सहजि सहजि गुन रमैं : गिरिराज किराडू








गिरिराज किराडू की कुछ नई कविताएँ  

पहली बात तो यह है कि गिरिराज की कविताओं का हिंदी में कोई  पूर्वज नहीं हैं पर इन कविताओं में हिंदी उर्दू के पूर्वज हैं (और भी भाषाओँ की कविताओं के होंगे  जैसे की अंगेजी के एक महान उपन्यासकार के न होने को कहना भी दरअसल उनका होना ही है )

दूसरी बात यह की ये कविताएँ  हिंदी कविता में अब तक बची रह गयी आंतरिक लय से भी  बचती हैं पर यह भी की अपने शब्दों की वक्र उक्ति से इसकी भरपाई करती हैं और कविता ही रहती हैं.  

तीसरी बात यह की कहन और पहन में ये कविताएँ खासी भद्रवर्गीय रूचि की हैं पर जमीन इनकी सबआल्टरन है, कस्बाई है.  

चौथी बात  जो कहनी है वह यह कि गिरिराज कहे हुए पर भी सोचते हैं और आगे आगे उसमें तरमीमों- इज़ाफा करते चलते हैं . यह उनका इस्टाइल है .

और आखिर में यह कि ‘फूल के भीतर कोई मन जैसा महकमा है जो उस पंखुरी को टूटने का आदेश दे चुका है’ जैसे बिम्बों से भरी इन कविताओं को बार बार पढने की मेरी ओर से इसरार  है. अलहदा काव्य –आस्वाद के साथ साथ  इन कविताओं का एक नैतिक पक्ष है और वे  एक वैचारिक चेहरा भी  रखती हैं .जरूरत भर.  ये कविताएँ  गिरिराज की अब तक अर्जित काव्य - विवक के प्रौढ़ होते जाने का प्रमाण हैं  और हिंदी कविता में एक भरोसे का प्रक्षेत्र निर्मित करती हैं, जो समकालीन और लगभग घिस चले मुहावरों से अलग होकर ही संभव है. 
Ganges delta, Calcutta 19. september 2013,Odveig Klyve








मिस्टर के की दुनिया
गिरिराज किराडू

मिस्टर के एक किरदार हैं और अनेक किरदारों का नाम मिस्टर के है. कभी मैंने वास्तविक व्यक्तियों पर उनके वास्तविक नाम से कविताएँ लिखी थीं अब नाम काल्पनिक है (और काफ्का के के से इनका कोई सम्बन्ध नहीं) किरदार वास्तविक. आखिरी कविता में मशहूर शायर शीन काफ़ निज़ाम भी एक किरदार हैं. - कवि



मिस्टर के का पानी बचाओ अभियान
बस पानी कहने भर की देर थी 
उठकर वह बहने लगा नदी की तरह नहीं नल की तरह शाम छह बजे एक बार
आप अपने परिवार को बचा नहीं पा रहे थे लेकिन पानी की और इस तरह पृथ्वी की चिंता आपकी आदत में थी आने वाली नस्लों के लिए जितना पानी अपने से बचाकर आप छोड़ जायेंगे उतने दिन जीवन रहेगा इस पृथ्वी पर यह सोचते हुए आपने तीनों बाल्टियाँ कतार से लगा दीं
आपका बच्चा आपकी शक्ल नहीं देखना चाहता आपका प्रेम अब एक फ़साना हो चुका है और इस समय जब घर में वे नहीं रोने को भरसक रोकते हुए पानी बचाने के कर्त्तव्य में इस कदर झोंके हुए हैं अपने को कि एक बूँद व्यर्थ हुई तो इसी पल प्रलय आ जायेगा मानो जैसी भी है यह दुनिया उसके नष्ट होने का सारा दोष केवल उनपे आ जायेगा
माफ़ी चाहता हूँ मुझे पानी कहना ही नहीं चाहिए था आपके रोने से इतना बचना ही नहीं चाहिए था


मिस्टर के एक ब्याहता के प्रेम में
फूलों के खुदकुशी करने से मेरा परिचय पुराना है एकदम सुबह सुबह एक पंखुरी धीमी रफ़्तार से अपने टूटने की आवाज़ को मनुष्य के कानों को सुनाई देने की तीव्रता पर साधती है ऐसा लगता है फूल के भीतर कोई मन जैसा महकमा है जो उस पंखुरी को टूटने का आदेश दे चुका है आपके कान तरंगसंवेदी यन्त्र होने की आपात बाध्यता में कुछ मुड़ गये हैं
तेज हवा में चिप्स का एक अधफटा आवारा पैकेट चेहरे से आ टकराता है
दूसरी पंखुरी का टूटना अब नये ढंग से सुनना पड़ेगा
फिर से वैसा मन पाने में कुछ घंटे या महीने भी लग सकते हैं इस बीच उस मनुष्य को देख आओ जिसके साथ बचा हुआ जीवन भी जीना है वह भला आदमी इस सारे झंझट से दूर चैन की नींद सो रहा है सोने दो उठ कर हम दोनों को फूलों की खुदकुशी के बारे में बात करते सुन लिया तो गिरस्ती का यह सुस्त उद्यान फूलों की कब्रगाह हो जायेगा जाओ एक सिगरेट पी आओ मैं यहाँ उसका ही नहीं तुम्हारा भी तो एवज़ी हूँ जाओ ये लो माचिस


मिस्टर के और फरारी वाला संत
अगर आपकी जेब में दस रुपये हैं तो इसी वक्त एक रूपक खरीद लीजिए दस रुपये की वैसे भी क्या कीमत रह गयी है
मेरे पास कई पुराने पड़ें हैं इधर तो एक पूरी कविता के पन्द्रह रुपये मिलते हैं लेकिन रूपक कविता से अधिक कीमती होते हैं मेरी हुकूमत होती तो ये रूपक आधुनिक भारतीय चित्रकला की तरह आपको देखने को भी नहीं मिलते कहीं नीलाम हो कर किसी की दीवार पर लटक रहे होते और मैं फरारी वाला संत होता
ये रूपक हिंदी में हैं हो सकता है पचास बरस में कोई नृतत्वशास्त्री इनके लाखों देने आपको ढूंढते हुए आपके द्वार आये आपकी नहीं आपके बच्चों के बच्चों की तकदीर तो बदल सकता है एक अदद रूपक यकीन कीजिये और इसे पचास गज का एक भूखंड समझ कर इसपे अपना डेरा डाल लीजिए शाम तक हो सकता है मेरा इरादा बदल जाए  आखिर हिंदी वाला हूँ शामें हमारी बहुत बहकी हुई होती हैं सपनीली और झगड़ालू आपको अभी जो मैं मोल भाव करने वाला तंदुरुस्त नज़र आ रहा हूँ हो सकता है शाम तक एक दीदा-ए-तर में बदल जाऊं या किसी कटखने कव्वे में  
जल्दी कीजिये शाम बस सर पे गिरने ही वाली है



मिस्टर के का शब्दमेध यज्ञ
उन्नीस सौ सड़सठ में उनके मित्र के नाना ने इस कस्बे से गये कलकत्ते के प्रवासी पंडितों के एक गरीब शिव मंदिर वाले साप्ताहिक मिलन में जब परिपुष्पांगजाय जैसे किसी शब्द का अर्थ बूझने की चुनौती दी थी तो उपस्थित पंडित समाज बगलें झाँकने लगा था - ऐसा एक शब्द वे भी रोज सुबह पाँच बजे संस्कृत की भूलभुलैया से ताजा निकालते हैं और शेष दिवस उसका अर्थ करने की चुनौती दसों दिशाओं में फेंकते हैं
रात तक उनका शब्दाश्व अविजित लौट आता है,
वे उसका
          सर उतार कर
                                  सिरहाने रख
                                                          निश्चिन्त भाव से
                                                          सो जाते हैं


ईसा की तीसरी सहस्राब्दी. भारतखंडे जम्बूद्वीपे: 'सहृदय होने की कठिनाइयों के विवरण' - मिस्टर के के एकालाप

(पहला एकालाप: पहली मुलाकात. सचिवालय)
अपने दुखदर्द के बारे में आप इतना सकुचाते हुए बोले हैं कि हो सकता है इसी वजह से यह मुझे याद रह जाए लेकिन सच कहूँ तो यह संदेह पिछले आधे घंटे से लगातार हो रहा है कि आपका अभिनय जितना अच्छा है उतना सच्चा आपका दुख शायद नहीं हो यक़ीन मानिए अपने इस संदेह को अभी मैं सर नहीं उठाने देना चाहता आखिर क्यूँ कोई अपने सारे कुनबे को मार दिया जाने का बयान इतने अच्छे अभिनय के साथ करना चाहेगा यह तो आप जानते हैं मेरे पास आपको देने के लिए सिवा समय कुछ और नहीं और वह भी बहुत नहीं है एप्लीकेशन में जो भाषा की गलतियां हैं उन्हें किसी को कह कर सुधरवा देता हूँ लेकिन अच्छी भाषा भी अच्छे अभिनय की तरह मुआवज़ा दिला ही दे यह कहाँ जरूरी है आपके कुनबे में लेकिन इतने सारे लोग क्यूँ थे आजकल इतना बड़ा परिवार कौन रखता है और मेरे लिए आपकी मदद करना कितना आसान होता अगर आप सीधे मेरे पास आये होते पर आप भी लगे इतने सारे लोगों के चक्कर लगाने आपको क्या बताऊँ मुझे भी किसी ज़माने में उर्दू शायरी का शौक़ का था बहुत पढ़ा था वो आपके ग़ालिब मीर इत्यादि को मशहूर शायर शीन काफ़ निज़ाम को जानते हैं हमारे शहर के हैं उनका असली नाम शिव कृष्ण बिस्सा है कुछ तो है उर्दू शायरी में इस देश की शान है पूरी कोशिश करूँगा आपका तो खैर घर और घरवाले राख हो गये शायरी का क्या ईश्वर सब ठीक करेगा अच्छा खुदा हाफ़िज़ अरे इनको नीचे तक छोड़ तक आओ और लौटकर निज़ाम साब से बात करवाना


(पहला एकालाप २: आखिरी मुलाकात. सचिवालय)
अगर आप मुझपे  थोड़ा-भी विश्वास करते हैं मुझसे कोई आशा मत कीजिये मैं आपको निराश करूँगा मेरी मजबूरी समझिए जितना मैं आपको निराश करूँगा उससे कहीं ज़्यादा एकदम निर्णायक रूप से अपने आपको करूँगा जब तक मैं इस तरह किसी को सचमुच सिर्फ कल्पना में नहीं निराश नहीं करता मुझे एक आस अपने से भी बनी रहती है कि बिल्कुल अंतिम क्षण में मैं अपने को गर्त में गिरने से बचा लूँगा ऐसा अब तक हुआ नहीं लेकिन मन की तरह अशक्त एक उम्मीद अभी है बची हुई आप मुझे उस सीमा पे ले जा रहे हैं कि मैं अपने आपसे पूर्णतः निराश हो जाऊंगा मुझे बचाइए आपका तो कुनबा राख हो ही चुका मेरा जो यह छोटा-सा तीन लोगों का परिवार है वह भी नष्ट हो जायेगा अपने बच्चों की सूरत याद करते हुए मेरे बेटे की ओर देखिये अपनी वो क्या कहते हैं हाँ  शरीक-ए-हयात शरीक-ए-हयात का चेहरा मेरी पत्नी में देखते हुए बात करिये मुझसे आखिर मैंने तो हत्याएँ नहीं की हैं उनको दंड देना मेरे हाथ में नहीं आप निस्संदेह मेरे घर रहिये जब तक कोई दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती बस ऐसे मत देखिये मुझे भी ईश्वर को मुँह दिखाना है अब तो आप से ही उम्मीद हैं जिसने सब खो दिया हो उसी के हाथ में है अब इस संसार की बागडोर संभालिए रहम करिये हो सके तो क्षमा कीजिये किंतु इस तरह निराश ना कीजिये

(दूसरा एकालाप. चाय की दुकान)
साहिरा को अरसा पहले की एक याद से याद कर रहा हूँ कसाईबाड़ा जिसे कहते थे उस इलाके में उसके होने को इज़ाद किया था ये ऐसे इलाके थे कि हम उनमें छुप जाते थे घंटों लगातार चलते रहते ऐसे चलते चलते एक दूसरे को छूना
जिसे वे पाप कहते ऐसा ही प्रेम हमें करना आया था ऐसे पापमय प्रेम में गनीमत थी कि ये इलाके थे शहर में मुफ़लिस और बदहाल चाय की दुकानों पर उम्रदराज़ प्रेमिकाओं को घूरते हुए वहीं घूरने के एक अंदाज़ पर तज़किरा करते हुए इस किरदार साहिरा का जन्म हुआ था जो आधी मुसलमान आधी उन प्रेमिकाओं-सी थी जो ठीक से हिन्दू नहीं थीं और अगले जनम में फिरंगी होना चाहती थीं
यहाँ इस नीम बरबाद कस्बे में भी है एक वैसा ही इलाका मैं बेटे को अपनी बूढ़ी मोटरसाइकल पे आगे पेट्रोल की टंकी पर बिठाके निकल पड़ता हूँ साहिरा को ढूँढने बल्कि मन को बहलाने कि न्याय अब कहीं मिले ना मिले साहिरा अब भी कहीं मिल सकती है किसी चाय की दुकान पे घूरने के अंदाज़ पर तज़किरा करने के बारे में बेटे को पहला सबक पढ़ाते हुए 

(तीसरा एकालाप. सरे राह)
तुम ख़तरा सिर्फ उनके लिए नहीं
इनके लिए भी हो
और वे इसे समझने में इतनी देर नहीं लगाएंगे बरखुरदार कि तुम इस गरीब मटमैले और  नायाब मुल्क के प्रधानमंत्री बन जाओ होश में आओ   होश में आओ
                                                                                  होश में आओ
                                                                                  होश में आओ
                                                                                  होश में आओ
और ये मैं तुमसे नहीं इनसे कह रहा हूँ
तुमसे तो क्या उम्मीद!      

(चौथा एकालाप: एकांत)
आख़री वक़्त में क्या ख़ाक़ मुसलमां होंगे को इस तरह याद कीजिये कि अब ख़ाक़ लगातार कौन हो रहा है ईमान बदलने में जब कोई हिचक नहीं दीन भी बदल डालिए ये आपके हक़ में होगा कि आप अब भी मुसलमां हो जाएँ अन्याय और अपमान का जरूरी इंसानी तज़र्बा आपकी नस्लें दुरुस्त कर सकता है वक्त मत बरबाद कीजिये अब भी ख़ाक़ हो जाइए ख़ाक़ होके देखिये ज़िंदगी कैसे तालीम हो जाती है
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कवि - आलोचक
पहला कविता संग्रह 'शामिल बाजा' 'दखल प्रकाशन' से शीघ्र प्रकाश्य
http://pratilipi.in/, 
Founder & Editor, Pratilipi, Founder & MD, Pratilipi Books. Creative Director, Samanvay. Founder-Coordinator, Kavita Samay.
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  1. फूलों की ख़ुदकुशी और रूपकों की कीमत. नयी शैली में लिखी गयी मौलिक कवितायेँ.

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  2. गणितीय कविताएँ लिखने की प्रवृति जटिलता में परिणत होती हैं .कविता के इस बीजगणित में उलझाव की सायास चेष्टाएँ जीवंत अनुभव की अनुपस्थिति में मकड़े के जाल से अधिक कुछ नहीं रच पाती .अपितु ये कविताएँ बीजगणित से एक सन्दर्भ में भिन्न है. बीजगणित में जटिलता एक अनिवार्य तथ्य है .इसके बिना वहां प्रमेय अभिव्यक्त नहीं किए जा सकते .यहाँ जटिलता सिर्फ भाषाई कौतुक है .अपने होने में यथेष्ट है .इन कविताओं को समझ लेना पहेली सुलझाने का आनंद दे सकता है .शब्दमेध यज्ञ की यह वेदांती चेष्टा है . यदि कविताओ को नहीं समझ पाना कवितेतर पर विजयी होने का पर्याय है तो ये कविताए भी अविजित लौटेगी.ब्रह्मसूत्र रचने की यह प्रवृति पुरानी है .इस कविता के पूर्वज वेदांत में विकीर्ण हैं .यह काव्य प्रयोजना सूत्र लिखने और स्मृति कहने की आत्मग्रस्त चेष्टा की औपनिषदिक परम्परा की पुनरावृति है .इस कविता का पूर्वज हिंदी में नहीं है,यह कहना मित्रता निभाने का प्रयास है .इसकी सराहना की जानी चाहिए .इस प्रयास के कई पूर्वज है .कविताओं का कूट-करण उन्हें अनधिगम्य बनाकर कविताओं तक पहुच को अहिंसक मार्ग से रोक देता है .इससे वेदोक्त बाहरी प्रतिबंधो की जरुरत नहीं रह जाती और अवसरानुकूल मनोनुकूल अर्थ निष्पति की संभावना शेष रहती है .अन्यथा पडोसी के शांत रह जाने को पृथ्वी के समाप्त होने के भय से डराना अन्य के अस्तित्व को स्वयं के लिए प्रयोग करने के परजीवी प्रयत्न से अधिक कुछ नहीं है .अंततः ऐसे परोक्ष नैतिकता के उपदेश भविष्य में स्थित परतंत्र मनुष्य को संबोधित होते हैं .नैतिकता पराधीन अनुचर के लिए आचार संहिता के अतिरिक्त क्या है ?

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  3. कविता की भाषा, शिल्प को लेकर इतने सफल प्रयोग किसी अन्य समकालीन कवि में नहीं दिखाई देते. उनकी हर कविता मुझे एक चुनौती लगती है, हालाँकि मैं कवि नहीं हूँ. लेकिन भाषा प्रयोगों को लेकर उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता है. मुझे आज तक एक बात समझ में नहीं आई कि जब हम हिंदी कविता की बात करते हैं तो केवल उसकी संवेदना के आधार पर ही उसका आकलन क्यों करते हैं? क्या सुन्दर भाषा के बिना सुन्दर कविता संभव है? बहरहाल, समालोचन का आभार इतनी अच्छी कविताएँ पढवाने के लिए.

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  4. प्रभात रंजन की टिप्‍पणी से शत प्रतिशत सहमत। शब्‍दश: सहमत। जोड़ना यह है कि सुन्‍दर भाषा यह आत्‍मीय भी बहुत है, इस भाषा की अपनी एक अपूर्व संवेदना है। ऐसी कविताएं डीकोड करने के लिए नहीं होती, महसूसने की होती हैं। डीकोड करने से भी सुन्‍दरता जाती रहती है। इतनी अच्‍छी पोस्‍ट के शुकिया अरुण।

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  5. Achha laga. I like Giriraj Kiradoo's writing.

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  6. परमेश्वर फुंकवाल22 अक्तू॰ 2013, 7:19:00 am

    अच्छा लगा इन नयी कविताओं को पढना..

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  7. गिरिराज का शिल्प और कथन अपूर्व इस अर्थ में भी है कि यहाँ शब्द ऐसा विन्यास प्राप्त करते हैं कि नए तेवर के लगने लगते हैं। यहाँ मिस्टर 'के' के 'दुखदर्द' से अधिक 'सुखदर्द' का एकालाप हैं जिनका औचित्य ग़रीब मटमैले और नायाब मुल्क की जनता के लिए पहचानना कठिन नहीं है। यह कविताएँ निसंदेह हिंदी कविता की प्रतिरोधी प्रवृत्ति में इजाफ़ा हैं।

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  8. बिलकुल नयी जमीन तोड़ी है इन कविताओं ने.

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