परख : सत्यापन (कहानी संग्रह) : हरे प्रकाश उपाध्याय











समीक्षा
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वंचित   आबादी  के  खौलते  सच   
हरे प्रकाश उपाध्याय


नई सदी के युवा कथाकारों में कैलाश वानखेड़े का हस्तक्षेप इसलिए अलग से उल्लेखनीय है कि जब कहानी में भाषा को काव्यमय बनाने और शिल्प में अनूठापन पैदा करने का फैशन चल पड़ा है और युवा कथाकारों के लिए लिखने के विषय का टोटा पड़ गया है, वे महानगरीय जीवन के मध्यवर्गीय अनुभवों पर ही मक्खियों की तरह टूट पड़े हैं या ग्रामीण समाज का एक रूमानी यथार्थ कल्पित करने में लगे हैं. वही कुछ को प्रेमचंदीय दौर के हल-बैलों के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा है, वैसे में इस कथाकार ने वंचित आबादी के यातना भरे खौलते सच से अपनी कहानियां बुनी हैं. कैलाश की कहानियां ग्रामीण कस्बाई यथार्थ की पृष्ठभूमि से बावस्ता होते हुए भी न प्रेमंचद की छाया से आक्रांत हैं, न रेणु की छाया से प्रभावित. इनके पास अपना मुहावरा, अपनी दृष्टि, अपना अनुभव और उसे व्यक्त करने का अपना तरीका है. 

कैलाश की कहानियों में अस्मितावादी विमर्श, खासकर दलित आदिवासी समाज के साथ लगातार हो रहे भेदभाव, उन्हें विकास के अवसरों से रोकने की कोशिशें, उन्हें अशिक्षित और वंचित बनाये रखने की सवर्ण प्रभु वर्ग की साजिशें प्रमुखता से स्थान पाती हैं, पर ये प्रचलित दलित विमर्श के बाड़े को तोड़ती भी हैं. ये कहानियां सिर्फ जातीय अपमान और अन्याय की कहानियां नहीं, बल्कि इनमें हमारा पूरा तंत्र, समाज, मीडिया और सामाजिक व सरकारी संस्थाएं बेपर्द हुई हैं. दरअसल ये कहानियां एकांगी संवेदना की कहानियां नहीं हैं, बल्कि इनमें हमारे दौर की जटिलता मय पेचोखम के साथ उजागर हुई है. नब्बे के दशक और उसके बाद वंचितों के लिए चलाई जा रही तमाम कल्याणकारी सरकारी परियोजनाओं का बड़ा शोर है, पर इनका कितना वास्तविक लाभ उस वर्ग को हो रहा है, उस लाभ को पाने के लिए उन्हें कितने तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं, इसे समझने के लिए कोई तैयार नहीं है. 

कैलाश ने इस हकीकत को काफी मार्मिक तरीके से पेश किया है. सरकारी योजनाएं और नीतियां एक तरफ और उनका व्यवहार में अमल दूसरी तरफ. दोनों के बीच भयानक खाई. यहाँ याद आती है कैलाश की खापा शीर्षक कहानी जिसमें एक दलित और गरीब नवयुवक समर जो अपने बेटे के लिए आम तक खरीद पाने या उसके लिए कोई भी जरूरत ठीक से पूरा कर पाने में लगभग असमर्थ है, पर वह अपने बेटे को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता है. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने उसे सलाह दिया है कि इसे प्राइवेट स्कूल में डालो. नये कानून के कारण पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाएगी, पर उसे कानून का जमीनी यथार्थ तब पता चलता है जब बच्चे को एक निजी स्कूल में नामांकन के लिए लेकर जाता है. वहाँ नामांकन की खिड़की पर मैडम उसे झिड़कते हुए बोलती है- पढ़ाई हवा नहीं है जो फ्री में मिल जाए... बिजली, हवा फ्री में मिल रही है, तो आदत पड़ गयी फ्री की?  वहाँ से समर लगभग बेईज्जत कर भगा दिया जाता है. एक तो वंचित समुदाय भयानक गरीबी, अशिक्षा और सामंती उत्पीड़न से जूझ रहा है, वही दूसरी तरफ सरकारी संस्थाओं से लाभ लेने के लिए इतने तरह के प्रमाण पत्रों की अनिवार्यता तय कर दी गयी है, जिन्हें हासिल करना भी किसी यातना से सामना करने से कम नहीं है. 

सत्यापित कहानी में इस हकीकत को कहानीकार ने बहुत ही प्रतीकात्मक तरीके से व्यक्त किया है- सत्यापन करने वाली सील अक्सर चेहरा बिगाड़ देती है और रही-सही कसर लंबे-चौड़े हस्ताक्षर पूरी कर देते. चेहरा पहचानना मुश्किल हो जाता है. उसी को प्रमाणित मानते हैं. प्रमाण पत्रों के इस सरकारी मकड़जाल पर और स्पष्ट तरीके से स्कॉलरशिप का नायक टिप्पणी करता है- सरकार अपने बच्चों पर भरोसा नहीं करती. वह कागजों पर विश्वास करती है. कैसे तैयार होते हैं वो कागज- सब जानते हैं, लेकिन वह सबसे विश्वसनीय हैं.  - इन कागजों के लिए किस तरह जरूरतमंदों को दौड़ा कर तोड़ा जाता है, जो इसे भुगतता है, वही ठीक से बता सकता है. दरअसल कैलाश को उस वर्ग के हाड़तोड़ जीवन के बारे में बेहतर पता है जिन्हें अगड़ा, सुखी-संपन्न और सत्ताधारी वर्ग तुम लोग कहकर संबोधित करता है. जिनके घरों में घासलेट की एक बूंद की बर्बादी भी अफसोस का सबब है, जिनके घरों में दाल और सब्जियां रोज बन पाना संभव नहीं है, जिनके लिए कोई मौसम रूमानी नहीं है. जहाँ बारिश सौंदर्य और संगीत का सबब नहीं है बल्कि बारिश का मतलब गंदे पानी का घर में घुस आना है. बारिश बोले तो मकान की दीवारों का गिर जाना है. ये कहानियां ऐसी ही जिंदगी जीने वाले तुम लोगों की कहानियां हैं जिनकी भाषा, अस्मिता और अस्तित्व को कोई मान्यता नहीं, उसका सत्यापन नहीं. उनके बच्चे स्कूलों में पीटे जा रहे हैं या नामांकन की खिड़कियों से दुत्कारे जा रहे हैं. जिनके बारे में कहानीकार महू शीर्षक कहानी में एक पात्र से कहलवाता है- सब जानते हैं लेकिन एविडेंस माँगते हैं. ये बताओ अब तक कहाँ के एविडेंस मिले हैं? गुहाना, मिर्चपुर, झज्जर, अकोला...कभी बस्ती जलती है, तो कभी बलात्कार कभी हत्या. सब होता है. ये तो होता ही आया है. कोई नहीं बोलता. अब नये तरीके अपना लिए तरक्कीपसंदों ने. नया जमाना है. यहाँ इस जगह पहुँचने की कीमत हमें चुकानी पड़ी है हमारे बच्चों को जान देकर...हत्या, जलाना, बलात्कार के बाद ये आत्महत्या नया तरीका है. रिजर्वेशन का थोड़ा सा लाभ लेने वाले इन बच्चों को कैंपसों और दफ्तरों में अपमान के कैसे-कैसे घूंट पीने पड़ते हैं उसकी अलग हृदयविदारक दास्तान है.

समाज में ही नहीं, सरकारी दफ्तरों में भी सामंती वर्चस्व कायम है, जहां गरीब और वंचित समुदाय के व्यक्ति के लिए प्रवेश पाना अपमान का सबब है. वह येन-केन-प्रकारेण अपमानित और लांछित होकर दरवाजों और खिड़कियों से भगाया जा रहा है. कैलाश के अलावा नये कहानीकारों को इससे कोई मतलब नहीं. भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलन हो रहे हैं, सरकारें बदल रही हैं, पर हमारे स्टार युवा कथाकारों को यह युग सत्य नहीं व्याप्ता. कैलाश ने इस भ्रष्टाचार की काफी प्रभावी झलक सत्यापित कहानी में दिखाई है- आवेदन पत्र को पूरा पढ़ने के बाद वह बोला, कुछ लाये हो? क्लर्क की आवाज में नमी थी और आंखों में उत्सुकता. वह कुर्सी से खड़ा हो गया. सिर्फ भ्रष्टाचार की बात नहीं है, बल्कि सरकारी दफ्तरों में भयंकर जातीय भेदभाव भी व्याप्त है. सत्यापित कहानी का ही एक अंश देखें- उन्होंने मेरे सारे सार्टिफिकेट देखे, आईकार्ड देखा, फिर पूछा-कहाँ रहते हो? मैंने जवाब दिया था अम्बेडकर नगर, तो उन्होंने कहा अभी टाईम नहीं मेरे पास. अम्बेडकर नगर का पता बताते ही किस तरह संभवानाएं समाप्त हो जाती हैं, इस यथार्थ को बहुत सारे दलित छात्र प्रतियोगी आये दिन भुगतते रहते हैं. इस तरह की साजिशों का एक और उदाहरण स्कॉलरशिप कहानी में भी देखें कि जब नैरेटर स्कॉलरशिप के लिए आवश्यक प्रमाण पत्र लेने अपने प्राइमरी स्कूल में जाता है तो पाता है कि - पांचवी कक्षा के टी. सी. के जाति कॉलम में अक्षरों को इस कदर काटा गया है कि उसे पढ़ना नामुमकिन है. पहली कक्षा के प्रवेश आवेदन पत्र में भी इसी तरह जाति के आगे वाले अक्षर काट दिये गये हैं....जहाँ-जहाँ जाति शब्द का उल्लेख आता, उसे काली स्याही से काटा गया... और प्रधान शिक्षक प्रमाण पत्र देने से इंकार कर देता है.

घंटी और कितने बुश कितने मनु कहानी में देखें कि दलित जाति के दो छोटे कर्मचारियों को ईमानदारी और अपनी कर्तव्यनिष्ठा का क्या ईनाम मिलता है. घंटी का काका दफ्तर के लिए समर्पित पात्र है, वह घर-परिवार के लिए समय नहीं निकाल पाता मगर दफ्तर के हर काम को चाहे वह जितना कठिन या जोखिमभरा हो तत्परता से संपन्न करता है. उसकी इस कर्मठता का मजाक उसके सहकर्मी भी उड़ाते हैं पर वह अपनी जवाबदेही से कभी मुँह नहीं चुराता मगर साहब के बंगले पर काम करने से मना भर कर देने से उसे जो प्रताड़ना और फजीहत झेलनी पड़ती है, वह झकझोर देने वाली है. उसे भरपूर काम करने के बावजूद कामचोर होने का ताना सुनना पड़ता है जातीय अपमान सहना पड़ता है. कितने बुश कितने मनु का नैरेटर चपरासी है पर काम वह बीडीओ का करता है, मगर उसे कोई श्रेय नहीं मिलता, उल्टे उसे दलित होने की वजह से रोज दफ्तर में जातीय अपमान झेलना पड़ता है. वह कहता है- मैं दिन-रात काम करता हूँ. पानी पिलाता हूँ. तमाम पत्र और पाक्षिक-मासिक जानकारियाँ टाइप कर देता हूँ. प्रोग्रामिंग की, उसे चुरा लिया बीडीओ ने. बाबुओं ने चैन. क्या चाहते हैं ये लोग मुझसे?

कहना नहीं होगा कि हाल के बीस-पच्चीस सालों में हमारी व्यवस्था की तमाम संस्थाओं में भ्रष्टाचार, अनाचार और अराजकता तेजी से बढ़ी है. किसी सरकारी संस्थान में अगर आपका काम हो और आप वर्चस्वशाली समुदाय या सत्ता समूह का हिस्सा नहीं हैं, तो वहां आपको सिर्फ इंतजार और अपमान के सिवा कुछ हासिल नहीं होता. अंतर्देशीय पत्र कहानी का नैरेटर कहता है- सब्र करना सिखाते हैं लोग, खाना न खाने का सब्र. अपनी बारी का इंतजार का सब्र. उसी गली में रहने का सब्र. किस-किस पर सब्र करें हम? कब तक? जबान नहीं खुलती, मन खुलता.

कैलाश की कहानियों के नायकों की, जाहिर है वे सब प्रचलित छवि के कोई नायक नहीं हैं, गरीब प्रताड़ित अपमानित, भेदभाव व अन्याय के शिकार हो रहे साधारण लोग हैं,  जुबान भले न खुलती हो पर वे मुँहचोर लोग नहीं है. वे संघर्ष करते हैं और साहस-सूझ-बूझ के साथ अपना रास्ता निकालते हैं. इन कहानियों में नायकों के सतही विद्रोह और विजय की जगह उनकी तार्किकता और जूझारूपन को रेखांकित करने की कोशिश हुई है, जिससे कहानियां काफी विश्वसनीय लगती हैं. कैलाश की अधिकांश कहानियां मैं शैली में है. इन कहानियों का जो नैरेटर है वह सोचता खूब है, अपनी भीषण परेशानियों के बावजूद अपनी तार्किकता और जीवतंता नहीं छोड़ता. इसी से वह अपनी ताकत अर्जित करता है. हर कहानी में एक परेशान आदमी है जो अपनी सामाजिक पारिवारिक अवस्था और व्यवस्था की उपेक्षा से परेशान है, पर वह सिर्फ अपने दुःख में ही गर्क नहीं हो जाता, वह अपने समूचे परिदृश्य को बहुत गौर से देखता है, उसे समझने की कोशिश करता है, सवाल खड़े करता है और जवाब भी तलाशता है. सवाल उठता है कि उस व्यक्ति के खुद के जीवन में इतनी समस्याएं, इतने अपमान हैं, फिर वह टूट क्यों नहीं जाता, वह कुंठित होने से कैसे बचा रहता है, अपने आस-पास के बारे में कैसे सोचते रहता है. दरअसल यही उस व्यक्ति की ताकत है. वह अपनी परेशानियों के बीच अपनी तरह के और भी परेशान लोगों पर निगाहें बनाये रखता है, उनसे संवाद और संबंध बनाये रखता है- इसलिये वह टूटता नहीं है. वह अपनी तरह के लोगों के समूह से अपनी ताकत जुटाता है और तमाम प्रतिकूलताओं को चुनौती देता है. वह जानता है कि ये सारी वर्चस्वशाली सत्ताएं और यह सामंती तंत्र उसे तोड़ने के लिए ही ताकत लगा रहे हैं, अतः वह उन्हें चुनौती देता है. सत्यापित कहानी का नायक कहता है- परेशानी के जाल में छटपटा रहा आदमी रिलेक्स होकर हंसने लगे, तो हैरानी होती है. इसी हैरानी भरी निगाह से कर्ल्क ने मुझे देखा और कर्ल्क परेशान हो गया.... अपनी ताकत का रहस्य स्पष्ट करते हुए कहानी के अंत में कहता है- मैंने लोगों की तरफ मुस्कराहट भेजी जिसमें आमंत्रण था, आग्रह था, हाथ बढ़ाने का.

राज्य में मौजूद गैरबराबरी और भेदभाव के कारण कहानीकार अंतर्देशीय पत्र शीर्षक कहानी में देश की अवधारणा पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है. कहानी का नैरटर कहता है- मामा कहते जाते, हमारे देस में खाना नहीं, पीने को पानी नहीं, खेतों के लिए पानी नहीं. कीचड़ है. पैदल आना-जाना पड़ता है.....मामा का गाँव हमारी किताब में बड़ा सुहावना होता. किस्सों में मामा का गाँव खुशहाल, दुःख-दर्द से दूर, ताजी हवा और हँसता खेलता, चिंता से दूर, समृद्धि की तस्वीरों से भरा होता था. इन्हीं किस्सों के असर से ही जाने की जिद करते थे मामा के गाँव और मामा हैं कि उसे छोड़ना चाह रहे हैं.  

देश का अनुभव हर व्यक्ति और समुदाय के लिए अलग-अलग है. देश एक अमूर्त्त अवधारणा है. जो सुख में हैं, सत्ता में हैं, वर्चस्व जमाये हुए हैं, उनका अलग देश है, उस देश पर वे गर्व कर सकते हैं, पर जो तमाम संकटों व समस्याओं को भोगने को अभिशप्त है, जो वंचित और उपेक्षित है, प्रताड़ित है, पीड़ित है, वह भला इस देश पर कैसे गर्व कर सकता है. अगर सबके लिए ही देश महान होता तो कोई अपना गाँव, नगर, देश छोड़कर पलायन को क्यों मजबूर होता. इस सवाल को वर्चस्वशाली लोग नहीं समझ सकते. उसका आना शीर्षक कहानी में कहानीकार देश की महानता पर व्यंग्य करते हुए भ्रूण हत्या का प्रसंग उठाया है- उदघोषक कह रहा है-हमलोग जगदगुरु हैं, विश्व को राह दिखाने वाले.... मार्गदर्शक हैं हम...महानभूमि के निवासी हैं...हमें गर्व है हमारी संस्कृति पर...महान संस्कृति है...हम देवियों को पूजते हैं...व्रत रखते हैं. स्त्री लक्ष्मी है, दुर्गा है, सरस्वती है स्त्री.... हम पूजा करते हैं...हम गर्वशाली परंपरा के वाहक...हमें जैसे ही पता चलता है गर्भ में कन्या है...हम हत्या करते हैं कन्या की....हम महान देश के निवासी हैं.... इतना ही नहीं इस महान देश में स्त्रियों की इतनी कद्र की अगर वह कविता भी लिखने लगे तो खैर नहीं. कहानीकार ने उचित ही रेखांकित किया है- ये महारानी कविता लिखती है. परपुरुष को हो गयी खबर और हमें पता तक नहीं.  सास के तानों के बाद पति बोलेगा तो उसके भीतर का पौरुष निकलेगा, मुझे...मुझे बताया तक नहीं. मुझे.... आज लिखा तो कल बोलेगी. किसी से मिलेगी तो खुलेगी. खुली तो घर का भेद खोलेगी.... कहानी में है कि एक स्त्री की कविता निकली है अखबार में. उसे साइकिल की दुकान में काम करने वाला प्रकाश जो कि जनजातीय परिवार का युवक है, अखबार से काटकर अपनी जेब में रख लेता है. पर एक सेठ जी जब अखबार पढ़ते हुए उस कटिंग की तहकीकात करते हुए प्रकाश से वह कविता हासिल करते हैं और कवयित्री का सरनेम अपना ही पाते हैं, तो प्रकाश पर आगबबूला हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि यह कवयित्री उनकी बहू हो सकती है. उनके अंदर का सामंती भाव जाग जाता है और वह प्रकाश पर जातीय अपमान वाली टिप्पणी करते हैं...धंधा और जगह बदलने पर भी आदत नहीं जाती तुम लोगों की. और वे सोचने लगते हैं, इससे अच्छा था कि वह अनपढ़ बहू लाता. न लिखती, न छपती, न सीने से लगती. तो यह है हमारे समाज में स्त्री अस्मिता की हकीकत.

कैलाश की कहानियां बहुस्तरीय और बहुमुखी हैं. हर कहानी में अनेक प्रसंग, अनेक विचार, अनेक प्रश्न खुलते हैं. इन कहानियों में इतिवृत्तात्मकता उतनी नहीं है, जितनी तार्किकता. ये कहानियां कथा रस का आनंद देने का निमित्त नहीं हैं बल्कि ये सामाजिक हकीकतों पर विचार के लिए प्रेरित करती हैं. कैलाश अपनी कहानियों की भाषा को प्रश्नों व तर्कों से गूंथकर बिंबात्मक बनाने की कोशिश करते हैं. इस भाषा में मराठी सत्व और मुंबइया हिंदी का असर होने के कारण यह एक नये तरह के अनुभव व असर को पैदा करती है. इसी कारण भरपूर किस्सागोई न होने के कारण भी कहानियां बांधे रखती हैं और अपने उद्देश्य के मर्म तक पाठक को ले जाती हैं.
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सत्यापन (कहानी संग्रह)
कहानीकार- कैलाश वानखेड़े 
प्रकाशक- आधार प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य-80 रुपये

हरे प्रकाश उपाध्याय
मोबाइल-8756219902

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  1. kailash ji ki kahaniyan mainne nahin parhin, lekin sameeksha bakayda sameeksha ki tarah likhii gayi hai, yah badhiya hai. haan, hare ji bahut suljhe huye shaksh v ek baichain kavi hein--unhein apne lekhan mein is tarah ke havaayi mubaaligon se bachnaa chahiye ki "star yuva kathakar" aadi.
    piyush daiya

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  2. लेखक ने सत्यापन के माध्यम से यथार्थ को बहुत बेबाकी से प्रस्तुत किया है .

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  3. लेखक ने सत्यापन के माध्यम से यथार्थ को बहुत बेबाकी से प्रस्तुत किया है .

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  4. एक अच्छी समीक्षा पुस्तक के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालने में समर्थ होनी चाहिए..और इसे पढ़कर ऐसा ही लगता है. किताब पढने की भरपूर जिज्ञासा उत्पन्न करती है यह समीक्षा. कहानीकार और समीक्षक को बधाई.

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  5. बहुत ही सारगर्भित समीक्षात्मक आलेख. वंचितो कि आवाज बनता आलेख.

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  6. आपकी समीक्षा पढ ही ऐसा लग रहा है कि वास्तव में कहानियाँ एक अलग पृष्टभूमि को लेकर लिखी गयी हैं जिनमें समाज का वो चेहरा प्रतिबिंबित हो रहा है जिस तरफ़ किसी का ध्यान ही नहीं जाता ………एक सार्थक समीक्षा के लिये हार्दिक बधाई और लेखक को शुभकामनायें उनका लेखन इसी प्रकार जारी रहे सबसे हटकर सबसे अलग

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  7. बहुत ही उम्दा आलेख...आपका समीक्षात्मक दृष्टिकोण अनुकरणीय है।।।

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  8. सारगर्भित समीक्षा के लिये
    कहानीकार और समीक्षक को हार्दिक बधाई ...

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  9. बेहतरीन समीक्षा ..सभी कहानियाँ पढ़ी हैं मैंने इस संग्रह की ! बेजोड़ संग्रह है !

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  10. आदरणीय हरेप्रकाश जी
    आपके द्वारा लिखी गयी समीक्षा पढना ऐसा ही है जैसे किसी ने सोने की खदान से स्वर्णकण विलगित कर दिये हों। ....''उदघोषक कह रहा है-हमलोग जगदगुरु हैं, विश्व को राह दिखाने वाले.... मार्गदर्शक हैं हम...महानभूमि के निवासी हैं...हमें गर्व है हमारी संस्कृति पर...महान संस्कृति है...हम देवियों को पूजते हैं...व्रत रखते हैं. स्त्री लक्ष्मी है, दुर्गा है, सरस्वती है स्त्री.... हम पूजा करते हैं...हम गर्वशाली परंपरा के वाहक...हमें जैसे ही पता चलता है गर्भ में कन्या है...हम हत्या करते हैं कन्या की....हम महान देश के निवासी हैं....''....अब इस संग्रह को पढने की उत्सुकता जग गयी है शीघ्र ही प्राप्त करूंगा। इस विशद समीक्षा के लिये साधुवाद स्वीकारे ।

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  11. जितनी अच्छी रचना उतनी ही अच्छी समीक्षा। इससे कहानी संग्रह को फिर से पढ़ने की इच्छा जागी है। समीक्षक और रचनाकार दोनों को बधाई।

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  12. कहानी के कहानी पन की तलास में हरे भाई ने उसका बेहतर मूल्यांकन किया है...... "कैलाश की कहानियों के नायकों की, जाहिर है वे सब प्रचलित छवि के कोई नायक नहीं हैं, गरीब प्रताड़ित अपमानित, भेदभाव व अन्याय के शिकार हो रहे साधारण लोग हैं, जुबान भले न खुलती हो पर वे मुँहचोर लोग नहीं है. वे संघर्ष करते हैं और साहस-सूझ-बूझ के साथ अपना रास्ता निकालते हैं. " यह इस समीक्षा की सबसे बेहतर बिन्दु है ....बधाई लेखक और समीक्षक दोनों को

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  13. बहुत अच्छी समीक्षा है, जो निश्चित ही पाठक के मन में पुस्तक के लिए उत्सुकता और उत्कंठा जगाएगी...|
    हरेप्रकाश को बधाई...|

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  14. a very nyc review...congrats to both the writer n the reviewer...

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  15. बहुत ही उतकृष्ट समीक्षा

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