil se badhaiii

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  14. 'कविता में कुविचार' तथा 'तानाशाह और तितली' बहुत अच्छी है .. बाकी कवितायें भी आपके कद के अनुसार हैं ..और हाँ .. मुझे 'रचना प्रक्रिया ' ने भी बहुत प्रभावित किया | एक तरह से हम सबकी आवाज बनकर यह उभरी है | आपको बहुत बधाई और समालोचन का आभार |

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  15. अपने समय की श्रेष्ठ कवितायेँ ......प्रेम जी हमेशा विषयवस्तु के साथ प्रयोग करते हैं और यही उनकी कविताओं की विशेषता भी है .......तानाशाह से तितली के संबध ने सचमुच बहुत छुआ है, मेरा ख्याल है ये कविता अपने समय की अद्भुत कविताओं में से एक कहलाएगी। रसोई से उठने वाली सुगंध के हर दिशा में पहुँचने के हम सब साक्षी हैं .......कुविचार के विषय में सोचना वैचारिकता के चरम को छूने का अहसास है ......बाकि सभी कवितायेँ असर छोड़ने वाली और साथ जाने वाली हैं। प्रेम जी की रचनाओं के साथ रचनाशीलता की सभी सीढ़ियों से गुजरना भी सुखद लगा, मेरी ओर से बधाई एवं अनंत शुभकामनायें

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  16. पाठकों ने सब कह दिया. मैं बस इतना कहूँगा कि ज़मीन नयी है, अभिव्यक्ति सशक्त है,कई बिम्ब अभिनव हैं और सारी कवितायें अपनी समग्रता में प्रभावित करती हैं.इन विशिष्ट कविताओं के लिए कवि को बधाई और इन्हें पढवाने के लिए आभार.

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  17. अरूण जी, तानाशाह और तितली (प्रेमचंद गांधी) कविता पढ़ी। बड़ी मार्मिक कविता है। कवि ने अत्यधिक गहरी संवेदना के साथ यह कविता लिखी है। पढ़कर सोचता रहा और सोचता रहूंगा। इसी बहाने मुझे 2007 में चार अप्रैल के तपते दिन अपनी डायरी में लिखी यह पंक्ति याद आई...‘गाजीपुर से अगली लाल बत्ती पर कारों-गाड़ियों के ऊपर एक पीली तितली दिखी। कहां हैं बाकी तितलियां?’...

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  18. प्रेमचंद जी की "तमहारिणी" से बहुत प्रभावित हुई थी।आज समालोचना पर अलग ही अनुभव हुआ। इतने भिन्न-विषयों पर शब्दों के माध्यम से कवि ने अमूर्त संवेदना को मूर्त कर दिया है। ’कवि की रसोई’, नरमेघ के नायक और ’तानाशाह और तितली’ ने गहरा प्रभाव छोड़ा।
    कविताओं की पृष्‍ठभूमि पर और स्वयं के सृजन पर प्रेमचंद जी की टिप्पणियाँ पढ़कर उनकी रचनाधर्मिता को जानना बहुत अच्छा लगा।
    प्रेमचंद जी को और समालोचन को बधाई और अनंत शुभकामनाएँ !

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  19. jii behtreen kavitayein likhi .......apne bhavoin ko bahut khoobsoorti se bunaa aapne .....abhivyakti ka jawab nahi ......bahut bahut sadhuvaad aapko

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  20. प्रेम भाई की कविताओं का बहुत पहले से कायल रहा हूँ, एक उत्सुक पाठक रहा हूँ साथ ही उनसे एक बड़े भाई जैसी जो मुहब्बतें मिलती रही हैं, उसका मज़ा भी पिछले काफी समय से ले रहा हूँ. 'नास्तिकों की भाषा' श्रृंखला की लगभग सभी कवितायेँ मैंने पढ़ी हैं और भी आपकी छोटी-बड़ी कई कवितायेँ...उनसे हुई कई मुलाकातों में कविता और कविता जगत के सन्दर्भ में उनके विचारों से भी लाभांवित हुआ हूँ. बल्ली सिंह चीमा, प्रेम भाई और मेरे बीच लगभग तीन घंटे की बात-चीत में मै तो बस श्रोता की तरह बैठकर उनकी बातें ही सुनता रहा और कविता पर आपकी सुलझी हुई सोच और गहरी समझ का कायल होता रहा. प्रेम भाई अगर अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में न भी लिखते तो मुझे तो पता था कि जिस संवेदनात्मक धरातल पर, विचारधारा के जिस स्तर पर और एक अच्छी रचना की खोज में समाज और साहित्य की किस गहराई तक आप जाते हैं. लेकिन यह अच्छी बात है कि आपकी रचना-प्रक्रिया के बारे में कुछ पता चला. जो लोग उनसे व्यक्तिगत तौर पर नहीं मिले हैं, उनके लिए उनकी रचनाओं को समझने में बहुत ही सहायक साबित होगी, ऐसा मेरा विश्वास है....समालोचन पर आई ये सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक...किस पर अलग से अपनी राय दूँ...सब बेहतरीन से बेहतरीन...संजो कर रखने लायक...यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि आपकी कविता 'कविता में कुविचार' के पहले श्रोताओं में से मैं भी एक था और गर्व की बात है कि उन्होंने इस कविता का पाठ मेरे ही आयोजन में किया था. साथ में नंद भारद्वाज सर (उनकी अध्यक्षता थी), अरुण देव जी, अपर्णा मनोज जी, माया मृग जी (आपने संचालन किया था), सुधीर सोनी जी, गोविन्द माथुर जी, आनंद दिवेदी जी, रमेश खत्री जी, चंडी दत्त शुक्ल जी, लक्ष्मी शर्मा जी जैसे साहित्यकार थे और सबने मुक्त कंठ से उस कविता की प्रशंसा की थी. समय की कमी न होती तो मैं दुबारा उस कविता को सुनता. कविता जितनी बेजोड़ है, प्रेम भाई द्वारा किया गया उसका पाठ भी उतना ही बेजोड़ था. यह कविता कुछ लोगों के लिए असुविधा पैदा करती है / कर चुकी है पर कविता का काम केवल सुविधाएँ जुटाना नहीं है, असुविधा पैदा करना भी है....समालोचन का आभार इस संग्रहणीय सामग्री के लिए...प्रेम भाई को बहुत बहुत बधाई...और सशक्त कविताओं की आशा के साथ...

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  21. प्रेमचाँद गांधी की कवितायें स्वयं में विशिष्ट हैं . वास्तव में उनकी भावभूमि पूर्णतया अनोखी है और जहाँ न पहुचे रवि वहां पहुंचे कवि को शब्दशः चरितार्थ करतीं हैं .. उनकी कवितायें कविता के धरातल की परत दर परत उधेड़ती हैं और फिर उनको नीले आसमान में बुनती हैं .कविता में कुविचार , और कवि की रसोयीं और ऐसे ही जाने कितनी कवितायें अद्भुत कवितायें हैं . वे सरलता के साथ गंभीर विमर्श करते हैं . किसी भी शुष्क विषय में कविता में लालित्य का निर्वाह करना उनकी विशेषता है .आज के कवियों में निश्चय ही उनकी एक अलग पहचान है. उन्हें भविष्य के लिए अनेकों शुभकामनाएं .

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  22. बहुत अच्छी कविताएँ हैं। रचनाकारों की रचना प्रक्रिया के बारे में पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता है। बहुत बहुत बधाई प्रेमचंद जी को इन रचनाओं के लिए।

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  23. बहुत उम्दा कविताएँ, गर्व करने जैसी!
    प्रेम भाई सच बड़े कवि हैं!
    सच भाई, ये कविताएँ बहुत ही पराकाष्ठा पर जा कर लिखी कविताएँ हैं,
    कविता में कुविचार और तानाशाह और तितली उफ़! दो अलग भावभूमियों पर क़लम तोड़ के रख दी!
    रचना प्रक्रिया ने मानो, बहुत कुछ सा संसार खोल दिया किसी कवि के अंतस की कवियागिरी का

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  24. कुविचार और तितली बहुत देर तक साथ रहेंगी ......बधाई भाई

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  25. रचना प्रक्रिया के बारे में जानते हुए कवितायेँ पढ़ना प्रीतिकर लगा.

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  26. प्रेमचंद जी की किसी एक कविता को यहाँ चुनना कठिन है ....सभी रचनाएँ सशक्त हैं ....

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  27. प्रेमचंद की कवितायेँ आज की श्रेष्ठ रचनाओं में शुमार किये जाने योग्य हैं ! आज जब कविता की सार्थकता और विश्वसनीयता को लेकर एक घटाटोप-सा छाया हुआ है ये कवितायेँ मन में एक नयी आश्वस्ति जगाती हैं !....प्रेम जी को बहुत बहुत बधाई और उनकी काव्य-यात्रा की सफलता के लिए शुभकामनाएं ! ...अरुणदेव जी का आभार इस प्रस्तुति के लिए !

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  28. रचना प्रक्रिया को पढ़ते हुए लगा कवितायें तो उत्कृष्ट हैं ही ,गद्य में भी ज़बरदस्त प्रवाह है.बार-बार पढने का मन है.ब्लॉग पर लंबा पढ़ना सुविधाजनक नही लगता .काश इसका प्रिंट निकाल कर सहेजा और पढ़ा जा सकता... प्रेम चंद गांधी जी को बधाई और शुभकामनाएं !!

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  29. दिल और मन को हिला देने वाली कवितायेँ
    प्रेम चंद गांधी जी की कविताओँ का अपना एक तेवर होता है
    इस तेवर से भी ऊपर की कविता
    बढ़िया संग्रह,बधाई शुभकामनायेँ

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  30. 'कविता में कुविचार' अपने आप में बिलकुल अलग तरह की कविता है....'नरमेध के नायक' का एक अंश इससे पहले पढ़ा था आपकी वाल पर ..ज़बरदस्त कविता है...'कवि की रसोई' जिस तरह से परोसी आपने पाठकों के सामने ...लज़ीज़ है ....'निरपराध लोग ' और ' तितली ' से हर पाठक कोरिलेट कर पता है ...सबका देखा सुना महसूस हुआ है सब..आपकी ''तम्हारिणी '' और ''छोटा ख़याल '' श्रृंखला के अंश पढ़ते रहे हैं...बेहेतरीन हुआ करते हैं ...एक साथ पढने की तमन्ना है।
    बहुत ही संवेदनशील लिखते हैं आप ...गहरे तक छूती हैं कविताएँ आपकी ...
    आपको और समालोचन को बहुत बहुत बधाई प्रेमचंद जी !:)

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  31. बेहतरीन कवितायेँ। 'कविता में कुविचार' बिलकुल भिन्न तेवर की कविता है जो हद्प्रद सा कर देती है। बधाई प्रेमचंद जी। आप वाकई बहुत अच्छा लिखते हैं।

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  32. प्रेमचंद भी हमारे समय की परिस्थितयों की तमाम गुंजों-अनगुन्जों को व्यक्त करने वाले सजेतक कवि हैं . उनकी कविता का स्पोन्तेनियस ओवरफ्लो बहुत ही कण्ट्रोल-एड संवेदना के तहत बात बोलेगे की
    अपनी अंतिम परिणति में जनतंत्र के विकास को आयाम प्रदान करने के पहलुओं को व्यक्त करता है . कुविचार में विचार -जहां वर्जनाएं भी अपना सहज स्थान पा जाती हैं . इतिहास का एक बड़ा तानाशाह अपने मानव होने के विडम्बना में , तितली में रंग भरता , कवि की रसोई में सजे विभिन्न स्वाद की सूफियाना सुगंध तक पहुँच जाता है .
    लेकिन अपने कुकृत्यों से बरी नहीं होता , न ही कवि उसे सजग हो , इतिहासिक प्रक्रिया में बरी करना चाहता है -कोई भी क्रूर विचार जो अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए या बचाए रखने के लिए नरमेध जैसा पुरोहितवादी कर्मकांड का जारी रखते हुए , सम्पूर्ण सभ्यता को कठिनाई में डाल देता है .....उसके विरोध में आवाज़ उठनी ही चाहिए . प्रेम भाई की कविता वह आवाज़ है .... लोकतांत्रिक मूल्यों को सम्पूर्ण जन तक पहुँचाने के लिए एक अथक प्रयास ..... आप सब को इन कविताओं के लिए बधाई और कवि किस तरह से अपनी रचना में ढलता है उन छणों को आत्मसात करने का यह प्रयास कविता के साथ-साथ बहुत ही सार्थक रहा ...

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  33. बहुत ही सुंदर कविताएँ हैं |कविता में कुविचार! भई बाह !

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  34. समालोचन ने साल के आखिरी सांसें लेने से पहले अपने फलक पर प्रेमचंद गांधी की कुछ कविताऍं : कविता में कुविचार, कवि की रसोई, नरमेध के नायक, तानाशाह और तितली, निरपराध लोग ---प्रस्तुत कीं। हिटलर की जीवनी भी एक कवि के भूगर्भ में हलचल मचा सकती है और उसकी काव्यातत्मधक कोशिकाऍं जागृत कर सकती है, यह गांधी की कविताओं से पता चला। मुझे इससे पहले गांधी की कविताओं में उतरने का अवसर तो मिला पर वह सुख नहीं मिला जो युवा कवियों में खोजा करता हूँ। इन कविताओं में गांधी की काल्पनिक उड़ान दीखती है, उनका संवेदना-संयम परिलक्षित होता है। 'कविता में कुविचार' जैसी कविता जो हिटलर की जीवनी पढ़ते हुए विकार की तरह दिमाग में उतरती है वह तमाम तार्किकी को ध्वस्त करते हुए इस अवधारणा को पुष्ट करती है कि घृणा का नायक भी हमारे लिए किस कदर प्रेरणास्रोत हो सकता है। अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए गांधी ने भाषा की बारादरी में होने की जिस अनुभूति को जिया है उसकी शिनाख्त ये कविताऍं देती हैं। 'अभावग्रस्त लोगों की उम्मीदों के अक्षत हैं मेरे कोठार में /जल है मेरे पास दूध जैसा/ प्रेम की शर्करा कभी न खत्म होने वाली' जैसी बहती हुई भाषा कविता के अक्षत यौवन का प्रतीक है जो कि इन दिनों के उर्वर गद्य विधान वाली कविताओं में प्राय: नही दीखती। इसीलिए तमाम असह्य मुद्दों पर अपने आवेग को संयमित न कर सकने वाले कवियों की कविताओं में आग कम, झाग ज्यादा होता है। गांधी में यह आग अब एक मद्धिम सुनहली आंच की तरह दिखती है---पकी हुई फसलों की मुस्कान सरीखी।

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  35. सशक्त कविताएं....यहाँ बिंबों-छवियों में नरमाई बरतने का कोई प्रयास नहीं किया है प्रेमचंदजी ने..क्रूरतम सच्चाईयों को उतनी ही कठोरता से हमारे सामने ला रखा है..’निरपराध लोग’, ’नरमेध के नायक’ जैसी कविताएं अंततः हमसे यह पूछते हुए ही हमसे विदा लेती हैं कि बताओ क्या ये इतना उघड़ा हुआ सच भी झुठला सकते हो..
    ’कविता में कुविचार’ के लिये भी उन्हें बधाई..

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  36. Pream ji realy heart touching poems.

    Sach hi hey krurta ka koi apna chehra nahi hota.

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  37. कविताओं के साथ उनके सृजन-सन्दर्भ देने के लिए आभार. बेहतर समझ बनती है.

    महतवपूर्ण कविताएं हैं. बहुत बहुत धन्यवाद.

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