बात बे बात : बाबामार्गीय चिंतन














इधर समाज में किस्म-किस्म के बाबा नित्य नूतन भंगिमा के साथ अवतरित हो रहे हैं. लोक - परलोक सुधारने के मौलिक उपाय और मन - तन  शुद्धिकरणकी  साधना उन के पास उपलब्ध हैं. आध्यात्म का यह बाज़ार अंधविश्वासों से जुड़कर हाहाकारी हो उठा है. 
प्रसिद्ध व्यंग्यकार कमलानाथ ने इस बाबामार्गीय विभीषिका  की अच्छी खबर ली है. 




बाबामार्गीय चिन्तन                                        
कमलानाथ

जब भी मैं किसी बाबा को देखता हूँ तो अपने आप न चाहते हुए भी मेरा सिर झुक जाता है. पुराने ज़माने में तो लोगों का सिर श्रद्धा और सम्मान के कारण झुकता होगा, मेरा उनकी प्रतिभा के कारण झुकता है. एक बार तो किसी ने अपना परिचय देते हुए कहा – ‘मैं महेंद्र सिंह बाबा’ और मैं उसके पैरों पर झुकने का उपक्रम करने लगा. पर वह तुरंत ही बोला – ‘नहीं, नहीं, मैं वैसा वाला बाबा नहीं हूँ, मेरा सरनेम बाबा है’. उसके बाद ही मैं सीधा खड़ा होपाया.

बाबालोग चाहे कभी कोई स्कूल कॉलेज में गए हों या नहीं, वे कई क्षेत्रों की आला दर्जे की महारत रखते हैं. उनकी यही प्रतिभा मुझको सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है. पहले मुझे अपने पिताजी के ऊंचे और भविष्यवादी विचारों पर गर्व हुआ करता था. उनको मेरे भविष्य की कितनी चिंता थी कि उन्होंने मुझे अपनी समझ से अच्छे कैरियर के लिए ‘अच्छी पढ़ाई’ की लाइन में भेजा. पर अब अचानक उनके संकुचित विचारों और गैर-अर्थशास्त्रीय ज्ञान पर क्षोभ होता है कि उन्होंने मुझे पढ़ाने के लिए डॉक्टरी, इंजीनियरी, वकालत, प्रोफ़ेसरी जैसे बेकार के पारंपरिक तरीकों के बारे में ही क्यों सोचा. इसके आगे उनकी सोच क्यों जा ही नहीं पाई.

वास्तव में यह मेरे पिताजी की ही नहीं, पूरे भारत के माता पिता और अभिभावकों की भी सबसे बड़ी समस्या रही है. बच्चा बड़ा हुआ नहीं कि उसके लिए इन्हीं बेकार लाइनों में कैरियर बनाने का सोचने लगते हैं, जबकि आसपास कई जगह उनको बाबाओं के दर्शन होते रहते हैं. उन्हें देख कर कभी इन लोगों ने ये प्रेरणा नहीं ली कि किस ठाठ से ये बाबा लोग रहते हैं. पुराने ज़माने की तरह अब कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, योगमार्ग, भक्तिमार्ग वगैरह वाले पारंपरिक मार्ग नहीं रहे, बल्कि आधुनिक अर्थों के साथ बाकायदा ये ही नए तरह के मार्ग बन कर उभरे हैं, यानी ये नई लाइनें बन गयी हैं, जिनमें आलीशान कैरियर बनता है. जैसे जैसे ज़माना प्रगति करता है उसी के साथ साथ नए नए व्यवसाय जन्म लेते हैं, व्यवसाय के नियमों में परिवर्तन और विकास होता है और उनके बारे में लोगों की दृष्टि बदलती है.

अब देखिये, तैत्तरीय उपनिषद् में साफ़ साफ़ कहा है – आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात् ...यानी आनंद ही ब्रह्म है. फिर बुर्जुआ किस्म के पंडितों को इसमें ये कह कर टांग अड़ाने की क्या ज़रूरत थी कि आनंद का मतलब ईश्वर से है. जो आनंद साफ़ साफ़ सामने नज़र आता है वो तो नहीं और जो कहीं दिखाई ही नहीं देता और उसे कैसे प्राप्त करें उसका भी कोई ठौर ठिकाना नहीं, वो वाला ईश्वर आनंद है! भला ये कोई बात हुई! ज्ञान से भरे हमारे वेद-पुराणों ने कितना सही कहा है - ‘यो वै भूमा तत्सुखं..’ यानी जो बहुत बड़ी मात्रा में हो वो ही असली सुख है, छोटी मात्रा में सुख नहीं. बिलकुल सही कहा. पैसा खूब जेब में भी हो और बैंक बैलेंस मोटा हो, उसी सुख को प्राप्त करके जीव आनंदी होता है. यानी असली सुख या आनंद तो जब सबकुछ खूब मात्रा में हो तभी मिलता है. कम में सुख कहाँ? अब जो पंडितलोग कहते हैं कि इसमें सुख का मतलब भगवान है, तो ये भगवान बीच में कहाँ से आ गया? आजकल के भक्तिमार्गी बाबा इस बात से पूरी तरह इत्तफ़ाक रखते हैं और इसीलिए इस मार्ग द्वारा जितना अधिक प्राप्त कर सकते हैं वो करते हैं ताकि वैदिक शिक्षा के अनुसार वे आनंदी और सुखी हो सकें.

बाबागिरी में शोध का स्तर इतने ऊंचे किस्म का है कि कुछ बाबा तो शक्ल देख कर रिमोट तरीके से समस्या समझ सकते हैं और उसका बेहतरीन, नायाब, और सरल उपचार बता सकते हैं. यदि आपकी पुत्री का विवाह बड़े प्रयत्नों के बाद भी कहीं तय नहीं हो रहा है, तो उसका कोई कारण है. पर चिंता की कोई बात नहीं. आप अभी तक किसी समर्थ बाबा के पास शायद जा ही नहीं पाये. अगर जाते तो इसका हल कितना सरल होता – बेटी को सिर्फ़ दो मंगलवारों को एक जलेबी खुद खानी होती और दूसरी बाएं हाथ से भूरी गाय को खिला देनी होती. बस, तीसरे मंगलवार से पहले ही एक राजकुमार सा सुन्दर, पढ़ा लिखा, योग्य, अमीर दूल्हा वरमाला लिए हुए दरवाज़े पर दस्तक दे रहा होता. अब बताइए, इस इतने आसान और कारगर उपाय के लिए बाबाजी को क्या आप एक दो हज़ार रुपये भी नहीं चढ़ाते?

ऋषि मुनियों के ज़माने के लिखे ग्रंथों में पहले तो अनेक शाखाएं हैं, जैसे - शैव, वैष्णव, शाक्त, वगैरह. फिर मार्ग भी अलग अलग हैं जैसे कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग वगैरह और फिर इनमें भी तरह तरह के सम्प्रदाय हैं, जैसे भक्ति में रामानुज, गौड़िया, पुष्टि, दादूपंथी वगैरह. पर इन सबको मिलाकर बना नया व्यावसायिक मार्ग सिर्फ़ एक है और बिलकुल सरल है बाबामार्ग. इसका मूल पंथ भी एक ही है – ढपोलपंथ. पर पंथ में साधकों की रुचियों और साधन के विभिन्न रूपों के अनुसार इसके संप्रदाय,शाखाएं या पंथ भी कुल मिला कर केवल चार भागों में विभक्त हैं - समागमपंथ, गपोलपंथ, खगोलपंथ, और आसनपंथ.

समागमपंथी बाबा वे होते हैं जो आपकी सेवा, सुविधा और समस्या समाधान के लिए मीडिया द्वारा अपने समागमों, शिविरों, संगमों वगैरह का ज़बरदस्त प्रचार करते हैं और अत्यंत सरल तरीकों से, चुटकियों में आपकी दिक्क़तें दुरुस्त कर देते हैं. कुछ ही दुर्भाग्यशाली लोग होंगे जो उनकी सेवाओं और आशीर्वाद का लाभ नहीं उठाते. इन समागमों में शामिल होने की फ़ीस तो बस कुछ हज़ार ही है, पर इसके फ़ायदे कितने हैं ये आपने नहीं सोचा. या शायद सोचा, इसीलिए बाबाओं के आगे के कई समागमों की बुकिंग हमेशा भरी रहती है. जिस तरह सभी क्षेत्रों में निदान और उपचार के लिए पहले कई जानकारियां प्राप्त करनी होती हैं ताकि समस्या का पूरा विश्लेषण हो सके और सही हल मिल सके, उसी तरह बाबामार्ग में भी ऐसे प्रश्न आवश्यक हैं. अगर कोई दुखियारी औरत वहां जाकर अपना दुखड़ा रोती है – “हे बाबाजी, सब उपाय कर लिए पर अभी तक मुझे संतान सुख नहीं मिला. कुछ ऐसी किरपा करो कि मुझे यह सुख मिल जाय”.

तब बाबाजी पूछते हैं –“रबड़ी खाई है?”
“हाँ जी. अच्छी लगती है”.
“रात को सोती हो?”
“हां जी, अच्छी नींद आती है”.
“तुम्हारा पति साथ ही रहता है?”
“नहीं जी, वो तो दुबई में रहता है”.
“उसका कोई दोस्त वगैरह है?”
“हां जी”.
“पहले कभी समागम हुआ है? यानी समागम में पहले कभी आयी हो?’
“नहीं जी, पहले पता ही नहीं था. जब किसी ने आपके बारे में बताया तो मैं पहली बार ही यहाँ आई”.

बाबाजी को इसीलिए उसके दुखड़े पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उन्होंने कुछ क्षण सोचा और फिर हाथ उठा कर बोले – “समागम में अगली बार भी आ जाना. और हाँ, अच्छे दूध की पावभर रबड़ी हरे रंग के पत्ते में रख कर अपने पति के दोस्त को खिला देना. किरपा आ जायगी”.
औरत ने बड़ी श्रद्धा से बाबा को प्रणाम किया और समागम में बाबा की जय जयकार हुई.  

अब देखिये, इतने से सुविधाजनक उपाय से आपके बड़ी बड़ी समस्याएं हल होजाती हों तो इससे अच्छी बात और क्या होसकती है? समस्या कुछ भी हो उसका हल हमेशा ही स्वादिष्ट होता है. बाबा गद्देदार आलीशान कुर्सी पर बैठ कर लोगों को तीन रसगुल्ले खाने के लिए बोलेंगे, बेर की झाड़ी में सत्रह बूँद सरसों का तेल चढ़ाने को कहेंगे, काले कपड़े में पांच पंखुड़ी वाला लाल फूल रखने को बोलेंगे, या काले कुत्ते को डेढ़ मालपुआ खिलाने को कहेंगे, अपने अपने पर्स खोल कर बैठ जाने को कहेंगे और बस, इसके साथ ही वो तो खुद करोड़पति हो ही जायेंगे, उनके सारे भक्त भी सारे कष्टों से मुक्ति पाकर लखपति तो हो ही जाएंगे.

अब आप समझ गए होंगे पिताजी पर मेरा आक्रोश क्यों है. पांच सात साल और हजारों रुपये बर्बाद करके इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफ़ेसर वगैरह बने तो क्या बने. नौकरी लगी वो ही दस पन्द्रह हज़ार की. और उसके बाद ज़िन्दगी भर की गुलामी, यानी रिटायरमेंट तक नौकरी. अगर उसकी बजाय किसी गुरु बाबा से दीक्षा ली होती तो पांच सात साल जो बर्बाद हुए उतना तो अनुभव हो जाता और उसके बाद लाखों में खेल रहे होते. पढ़ाई के पैसे बचते सो अलग. और फिर बाद में तो कहना ही क्या था. लाखों तो चेले ही बना लेते हैं. गुरु तो बहुत ऊपर पहुँच जाता है.

जैसा नाम से ज़ाहिर है, गपोलपंथी संप्रदाय के बाबा अपनी लफ्फ़ाजी और वाक् चातुर्य से ‘भक्तों’, अनुसरण कर्ताओं और शिष्यों को आकर्षित करते हैं. इस पंथ में इन पर-उपदेशकों को केवल लंबी दाढ़ी बढ़ा कर, चन्दन या रोली आदि से अपने मुखमंडल को सुशोभित करके, गले में अलग अलग तरह की मालाएं लटका कर, सफ़ेद या भगवा या विचित्र से वस्त्र धारण करने होते हैं. चूँकि हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है इसलिए, बिना किसी भेदभाव के आश्रमों आदि की जगह कौड़ियों में या मुफ़्त में ही मिल जाती है. फिर अंदर क्या क्या होता है, इसकी जानकारी भक्तों या सरकार के लिए आवश्यक नहीं. उनके लिए केवल यह जानना ही काफ़ी है कि आश्रम में बाबा का गपोल-प्रवचन कब होने वाला है और उससे पहले क्या और कितनी सेवा करनी है. जैसे गंगा में किसी प्रकार का भी जल मिले, वह शुद्ध गंगाजल होजाता है, इसी प्रकार इन आश्रमों में किसी भी प्रकार के रंगों का पैसा आये, वह निर्मल होजाता है और किसी भी प्रकार का किया गया कर्म दुष्कर्म कभी भी नहीं कहलाता. ऐसे बाबाओं के पुत्र लोग आश्रम की और बाबा की अपार व्यक्तिगत संपत्ति और भक्त भक्तिन जैसी जनसामग्री का खुलेआम उपयोग, उपभोग करते पाए जाते हैं और आगे चल कर इस दीक्षा के बाद विरासत में वे भी बाबा का पद प्राप्त कर लेते हैं. इस पंथ की विशेषता यह है कि आपकी भक्ति भावना हमेशा बनी रहती है और गपोलपंथी बाबाओं पर निरंतर श्रद्धा बढ़ती रहती है. वे क्या बोल रहे हैं यह तो बेमानी है, मुख्य बात यह है कि आप ये प्रवचन शुद्ध मन, बुद्धि से नियमित सुनने जाते हैं.

खगोलपंथी बाबा वे होते हैं जिनके पास एक अदद पंचांग पाया जाता है. इसकी मदद से, या इसके बिना भी सिर्फ़ इसमें हाथ फिराते हुए, वे यजमान की सहूलियत के अनुसार सब तरह के मुहूर्त निकाल देते हैं. ये सुन्दर सुन्दर भविष्यवाणियाँ करते हैं, आपसे ही चतुराई से कई बातें मालूम करके फिर धीरे धीरे आपके भूतकाल के बारे में बता कर आपको प्रभावित कर देते हैं और किसी भी खगोलीय आशंका को ज्योतिष के माध्यम से कुछ ‘शर्तों’ पर, विभिन्न पत्थरों की अंगूठियां पहना कर और आर्थिक ‘उपायों’ से निर्मूल कर देते हैं. इस तरह गपोलपंथियों से यह मार्ग कहीं कहीं थोड़ा सा मिलता दिखाई देता है. इस पंथ में हर लंबे मार्ग का शॉर्टकट बताया जाता है और ग्रहों की खगोलीय गति बदल कर ‘सार्थक’ रूप से छोटीबड़ी की जासकती है.एक बार इनसे संपर्क होजाने के बाद किसी व्यक्ति को कर्मफल और प्रारब्ध जैसी चीज़ों की चिंता करने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि शायद अब इन बाबाओं के पास आपके वर्तमान और भविष्य को बदल देने की ईश्वरीय शक्ति आगई है. इस पंथ के कुछ मॉडर्न बाबा कंप्यूटर या लैपटॉप भी रखने लगे हैं जिसमें सारी सामग्री पहले से ही जमा होती है, जिसे देख देख कर वे आपके प्रश्नों के उत्तर आपकी मनोकामना के अनुसार देते जाते हैं. गुरु-शिष्य परंपरा के कारण कई बार मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर इनकी पकड़ अच्छी होजाती है, जिसका लाभ वे ग्राहकों से लेते रहते हैं. आजकल सुलभ मीडिया का, खासकर टीवी का अपने प्रचार प्रसार में ये लोग भरपूर उपयोग करते हैं. चूँकि लिखाई पढ़ाई का या ज्ञानमार्ग से इनखगोलपंथी बाबाओं का आवश्यक तौर पर कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए जो ये बाबा लोग लिखते हैं, बोलते हैं या प्रश्नकर्ताओं को बताते हैं, उसमें उच्चारण, शुद्धि, अशुद्धियों की कोई अड़चन ही सामने नहीं आती. बुक कराये हुए उस स्लॉट में ये विभिन्न ग्रहों से सम्बंधित जो तथाकथित ‘मन्त्र’ बतलाते हैं, उन्हें सुन और पढ़ कर तो संस्कृत या हिंदी जानने वाले भी पानी पानी होजाते है, फिर बेचारे ग्रह तो अपने मन्त्र सुन कर जाने कहाँ कहाँ मुंह छुपाते फिरते होंगे. ज़ाहिर है, जब वे मुंह दिखायेंगे तो ही किसी प्राणी का अनिष्ट कर सकेंगे न!   

आसनपंथी बाबाओं के पास आपके स्वास्थ्य का बीमा करने का सर्वाधिकार सुरक्षित है. ज़ाहिर है, बीमे की किश्तें आपको चुकानी पड़ती हैं. इनकी सेवाओं में अलग अलग जगह शिविर लगा कर आपको तरह तरह के आसन, प्राणायाम वगैरह सिखाना शामिल है, जिसके माध्यम से आप बलशाली हो सकते हैं और कई तरह के रोगों से मुक्त होजाते हैं. इनमें कई तो ऐसे रोग भी होते हैं जो एलोपैथी, होम्योपैथी, आदि जैसी पैथियों तक के बूते के बाहर साबित होते हैं. अगर थोड़ी बहुत कमी रह जाए, तो ये दवाइयाँ भी बनाते हैं जिनको ख़रीद कर आप रोगरहित और दीर्घजीवी होजाते हैं. अकेले में आसन करने में जितना आनंद नहीं आता उतना समूह में आता है, इसलिए इनके शिविरों की सामूहिक छटा भी दर्शनीय होती है जो सभी साधकों के लिए प्रेरणास्पद और मनोरंजक भी होजाती है. इस पंथी में कई बाबा तो इतने समृद्ध होजाते हैं कि वे खुद अपने टीवी चैनल स्थापित कर लेते हैं या किसी अन्य को पूरा ही बुक कर लेते हैं. इस पंथ के कई बाबा अक्सर विभिन्न चैनलों पर लोगों को आसनों द्वारा स्वस्थ बनाते दिखाई दे सकते हैं.
जितनी प्रगति विज्ञान के क्षेत्र में नहीं हुई, उससे ज़्यादा रिसर्च बाबालोगों ने बाबागिरी में करली है. सोचिये, क्या किसी ने ऋग्वेद काल से आज तक कभी ये कल्पना की होगी कि आगे चल कर कोई बाबा ‘योग’ सिखा कर कई हज़ार करोड़ का मालिक बन जायगा. वो भी योगमार्ग वाला योग नहीं, योग के ही नाम से प्रचलित आसन, प्राणायाम टाइप के व्यायाम सिखा कर. योग यानी जोड़, यानी जोड़तोड़. अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर बना मुहावरा यहाँ कितना सटीक बैठता है – आम के आम गुठलियों के दाम. आप खुद तो करोड़पति बन ही गए, सारा देश भी नीरोग और शक्तिशाली होगया. अब जब नीरोगी काया पहला सुख है, तो क्या इस सुखप्राप्ति के लिए खुशी खुशी आप दो चार हज़ार रुपयों का चढ़ावा भी नहीं चढ़ाएंगे? और फिर विश्व की सात अरब से ज़्यादा की आबादी में देश विदेश में क्या एक दो करोड़ लोग भी नहीं होंगे जो नीरोगी काया प्राप्त करना चाहेंगे? अब आप खुद ही चार हज़ार को दो करोड़ से गुणा करके देख लीजिए, आठ के आगेशून्य लगाते लगाते थक जायेंगे.

कुल मिला कर बाबामार्ग अत्यंत व्यावहारिक मार्ग है. यहाँ शिक्षा ‘हैंड्स ऑन’ होती है. सीखते जाओ और कमाते जाओ. इसमें समय व्यर्थ नहीं होता, जिस तरह पढ़ाई करने में होता है. गुरु का शिष्यत्व लेते ही बिजनस के सारे गुर पता लगने लग जाते हैं. जिसके पास गुर हों उसी का नाम गुरु. जिसके पास ज़्यादा गुर हों वो ज़्यादा गुणी और बड़ा गुरु. पर इतने गुर ईजाद करने, सीखने और सिखाने के बाद भी इन बाबाओं की विनम्रता देखिये कि तब भी वे श्रीकृष्ण को ही सारे विश्व का गुरु मानते हैं. श्रीकृष्णं वंदे जगद्गुरूम्. यह भी बाबामार्ग का एक गुर ही है.
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सम्पर्क :
8263, बी/XI, नेल्सन मंडेला मार्ग
वसंत कुंज, नई दिल्ली-110 070
ई-मेल: er.kamlanath@gmail.com




(कमलानाथ :  साहित्य के नक्कारखाने)

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  1. बहुत ही आनंददायक लेख। गुणीभूत व्‍यंग्‍य। कमलानाथ जी की लेखनी ऐसी ही व्‍यंग्‍यबोधक रचनाओं की वर्षा होती रहे।

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  2. aanand aa gaya raspaan kar ke bahut suna tha maanyawar kamalnath ji ke byang rachnaki khyyati bahu-bahut dhanyavaad arun dev ji jinke prayaas se hame sarvottam rachnaye mil jaati hai aashani se

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  3. Main hindi magazines ke liye surf kar raha tha, tab aapki patrika bhi mili. yah vyangya kamalanath ji ka padh kar maza aagaya. babaon ki category bahut interesting hai. Ajkal charon taraf faile andhvishvaas, dhokhadhadi aur loot maar jo TV par machi hai uska bada manoranjak varnan kiya hai lekhak ne. Ab aapki patrika main hamesha padhoonga. kamalanath ji ka hi ek purana vyangya bhi aapki patrika me hi padhaa. Kyaa likhte hain ye!! Dhanyvaad sampadak Arun Dev ji!

    A. Gautam

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  4. आपकी पत्रिका में ही कमलानाथजी का पहले वाला मकड़जाल वाला व्यंग्य पढ़ कर आनंद आगया था. अब यह दूसरा पढ़ कर उतना ही मजा आया. क्या बात है! इतना तीखा व्यंग्य ढोंगियों के ऊपर. पता नहीं कितने लोग इसको पढ़ पाएंगे, इसीलिए यह धंधा चलता ही रहेगा. जो भी हो, ऐसे लेखकों को पढ़ने का मजा ही कुछ और है.
    आपको धन्यवाद कमलानाथ जी का यह जबरदस्त लतियाता व्यंग पढवाने के लिए.
    दिनेश वैद्य

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  5. दुखड़े पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ

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