सहजि सहजि गुन रमैं : अच्युतानंद मिश्र







युवा अच्युतानंद मिश्र की इन व्यस्क कविताओं में जीवन और आजीविका की यातना के स्वरों का आरोह- अवरोह है. समकालीन हिंदी कविता केवल स्वप्न और आकांक्षा की ही कविता नहीं है, इसमें अकेले पड़ जाने, निर्ममता में घिर जाने और प्रतिरोध के लगातार भोथरे होते जाने की विवशता के भी अनेक रक्त -बिम्ब बिखरे हैं. अच्युतानंद मिश्र की कविता नगरीय अजनबीपन की कातरता और विकट पारिवारिक स्मृतियों के बीच के उर्वर क्षेत्र से अंकुरित होती हैं. इनमें आदमी के छोटेपन की चिंता है. ख़ासकर अंतिम कविता में.    


अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ                                     


 फोटोग्राफ : प्रकाश के राय








नाम में क्या रखा है

फ़ोन पर एक अपरीचित सी आवाज़ आई
कहा हलो !आप कैसे हैं?
मैंने कहा ठीक हूँ ,
आप कौन ?
उन्होंने कहा वे निर्भयबोल रहे हैं
जागरणमें थे पिछले दिनों
इससे पहले कि मैं कुछ पूछता
बढ़ गयी उनकी खांसी

थोडा संभले तो पूछने लगे-
कैसी है तबियत आपकी
मैंने कहा ठीक हूँ अब
हाँ ! उन्होंने कहा सुना था,
पिछले दिनों बहुत बीमार रहें आप
पर ले नहीं सका आपका हाल .

मैं कुछ कहता पर वे ही बोल पड़े
जागरणमें आप थे
तो मुलाकात हो जाती थी

अब यह नौकरी भी छूट गयी
कलकत्ते सा शहर और बच्चे दो
कहीं किसी अखबार में आप कह देते
तो बात बन जाती 
मैंने कहा आप शायद
मेरे नाम से धोखा खा गए
मैं वह नहीं
जो आप समझे अब तक
नाम ही भर है उनका मेरा एक सा

दुखी आवाज़ में अफसोस के साथ वे बोले-
उफ़ !आपको पहले ही बताना चाहिए था 
और फिर बढ़ गयी उनकी खांसी
मैं माफ़ी मांगता
कि फ़ोन रख दिया उन्होंने

मैं सोचने लगा
आखिर शेक्सपियर नें क्यों कहा था
नाम में क्या रखा है

 सच के झूठ के बारे में झूठ का एक किस्सा

यह न तो कथा है और न ही सच
यह व्यथा है और झूठ
जैसे कि यह समय
व्यथा जैसे कि
पिता के कंधे पर बेटे की लाश

लेकिन इससे बचा नहीं जा सकता था
सो इसे दर्ज किया गया
जैसे कि मरने से ठीक पहले
दर्ज किया गया मरने वाले का तापमान 

क्या उसे दर्ज़ किया जाना चाहिए था ?

यह मृतक का तापमान था
आदमी आदिम राग का गायक
क्या इतना ठंडा हो सकता है ?

कांपते हाथों से लिखता हूँ झूठ
गोकि पढता हूँ इसे सच की तरह

सच का सच ही नहीं झूठ भी होता है
सच की रौशनी ही नहीं अंधकार भी होता है
और सच का झूठ
झूठ के सच से अधिक कलुष
अधिक यातनादाई और
सबसे बढकर अधिक झूठ होता है

नींद के बरसात में भीगते हुए
देखते हो तुम सपना
झूठ कहता है कॉपरनिकस कि गोल है पृथ्वी

पर पृथ्वी का यह झूठ बचाता है
तुम्हे गिरने से

चेहरे की किताब पर
दर्ज करते हो तुम जीत
सच की तरह



शराब के नशे में

शराब के नशे में धुत एक आदमी
दुतकारता है जिन्दगी को
कहता है लौट जाऊंगा
मैं अपने घर

तीन आंगन वाले अपने घर
वहां धूप होगी
सकुचाती हुई
चूमती हुई माथा
उतरेगी शाम

शराब के नशे में धुत आदमी
अपने रतजगे में बुहारता है
सबसे ठंडी रात को
पृथ्वी से बाहर

वह लिखता है इस्तीफा
पढता है ऊँची आवाज़ में
मुझे तबाह नहीं करनी अपनी जिंदगी
लानत भेजता हूँ ऐसी नौकरी पर
सुबकते हुए कहता है
लौट जाऊंगा अपने गाँव
खटूंगा अपने खेतों में
चुकाऊंगा ऋण धरती का

दिन की रौशनी में
स्कूल बस पर बेटी को बिठाने के बाद
वह पत्नी की आँखों में ऑंखें डालकर
कसम खाता है
वह शराब को कभी हाथ नहीं लगाएगा

मुस्कुराती हुई पत्नी को
वह दुनिया की
सबसे खूबसूरत औरत कहता है
और चला जाता है ......
काम पर


मैं थूकने की आदत भूल गया हूँ

लगातार गटकते हुए
एक दिन सहसा
मैंने महसूस किया
मैं थूकने की आदत
भूल गया हूँ
थूकना अब मेरी रोज़-मर्रा की
आदतों में शुमार नहीं

जबकि मुझे थूकना था असंख्य बार
मैं उनदिनों की बात कर
रहा हूँ 
जब सूरज बुझा नहीं था
और चन्द्रमा विहीन काली रात
कभी कभी फिसलकर
चमक उठती थी माथे पर

सुहागिन औरत
सरीखी पृथ्वी
असीसती थी
और बरसात होती थी

काले बादलों के शोर में
छिप जाता था दुःख
दुःख जो कि
नदी थी
दुःख जो कि घर था
दुःख जो कि पिता थे
दुःख उमड़ते हुए बादल
दुःख असमान था
दुःख माँ थी
दुःख बहन की आंख थी
जो सूखती हुई नदी थी

समय था
सूखते हुए पत्तों सा
इच्छायें थी
भुरभुरी रेत सी
कल्पनाओं के अनंत पतवार थे
और हम डूबते हुए नाव पर सवार थे

कट जाएँ  स्मृतियों के
जीवित तन्तु
बह जाये अंतिम बूंद रक्त
भविष्य की शिराओं से
मैं अंतिम बार थूकना चाहता हूँ
जिन्दगी के इस माथे पर
जिसके कंठ में अटका है
दुःख और
चेहरे फैली हुई
है आसुओं की रक्तिम बूंद

लेकिन मेरी मुश्किल है
मैं थूकने की आदत
भूल गया हूँ



बड़े कवि से मिलना

बड़े कवि से मिलना हुआ 
वे सफलता की कई सीढियाँ चढ़ चुके थे 
हम साथ -साथ उतरे 
औपचारिकतावश उन्होंने मेरा हालचाल पूछा
फिर दो कदम बढ़े 
और कहा चलता हूँ 

हालाँकि हम कुछ दूर साथ साथ चल सकते थे 
हम लोग एक ही ट्रेन के अलग डब्बों पर सवार हुए 
उस दिन ट्रेन एक नहीं दो रास्तों से गुजरी.
 _______________________________

अच्युतानंद मिश्र
27 फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह२०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबे, ARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित.
प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256

mail : anmishra27@gmail.com

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  1. जीवन के खटरागों का अद्भुत ध्रुपद गायन हैं ये कविताएँ। कवि को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  2. अन्तिम कविता रीरीढ में कम्पन पैदा कर ती है

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  3. I liked last one. It is STONE TOUCHING poem Bhai Achutanand.

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  4. बेहतरीन कविताएँ एक ही साँस में पढ़ गया भाई

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  5. दिल को छु लेने वाली | इस सुबह की एक सार्थक शुरुआत ...इन कविताओं के साथ | बधाई अच्युतानंद भाई को |

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  6. सुन्दर प्रस्तुति...
    सशक्त कवितायेँ!

    कवि को ढ़ेरों शुभकामनाएं!

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  7. नाम में क्या रखा है, शराब के नशे में तथा बड़े कवि से मिलना बहुत अच्छी लगीं. सरल पर संजीदा कविताएँ...अच्युतानंद मिश्र जी को बधाई और समालोचन का शुक्रिया..

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  8. सहज सरल भाषा में संवाद कविताएं .. बिम्ब शिल्प प्रयोग से उब खाए मन को ये कविताएं अच्छी लगेंगी .. वक़्त के मुक़ाबिल हैं ये तो इनका महत्त्व चिन्हित हो सकता है .. शुभकामनाएं कवि को .. शुक्रिया समालोचन !
    2 hours ago via mobile · Unlike · 1

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  9. आप सब मित्रों का और अरुण देव जी का बहुत शुक्रिया

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  10. बेहद सुंदर और प्रभावशाली कविताएँ! नए साल में मुझे कुछ खुशखबरियाँ मिली हैं और अच्युतानंदजी की कविताएँ भी मेरे लिए खुशखबरी हैं। इनकी छिटपुट कविताएँ मैंने पढ़ी तो थीं, पर यहाँ एकमुश्त इतनी कविताएँ पढ़कर इस कवि की संवेदनशील चेतना और समय के भयावह सत्य के प्रति उसके असंतोष और दिली तकलीफ से उपजे हुए सहज प्रतिकार का साक्षात्कार हुआ। यह आदमी कवि है। अरुण भाई, आपको धन्यवाद और नए साल की बधाई! 'शहर अब भी संभावना है'।

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  11. kawi ney jindgi ki akrasta,ucatpan....or majburi key tahat jiye janey ki bebasi ko barey samhley sabdo mey ak chetna di hai .....

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