परख : घर के भीतर घर (ब्रज श्रीवास्तव) : मणि मोहन














मनुष्य के पक्ष की कविताएँ



ब्रज श्रीवास्तव की सद्य प्रकाशित कविता पुस्तक” घर के भीतर घर’’ में एक कविता है- जिसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“आश्वित्ज़ कई जगहों पर है,
बेरहमी विहंस रही है
कई जगहों पर’’

हम सब जानते हैं कि आश्वित्ज़ 1 2 3 नाज़ियों द्वारा निर्मित उन यातना गृहों के नाम हैं जहाँ १९४० से १९४४ के दौरान पूरे जर्मन द्वारा अधिग्रहित यूरोप से यहूदियों को ट्रेन द्वारा यहाँ  लाया जाता था और गैस चम्बरों में zyclon-B नामक ज़हर डालकर उनका नरसंहार किया जाता था. गैस चेम्बरों से बचे हुए लोग भूख और बिमारियों की वज़ह से दम तोड़ रहे थे. आश्वित्ज़ में होने वाली गतिविधियों का वर्णन पढ़ते हुए आप बैचैन हो सकते हैं. इसी सन्दर्भ में मुझे थियोडोर अर्दोनो का भी स्मरण आता है जिसने अपने एक निबंध ”An essay on cultural criticism and society” में लिखा था- to write a poem after aushwitz is barbaric” औश्वित्ज़ के बाद कविता लिखना बर्बरता है.

लेकिन यह पूर्णतया सच नहीं है. हमारे आसपास घट रही बर्बरता हमें थोड़ी देर के लिये स्तब्ध भले ही कर दे, किन्तु हम बार बार लौटते हैं कविता की तरफ, कहानी, रंगमंच या फिर किसी अन्य माध्यम की तरफ, इस बर्बरता का विरोध करने के लिये, बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक चर्चित पेंटिंग “गुएर्निका” को देखने के बाद एक जर्मन अफसर ने पिकासो से पूछा था- यह पेंटिंग आपने बनाई थी? पिकासो ने जवाब दिया- जी नहीं...आपने बनाई थी. कुल मिलकर बात इतनी भर है कि बर्बरता कहीं भी हो रचनाकार हमेशा अपने कला माध्यम के द्वारा उसका विरोध करता  है और करता रहेगा.

ब्रज श्रीवास्तव की कविता “औश्वित्ज़ कई जगहों पर है” मुझे लगता है उस बीज वक्तव्य की तरह है जिसके माध्यम से संकलन की अधिकांश कविताओं को पढ़ा और समझा जा सकता है. वह ‘इस बात का ज़िक्र’ में लिखते हैं_

‘यह वक्त है या रात का बियाबान
जिसमे दिखाई देता है मुझे एक साफ रास्ता
स्म्रतियौं में जाने के लिये”

कवि की इन्ही स्मृतियों  से इतिहास का वह क्रूर औश्वित्ज़ मौजूद है जो उन्हें समकालीन यातना गृहों से जोड़ता है. कवि के ही शब्दों में कहें तो-

“तुम जब बच्चों के लिये खरीदते हो एक सस्ता खिलौना
वे अपने बच्चों के लिये कार खरीद लाते हैं”

समकालीन अर्थशास्त्र के मरकज़ में जो इधर उधर बिखरे हुए यातना गृह हैं उन सब पर कवि की नज़र है चाहे वह अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत कोई पारदी हो या फिर अपने अफसर की क्रूरता का शिकार कोई अदना सा मुलाजिम हो. इस दौर में यहाँ वहां रची बसी क्रूरता, अमानवीयता, बर्वरता और ध्वंस को वे बेहद संजीदगी से कविता में अभिव्यक्त करते हैं.

मामूली चीजें और मामूली लोग ब्रज की कविता में आने के बाद “larger than life”{ जीवन से भी बड़े} बन जाते हैं, किसी कहानी की तरह शुरू होने वाली  एक कविता “एक अर्दली” संवेदना के पर बेहद प्रभावित करती है. मामूली बुखार में अपनी बेटी को खो चुके इस अर्दली को लेकर रची गई यह कविता चार्ल्स लैम्ब के निबंधों की तरह हमारे भीतर करुणा का संचार करने में सफल होती हैं.

कविता के लिये जिन दृश्यों की जरुरत होती हैं वे हमारे आसपास  ही बिखरे हुए होते हैं. सवाल सिर्फ़ हमारे involvement [शामिल होने का] का होता है कि किस तीव्रता और डिग्री के साथ हम अपना तादात्म्य  बिठा पाते हैं.

ब्रज के रचना संसार की ख़ास बात यह है कि वे साधारण से साधारण  दृश्य में से भी काव्य चमत्कार करने में  सक्षम हैं. “ट्रेन में स्त्री युग्म’ कविता में वे पंजाबमेल के डिब्बे के एक बेहद आम दृश्य से अपनी बात शुरू करते हैं और इस तरह ख़तम करते हैं-
‘कोई स्टेशन आया जहाँ वे उतर गई
छोड़ गईं अपने पीछे कुछ लोगों की जुबान पर फब्तियां
और कुछ लोगों की स्मृति में एक कोरस और मीठी सी धुन”

ब्रज की कविता के ये सामान्य से दृश्य  भी हमारी स्मृति में लंबे समय तक बने रहते हैं या कहूँ तो जब भी यह दृश्य सामने आता है तो कविता स्मृति में आ जाती है.
  
हमारे समय के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं में साधारण से साधारण दृश्य भी जिस भावनात्मक शिद्दत के संग अभिव्यक्त होकर असाधारण हो जाता है वह अदभुत हैं और ऐसी बयांनगियाँ ही इस कविता  की अर्जित उपलब्धियां हैं. ऐसे ही तत्व ब्रज की कविताओं में अक्सर मिल जाते हैं.

ब्रज की कविताओं की  एक और विशेषता है उनके रचना संसार में अनुभवों की आवाजाही. वह नितांत निजी अनुभवों को ना केवल अपने पाठकों के साथ शेयर करते हैं बल्कि उनका समाजीकरण भी करते जाते हैं. ”भाईदौज” कविता में अपनी छोटी बहिन को याद करते करते कवि एक यथार्थ लिखने को विवश हो जाता है.

‘समय के वे पन्ने हो गये हैं पुराने
जिनमे परिवार ने मिलजुल कर लिखे थे
भविष्य के जुमले’
यह सामयिक अनुभव अंत में फिर निजत्व की ओर लौटता है-

“अगर में नहीं करूँगा फ़ोन पर बात
तो शायद आज वह शाम तक नहीं खाएगी कुछ भी”

संग्रह की एक अन्य कविता ”पर एक उमाशंकर है” के बहाने वे भौंथरी हो चुकी संवेदनाओं और संवेदनहीनता को रेखाकित करने की कोशिश करते हैं, अपनी छोटी बेटी को लेकर लिखी गई एक और कविता ”उस जैसे मासूम” में भी एक बड़ी सामयिक चिंता को जिस सादगी और करुणा के साथ व्यक्त  किया गया है वह मार्मिक है

‘मैंने कहा उसे गोद में लेकर
तुम्हे सब कुछ आता है बिटिया
तुम्हारी मैडम को ही नहीं आता कुछ
जो बच्चों से करती हैं
इतना ख़राब सलूक..

उनकी कवितायें हमारे नागरिक जीवन में राजनीतिक तौर पर सीधे सीधे हस्तक्षेप की कवितायेँ नहीं हैं, उनकी कविताओं में एक पोलिटिकल अंडरटोन अपरोक्ष रूप से अवश्य मौजूद रहकर अपना प्रभाव छोडती है. तमाम ध्वंस, बर्बरता और विडम्बनाओं के बीच सांस लेते मनुष्य को,उनकी कविता आश्वस्त करती है कि

‘सारी धरती पर सुलगी हुई है आग
बाकी गृहों पर नहीं यह रौशनी
जीवन सिर्फ़ यहीं धधक रहा है”

ब्रज की कवितायेँ एक आम आदमी से उसी की भाषा में संवाद करते हुए हमारे समय की भयावहता, टूटन, नैराश्य, और जटिलता को बिना राजनीतिक मुहावरे के उस तक संप्रेषित भी करते हैं- यह भाव हमें उनकी ”साजिश करने वाले’, घर के भीतर घर, हम हम हैं, आवाज़ ही उठाई थी.,आदि कविताओं में खूब मिलते हैं.

इस संवेदनहीन समय में इस संग्रह ’’घर के भीतर घर’’ की की कवितायेँ हमें आश्वस्त करतीं हैं कि कविता से हमारा नाता और भरौसा टुटा नहीं है और यह भी की हमारा समकाल कितना भी निष्ठुर और मनुष्य विरोधी हो..हम ऐसी ही कविताओं को लेकर उनके निहितार्थों से मनुष्यता के पक्ष में अपनी आवाज़ उठाये रख सकते हैं....
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मणि मोहन
गंज बासौदा
Mob 9425150346

6/Post a Comment/Comments

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  1. बर्बरता की त्रासदी को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करने में कवि ने सफलता प्राप्त की है . समस्या को प्रस्तुत करने में कवि ने सुन्दर प्रयास किया है . समीक्षा पसंद आई .

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  2. धन्यवाद सुनीता पाटीदार जी ,आपकी टिपण्णी से मुझे उत्साह मिला.

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  3. शुक्रिया सुनीता जी आपको समीक्षा पसंद आई..ब्रज भाई को भी बधाई।

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  4. बहुत अच्छी समीक्षा लिखी आपने मणि मोहन जी ।
    घर के भीतर घर ,कवितायेँ आपके शब्दों में लेखक की संवेदनाओ का परिचय दे रही है ।
    हार्दिक आभार समालोचन ,मणिमोहन जी और ब्रज जी आपका

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