कविताएँ : अनिता भारती
मुजफ्फनगर से लौटने के बाद...
रुखसाना का घर..
1.
सोचती हूँ मैं
क्या तुम्हें कभी
भूल पाउंगी रुखसाना
तुम्हारी आँखों की
गहराई में झांकते सवाल
तुम्हारे निर्दोष
गाल पर आकर ठहरा
आंसू का एक टुकड़ा
बात करते-करते अचानक
कुछ याद कर भय से
काँपता तुम्हारा शरीर
तुम्हारे बच्चें
जिनसे स्कूल
अब उतनी ही दूर है
जितना पृथ्वी से
मंगल ग्रह
किताबें जो बस्ते
में सहेजते थे बच्चे
अब दुनिया भर की
गर्द खा रही है
या यूं कहूं रुखसाना
किताबें
अपने पढ़े जाने की
सज़ा खा रही है
तुम्हारी बेटी के
नन्हें हाथों से
उत्तर कापियों पर
लिखे
एक छोटे से सवाल
धर्मनिरपेक्ष
राष्ट्र की विशेषताएं पर
अपना अर्थ तलाश रहे
है
2.
रुखसाना
सामने कपड़े सिलने
की
मशीन पड़ी है
ना जाने कितनी
जोड़ी सलवार कमीज
ब्लाऊज पेटीकोट
फ्राक बुशर्ट झबले
सिले है तुमने
तुम्हारे दरवाजे ना
जाने कितनी बार
आई होगीं गांव भर की
औरतें
यहां तक की चौधरी की
बहु भी
तुम्हारे सिले कपड़े
पहन
इतरा कर तारीफ करते
हुए
किसी आशिक की तरह
तुम्हारे हाथ चुमकर
डॉयलोग मारते हुए
मेरी जान क्या कपडें
सिलती हो
पर अब धुआं-धुआं
पलों को बटोर
कहती है निराश
रुखसाना
शरणार्थी कैम्प के
टैंट में पडी- पडी
मैं भी इस सिलाई
मशीन की तरह ही हूँ
जंग खाई निर्जीव
मेरे जीवन का धागा टूट
गया है
बाबीन है कि अपनी
जगह फंस गई है
रुखसाना याद आती है
मुझे रहीम की पंक्तियां
पर तुमसे कैसे कहूँ
रहिमन धागा प्रेम का
मत तोड़ो चटकाएं
3
रुखसाना
तेज आवाज के साथ
रात भर बरसा पानी
शरणार्थी कैंप के
टैंट में सोते
बच्चों की कमर उस
निर्लज्ज पानी में
डूब गई
सब रात में ही अचकचा
कर उठ बैठे
बच्चों के पास अब कल
के लिए सूखे कपड़े नही है
रुखसाना
तुम्हारी आँखों के
बहते पानी ने
कई आंखों के पानी
मरने की कलई खोल दी है.
4
पिछले पंद्रह दिन
दिन से
हमारे पास खाने के
लिए कुछ नही है
कहती है रुखसाना
दिल-दिमाग में चल
रहे झंझावात से
लड़कर निष्कर्ष
निकालती है रुखसाना
दंगे होते नही
करवाएं जाते है
हम जैसों का वजूद
रौंदने के लिए
जो रात-दिन पेट की
आग में खटते हुए
अपने होने के अहसास
की लड़ाई लड़ रहे है
5
ओ मुजफ्फर नगर की
लोहारिन वधु
जब तुम आग तपा रही
थी भट्टी में
उस भट्टी में गढ़
रही थी औजार
हंसिया, दाव और
बल्लम
तब क्या तुम जानती
थी
कि ये सब एक दिन
तुम्हारे वजूद को
खत्म करने के काम आयेगे
कुछ दिन पहले तुम
खुश थी चहक रही थी
अम्मी आजकल हमारा
काम धंधा जोरो पर है
भट्टी रात दिन जलती
है
इस ईदी पर हम दोनों
जरुर आयेगे
तुमसे मिलने और ईदी
लेने
पर क्या तुम उस समय
जानती थी
यह औजार किसानों के
लिए नही
ये हथियार दंगों की
फसल
काटने के लिए बनवाएं
जा रहे है
कितनी भोली थी
तुम्हारी
ये ईदी लेने की छोटी
सी इच्छा
6
दंगे सिर्फ घर-बार
ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ काम-धंधा
ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ
प्यार-स्नेह ही नही तोड़ते
दंगे सिर्फ
जान-असबाब ही नही छीनते
दंगों की धार पर
चढ़ती है औरतों-बच्चियों की अस्मिताएं
अगर ऐसा ना होता तो
बताओं क्यों
वे निरीह असहाय मादा
के सामने
पूरे नंगे हो इशारे
से दिखाते है अपना ऐठा हुआ लिंग
7
रोती हुई रुखसाना
कहती है
अब हमारा कौन है
जब हमारे अपने बड़ो
ने
ही हमें गांव-घर से
खदेड दिया
चार पीढी से पहले से
रहते आए है हम यहां
इन सारी पीढियों के
विश्वासघात की कीमत क्या होगी
क्या उसको चुकाना
मुमकिन है
कितनी कीमत लगाओगे
बताओ
प्यार से खाए गए एक
नमक के कण का कर्ज
चुकाने में चुक जाते
है युग
तब कैसे चुकाओगे तुम
चार-चार पीढियों के
भरोसे विश्वास के कत्ल का कर्ज
8
रखसाना कहती है
नहीं जानती
साईबेरिया कहां है
नही जानती साईबेरिया
में कितनी ठंड पड़ती है
नहीं जानती
साईबेरिया के बच्चे क्या पहनते है
नही जानती साईबेरिया की औरतें कैसे रहती है
नहीं जानती
साईबेरिया के लोग क्या खाते-पीते है
नहीं जानती कि वहां
बीमार बच्चों को देखने डॉक्टर आता है नहीं
नहीं जानती कि वहां
मरे बच्चों का हिसाब कैसे चुकाया जाता है
पर रुखसाना जानती है
साईबेरिया की ठंड
में कोई खुले आसमान के नीचे नही सोता
9
रुखसाना
गहरे अवसाद में है
जान बचाकर भागते
वक्त
घर में छूट गई
नन्ही बछिया चुनमुन
लड़ाकू मुर्गा रज्जू
घर के बच्चों की
लाड़ली
सुनहरे बाल वाली
सोनी बकरी
सब गायब है
रुखसाना को पता चला
है
कटने से पहले
रज्जू ने बहुत हाथ
पैर मारे थे
बाकी चुनमुन और सोनी
कहां है कौन ले गया
कोई नही बताता
10.
रुखसाना
सोचती है
कौन हूं मैं
क्या हूं मैं
औरत मर्द या इंसान
मेरे नाम के साथ या
पीछे
क्या जोड़ा जाना
चाहिए
चुन्नु की अम्मा
मेहताब की जनाना
सलामुद्दीन की बेटी
या
सरफराज की बाजी
जब मैं भाग रही थी
तब मैं कौन थी
चुन्नु की अम्मा
मेहताब की जनाना
सलामुद्दीन की बेटी
या
सरफराज की बाजी
रुखसाना सोचती है
इन सब से परे
वह बेजान माँस की
बनी एक जनाना है बस
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अनिता भारती चर्चित कहानीकार, आलोचक व कवयित्री. सामाजिक
कार्यकर्ता, दलित स्त्री के प्रश्नों पर निरंतर लेखन. युद्धरत आम आदमी के विशेषांक स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण की अतिथि
संपादक. अपेक्षा पत्रिका
की कुछ समय तक उपसंपादक. समकालीन नारीवाद और दलित
स्त्री का प्रतिरोध( आलोचना पुस्तक) एक थी कोटेवाली (कहानी-संग्रह) एक कदम मेरा
भी ( कविता संग्रह) यथास्थिति से टकराते हुए दलित
स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियां ( संयुक्त संपादन) यथास्थिति से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (संयुक्त संपादन) स्त्रीकाल के दलित
स्त्रीवाद विशेषांक की अतिथि संपादक .
पता-ए.डी.-118
बी शालीमार बाग दिल्ली-110088
मोबाइल-9899700767
Email: anita.bharti@gmail.com
इस मुश्किल समय में संवेदनाओं के लिए जागो जागो की पुकार हैं ये कविताएँ.
जवाब देंहटाएंयथार्थबोध कराती संवेदनशील कविता
जवाब देंहटाएंपता नहीं यह जागना कब होगा ? टीस छोड़ती कविताएं।
जवाब देंहटाएंरुखसाना का नाम जेहन में टाँक दिया आपकी कविताओं ने। उसके दर्द को हम लोग तो ख़ैर क्या समझेंगे लेकिन अगर इन कविताओं को पढ़ कर और रुखसानाओं को अपना दर्द बयाँ करने आ गया, तो समाज के लिए उपकार होगा। बधाई हो अनीता जी इन कविताओं के लिए और अरुण जी का शुक्रिया इनको पढ़वाने के लिए।
जवाब देंहटाएंरुखसाना प्रतीकात्मक के साथ पूरे एक समाज का दर्द ले कर चलती कवितायें .. जाने कब ख़तम होगी ऐसी लडाइयां .. मानव कब बनेगा मानव
जवाब देंहटाएंअनिता भारती कि मुज्जफर पुर के दंगो पर लिखी कविता ऐ प्रभावशाली हे एक पढ़े लिखे सभ्य समाज के लिय दंगा एक कलंक हे दंगा करवाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करना सामंती मानसिकता कि प्रतीक हे जो कि मानव विरोधी हे
जवाब देंहटाएंदुखती है रुखसाना. देर तक दुखेगी.
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