रंग - राग : रविशंकर



II रवि शंकर II 

(रोबिन्द्रो शंकर चौधरी )
७ अप्रैल,१९२० - ११ दिसम्बर,२०१२







शास्त्रीय संगीत के इस दैवीय दूत को श्रद्धांजलि.  भारत ही नहीं विदेशों में भी रवि शंकर भारतीय शास्त्रीय संगीत के पर्याय हैं. उन्हें अपार ख्याति भी मिली है. युवा लेखक सुशोभित सक्तावत का आलेख जो बड़े ही संवेदनशील ढंग से सत्यजीत राय के फिल्मों में रवि शंकर के संगीत के बहाने उनके मुखरित नाद को पकड़ता है. 



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रवि शंकर ने एक रात में रचा था पथेर पांचाली का संगीत                  
सुशोभित सक्तावत



  
सत्‍यजित राय की फिल्‍म 'अपराजितो' का एक दृश्‍य है. हरिहर की मृत्‍यु के बाद सर्वजया और अपु बनारस से अपने गांव लौट रहे हैं. सत्‍यजित राय का कैमरा हमें दिखाता है कि ट्रेन की खिड़की के बाहर दृश्‍यालेख बदलता रहता है. अभी धूप-छांव है, अभी सांझ-भोर. साउंडट्रैक पर कभी रेल की सीटी गूंजती है, कभी पटरियों पर रेल के दौड़ने की एकरस धड़धड़ाहट है. लेकिन जैसे ही ट्रेन बंगाल में प्रवेश करती है सहसा साउंडट्रैक पर 'पथेर पांचाली' का थीम संगीत बज उठता है. हम स्‍मृति की एक विराट रंगशाला में धकेल दिए जाते हैं. निश्चिंतिपुर के पोखर-ताल, खेत-चौपाल, धूप के फूल और मेंह के मोती, कांस की सुबहें और सरपत की सांझें हमारे ज़ेहन में कौंध उठती हैं. अपु और दुर्गा का बचपन हमारी कल्‍पना में तैरने लगता है. दोनों इस धुन के बेछोर समुद्रतट पर दौड़े चले जा रहे हैं, अपने अबोध विस्‍मय की उस दिशा में, जो उनके स्‍वप्‍नों का सीमांत है.

यह रवि शंकर की धुन थी, जो सत्‍यजित राय की महान फिल्‍म का अंतर्भाव है.

'
पथेर पांचाली' का थीम संगीत पूरी फिल्‍म में अनेक अवसरों पर बजता है. त्रयी की शेष दोनों फिल्‍मों अपराजितो में उपरोक्‍त अवसर पर और अपुर संसार में भी तब यह धुन बजती है, जब अपूर्ब अपने दोस्‍त को अपनी जिंदगी की कहानी सुना रहा होता है. यह एक अनूठी धुन है. दिल की जलतरंग पर बजती और धुंध में लिपटी. हमारी आत्‍मा के झुटपुटों में किसी हूक की तरह गूंजती. इसमें टीस का गाढ़ा रंग है, स्‍मृति का रंगमंच है, लोक की गोधूलि है, राग का दाह है. और तब लगता है कि दिल अगर सितार होता, तो रवि शंकर का देश होता. देश राग.

यह धुन कैसे रची गई? ऐसा कैसे संभव हुआ कि रवि शंकर ने सत्‍यजित राय की कल्‍पना और अवबोध के मर्म को छू लिया था, जबकि तब तक न तो उन्‍होंने बिभूति भूषण बंद्योपाध्‍याय का वह उपन्‍यास पढ़ा था, जिसके आधार पर पथेर पांचालीकी पटकथा बुनी गई थी, और न ही इस फिल्‍म के अंश ही देखे थे. शायद किंवदंतियां ऐसे ही घटित होती हैं. लेकिन इसकी एक रोचक कहानी है.

बात 1955 की है. 'पथेर पांचाली' की शूटिंग पूरी हो चुकी थी, लेकिन उसका पार्श्‍वसंगीत रचा जाना शेष था. सत्‍यजित राय को रवि शंकर का नाम सूझा. रवि शंकर तब भी काफी प्रसिद्ध हो चुके थे और विदेश यात्राओं में व्‍यस्‍त रहते थे. राय ने दिल्‍ली स्थित उनके निवास पर पत्र लिखा और 'पथेर पांचाली' का पार्श्‍वसंगीत रचने का अनुरोध किया. रवि शंकर राजी हो गए. वे दो दिनों के लिए कलकत्‍ता पहुंचे. एक दिन उनका सितार वादन का कार्यक्रम था. दूसरे दिन सत्‍यजित राय उनसे मिलने पहुंचे. रवि शंकर ने उनसे मिलते ही कहा : मानिक, मेरे मन में तुम्‍हारी फिल्‍म के लिए एक थीम संगीत है. फिर उन्‍होंने वह धुन गुनगुनाकर उन्‍हें सुनाई. राय हैरान रह गए. वह अत्‍यंत मार्मिक धुन थी और फिल्‍म के लिए पूरी तरह अनुकूल थी.

लेकिन मुसीबत यह थी कि रवि शंकर के पास केवल एक दिन का समय था. सत्‍यजित राय ने उन्‍हें फिल्‍म के कुछ अंश दिखाए. प्रख्‍यात बांसुरी वादक आलोक डे से अनुरोध किया कि वे अपने वादकों की मंडली लेकर रिकॉर्डिंग के लिए पहुंचें. अपराह्न चार बजे सभी स्‍टूडियो पहुंचे. रवि शंकर ने तय किया कि सितार वे स्‍वयं बजाएंगे. बांसुरी आलोक डे बजाएंगे. दुर्गा की मृत्‍यु पर सर्बजया के विलाप के दृश्‍य के लिए तार शहनाई बजाना तय किया गया और यह इसके लिए सुविख्‍यात तार शहनाई वादक दक्षिणा रंजन टैगोर की सेवाएं ली गईं. अन्‍य वाद्यों के रूप में छमंग और कचेरी का चयन किया गया. रिकॉर्डिंग शाम छह बजे शुरू हुई और रातभर जारी रही. थीम संगीत रवि शंकर के मन में पहले ही था, उसे सितार और बांसुरी पर रिकॉर्ड किया गया. विलाप दृश्‍य के लिए तार शहनाई पर राग पटदीप में ढाई मिनट का एक टुकड़ा रचा गया. अन्‍य लगभग आधा दर्जन दृश्‍यों के लिए तीन-तीन मिनट के टुकड़े रचे गए. इस तरह मात्र ग्‍यारह घंटों में पथेर पांचाली का पार्श्‍व संगीत रचा गया, जिसकी गणना विश्‍व सिनेमा के श्रेष्‍ठतम बैकग्राउंड स्‍कोर में की जाती है. लोक-शास्‍त्र की गोधूलि वाला यह अपूर्व पार्श्‍व संगीत रवि शंकर की जीनियस अंतर्प्रेरणा के बिना संभव नहीं हो सकता था.

पथेर पांचाली के बाद सत्‍यजित राय ने रवि शंकर के साथ तीन और फिल्‍में कीं : त्रयी की शेष दोनों फिल्‍मों अपराजितोऔर अपुर संसार सहित पारस पत्‍थर. एक थीम संगीत अपराजितो में भी था, राग जोग में निबद्ध एक करुण धुन, जो फिल्‍म में दो अवसरों पर बजती है. यह धुन लगभग क्रंदन की तरह है और हमारे मर्म को चींथ डालती है. फिल्‍म में एक अन्‍य अवसर पर रागेश्री का एक दिल खुश कर देने वाला टुकड़ा बजता है: बनारस के घाट पर धूप में चमकता, कबूतरों की उड़ान की छांह में कांपता संगीत. अपुर संसार में जब अपूर्ब अपर्णा की मृत्‍यु के बाद अपने अधलिखे उपन्‍यास की पांडुलिपि जंगल में फेंक आता है, तो रवि शंकर पार्श्‍व में चेलो का भर्राया हुआ स्‍वर बजाते हैं. अपूर्ब के अनंत विषाद को गाढ़ा करता यह टुकड़ा विकलता की तरह फैलता है, जिसके अंत में लगभग पोएटिक रिलीफ़ की तरह बांसुरी बजती है, तितली की तरह हवा में तैरती हुई.

सितार रवि शंकर के लिए महज़ एक साज़ नहीं था, वह उनका मुकुट बन गई थी. उनकी कीर्ति, उनकी यशकाया. दुनिया रवि शंकर को हमेशा मेहर घराने की बाज’ (वादन शैली) को अकल्‍पनीय उठानों तक ले जाने के लिए याद रखेगी, लेकिन सत्‍यजित राय की फिल्‍मों में उन्‍होंने जो पार्श्‍व संगीत रचा है, वह भी हमारे सामूहिक अवचेतन पर हमेशा के लिए अंकित हो चुका है. अपने हिस्‍से के तमाम चंद्रमा खर्च कर देने के बावजूद हम उसे भुला नहीं सकेंगे.

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युवा रचनाकार सुशोभित नई दुनिया के संपादकीय प्रभाग  से जुड़े है. 
सत्‍यजित राय के सिनेमा पर उनकी एक पुस्‍तक शीघ्र प्रकाश्‍य है.


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  1. ऐसी रचना तभी संभव है जब उस दिव्य शक्ति के साथ कनेक्टिविटी बने ...बेशक़ ' पथेर पांचाली' का पार्श्व संगीत भी यूँ ही रचा गया होगा ...
    ऐसी ही कुछ अद्भुत चीज़ों के माध्यम से कभी-कभी ईश्वर के अस्तित्व का हल्का सा आभास मिलता है ....बहुत सुन्दर !:)

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  2. रविशंकर की उँगलियों में जादू था निस्संदेह उनकी शिक्षा दीक्षा का ''गुरुकुल''मैहर का वो ''आश्रम ''था रविशंकर ने भले ही विदेश को अपना घर मान लिया हो,वहां के संगीत और परिवेश के साथ घुल मिल गए हों लेकिन हिन्दुस्तान का शास्त्रीय संगीत उस समर्पित कलाकार की अद्भुत कला क्षमताओं का सदैव रिणी रहेगा | मैहर और रविशंकर एक दूसरे के पर्याय रहेंगे ..

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  3. दिल अगर सितार होता,तो रविशंकर का देश होता. देश राग ..
    सुशोभित,इस लेख के लिए सभी पाठकों का आभार ..आज का दिन समृद्ध हुआ ..
    नमन उस सितार को जिस पर उन उँगलियों के निशान थे और जिसके तार झनककर दुनिया के चारों तरफ घूमते रहे ..धुन जो धुरी में लिपट गई ..

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  4. रवि शंकर जी के तारों की झनक में अध्यात्म की भी गूंज झंकृत होती थी ... ठीक सुशोभित जी के प्रभावी लेख की तरह ... सुशोभित के सुन्दर शब्दों पर अवश्य ही सितार पर थिरक उठने को मचल उठी होंगी रविशंकर जी की उंगलियां ..
    सुन्दर आलेख के लिए बधाई .. !!

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  5. कलाकार को इस तरह याद करना भावक को भीतर से भर जाता है. और फिल्‍मों के संगीत को इसी तरह सुना और सुनाना चाहिए जिस तरह सुशोभित ने सुना और सुनाया है.

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  6. sushobhit ko badhai ki itna sunder mimansaparak aalekh likha. film ke we drishya ekbaar phir sudhobhit ke shabdon ke saath-saath jeevant ho uthe.
    _ utpal banerjee

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  7. इस कालजयी संगीत के सृजन से जुडी बातें पढना सुखद रहा अरुण जी....... कुछ चीज़ें स्मृतियों के तहखाने में सदा के लिए संजो ली जाती हैं..... पंडित जी का संगीत भी उन नामों में शीर्ष पर रहेगा जो सदा साथ रहेंगे ....इस दुर्लभ लेख के लिए बधाई एवं धन्यवाद

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