आवाज़ की जगह : १: प्रभात रंजन और सीतामढ़ी


















युवा कवि आलोचक  गिरिराज ने अपनी पसन्द के कहानीकारों पर लिखते रहने का वायदा किया है. शुरुआत  प्रभात रंजन से. गिरिराज की समूची उपस्थिति ही साहित्य के लिए आह्लादकारी है. इस शुरुआत में अपने समकाल पर लिखने  की जहां जरूरी पहल हुई हैं, वहीं प्रभात के कथा – रहस्य में गहराई से उतरने का आलोचकीय जोखिम भी लिया गया है.

इस रहस्य और कथा – रस  को जानने के लिए यह लेख है . प्रभात को बधाई दी जानी चाहिए.  

आवाज़ का ठिकाना १: प्रभात रंजन और सीतामढ़ी            

गिरिराज किराडू


वह बहुत छोटी-सी खबर थी, जिस पर मेरी आँखें ठहर गयीं. अखबार के दूसरे-तीसरे पन्नों पर हर रोज ऐसी असंख्य खबरें मैं बरसों से पढता आ रहा हूँ....एक तरह से अपने प्रिय राष्ट्रीय दैनिक के वे दो पन्ने मेरे लिए स्थानीय और राष्ट्रीय प्रगति का आईना जैसे बन गये हैं....मैं आपसे झूठ नहीं बोलना चाहता, यथार्थ से जुड़े रहने का मेरा यही एकमात्र जरिया रह गया है.
(फ्लैशबैक: प्रभात रंजन)

प्रभात रंजन के दोनों कहानी संग्रहों - 'जानकीपुल' और 'बोलेरो क्लास' में - कहानी बार-बार सीतामढ़ी  पहुँच जाती है. हर कहानी में राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय होता है, कोई ना कोई लड़का नोट्स लेने देने के बहाने किसी लड़की से मिलना शुरू करता है, किसी ना किसी पात्र का सरनेम 'मंडल' होता है, और 'लिली' अगर किसी लड़की का नहीं तो 'वीडियो कोच' का नाम होता है और लड़की हो या 'वीडियो कोच' इस नाम से एक 'लिली कांड' ज़रूर होता है और हर कहानी में नेपाल से जिसके सूत्र जुड़े हों ऐसा 'ब्लू फिल्मों' और सेक्स रैकेट का स्कैंडल होता है  कई कहानियाँ पढ़ते हुए आपको लगता है आप इस जगह या किरदार से पहले भी मिल चुके हैं. हर कहानी का नैरेटर दिल्ली में रह रहा होता है और उसका सीतामढ़ी -यथार्थ के साथ सम्बन्ध अक्सर अप्रत्यक्ष स्रोतों से रहता है - अखबार से, वहाँ के किसी दिल्ली आ गये परिचित से या अपनी छुट्टियों में होने वाली विजिट से. लेकिन कोई भी कहानी यह नैरेटर खुद पूरी नहीं कहता - वह अखबार/टीवी को और दूसरे किरदारों को भी नैरेटर नियुक्त कर देता है. अखबार/ टीवी को एक नैरेटर के रूप में इस्तेमाल करना प्रभात रंजन की कथा के उन कई नायाब आविष्कारों में से हैं जिन पर अभी तक ध्यान नहीं गया है. यहाँ कथा बिना अखबार/टीवी के नहीं बन सकती - हमारे समकालीन यथार्थ का एक ऐसा सच जिसे इस कथाकार ने बरसों पहले पहचान लिया था. पहचान इसने यह भी लिया था कि हर 'गौण कथा' उसके लिए एक मुख्य कथा है लेकिन जिस समाज में वह घटित होती है वह उसके इतने संस्करण निर्मित करता है कि जो एकवचन प्रतिरोध के लिए आवश्यक होता है उसे नष्ट करने का उसके पास सबसे कारगर तरीका यही है कि कथा को किसी एक सच में कहने योग्य ना रहने दो, उसे कई परस्पर विरोधी संस्करणों में बदल दो (यहाँ यह दिलचस्प है कि 'राशोमन इफेक्ट' जिसको लेकर पढ़े लिखे लोग इतना अभिभूत रहते आये, भारत जैसे गल्पप्रेमी समाज की अपनी एक युक्ति है किसी सच को न्याय-योग्य ना रहने देने का - क्यूंकि भंते कला/दर्शन के लिए यह इफेक्ट चाहे जितना आकर्षक हो, न्याय की अवधारणा के लिए भी, लेकिन न्याय-प्रणाली के लिए नहीं - न्याय-प्रक्रिया यथार्थ के एक न्यूनतम संभव, सत्य संस्करण के बिना संभव नहीं).

'पक्षधर' कला की तरह प्रभात रंजन की कथा लेखकीय हस्तक्षेप से इस विलक्षण सामाजिक युक्ति को एकपक्षीय वृतांत में नहीं बदलती लेकिन कथा पढ़ने के बाद आप यह लगातार सोचते रहते हैं कि लेखक ने ऐसा क्यूँ नहीं किया? अगर उसे ऐसा नहीं करना था तो उसने ये गौण (Marginal) पात्र और उनकी कथा चुनी ही क्यूँ? प्रभात रंजन के पात्र ऐसे विक्टिम हैं जिन्हें कथाकार कोई उम्मीद नहीं बख्शता, वे 'आदर्श' विक्टिम भी नहीं हैं - वे 'पूरे' पात्र हैं, अच्छे भी बुरे भी और अपनी त्रासदी का सामना करते हैं अपने इसी पूरेपन के साथ. एक ख़ास तरह के हिन्दुस्तानी ठंडेपन के साथ, एक तरह की निसंगता के साथ ये किरदार और उनकी कथाएं हमारे सामने अपने त्रासद अंत की तरफ बढ़ते हैं. और क्यूंकि कथाकार कोई रिलीफ हमें नहीं देता, हमें अधिक विचलित करते हैं. संयोग नहीं कि ये सब 'भविष्य-विहीन' किरदार हैं. कहानी इस तरह खत्म होती है कि उसके साथ किरदार भी खत्म हो जाते हैं - यह भविष्यविहीनता उन किरदारों की ही नहीं , उनके लोकेल की भी है. जो गौण है उसके डिस्टोपिया का यह गहरा अहसास उनकी कथा का एक और नायाब आविष्कार है.


ऐसी बहुत-सी कहानियां हैं इन दो संग्रहों में जो मुझे याद रहती हैं लेकिन कोई भी 'फ्लैशबैक' से ज़्यादा नहीं. यह बांके भाई की कथा है जो कभी छात्र नेता हुआ करते थे और कथा के एक नैरेटर 'मैं' ने उनको अपना मेंटर समझ कर अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की. 'मैं' का राजनैतिक जीवन एक छात्र आंदोलन के उपद्रव और लूटपाट में बदलने के एक सदमे से ही समाप्त हो जाता है और वह अपने परिवार की परंपरा के मुताबिक डाक्टर आदि ना बनने की भरपाई मैनेजमेंट पास करके एक वाइन कंपनी में  नौकरी लगके करता है. यहाँ सब कहानियों की तरह यह नैरेटर भी दिल्ली (फरीदाबाद/गाज़ियाबाद) आ जाता है और यहाँ से कहानी दूसरे नैरेटर सुनाने लगते हैं. लोकप्रिय छात्र नेता बांके भाई उसी आंदोलन के मुख्य आरोपी से हाथ मिला लेते हैं, प्रदेश महामंत्री बन जाते हैं और बाद में वह आरोपी भी सांसद बन जाता है, बांके भाई इस्तीफा देकर जाति-उन्मूलन के लिए काम करने लगते हैं और अपने शिष्य सांसदों और स्टार नेताओं के साथ दुकानदारों के फोटो खिंचवाने का धंधा शुरू कर देते हैं. और नेरेटर को अंततः मिलते हैं उसके प्रिय राष्ट्रीय दैनिक की एक छोटी-से खबर बनके - अपने सांसद शिष्य का स्टिंग आपरेशन करने की असफल कोशिश में गिरफ्तार होते हुए. एक 'आदर्श' छात्र नेता से नेताओं को लड़कियां सप्लाई करने वाले बांके बिहारी की बची हुई कहानी हम दैनिक समेत तीन और आवाजों में सुनते हैं याने कुल चार नैरेटर.
कहानी यह कहते हुए खत्म हो जाती है कि 'उस दिन के समाचार के बाद उनकी और कोई खबर छपी नहीं देखी है.'

प्रभात रंजन की कथा में करुणा प्रदर्शित नहीं की जाती. क्या बांके भाई किसी करुणा के योग्य हैं? क्या समूचा सीतामढ़ी , जैसा उनकी कथा में वह है, किसी करुणा के योग्य है? यह कैसा शहर है जिसके मटमैले मामूली किरदार, अक्सर अपराध से सने, इस कथाकार की आवाज़ में बोलते हैं? क्यूँ वह उनसे भागने की कोशिश करता है, क्यूँ वह उनकी हर कथा को आधे सच आधे झूठ की तरह, कई नैरेटर्स के साथ बयान करता है? - भंते, हम कलात्मक दूरी, आख्यान की नैतिकता, वस्तुपरक सत्यान्वेषण जैसे जुमलों से बच कर बात करेंगे. यह कला में उम्मीद के फ़रेब से बचने की कला है - अगर उम्मीद नहीं है तो नहीं है. 
सीतामढ़ी  और ऐसे दूसरे तमाम शहर अपना यथार्थ खुद नहीं निर्मित करते - कहीं बहुत दूर किसी ग्लोबल में, नैशनल में कुछ होता है और वह उनके यथार्थ को बनाता बिगाड़ता है. इसी तरह बांके भाई और दूसरे किरदार (ध्यान रहे प्रभात रंजन के सारे किरदार गौण किरदार हैं, उनका लोकेल गौण है) अपना यथार्थ खुद निर्मित नहीं करते; वे उन चीज़ों के हाथों बनते हैं - राष्ट्र राज्य, लोकतंत्र, मीडिया, टेक्नोलॉजी, पूंजीवाद - जिन्हें उन्होंने निर्मित नहीं किया है. वे इस बड़े और बेढंगे लोकतंत्र की संतानें हैं - विषमता के उस संजाल की संतानें जिसमें अपराध एक छलपूर्ण शब्द है, एक ब्यूरोक्रेटिक, समाजवैज्ञानिक बाजीगरी विषमता को छुपाने के लिए.
इस ख़ास अर्थ में, प्रभात रंजन 'अपराध लेखक' हैं. 

प्रभात रंजन की कथा की आवाज़ दिल्ली में आ बसे नैरेटर की आवाज़ है लेकिन जो शहर उनकी कथा में बोलता है वह सीतामढ़ी  है - कुछ कुछ रेणु के पूर्णिया, आर. के. नारायण के मालगुडी, हार्डी के वैसेक्स की तरह. रेणु और हार्डी में करुणा बहुत है, प्रभात रंजन में वह कॉमिक भी नहीं है जो आर.के. में है. यह करुणा और कॉमिक से अलग त्रासदी को ऐसे लिखना है कि आप - पाठक - तय करे कि यह कथा उसके साथ क्या कर (पाएगी). यह लेखक (ऑथर) के  स्वर और आख्यान (सच?) पर उसकी अथॉरिटी को पढ़ने वाले में विलीन करने वाली कथा है

मैं एक ख्वाब देखता हूँ: मैं किताबों की किसी दूकान में घुसता हूँ और मेरे सामने एक पुस्तक है: 'सीतामढ़ी  क्रॉनिकल्स': प्रभात रंजन. प्रकाशक: प्रतिलिपि बुक्स.
बस एक ज़रूरी डिटेल नहीं दिखती: ट्रांसलेटेड बाय ....
है कोई उम्मीदवार?
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प्रभात रंजन की कहानी
गिरिराज किराडू की कविताएँ 

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  1. संक्षिप्‍त किंतु प्रभात को समझने के लिए बहुत ज़रूरी बल्कि सबसे ज़रूरी आलेख... और प्‍यारे गिरि तुम्‍हारे ख्‍वाब में मैं ट्रांसलेटेड बाय मोनिका कुमार जोड़ने की ज़ुर्रत कर रहा हूं... देखें मोनिका क्‍या कहती हैं...फिलहाल तो ये ज़ुर्रत ही है मेरी।

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  2. एक नए अंदाज़ में लिखा गया आलेख जो प्रभात रंजन की कहानियों को पढ़ने-समझने की दृष्टि देता है. पांचवां अनुच्छेद आलोचकीय रचनात्मकता का सुपर्ब नमूना है. बेजोड़.

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  3. वरिष्ठ साथी प्रभात को ज्यादा गहरे में जानने में आनंद आया।लेखक,और सम्पादक का शुक्रिया

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  4. प्रभात को पढ़ने -समझने की दृष्टि देता जरूरी आलेख ..प्रभात रंजन "अपराध लेखक"हैं ..इस ख़ास अर्थ में उनकी कहानियां दुबारा पढ़े जाने की मांग करती हैं ..
    फिलहाल अपनी शेल्फ पर प्रभात की कहानियों के साथ ..
    समालोचन शुक्रिया,अगले स्तम्भ की प्रतीक्षा में

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  5. पीछे से शुरू करती हूँ

    यह आपकी जुर्रत ही है शिरीष और शायद मुझ पर जरूरत से अधिक विश्वास :-) गिरिराज खुद ही समर्थ अनुवादक हैं..उन्हें शायद यह डिटेल इसलिए नहीं दिखी क्यूंकि वे सोच रहे होंगे कि अनुवाद और प्रकाशन का काम एक साथ कैसे संभव होगा, यह न दिखना, क्या पता, केवल 'टाईम मैनिजमेंट' का मसला हो...लेकिन फिर भी मुझे अगर यह करना हो तो, अच्छा ही लगेगा...मैं अरुण जी की इंट्रोडक्शन से भी सहमत हूँ कि गिरिराज की समूची उपस्थिति महत्वपूर्ण है

    ख्वाब देखने की बात से मुझे तुरंत अमृतसर के हाल गेट में स्थित बुक स्टोर 'बुक लवर्स रिट्रीट' की याद आई और यह पुस्तक वहाँ दिखी...यह पहला ऐसा स्टोर था,बहुत बड़ा वाला, जिसे मैंने एम् ए में पहली बार देखा,जो किताबों की दूकान न लग कर बुक स्टोर लगा था और जहाँ से मैंने आर के नारायण के नोवेल और हार्डी( का टेस )खरीदा था

    मुझे यह लेख अच्छा लगा क्यूंकि प्रभात जी की कहानियों कि जो विशेष बात है, यह उनकी तरफ ध्यान दिलाता है..चूंकि उनकी कहानियां 'अभी की' कहानियां हैं, उनके पात्र भी कोई परम्परागत नहीं जो देश काल के भाग्य को तय कर रहें हो, यथार्थ को 'एक्टिव' रोल में निर्मित कर रहें हो बल्कि वे तो कुछ और नैशनल इंटरनैशनल शक्तियों से डिटरमिन हो रहें हैं, इसी तरह जो नैरेटर है वह भी कोई ओम्निशेंट नहीं...वह भी अभिव्यक्तियों के लिए टीवी अखबार को प्रतिभागी बनाता है, वे उसी तरह एक्शन में सम्मिलित है जैसे दुसरे जान प्राण वाले पात्र .यह जरूरी निशानदेही है...आवाजों की बहुलता और पोलिफ्नी में यह तकनीक जो प्रभात जी ने इवोल्व की है...मुझे भी बहुत अच्छी लगती है हालाकि मैंने उनकी सभी कहानियां नहीं पढ़ी हैं...शायद नोवेल में नरेशन का ढंग ही उपन्यासकार का असली चैलिंज है

    'एक खास तरह का हिन्दुस्तानी ठंडापन' शायद हमारा नैशनल करेक्टर है जिसे पहले प्रभात जी के पात्रों ने ज़ाहिर किया है और फिर गिरिराज ने उसकी शिनाख्त की...इन्ही अवसरों के लिए शायद यह संक्षिप्त अंग्रेजी एक-वाक्य बना है Sad but true

    मोनिका कुमार



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  6. प्रभात रंजन की पहिळ कहानी जानकीपुल शायद में राष्ट्रीय सहारा में पुरस्कृत हुई थी तब पहली बार पढी थी। इसके बाद कोई कहानी शायद ही छूटी हो। गिरिराज जी ने अनूठी शैली में प्रभात रंजन के बारे में लिखा और यथार्थ लिखा।

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  7. bahut sunder aalekh ....parbhat ranjan ji ki kahaniyon ko samjhne .ke liye ek jaroori drishti deta ...samalochan aur lekhak Ko badhai ....

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  8. बेहद खूबसूरती में किया गया समालोचन .. नैरेटर को उसके उपस्थित/अनुपस्थित में देखते हुए कहानी के परिदृश्य पर डाली गयी समीक्षापरक दृष्टि श्री गिरिराज की समीक्षा के लिए प्रशंसा के शब्द मांगती है .. शुक्रिया

    भैया एक्सप्रेस वाली संवेदना को नए फलक देते जरुरी कथाकार लगते हैं मुझे श्री प्रभात रंजन जिनकी सीतामढ़ी और दिल्ली के बीच तीन जोड़ी ट्रेनें चलती हैं .. अगले डब्बे से पिछले डब्बे तक जितना मौजूद क़स्बा रहता है उतना ही मौजूद दिल्ली रहना चाहती है .. मुझे निजी आनंद वहां भी मिलता है जहाँ उनके सीतामढ़ी के किरदार मेरे बेगूसराय के किरदारों से हु ब हु मिलते हुए दीखते हैं .. इस रूप में हमारा कथाकार हर कस्बे की मन आत्मा को किरदार और परिदृश्य दोनों में भरपूर देख रहा है .. शुक्रिया ..

    बाकी ..समालोचन ..और श्री अरुण देव तो .. बस .. साधुवाद !

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  9. बहुत ही गहरायी से किया गया विवेचन गिरिराज जी द्वारा ... प्रभात रंजन जी के कथा मर्म को समझना आसान हुआ |

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  10. संक्षिप्‍त किंतु प्रभात को समझने के लिए ज़रूरी आलेख.

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  11. प्राभात रंजन की कहानियों को पढ़ने-समझने का नया नज़रिया दिया है गिरिराज किराडू ने। इस लेख को पढ़ने के बाद न सिर्फ़ प्रभात रंजन से बल्कि गिरिराज किराडू (नई आलोचनात्मक दृष्टि)से और भी उम्मीद बढ़ गई है...

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  12. इस श्रृंखला का स्वागत है ..शुरुआत प्रभात जी से हुयी , और सार्थक तरीके से हुयी , यह और भी स्वागत योग्य है ..हमें आगे भी इस श्रृंखला का इन्तजार रहेगा ...

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  13. बढ़िया। ये ही पात्र हमारे लोकतन्त्र की नई दुनिया के गायब कोने रचते हैं। इधर बीच मुझे अमरकान्त की बेहतरीन कहानी 'हत्यारे' लगातार याद आती रही, उसके पात्र और ज्यादा। यह आलेख पढ़ उनकी याद और गहरा गई। खैर, प्रभात भाई की जमीन सीतामढ़ी से एक प्रातिनिधिक जमीन में बदल जाती है, बिना अपनी जगह खोये। शायद गणित की भाषा में कहना ठीक न हो, फिर भी हम सबके लोकेल का लघुत्तम समापवर्तक।

    और आखीर में आलोचकीय लटका। जियो ! जियो !

    शुक्रिया प्रभात/गिरि/अरुण भाई !

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  14. सब मित्रों का बेहद शुक्रिया. अगली किश्त लिखने का मन बन गया है, टिप्पणियाँ देखकर. :-)

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  15. badhiya aur sarthak alekh, Prabhat ji ki kahaniyon ki bahut saari visheshtaon ko aapne rekhankit kiya hai, is shrinkhala ko lagataar chalayen Giriraj ji

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  16. यह एक अच्छी शुरूवात है/प्रभात की कहनियो का अलग संसार है/जो उन्हे उनके समकालीनो से अलग
    करती है/उसमे बिहार का जीवन हैऔर अक्स है इससे यह सावित होता है कि कथाकार अपने उदगम
    को नही भूल पाया है/अगर यह दिल्ली जैसे मारक शहर मे बचा हुआ है तो यह बहुत है
    स्वप्निल श्रीवास्तव

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  17. प्रस्तुत आलेख पढने के बाद प्रभात रंजन जी की कहानियों के कुछ द्रश्य बनते हैं कल्पना में| कुछ विशेषताएं ज़ाहिर होती हैं जो निस्संदेह मौजूदा कहानी चलन से काफी अलग और अनोखी हैं जैसे नरेटर ,जैसे सीतामढी,जैसे कहानी में कोई करुना न होना लिहाजा उसका कुछ हिस्सा या निष्कर्ष का दारोमदार स्वयं पाठक पर ही छोड़ देना ,इनमे समकालीन यथार्थ है,मीडिया ,प्रेम,राजनीति ,हर गौण कथा/किरदार का वस्तुतः एक मुख्य कथा/किरदार होना इत्यादि ..|लब्बोलुबाव ये कि गिरिराज जी का संक्षिप्त और सारगर्भित आलेख प्रभात जी की कहानियां पढने की उत्सुकता जगाता है|श्रंखला निश्चित रूप से रुचिकर होगी लेकिन यदि आलेख के साथ कथाकार की एक कहानी भी दे सकें तो संभवतः और भी रोचक होगा |धन्यवाद समालोचन

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  18. शब्दों की बाजीगरी इसे ही कहते हैं . कालिदास से जुड़ी किंवदंती याद आ गयी .पांच उंगलियाँ मतलब पांच तत्व .समझाने वालो ने खूब समझाया .कथन की यह बहुवचनता प्रभात रंजन की कमजोरी है .वह कुछ भी कहने की जिम्मेदारी से भागना चाहता है .दुर्भाग्य से वास्तविक जिंदगी में भी उसने वीरेन्द्र यादव के प्रसंग में यही किया .कथन का बहुकोण होना तभी सार्थक है जब कई लोगो की दृष्टि को शामिल करने के उद्देश्य से ऐसा किया गया हो अन्यथा एक ही बात तो तरह तरह से कहना ऊब पैदा करती है .प्रभात रंजन तो एक ही कहानी को तरह तरह से कहता है . वह आज का अज्ञेय है .उसके पास एक ही कहानी है .अलग अलग ढंग से कहने के कारण उसमे रोचकता तो आ सकती है मगर वह एक ही संरचना की अलग अलग रूप है .यह ठेठ हैगीलियन प्रोजेक्ट है .एक ही आत्मा का अलग अलग प्रकटन .बल्कि उससे भी घटिया .यहाँ द्वंदात्मकता का उत्स भी गायब है .शिल्प के नाम पर वही घिसा पिटा एमिली जोला छाप ,मंटोंनुमा प्रकृतवाद है .इस लचर कथा भंगिमा के सहारे कहानी लिखने पर ऐसी पस्तिज़ सामने आती हैं .हो सकता है आप मेरी यह आलोचना न छापें .मगर न छापने के लिए भी एक बार पढना पड़ेगा .इसलिए मिहनत कर लिया .ई-छाप दिया तो और मिहनत करूँगा अपनी बातो का खुलासा करने का .

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