बोली हमरी पूरबी : मनोज बोगटी (नेपाली कविताएँ)


















सरिता शर्मा ने जब मुझे नेपाली भाषा के कवि मनोज बोगटी के बारे में बताया तब मुझे बरबस ही पिछले दिनों जोधपुर में हुए साहित्य अकादेमी के एक सत्र की घटना याद आ गयी. सत्र के सूत्रधार ने जब नेपाली भाषा के कवि को  यह कह कर बुलाया कि ये नेपाल से इस कार्यक्रम में भाग लेने आये हैं तब उस कवि ने सख्त प्रतिरोध करते हुए पूछा कि क्या दार्जलिंग अब नेपाल में है.

नेपाली भारतीय भाषाओँ में हैं और हर वर्ष इसमें भी साहित्य अकेडमी पुरस्कार दिया जाता है. इस वर्ष का युवा साहित्य अकेडमी पुरस्कार मनोज बोगटी को दिया गया है. इन कविताओं में पहचान को लेकर  नाराज़ स्वर के साथ-साथ मनुष्य विरोधी सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर भी है.  कविताएँ आपको पसंद आयेंगी.

सरिता शर्मा ने न केवल कविताएँ उपलब्ध करायी हैं बल्कि प्रूफ भी दुरुस्त किया है, एक छोटी टिप्पणी भी लिखी है. मनोज बोगटी और समालोचन की ओर से भारी आभार.
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मनोज बोगटी की कविताएँ            


रोंगो, दलगांव कालेबुङ (दार्जीलिंग, पश्चिम बंगाल) में रहने वाले 34 वर्षीय मनोज बोगटी समकालीन भारतीय नेपाली साहित्य में  एक नामचीन हस्ती हैं. उनकी कवितायेँ नयी पीढी को  आकर्षित करती रही हैं. नाना पाटेकर की तरह हवा में हाथ लहराकर कवितायें सुनाने की जोशीली और आवेगपूर्ण शैली श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती है. मनोज बोगटी अत्यंत गंभीर मुद्दों से रूबरू कराने वाली कविताओं से अपने देशकाल को सजगता से व्यक्त करते हैं. कुछ ही दिनों पहले इन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार भी प्राप्त हुआ हैं. इनकी कविताओं  की पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें घाउका रंगहरुशीर्षक की लम्बी कविता की पुस्तक को युवा अकादमी प्रदान किया गया था. पेशे से पत्रकार रहे मनोज बोगटी में नेपाली कविता को नये  मुकाम तक पहुचानें की जद्दोजहद दिखाई देती है. प्रस्तुत कविताओं को उनके मित्रों प्रदीप लोहागुण, राजा पुनियानी और उन्होंने स्वयं हिन्दी में अनुवाद किया हैं. इनमें अनुवाद की सीमाओं के बावजूद भाव इतने गहन हैं कि पाठक अभिभूत हो जाता है और दूरदराज में रहने वाले लोगों के सरोकारों से जुड़ जाता है.
-सरिता शर्मा



फोटो : अरुण देव



दीदी

आंखों के किनारे काजल लगाती है कोयले की धूल से
और मस्तक में चिपकाती है
एक धूप.

पता नहीं कैसी ख्वाहिश है यह उनकी
लड़की बनने की.

संसार की सबसे ताकतवर दीदी
जो दो दर्जन बकरों का घर अकेले ही साफ कर देती है
जो बछड़ों वाली चार गायों को अकेले ही घास जुटाकर खिला देती है
भुट्टा निगलने के लिए पानी भी नहीं चाहिए होता है जिन्हें.

दीदी किसी से कभी नहीं डरी
डरती है महज एक से
बस एक ही से.

धूप को ही मस्तक मे चिपकाने वाली दीदी के साथ
कोई भी बदतमीजी या छेड़खानी नहीं कर सकता.

कोई आग उनकी नजरों से नजर मिलाकर देखने की हिम्मत नहीं रखती.

जिस जंगल को खाया आग ने
उसी जंगल में निधड़क चलने वाली दीदी की ऐड़ी से
डरता है किसी भी तरह का बदमाश कांटा.

जब रात होती है
पता नहीं क्या ऐसा होता है दीदी को
कि लम्बे कानों वाली बकरी के कान से भी
बहुत ही छोटे को देख थरथराने लगती है.
दादाजी के लाठी से भी बहुत छोटे 1से भी कंपकंपाती है दीदी.

रात्रिशिक्षा के शिक्षक जबरदस्ती खींचते हुए ले जाते हैं.

एक दिन
दीदी पैर पटकते हुए अकेली रोई
और हम सबको रुलाया
क्योंकि
कांपते हुए हाथों से दीदी पहला अक्षर लिख पाई थी
वह था भा.

बाद में उसमें जोड़ दिया .
क्योंकि दीदी को भूख लगी थी.
बहुत बाद में बीच में
उन्होनें जब को डाल दिया
उस वक्त दीदी को पता नहीं कैसा लगा होगा.





मैं कुछ लिख रहा हूँ

मैं आग को खञ्जर से छोटे- छोटे टुकडों में काट रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे
उनकी भूख मेरी थोड़ी सी आग मिटा नहीं पायेगी
थोडी सी आग की शक्ति भी थोडी सी ही होती है
इन छोटे- छोटे योद्धाओं के पास
शब्द भी छोटे ही हैं.
छोटे- छोटे सपने हैं.

उनको पता है
कि धरती छोटी- छोटी धूल और छोटे- छोटे पत्थरों के अलावा
कुछ नहीं है.

मैं पानी को धूप में सुखा रहा हूं
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे
उनकी नींद को चुभन होती है ठंडे पानी से
मैं हवा को धो रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे
वे सांस नहीं ले पा रहे हैं
थोडी सी कच्चा हवा को
उनकी  आत्मा के बीज को छूना होगा
थोडी से युवा जल को
उनके  अन्दर के सुप्त लहू को धोना होगा
थोडी सी ताजा आग को
उनके  भीतर के पत्थरों  को जलाना होगा
मैं आवाज को गीत सिखा रहा हूँ
क्योंकि योद्धा मेहमान हैं मेरे
कफन ओढे सोये  हुए
उनकी अन्दर के जीवन को
आवाज मिले
गीत की नागरिकता कागज में छपे  
अंगूठे भर नक्से की जमीन पर
इन्दिरा आवास योजना द्वारा अभिनीत नाटक
और वहीं खड़ा नायक देश
किसकी भाषा बोलता है?
मैं गीत को शीशा दिखा रहा हूँ
मैं शब्दों को आवाज दिला रहा हूँ
मैं कविता को जीना सिखा रहा हूँ
मैं कुछ लिख रहा हूँ.






हां मैं काला, अर्थात काला, अर्थात रंग नहीं
           
हां मैं काला .
अर्थात
काला.
अर्थात रंग नहीं.
काले को छूने से ही कुछ मैला नहीं हो जाता है
जैसे सफेद की छुअन से कुछ साफ नहीं हो जाता.

अक्षर भी काला होता है
हब्शी जैसा अक्षर से लिखा जाता है तुम्हारा नाम.

तुम्हारी खाल में आबाद होने वाला घाव
नहीं बख्शता है मेरी खाल को.
तुम सफेद
मैं काला.
मेरा नाटा नाक
मेरे जितना ही ऊंचा है.

या तो उतना ही ऊंचा है
जितना कि तुम्हारा लम्बा नाक है.

मेरा कद
जितना छोटा है
उतना ही छोटा है कदम भी
पर मैं तुम्हारे साथ ही चल सकता हूँ
तुमसे भी ज्यादा चल सकता हूँ.
रंग से चला नहीं जाता.

मैं तो रंग से भी
बहुत गोरा हूँ.
बहुत काला हूँ.

नहीं समझे ना इतने देर में भी तुम मेरी बात को?
मिट्टी का रंग नहीं है
पानी का रंग नहीं है
आग का रंग नहीं है
हवा का रंग नहीं है
ध्वनि का रंग नहीं है
जिस तरह से
सत्य का रंग नहीं
धर्म का रंग नहीं
शान्ति का रंग नहीं
प्रेम का रंग नहीं
अहिंसा का रंग नहीं.

आखिर कौन हो तुम जो रंग की बात करते हो?
हां मैं काला.
अर्थात
काला.
अर्थात रंग नहीं.


         


 होली

जब तक हर विधवा अपने माथे पर न लगा ले
बिन्दी
यह होली मेरे लिये किसी कम्पनी की
बाजार योजना से अधिक कुछ नहीं
होली जब इंसानों मे विभेद लाती है
तो इसका अर्थ है
दुनिया के सबसे असुन्दर रंग के ऊपर
चढे हुए जीवन का साम्राज्य
फैलते जाना है, फैलते जाना है
अर्थात
कफन ओढे हुए लाश
और
विधवा की माँग को निषेध करना है.

रंग वे होने चाहिए
जो सदा जीवन से जुड़े होते हैं
और नीचे से उडते हैं.

बहुत सारी कम्पनियाँ
आपके आँगन, पड़ोस, बाजार
सब जगह खड़ी हुई
घोषणा कर रही हैं
आपके होली पर्व की.

एक रंग आता है और भाँग पिलाता है
एक रंग आता है और रम पिलाता है
एक रंग आता है और आपको कुरूप बनाता है.

रंग से पुते हुए आप
पहचान में नहीं आते हैं
तो मुझे हँसी आती है
मुझे हँसता देख आप भी हँसते हैं
रंग का ये चमत्कार घोलकर आपमें
सरकार और बाजार भी हँसता है
कभी- कभी
हँसना कितना खतरनाक होता है.



डरपोक अमेरिका

डरता है अमेरिका
बाँस के जंगलों  में लगी आग से डरता है अमेरिका
किसी उत्सव में अम्बर को चीरते  
फटनेवाले राकेट पटाखे से डरता है अमेरिका
एकटुक अंधेरा से डरता है अमेरिका.

जब किसी मजदूर का टिफिनबक्स खुलता है
और निकलती हैं जली हुई रोटी
अमेरिका के होशोहवास उड़ जाते हैं.

रोटी का रंग क्यों काला?
रोटी का आकार क्यों है गोल?
पूछता है अमेरिका
पूछ पूछ कर परेशान करता है अमेरिका.

स्कूल जाने से पहले बच्चों का बैग खंगालता हैं
एक एक पन्ना पलटता रहता है
और उनके द्वारा सीखे जाने रहे टेढेमेढ़े वर्णों को ध्यान से देखता है
अपनी बीवी को इमेल भेजकर
कैफे से जब निकलता है एक युवक
उसकी भाषा के पीछे पडती है खुफिया पुलिस
क्या लिखा उसने?’
पूछता है अमेरिका.

कहीं जोरों से कुत्ते के भौकने से सो नहीं पायेगा अमेरिका
कहीं सुनसान होने पर सो नहीं पायेगा अमेरिका
डरता है अमेरिका.
जब अमेरिका डरता है तो शुरु होती है विचारों पर निगरानी
गानों के पीछे लग जाता है
कविता की भाषा का विश्लेषण करता है.

और घंटों तक इसी में खोया रहता है.
जब अमेरिका डरता है,  किसी भी घर की शांति गुम हो जाती है.
जब अमेरिका डरता है, अँधेरे में बहती हवा संदिग्ध बन जाती है.
जब अमेरिका डरता है अपनी  ही बेटी के अन्तःवस्त्रो को टटोलता है.
चुल्हे में आग की सुगबुगाहट से अमेरिका का दिमाग घूमने लगता है.
आंगन से सूरज के धीरे धीरे चलने से अमेरिका को कपड़े चुभने लगते हैं.

कहीँ जोर से बच्चे के रोने पर
अमेरिका अपना हाथ जेब में ले जाता है.
सही जगह है या नहीं पिस्तौल?
चित्रकार के कैनवास में क्यों अधिक है लाल रंग?
कविता सुनाते वक्त कवि क्यों बांध लेता है अपनी मुठ्ठी?
क्यों गायक के संगीत में ककर्शता ज्यादा है?
बीवी की क्लिप में केमरा जैसा क्या है वह?
बेटी का ब्वायफ्रेंड क्यों जलाता है
बिना ब्रेंड की कम्पनी का लाइटर
डरता है अमेरिका

अमेरिका जब डरता है पृथ्वी का साया खो जाता है.
डरपोक अमेरिका
दिमाग से डरता हैं
मरने  से डरता हैं
या जीने से डरता हैं?
बस, डरता है अमेरिका.
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मनोज बोगटी : 09851280145

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  1. Sahi kaha aapne...tivar partirodh hota hai manoj ki kavitaon me...kahi baar unhe sunne ka moka shukhdai rha...aapko or manoj ko badhai...

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  2. शुक्रिया अरुण देव जी और मनोज बोगटी को बधाई. मैं आजकल नेपाली कवि मन प्रसाद सुब्बा के कविता संकलन ' ऋतु कैनवास पर रेखाएं' की समीक्षा लिख रही हूँ. पिछले सप्ताह साहित्य अकादमी के कविता समारोह में मनोज बोगटी की कवितायेँ सुनी. उनसे मन प्रसाद जी के बारे में बात की तो बहुत खुश हुए. अपनी कुछ कवितायेँ पढने को दी तो मुझे लगा हिंदी के पाठकों को उनसे परिचित कराना चाहिए. मनोज बोगटी स्वयं बहुत सजग कवि हैं जो हिंदी की कविताओं को लगातार नेपाली में अनुवाद करते रहते हैं. मुझे आशा है लोग इन कविताओं को पसंद करेंगे और हमें मनोज बोगटी की और कवितायेँ भी पढने को मिलेंगी.

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  3. Arun Devji and his team deserve a great compliment for what he is doing. I see that my contemporary poets, friends poets Bhupinji, Shrawan Mukarung, Upendraji, Umeshji, Heman Yatri have found space in Samalochan, which has established a good literary cultural communication between the poets of two neighbouring countries, Nepal and India. It's an opportunity for us to read works of contemporary Hindi poets !!! Keep it up

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  4. धधनधन्पहली बार ऐसा हुआ कि हिंदी पाठक कों से मेरी कविता ने रुबरू की…संवाद कविता से ही सम्भव है। सरिता शर्मा और अरूण देव जी से बहुत बहुत आभारी हुँ।

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  5. shaandar manoj ji..mere dost hain aur unaki pahali kavita rasoghar padhkar mujhe lga main kbhi nhi padhni chahungi aisi dardnaak kavita..par sach ye bhi ki main baar baar padhna chahungi manoj ji ko...bdi dhaar hai inme...badhai manoj aur arun sir ka aabhar unhen samalochan par laane ke liye.....

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  6. मजा आ गया भाई ...बहुत दिन बाद कुछ हटकर पढ्ने को मिला | पहली और आखिरी कविता तो बस कमाल ही है | बधाई मनोज को |

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  7. पहली और आखिरी कविता वाकई अच्छी है....

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  8. ये संघर्ष की जमीन से उगी हुई कवितायें हैं . उत्पीडन से अर्थ के बीच सब से सीधे रास्ते की तलाश से उपजी कवितायें . किताबी क्रांतिध्वजी कविताओं से एकदम अलग .

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  9. बहुत सुंदर मनोज। अभी पिछले हफ्ते ही तो हम साहित्य एकेडमी में काव्यपाठ सुनने गए साथ ही कई और योजनाएँ थी सो हम निकले लेकिन मनोज ने जैसे ही पढ़ना शुरु किया मैंने शोभा को भी रोक लिया, बाहर ही खड़े सुनते रहे, वह कविता जिसने मुझे रोका- "डरता है अमेरिका" ।यही शीर्षक थी न मनोज?

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  10. wow a beautiful work ! So nice to read Manoj's poems in Hindi.

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  11. पहाडी ठिटो21 मार्च 2014, 8:38:00 pm

    मै हिन्दी लिखना और बोलना नही जानता हूँ मगर पिछले २० साल से हिन्दी साहित्यका स्वअध्ययनमे व्यस्त हुँ । मै नेपालीके अलावा हिन्दी, मैथिली,अंग्रेजी साहित्यका रसस्वादन करता हूँ । मनोजजी भारतके और तमाम तिसरी दुनियाँ के एक प्रतिनिधि कवि है । उनका कविताका तेवर दुनियाँभरका शोषित, पीडित की और झुका हुवा है । मेरे खयाल और विश्लेषण मे मनोजजी को लिखता रहना चाहिए, अभी कतका अध्ययनको व्यापक बनाना चाहिए । एक दिन मनोज बोगटी केवल हम नेपालीभाषीओं तमाम तिसरी दुनियाँ का सशक्त कविके रुप मे स्थापित होगे, वह समय उतना दूर नहीं

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  12. बहुत अच्छा लगा । बधाइ कवि जी ।

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