सहजि सहजि गुन रमैं : सुशीला पुरी




























कुछ प्रेम कविताएँ                      
_____________________________________

प्रेम

१.
प्रेम वक्रोति नहीं
पर अतिश्योक्ति जरुर है
जहाँ चकरघिन्नी की तरह
घूमते रहते हैं असंख्य शब्द
झूठ-मूठ के सपनों
और चुटकी भर चैन के लिये..!



२.
प्रेम एक बहुत ऊँचा पेड़ है
जिस पर चढ़ना मुश्किल
बस,करनी होती है प्रतीक्षा
कि आयेगा कोई पंक्षी
जो खाकर ही सही
गिरा देगा एक मीठा फल,
और जब मिलता है वो
तो उसका काफी हिस्सा
पहले ही खाया जा चुका होता है...!



३.
प्रेम पर्वतों के बीच स्थित
झील है मौन की
जहाँ पानियों से ज्यादा
आंसुओं का अनुपात है
जहाँ स्थिर जल में
भागती मछलियाँ हैं
जहाँ एकांत के गोताखोर
खोजते रहते हैं
एक अंजुरी हंसी
और आँख भर आकाश..!



४.
प्रेम,खंडहरों के अन्तःपुर में
झुरमुटों से घिरी
एक गहरी बावड़ी है
जिसके भीतर हम
ध्वनियों से गूंजते हैं
जाते हैं... लौटते हैं
सदियों से चुप उसके निथरे जल में
कुछ हरी पत्तियाँ, डालें और आकाश
देखते रहते हैं अपना चेहरा
पानी की आत्मा अपने हरेपन और
ध्वनियों के स्पर्श में थरथराती है...!  



५.
प्रेम, आग.. आंधी..बाढ़..बारिश
से बचता बचाता
छप्परों वाला घर है
मिटटी का
मन की हल्दी तन का चावल
पीस घोलकर बनती हैं अल्पनायें
चौखटों पर सिक्कों सी जड़ी होती हैं आँखें
जहाँ होते हैं..अगोर और आँसू
किन्तु कभी द्वार में
किवाड़ नहीं होते...!



६.
प्रेम, एक नन्हीं गिलहरी है 
जो बरगद की त्वचा पर 
उछलती फुदकती 
बनाती रहती है 
अनंत अल्पनायें 
और पास जाते ही 
भागकर छुप जाती है 
ऊँचे अनदेखे-अनजाने कोटरों में..!



७.
प्रेम, भूख भी है..आग भी 
पकने तपने और स्वाद के बीच 
कहीं न कहीं 
बटुली में खदबदाती रहती है 
एक चुटकी चुप 
और ढेर सारी भाप..!



८.
प्रेम, एक खरगोश है
हरी दूब की भूख लिए
वन-वन भटकता
कुलांचे भरता
डरा..सहमा
छुपता रहता है
मन की सघन कन्दराओं में,
उसकी नर्म..मुलायम त्वचा की
व्यापारी यह दुनियाँ
नहीं जानती
उसके प्राणों का मोल..!




९.
पीतल की सांकलों वाला
भारी-भरकम
लोहे का द्वार है
जहाँ असंख्य पहरुए
प्रवेश वर्जित की तख्तियां लिए 
घूमते रहते हैं रात-दिन..
और आपको
दाखिल होना होता है 
अदीख हवा में
घुली सुगन्ध की तरह..!



१०.
प्रेम, कबूतरों का वह जोड़ा है
जो पिछली कई सदियों से
पर्वत गुफाओं में
गुटुरगूं करता
पर दिखता नहीं
दिखती है सिर्फ
उनकी अपलक सी आँखें
और आँखों का पानी..!



११.
प्रेम में
अगन पाखी उड़ता है
भीतर ही भीतर
भीतर ही भस्म होते हम
खोजते रहते हैं
अपने हिस्से की मृत्यु
प्रेम के लिए
सिर्फ जीवन ही नहीं
मरण भी
उतना ही जरुरी है..!  




१२.
बरसता है अमृत
अहर्निश
कटोरी के खीर में नहीं
पांच तत्वों से बनी
समूची देह में,
कमबख्त चाँद को
ये कौन बताये...!



१३.
अगोरता
माँ का स्पर्श
किसी झुरमुट में
किसी कोटर में
किसी निर्जन में
पंक्षी के बच्चे सा 

दुबका रहता है प्रेम ..!  
___________________________________________
सुशीला पुरी (बलरामपुर, उत्तर-प्रदेश) 
कविताएँ प्रतिष्ठा प्राप्त  पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशित.
कुछ कविताओं का पंजाबीनेपाली, इंग्लिश में अनुवाद और एक कविता का नाट्य रूपांतरण. 
एक दैनिक पत्र और एक पत्रिका में नियमित स्तंभ-लेखन 
प्रथम रेवान्त मुक्तिबोध साहित्य सम्मान
अंतर्राष्ट्रीय परिकल्पना हिन्दी-भूषण सम्मान

सी -479/सी,
इन्दिरा नगर,ल खनऊ -- 226016 
09451174529 

15/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. प्रेम एक ऐसा विषय जिस पर जितना कुछ लिख लें, अनछुआ-सा ही रह जाता है। वैसे प्रेम को विभिन्न स्वरूपों में विभिन्न बिम्बों में पढ़ना अच्छा लगा।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुशीला पुरी की इन कविताओं में प्रेम की इतनी सुंदर, मोहक और गहरी अर्थ-छवियां हैं कि प्रकृति और सामाजिक ताने-बाने के बीच इन सबके बीच से होकर गुज़रना ऐसा लगता है, जैसे हम फलों और वनस्‍पतियों से घिरे किसी सघन हरीतिमा भरी पगडंडी से गुज़र रहे हों... बधाई सुशीला जी और आभार समालोचन...

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रेम अथाह सागर की भांति जितना लिखा जाये उतना थोडा होता ह , प्रेम से भरी, प्रेम कवितायेँ, बेहद सुन्दर !सुशीला जी और समालोचन को बधाई !

    अनुपमा तिवाड़ी

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे कविताएँ सुभाषितों की तरह अधिक लगीं. यहाँ प्रेम गोया एक व्यक्तिनिष्ठ रेप्रेज़ेएन्टेटिव की तरह अपने समायोजन और संवाद में इतना औपचारिक और संदिग्ध है कि वह कहीं चेतना के कौम्प्लेक्स्ड रूपांतरणों के साथ अपने स्वेच्छाचारी शाश्वत को साधने की असम्भावना से जूझ रहा है तो दूसरी ओर उस प्रिमिटिव औदात्य को खोजने की कोशिश में भी संलग्न है जो अपने रोमानी निर्वासन में एक रहस्यपरक आत्मलीनता की ओर बढ़ जाता है. खैर, मैं इन कविताओं को प्रेम के ऊपर रनिंग कमेंट्स की तरह देख रहा हूँ.....

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत कुछ व्यक्त करती कविताएँ पर उससे भी अधिक अव्यक्त पाठक के मन में छोड़ जाने वाली कविताएँ ....

    जवाब देंहटाएं
  6. शायद प्रेम पर लिखना सबसे कठिन काम है .रिल्के युवा कवियों से कहा करते थे कि प्रेम पर लिखने की इतनी जल्दबाज़ी क्यों है .इस पर लिखना बहुत मुश्किल है .अभी कुछ और लिखो .खूब लिखो .रिल्के की श्रेष्ठतम कविताएं प्रेम पर ही हैं .
    सुशीला जी ने इस सबसे मुश्किल काम पर ही खूब लिखा है . आपको शुभकामनाएं और बधाई .

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर कविताएँ | बधाई आप को

    जवाब देंहटाएं
  8. सुशीला जी केटी सभी प्रेम कविताएं बहुत ही बढ़िया कविताएं हैं,,,,, आज की भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में प्रेम पर लिखना और ऐसे ऐसे खूबसूरत शब्द जो सीधे मन के द्वार पर दस्तक देते हैं,,,,,,,,,सुशीला जी बधाई

    जवाब देंहटाएं
  9. प्रेम कितने रूपों में अभिब्यक्त होता है.इसकी बानगी सुशीला पुरी की कवितओं में मिलती है.
    पढकर अच्छा लगा..आजकल प्रेम कहां है कि प्रेम कविताये सम्भव हो.अगर प्रेम कविताये है तो आसपास प्रेम की भी सम्भव हो सकता है..शुभकामनाये सुशीला जी और अरुन जी .

    जवाब देंहटाएं
  10. प्रेम को आपने बिलकुल नए ढंग से परिभाषित किया है।
    वाह

    जवाब देंहटाएं
  11. आपकी प्रेम परिभाषाये अनूठी अनान्तिम और खुले सिरों सी हैं । नय्नोंमीलन के सपने सी।
    कंडवाल मोहन मदन

    जवाब देंहटाएं
  12. प्रेम को आपने बिलकुल नए ढंग से परिभाषित किया है।
    वाह
    यह खरगोश गिलहरी शुक मैना कबूतर पेड़ बावडी झील वक्रोक्ति सभी रूपों में प्रकृति के दिख जाता है नैनों को जो ढूंढें इसे। अन्यथा प्रेम मौसी का घर तो है नहीं कि प्रवेश पा आप बिना रसासिक्त हुए भीगे वापिस बाहर आ जाएँ। सी

    कंडवाल मोहन मदन

    जवाब देंहटाएं
  13. सुशीला जी ने प्रेम के विविध आयामों को अभिव्तक्त करने के लिए बड़ा ही अद्भुत बिम्ब - संयोजन किया है। इतनी बढ़िया कविताओं के लिए उन्हें ढेरों बधाइयाँ। समालोचन को भी साधुवाद।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.