सहजि सहजि गुन रमैं : शिरीष कुमार मौर्य


शिरीष  कुमार  मौर्य की इन चारों कविताओं में एक युवा की नैतिक और सामाजिक जबाबदेही मुखर हुई है. पूंजी के क्रूर प्रवाह’,‘ग़लत नीतियोंऔर राजनीति में विकल्‍पहीनताके जुनूनी दौर में यह एक युवा की विवशता की भी कविताएँ हैं. ज़ाहिर है यह विवशता भारत जैसे अर्द्ध औपनिवेशिक, अर्द्ध सामंती और दलाल पूंजीवाद के आखेट हुए देश के हर एक सचेत नागरिक की विवशता है. शिरीष इन कविताओं में उन आवाजो को भी पकड़ते हैं जो हमारे आस पास मौजूद हैं - कई बार धीरे से कुछ कहते हुए कई बार सिसकते हुए.  यह प्रकृति और प्रवृत्ति के नष्ट होते जाते समय में अपने ही भूस्‍खलन में लगातार दबते हुएकवि की कविताएँ हैं’. असरदार और प्रहार करती हुई.

photo : American photojournalist Steve McCurry






कविता की सड़क पर ख़ुद से कुछ बात


मुझे कुछ लिखना है
क्‍या लिखूं समझ नहीं आ रहा
जैसे कि पिछले पन्‍द्रह बरस से मुझे सड़कों पर दिखना है
कैसे दिखूं समझ नहीं आ रहा

सड़क से रोज़ गुज़रता हूं पर दिखता नहीं
रोज़ कुछ न कुछ लिखता हूं पर लिखता नहीं

गड़बड़ न सड़क में है न पन्‍ने पर
कहां है गड़बड़

मैं वक्‍़त आने पर सड़क से अनुपस्थित मिलता हूं
दिल छटपटाने पर कलम उठाने की जगह एक गोली खा लेता हूं
कहते हैं ये दोनों ही काम मेरी सेहत के लिए ज़रूरी हैं

बहुत हट्टा-कट्टा ताक़तवर होने पर भी मेरी सेहत गिरती जा रही है
जब पतला-दुबला था तो सेहतमंद था

पहले सड़क पर था अब नहीं हूं

ख़ुद को भरोसा देता
कहता हूं यहां कविता भी एक सड़क है
जुलूस जो पुरानी सड़कों पर थे यहां भी मुमकिन हैं
बहसें अटूट
अंधेरे में अकेले गुज़रने के जोखिम वो साथियों का घर तक छोड़ना
वो लड़ना वो हक़ की बात
हक़ की बात गोया दिल की बात नाज़ुक बेसम्‍भाल
सब कुछ मुमकिन है यहां

अलग दिखना उपलब्धि नहीं है इस सड़क पर अपने लोगों में शामिल दिखो
पन्‍ने पर नहीं लिख सकते कुछ तो सड़क पर ही लिखो
जो लिखोगे वो शायद जल्‍द मिट जाएगा
पर सोचो मिटने से पहले कितनों को दिख जाएगा

यहां ख़ाली पन्‍नों की उम्र सड़कों की उम्र में
और सड़कों की उम्र भरे हुए पन्‍नों की उम्र में बदलती जाती हैं

एक लगातार जुनून में सुनता हूं मैं
मुझे सड़कों पर अपने लोगों और कविता में शब्‍दों की आहटें
साथ-साथ आती हैं.


आऊं और जाऊं

बारिश आए तो भीग जाऊं तर-ब-तर भीतर के ताप को सुखाते
गल नहीं जाऊं

बाढ़ आए तो हो जाऊं पार अपनों का हाथ थामे
पत्‍थरों के बीच चोट खाते
बह नहीं जाऊं

धूप आए तो सुखा लूं ख़ुद को हड्डियों तक मज़बूत कर लूं देह
ढह नहीं जाऊं भुरभुरा कर
                                      
वक्‍़त साथ मिल गाने का हो तो गाऊं हमख़याल दोस्‍तों की मुखर आवाज़ों में
अपनी आवाज़ मिला

गरियाने का हो तो गरियाऊं पर अपने किरदार से गिर नहीं जाऊं

रह जाऊं कुछ दिन तो धरती पर
मनुष्‍य की तरह 
कवि की तरह लिख जाऊं कुछ दस्‍तावेज़
प्रतिरोध के

राजनीति और कविता के राजमार्गों पर गतिरोध के कुछ दृश्‍य
सम्‍भव कर जाऊं

ऐसी कई-कई इच्‍छाओं की पोटली सम्‍भाले बहुत चुपचाप आऊं अपने अतीत से
भविष्‍य की ओर गनगनाता निकल जाऊं 

कोई इतना भर समझे कि एक कवि यहां तक आया था चुपचाप
एक मनुष्‍य बहुत तेज़ क़दम यहां से गुज़रा.


एक और दिन बरसात का

पहाड़ों की देह पर
यह एक और दिन है बरसात का
सब दिन बरसात के नहीं होते
कई दिन धूप के होते हैं
सूखे के होते हैं
कुछ दिन पतझड़ के होते हैं और हैरत कि वे भी सुन्‍दर होते हैं पहाड़ पर
कुछ दिन चोटियों पर हिम के होते हैं
पाले के होते हैं शिवालिक पर
कुछ दिन फूलों के रसीले फलों के होते हैं
पर यह एक और दिन है बरसात का

कई दिनों से यह एक और दिन है
एक और दिन अभी बना रहेगा कई दिनों तक
पहाड़ों से उपजाऊ मिट्टी खरोंच कर
बड़ी नदियों के मैदानी कछारों-दोआबों में पहुंचा देगा
वहां जब धान उगेगा तो उसमें पहाड़ों की गंध होगी

इस एक और दिन से बहे पत्‍थर और रेत विकास के पेट में समा जाएंगे
इससे उखड़े पेड़ों को लकड़ी-तस्‍कर चुरा ले जाएंगे

हमारे कई खेत, रास्‍ते और घर ढह जाएंगे इस एक और दिन में
मनुष्‍य कहां जाएंगे
कुछ दब जाएंगे अपने ही ढहते घरों के नीचे
कभी शरण्‍य ही मार देता है
कभी रास्‍ते आधे में ही हमेशा के लिए ख़त्‍म कर देते हैं यात्रा
कभी खेतों को बहने से रोकने के लिए लगाए गए पत्‍थर
लगानेवाले हाथों पर ही गिर पड़ते हैं

यह सब होता है बरसात के एक और दिन में
जबकि बरसात में एक और दिन यह सब होने के लिए नहीं होता

यह बरसात का नहीं विकास का एक और दिन है
पानी के नहीं पूंजी के क्रूर प्रवाह का एक और दिन है
सालों-साल सही लोगों के बनाई जाती रही ग़लत नीतियों का एक और दिन है
राजनीति में विकल्‍पहीनता का एक और दिन है

यह बचे हुए मनुष्‍यों के बीच पछतावे का एक और दिन है
जीवन जो नष्‍ट हो रहा है अभी
कभी जुड़ जाएगा नए सिरे से उस दिन की धुंधली उम्‍मीदों का एक और दिन है

अभी हमें एक और दिन में निवास करना है
इस दिन में सुधार की गुंजाइश फिलहाल नहीं है लेकिन जो जूझकर बच जाता है
वह सोचता ज़रूर है
बीत गए और आनेवाले एक और दिन के बारे में

उस एक और दिन पर ही एक कवि भरोसा रखता है
सोचने वाला कोई मनुष्‍य उसे रचता है.


भूस्‍खलन

सड़कों पर खंड-खंड पड़ा है
हृदय
मेरे पहाड़ का

वह ढह पड़ा अपने ही गांवों पर
घरों पर
पता नहीं उसे बारिश ने इतना नम कर दिया या भीतर के दु:ख ने
मलबे के भीतर दबे हुए मृतक अब उन पर गिरे हुए पत्‍थरों की तरह की बेआवाज़ हैं
मृतकों के पहाड़-से दु:खों पर उनके पहाड़ के दु:ख
सब कुछ के ऊपर बहती मटमैली जलधाराएं शोर करतीं रूदन से कुछ अधिक चीख़ से कुछ कम
रोने और चीख़ने के प्रसंग मलबे के बाहर बेमतलब हुए जाते हैं
मलबे के भीतर तक जाती है हो चुके को देखने आतीं कुछ कारों के हूटरों की आवाज़
दिन के उजाले में लाल-नीली बत्तियां सूरज से भी तेज़ चमकती हैं
आतताईयों के जीतने के दृश्‍य तो बनते  है
मगर मनुष्‍यता के हारने का दृश्‍य नहीं बनता
कुछ लोग गैंती-कुदाल-फावड़े-तसले लेकर खोदते तलाशते रहते हैं

मृतकों के विक्षत शवों के अंतिम संस्‍कार
उन्‍हीं मटमैली जलधाराओं के किनारे
उसी रूदन से कुछ अधिक चीख़ से कुछ कम शोर के बीच होते हैं
बारिश में भीगी लकड़ी बहुत कोशिशों के बाद पकड़ती है आग
उसकी आंच में हाथ सेंकने वाले
दूर राजधानी में बैठते हैं अपनी कुर्सियों पर वहां से देते हैं बयान
उनके चेहरे चमकते हैं
उनकी आंखों के नीचे सूजन रोने से नहीं
ज्‍़यादा शराब पीने से बनती है

एक कवि अपने घर में सुरक्षित बैठा पागल हुआ जाता है भूस्‍खलन के बाद अपने भीतर के
भूस्‍खलन में लगातार दबता हुआ
वह कभी बाहर नहीं निकालेगा अपनी मृत कविताओं के शरीर
वे वहीं मलबे में दबी कंकाल बनेंगी

कभी जिन्‍दा शरीरों की हरकत और आवाज़ से कहीं कारगर हो सकती है
मृतकों की हड्डियों की आवाज़.    


शिरीष कुमार मौर्य, 
ए-2 द्वितीय तल,समर रेजीडेंसी, निकट टी आर सी, भवाली, 
जिला-नैनीताल,(उत्‍तराखंड) पिन- 263 132 

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  1. बहुत सटीक बात कही है शिरीष ने "कभी ज़िन्दा शरीरों की हरकत और आवाज़ से ज्यादा कारगर हो सकती है/ मृतकों की हड्डियों की आवाज़"… आज का समय इतना ही भयावह है। लेकिन डर तो यह भी है कि आज की बहरी व्यवस्था को मृतकों की हड्डियों की आवाज़ भी नहीं सुनाई देती … ज़िन्दा को लाश की तरह घसीटा जाता है उसके ठौर से …सी सी टी वी के सामने … घसीटने वाले मौज़ उड़ाते हैं थाने में … घिसटने वाले की लाख की हड्डियाँ तक गलाने वाले विद्युत शवदाह-केन्द्र खुल चुके हैं चारों तरफ … मृतक की हड्डियाँ आवाज़ करने को बचेंगी कहाँ?

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  2. शिरीष जी की कविताएं समाज और राजनीति के बीच कई अर्थ-समूहों में आन्‍दोलित होती हैं। वे साधारण बयानों में जीवन को उद्धाघाटित करते चलते हैं। ये जनता के लिए लिखी जनता की कविताएं हैं। इनमें उत्‍तराखंड का लोक बोलता हे।

    - कृष्‍णप्रताप सिंह(केपी)
    https://www.facebook.com/krishnapratap.singh.9619

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार - 30/09/2013 को
    भारतीय संस्कृति और कमल - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः26 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra


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  4. बरसात का दिन अच्छी लगी .

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  5. kavitayen achhee hain. apanee bat achhee tarah se kar le jatee hain aur seedhe sampreshit hotee hain aur pathhak ko samvedit aur bechain kartee hain garahe utarane aur sab kuchh ko thheek-thheek samjhane ke liye. kavitaon kar swar ya sur jo kahiye madham-sa hai lekin usake bheetar phat padane ko betab koi sailab ki haraharat saph sunai padatee hai- baithhe hain ham tahaiy-e-tufan kiye huae.
    ramji rai

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  6. हमेशा की तरह शिरीष भाई की अच्छी कवितायेँ..

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  7. दूर से दिखते पहाड़ और पहाड़ के भीतर रह कर पहाड़ को समझते जाना कितना भिन्न भिन्न है... इन कविताओं में पहाड़ के भीतर का दर्द कूट कूट कर भरा है जिसे एक कवि की आत्मा ने समझा है .. सच ही कहा है ..वह एक दिन ऐसी बरसात का एक दिन नहीं रहा कितनी ही पीडिया गुजर जायेंगी ... उस दर्द को झेलते हुए .. नदिया साथ ले गयी अपनों को, उपजाऊ मिट्टी को, रेत को पत्थरों को .. पीछे छूट गया बंजर और विकास के माफियों को मिल गयी कंक्रीट के जंगलो के लिए कच्चा माल... वस्तुस्तिथि पर कितना कुछ कह गयी ये कवितायें ... चारों कवितायें आपदा की विडम्बना पर मार्मिक और विवशताओं के जाले में फंसी एक संवेदनशील कवि की छटपटाहट है ... समालोचन को धन्यवाद, शिरीष जी की इन समसायिक रचनाओं को साझा करने के लिए...

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  8. 'भूस्खलन' और 'एक और दिन बरसात का' कविताएँ मुझे विशेष अच्छी लगीं . इन्हें मैं केवल सामयिक चिंता की कविता नहीं कहूँगी .यह चिंता आज ग्लोब की चिंता है .इसके परिदृश्य में कवि के पहाड़ नहीं ..बल्कि मानव के दोहन से लेकर शोषण की कहानी है .समालोचन का शुक्रिया .

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  9. इस वक़्त की बेचैनियों और छटपटाहट की गूँज अपने में लिए हुए अच्छी ही नहीं, ज़रूरी कविताएं.

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  10. भीतर तक झकझोरती ,कुछ कर न पाने की छटपटाहट बढ़ाती हैं कवितायेँ | सशक्त रचनाएँ ,सराहनीय प्रस्तुति

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  11. सच में माँ (धरा ) से मानव के दोहन या यूं कहें एक इश्वर /प्रकृति प्रद्दत संरचना को/की शोषण की हदों को पार करती सामाजिक बरवर्ता की कहानी बयां करती हैं.भाव पूर्ण व्यक्तित्व ही ऐसी शाब्दिक रचना का सर्जन कर सकता है ...बहुत खूब ...शुक्रिया जी और बधाई शिरीष जी को !!

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  12. अपने लोगों और कविता की आहट सुनना आसान बात नही। शिरीष यही कर रहे है। चिल्लाती हड़बोंग मचाती कविताओं के बीच गहरी आस्वस्ति देती कवितायेँ

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