परख : सिर्फ़ घास नही (कविता संग्रह) : प्रेमशंकर रघुवंशी









समीक्षा
___________________

सुनहरे भविष्य का स्वप्निल संसार
प्रेमशंकर रघुवंशी



भी-कभी संयोग बन जाता है कि अचानक कोई अच्छी रचना पढ़ने में जाती है, जिसके निमित्त उस अच्छी रचना के सर्जक से संपर्क भी हो जाता है. रचना के माध्यम से बना संपर्क काफी खुला और बिना किसी स्वार्थ का होता है. हुआ यूँ कि जुलाई-अगस्त 2012 के समकालीन भारतीय साहित्य (अंक-162) में राहुल राजेश की 'नींद' कविता पढ़ी. इस कविता ने मुझे गहरे प्रभावित किया. कविता के साथ पते में राहुल राजेश का मोबाईल नंबर था. तुरंत फोन लगाया. राहुल से कविता पर बात हुई. वे मुझे भी पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहे हैं तो बात काफी ढंग की हुई. चार-आठ दिन बाद डाक से साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से छपकर आया उनका पहला कविता-संग्रह "सिर्फ़ घास नहीं" मिला. किसी नये कवि का साहित्य अकादेमी की अभी चालू की गई 'नवोदय योजना' के अंतर्गत छपकर आने वाला काव्य-संग्रह पहली बार देखा. खोलते ही 'नींद' कविता खोजी, जो संग्रह के सबसे अंत में मिली. इसी बीच जनवरी, 2012 के वागर्थ में युवा कवि प्रदीप जिलवाने की मनोवैज्ञानिक विषयों बल्कि मनोरोगों के इन शीर्षकों पर ये चार कविताएँ पढ़ीं- एम्जेनिया (स्मृति खो जाने की स्थिति), डिप्सोमेनिया (नशा करने की प्रबल इच्छा की स्थिति), मेग्लोमेनिया (महानताबोध के भ्रांतिपूर्ण विश्वास की स्थिति) और इन्सोम्निया (नींद न आने की बीमारी). इन कविताओं ने भी मन को गहरे छुआ और इनसे भी राहुल की तरह ही फोनाचारी संपर्क हुआ.        
प्रदीप जिलवाने की 'इन्सोम्निया' कविता का प्रारंभ इस तरह है- 'मैं चाँद के थके चेहरे को देखता हूँ/ और देखता रहता हूँ देर तक/ कभी झुँझलाकर जो हाथ बढ़ाता हूँ सितारों की ओर/ मेरे हाथ आते हैं महज टूटे हुए बटन/ रात! मैं तेरा कोई गुनहगार तो नहीं!' राहुल राजेश की 'नींद' कविता का प्रारंभ इस तरह है- 'रोज रात बाईस सौ किलोमीटर दूर से/ हवाओं के संग चलकर आती है लोरी/ और मुझे सुलाती है/ कानों में कहती है/ आ रही हूँ सोने पास तेरे/ और आँखों में घुलने लगती है नींद/ दिन-भर का रूठा मन पिघलने लगता है/ बत्ती बुझाता हूँ/ और उससे लिपट जाता हूँ.' निंद्रा-रोग और निंद्रा-भोग पर इन दोनों युवा कवियों की कविताओं के प्रारंभिक अंशों को पढ़कर ही आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हिंदी के दो युवा कवि एक ही विषय के प्राकृत और अप्राकृत पक्ष में किस तरह अपने आप को व्यक्त करते हैं. इस समय नींद को लेकर नए कवियों में होड़-सी लगी हुई है, नींद पर कविता लिखने की. नींद पर प्राय: सभी ने कुछ न कुछ सिरजा ही है, लेकिन उसी-उसी पर लिखना अभी-अभी कुछ ज्यादा ही हो रहा है! मुझे लगता है, ये रचनाकार नींद-भर नींद ले लेने के बाद, नींद को लेकर आगे चलकर इतनी 'इन्सोम्नियाहट' के फेर में नहीं पड़ेंगे. लेकिन इससे एक बात तो कारगर हुई है कि नींद को लेकर कुछ अच्छी कविताएँ पाठकों को जाग्रत कर रही हैं. युवा कवि मोहन सगोरिया का तो नींद को केंद्र में रखकर एक नींदोत्सवी संग्रह ही आ गया है. कथाकार भालचंद्र जोशी का भी वर्ष 1998 में एक कथा-संग्रह 'नींद से बाहर' नाम से आया था, जिसमें इसी शीर्षक वाली कहानी के पात्र से कहलाया यह वाक्य मुझे याद आ रहा है- 'मैं जब भी जोर से हँसती हूँ, ठहाके लगाती हूँ. नींद खुलने पर तुम लोग समझते हो कि मैं चीख मारकर या डरकर उठ बैठी हूँ. तुम लोग एक हँसी और चीख में फर्क क्यों नहीं कर पाते!'
इस नींदकांड को विराम देता हुआ, राहुल राजेश द्वारा प्रेषित काव्य-संग्रह "सिर्फ़ घास नहीं" पर संक्षेप में चर्चा करना चाहूँगा. संपर्क होते ही राहुल ने एक पत्र के साथ अपना संग्रह भेजा. पत्र के अंत में लिखा- 'इसी जनवरी, 2013 में साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ है. उसकी प्रति भेंट-स्वरूप आपको भेज रहा हूँ. पढ़कर बताएँ, भवानी जी का शतांश भी ग्रहण कर पाया हूँ या नहीं. उनके जैसा तो नहीं बन सकता, पर उनकी और गाँधीजी की राह पर चलने की अकिंचन कोशिश भर करता हूँ.' (राहुल राजेश का 09 मार्च, 2013 को मुझे लिखे पत्र का अंतिमांश). यह पत्रांश मैंने जानबूझकर दिया है क्योंकि पत्र ही एक ऐसी विधा है, जिसमें व्यक्ति अपने अंतर्मन की खुली अभिव्यक्ति के साथ परोक्ष रूप में हमारे सामने प्रकट होता है और प्रगट भी. इस पत्रांश में राहुल, कवि भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य-व्यक्तित्व जैसा होने और गाँधी जी के मार्ग पर चलने की बात कहता है. भवानी भाई की कविता में हिंदी काव्य का वर्तमान है. और गाँधी को पूजने की बजाय उन्हें जीना शुरू करने की जरूरत है. इसे यह कवि अपने लेखन के प्रारंभ से स्वीकार लेता है.     
अब मेरे हाथों में "सिर्फ़ घास नहीं" है. इसके साथ संग्रह की सत्तर कविताएँ भी हैं. और हैलो-हाय करता युवा कवि राहुल राजेश का यह संक्षिप्त परिचय भी कि वह 09 दिसंबर, 1976 को झारखंड के दुमका जिले में पैदा होकर पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.. तक पढ़ने के साथ यात्र-वृतांत, संस्मरण, कथा-रिपोतार्ज, समीक्षा और निबंध-लेखन में भी प्रवृत हुआ. कविता लेखन के अंतर्गत वर्ष 2009 में हिमाचल प्रदेश के संस्कृति विभाग की पत्रिका 'विपाशा'  द्वारा अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में उसे द्वितीय पुरस्कार भी मिला. इस विधा में उसकी सक्रियता इस मुकाम तक पहुँची कि साहित्य अकादेमी की नए रचनाकारों की पहली पुस्तक-प्रकाशन की 'नवोदय योजना' के तहत चयनित होकर अकादेमी द्वारा उसका पहला संग्रह प्रकाशित किया गया. यह चयन और प्रकाशन किसी बड़े पुरस्कार से बड़ा है, जहाँ जटिल प्रक्रिया के अंतर्गत विद्वानों द्वारा किसी भी कृति का निष्पक्ष चयन होता है.   
संग्रह खोलते ही उसमें एक भूमिका पाई. इसे छोड़कर पहली कविता 'परिवार' पढ़ी, जिसमें माँ, पिता, बहन, भाई, दादी और दादा उपशीर्षकों से छह छोटी-छोटी कविताएँ हैं. संग्रह के प्रारंभ में कोई समर्पण नहीं है, लेकिन 'परिवार' कविता के अंतर्गत दी गई इन छह रिश्तों में समाहित तीन पीढ़ी की आत्मीय स्मृति किसी समर्पण से ज्यादा आकर्षक है. इसे संग्रह की पहली कविता के रूप में रखकर कवि ने मानो पारिवारिक मंगलाचरण से संग्रह की शुरूआत की है. दूसरी कविता है- 'अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं' . इसकी तीसरी पंक्ति 'सुनहरे भविष्य का स्वप्निल संसार'  ने मन को गहरे छुआ. वह एक आलाप की तरह जुबान पर आसीन हो गई. सबसे पहले इसे अपने आलेख के शीर्षक के रूप में चुन लिया. इसके बाद संग्रह पढ़कर मुझे यह चयन एकदम सटीक लगा, क्योंकि पूरे संग्रह में सुनहरे भविष्य का स्वप्निल संसार ही तो है, जो अतीत की स्मृतियों और वर्तमान की कारगुजारियों में संलग्न रहकर भविष्य के स्वप्निल संसार को अन्न, नमक, बेर, बाँस, गन्ना, चीज़ों, पानी, प्रेम, हँसी और दुख के साथ रहकर आबाद करने को उद्धत रहा आता है.     
कहावत है कि जादू सिर चढ़कर बोलता है! इस रूप में संग्रह की कुछ कविताएँ पूरा संग्रह पढ़ लेने के बाद भी सिर चढ़कर अब भी बोलती-बतियाती हैं. ये हैं- परिवार, अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं, चिठ्ठियाँ, माँ, सिर्फ़ घास नहीं, एक परिंदे की लाश, पहाड़ पर साँझ, प्रार्थना, अन्न, पिता का वसियतनामा, प्रेम में इच्छाएँ, एक अनाधुनिक प्रणय निवेदन, अच्छे दोस्तों के बारे में, नमक, बेर, बाँस, गन्ना, चीज़ें, पानी, हँसी, प्रेम में जीवन, एक निर्वासित प्रश्न, फिलवक्त, बारिश में शाम, बहुत दिनों बाद मेरा शहर, दुख का साथ, मैं एक ऐसी औरत से प्यार करता हूँ और नींद . इतनी हरकतजदा कविताएँ कम नहीं होतीं किसी अकेले संग्रह को 'सिर्फ़ घास नहीं' होने देने के वास्ते, जबकि दिन-दूने रात चौगुने सत्यनारायण-कथा की लीलावती-कलावती की तरह प्रकाशित अधिकांश काव्य-संग्रह 'सिर्फ़ घास उगाए' अपनी 'फर्टिलिटी' का इजहार करते नजर आते हैं! संग्रहों की इस तरह की थप्पियों में यदि कोई संग्रह ऐसा हाथ लगता है, तब यकीन होता है कि अब भी मरूस्थल में नखलिस्तान हैं और अब भी हर जगह सिर्फ़ घास नहीं है, प्राणमय प्रकृति भी है. मुझे पत्र में भवानी भाई जैसे कवि होने की ललक और गाँधी के मार्ग पर चलने की राहुल राजेश की सहज तौर पर लिखी बात का भरोसा होता है कि यह कवि अपनी अभिव्यिक्ति में सहज और विचारों में प्रेम, सत्य और अहिंसा का अनुगायक होगा.        
"सिर्फ़ घास नहीं" को पढ़ते हुए जो नोट्स मैं लेता गया, वे संग्रह की कविताओं से भी ज्यादा पृष्ठों के हो गए. इन सबको लेकर लिखना काफी वृहद होता और पाठकों के लिए शायद ही कुछ छूट पाता कि वे अपने मंतव्य दे सकें. इस विचार के आते ही मैंने अपने सारे नोट्स फाड़ दिए. इसके बाद जो कह सका, वह आपके सामने है. पूरा पढ़कर मैंने संग्रह की सभी सत्तर कविताओं को उनकी प्रकृति के आधार पर आठ बिंदुओं में बाँटे हैं- प्रकृति, प्रेम, वस्तु, संबंध, पात्र, स्मृति, अनुभूति और अस्तित्व . इन आठ विभाजनों में मेरे द्वारा बाँटी गई इन कविताओं का मूल और एकमात्र स्वर 'प्रेम' है. इतना ही नहीं, विपर्यय से भी प्रेम फूटता है इस कवि का. एक कविता है- 'असुंदर का सौंदर्य' . इसका एक अंश इस बात के प्रमाण के तौर पर देखिए- 'वह बहुत साधारण लड़की है/ आकर्षण तो उसमें कुछ भी नहीं/ ...मैंने हमेशा चाहा/ एक सुंदर लड़की हो जिससे प्रेम करूँ/ सुंदर पत्नी की कामना तो बचपन से ही/ ...पर यह तो बेहद साधारण लड़की है/ थोड़ी मोटी, थोड़ी नाटी/ ...उसके हँसने और बोलने के ढंग पर तो/ मुझे सख्त आपत्ति है/ ...आप कह सकते हैं/ इस लड़की में ऐसा कुछ भी नहीं/ जिसके लिए इससे प्रेम किया जाए/ ...बहरहाल,/ जिस वक्त मैं लिख रहा हूँ ये पंक्तियाँ/ मुझे बेहद याद आ रही है वो...!' राहुल प्रणय को देह के स्थूल रूप में न मानकर, अनुभूति के स्तर पर ग्रहण करता है, क्योंकि- 'प्रेम में हम ऐसे प्रेम को/ जी रहे होते हैं/ जो कभी नहीं आता जीवन में!' (प्रेम में जीवन)          
संग्रह के प्रारंभ में इन कविताओं पर सुपरिचित वरिष्ठ कवि-आलिचक श्री नंदकिशोर आचार्य द्वारा लिखी गई एक भूमिका है, जिसका शीर्षक है- 'कविता की अपनी प्रक्रिया पर भरोसा' . इसमें वे एक जगह लिखते हैं- 'राहुल राजेश की कविताओं को समझने के लिए यह भूमिका बाँधने की जरूरत महसूस होती है तो इसलिए कि वह, अपने अधिकांश हमउम्र कवियों से अलग, कविता की अपनी प्रक्रिया पर भरोसा करते और उसे एक स्वायत्त ज्ञान-प्रक्रिया मानने की ओर उन्मुख दिखाई पड़ते हैं.' इससे सहमति जताते हुए इसके प्रमाण में यह छोटी-सी कविता पेश कर रहा हूँ, जो संग्रह में 'एक निर्वासित प्रश्न' शीर्षक से है. यदि मैं इस संग्रह का नाम रखता तो वह 'निर्वासित प्रश्न' ही होता, क्योंकि एक सर्जक जीवन-भर किसी न किसी रूप में ऐसे ही प्रश्नों को अपनी सर्जनात्मक साधना से आबाद करने का प्रयास ही तो करता रहता है, ताकि जीवन को सिर्फ़ घास नहीं बनने दे, क्योंकि- 'आदमी है कि उम्मीद नहीं हारता/ उम्मीद हारते-हारते/ नाउम्मीदी से भी फूटती है उम्मीद/ इसी उम्मीद में आदमी नहीं छोड़ता उम्मीद/ आखिरी दम तक' (उम्मीद के बारे में) . और इसी उम्मीद में रचनाकार हर वक्त एक न एक निर्वासित प्रश्न लिए एक-दूसरे में गुँथे सवालों के जवाब पाने को इस तरह बेताब रहता है- 'धूप से पूछता पसीना/ पसीने से नमक/ नमक से पूछती भूख/ भूख से देह/ देह से पूछता बाज़ार-/ बोलो, तुम किनके कर्जदार?/ किनके कर्जदार??' (एक निर्वासित प्रश्न)      
राहुल राजेश की अधिकांश कविताओं में स्मृतियों के बड़े ताजे-टटके बिम्ब हैं. आप सिर्फ़ 'चिठ्ठियाँ' और 'नींद' कविताओं को बतौर बानगी देख लीजिए. हमारे अवचेतन में जो गहरे से समा जाता है, वह स्मृतियों, संकल्पों आदि के रूप में नींद में आता रहता है. स्वप्नों का संसार स्मृतियों से ही बनता है. मनोवैज्ञानिकों ने इसपर बहुत कहा है. इसी तरह स्मृतियों और आकांक्षाओं की भेंट लिए हमारे पास चिठ्ठियाँ आती रहती हैं. हमें हमेशा इंतजार रहता है कि प्रियजनों की चिठ्ठियाँ आती रहें, क्योंकि- 'चिठ्ठियाँ होती हैं/ प्रेमिका की आँखें/ दोस्तों के हाथ/ माँ की गोद/ पिता की छाँह/ और कभी-कभी/ पिता की खाँसी भी/ चाहे दुनिया के/ किसी भी हिस्से में छिप जाओ तुम/ पर किसी बक्से में बंद/ बहुत पुरानी चिठ्ठियों में/ तब भी मुस्कुराते/ मिल जाएँगे दोस्त/ रूठी हुई प्रेमिका/ खाँसते हुए पिता/ तुम्हारी वापसी के इंतजार में/ किसी हर्फ़ पर बैठा/ पूरा का पूरा घर! (चिठ्ठियाँ)        

प्रेम और स्मृति की डोर से पेंगें भरती राहुल राजेश की कविताएँ कई जगह सघनता लाँघकर पाठक को विस्तार से बताने को लालायित हो उठती हैं. लेकिन राहुल मूलत: छोटी कविताओं का कवि है. इसलिए कभी-कभी उसमें अपनी कविता के वामन कद को विराट करके दिखाने की उत्कंठा का आ जाना नैसर्गिक ही लगता है. यह भरोसा है कि युवा कवि राहुल राजेश अपनी सृजनशीलता को निरंतर विस्तार देता हुआ आज की हिंदी कविता को समृद्ध करता रहेगा. और बतौर भरोसा, उसका यह पहला संग्रह ही होनहार बिरवान की तरह अपने आने वाले चिकने पत्तों का आभास तो करा ही देता है.
____________

सिर्फ़ घास नहीं (कविता संग्रह)/ राहुल राजेश/ साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली/ प्रथम संस्करण:2013/ पृष्ठ सं.152/ पेपरबैक/ मूल्य: 80 रुपए.
प्रेमशंकर रघुवंशी
प्रताप कॉलोनी (चाल के पीछे), हरदा (.प्र.)-461331.
मो. 09425044895

5/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. अच्छी समीक्षा। विचारोत्तेजक और कविता की अंदरूनी और उसकी जमीन की बड़ी संजीदगी से पड़ताल करती हुई। कवि और समीक्षक दोनों को बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  2. कविताओं पर नोट्स बना लेना इन कविताओं की ताकत पाठक से साझा करता है। समीक्षा पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
    नींद इन दिनों जब बच्चों तक के लिए आसान और सुलभ नहीं रही है तो उस पर कविताएँ आना प्रतिरोध दर्शाता है।

    बढ़िया समीक्षा के लिए लेखक और समालोचन को थैंक्स।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर समीक्षा

    जवाब देंहटाएं
  4. कविता संग्रह राजेश का और विमर्श प्रेमशंकर रघुवंशी सर का..ऐसा लगा दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं ऐसी सम्बद्धता जो कविता की गिरहों को खोलती है आलोचना को उसका आकाश देती है .>>

    जवाब देंहटाएं
  5. समीक्षा पसन्द आई।
    सादर,
    प्रांजल धर

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.