सबद - भेद : राजेन्द्र यादव-आत्महंता उत्सवधर्मिता : राकेश बिहारी























फोटो आभार : Anusha Yadav

आज राजेन्द्र यादव का जन्म दिवस है, उनकी अनुपस्थिति में उनका पहला जन्मोत्सव. सभ्यता की चेतना और संस्कृति के विवेक में जिनका योगदान होता है उन्हें इसी तरह याद किया जाता है. आज उनके स्मरण में आकांक्षा पारे की कहानी शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट को 'राजेंद्र यादव हंस सम्मान'  दिया जा रहा है.
इस अवसर पर समालोचन  की और से युवा आलोचक राकेश बिहारी का खास लेख जो उनकी १९९० में प्रकाशित कहानी उसका आना को केंद्र में रख कर लिखा गया है. इस कहानी में राजेन्द्र यादव अपनी मृत्यु को जैसे देख  रहे थे. गहरे आत्मसाक्षात्कार की व्यथा की कथा.   

आत्महंता उत्सवधर्मिता की कहानी                        
राकेश बिहारी


राजेन्द्रजी की कहानी 'उसका आना' उनके जाने के बाद कई बार पढ़ चुका हूँ. हर नए पाठ के दौरान मेरी यह धारणा दृढ होती गई है कि मैं कोई कहानी नहीं पढ़ रहा बल्कि उनके व्यक्तित्व की शल्य चिकित्सा देख रहा हूँ- लाइव. आश्चर्य होता है कि कोई व्यक्ति खुद के जीवन को इस निस्संग तटस्थता से भी देख सकता है.  एकबारगी इस आश्चर्य पर भरोसा नहीं होता पर जो सामने दिख रहा है उसे झुठलाया भी तो नहीं जा सकता न! इस कहानी को राजेन्द्रजी ने लगभग तीस वर्षों की लंबी समयावधि में तीन किश्तों में पूरा किया था. अपने आखिरी  रूप में यह कहानी अगस्त 1990 में आई थी. यानी इसको लिखे हुये तेईस वर्ष हो चुके हैं. लेकिन जो लोग राजेन्द्रजी को करीब से जानते हैं वे इस कहानी में उनके जीवन के आखिरी कुछ वर्षों की बारीक झलकियाँ भी आसानी से देख सकते हैं. तो क्या एक समर्थ कहानीकार अपनी कहानियों में देश-काल का ही नहीं अपना भविष्य भी दर्ज कर देता है? या फिर यह कहानी, कहानी है ही नहीं? मैं इस कहानी में जिस भविष्य-दर्शन की बात कह रहा हूँ कहीं वह राजेन्द्रजी का अपने जीवन की भावी योजनाओं का ब्लू प्रिंट तो नहीं था? इस तरह के कई और प्रश्न मेरे भीतर बन-गिगड रहे हैं और इन प्रश्नों के सहारे इस निष्कर्ष पर पहुँच रहा हूँ कि भविष्य के यथार्थ को आज के फिक्सन की तरह लिख देना राजेन्द्रजी के कहानीकार की एक बड़ी विशेषता है.  मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि खुद को यथार्थ की जमीन से पूर्णतया अलग कर के कहानियाँ नहीं लिखी जा सकतीं. यहाँ तक कि जिन कहानियों को लेखक पूर्णत: काल्पनिक कहानियाँ कहता है, उन्हें भी कहीं न कहीं वह अपने  या अपने आसपास के यथार्थ में ही विस्तारित करता होता है. यथार्थ और कहानी के परस्पर संबंध के प्रति मेरी यह राय 'उसका आना' को पढ़ने के बाद और पुख्ता हुई है. दरअसल आत्मस्वीकारोक्ति, आत्म-मूल्यांकन, आत्म-चिंतन, आत्म-दर्शन, आत्म-ग्लानि और यहाँ तक कि कई बार आत्म-धिक्कार तक के विविध रंगों से विनिर्मित यह कहानी मुझे एक ऐसे जीवंत चित्र की तरह दिखती है, जिसमें राजेन्द्रजी के सहज दिखनेवाले जटिल व्यक्तित्व के सूक्ष्मतम रेशों को भी देखा-समझा जा सकता है.   

एक सहज सी विपरीतधर्मिता राजेन्द्रजी के व्यक्तित्व का स्थाई हिस्सा थी. उन्होंने अपने भीतर अपनी सार्वजनिकता और अंतरंगता का जबर्दस्त बंटवारा कर रखा था. कब, कहाँ और कितना खुलना है यह सिर्फ और सिर्फ वही जानते थे. एक सीमा के बाद उन्हें सर्वाधिक जानने-समझनेवाले और अंतरंग लोगों की सीमा भी स्वयमेव समाप्त हो जाती थी. उनका जीवन सार्वजनिक और निजी के लगभग दो विपरीत ध्रुवों के बीच का अद्भुत संतुलन था. हमारे बीच के सर्वाधिक लोकतान्त्रिक लेकिन अपनी दृष्टि और सरोकारों को लेकर उतने ही दृढ. बात और आस्वाद का रसिया होना जहां उनके जीवन का सार्वजनिक स्वीकार था वहीं उनके अंतःपुर में धीमे-धीमे बजता उदासी का जलतरंग उनकी आंतरिकता का एक ऐसा सच था जिसे समझते तो बहुत लोग थे लेकिन शायद ही किसी ने उसे थाह या थाम पाया हो. राजेन्द्रजी के व्यक्तित्व की इन विशेषताओं और पेचोखम को यह कहानी बहुत बारीकी से विश्लेषित करती है.

हानी एक पत्र की शैली में है. कथानायक अपनी प्रेमिका को संबोधित करते हुये कहानी की शुरुआत कुछ इस तरह करता है "औरों की तरह एक तस्वीर मेरे भी सपनों और कल्पना में अक्सर आती रही है : बीच में मैं सफेद चादर ओढ़े लेटा हूँ और चारों तरफ लोग रो-पीट रहे हैं, उनके पीछे अफसोसी चेहरे खड़े हैं. मेरी असामयिक मृत्यु पर, किये-अनकिये महान कार्यों पर दबे स्वर में बात हो रही है. मैं उन सब चेहरों को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ. आश्चर्य करता हूँ कि यह लेटा हुआ व्यक्ति क्या अब कभी नहीं उठेगा?" मृत्युबोध पर लिखी जानेवाली यह कोई पहली कहानी नहीं है न ही राजेन्द्रजी ने खुद इस मुद्दे पर सिर्फ यहीं लिखा है. अपने बहुचर्चित आत्मतर्पण 'हम न मरै मरिहै संसारा' की शुरुआत में भी उन्होंने अपनी मृत्यु के उपरांत आयोजित शोक सभा के दृश्य की कल्पना की है. हलांकि  तब उन्होने जिन लोगे की उस शोक सभा में वक्ता के रूप में कल्पना की थी उनमें से कई उनके पहले ही दुनिया छोड चुके थे. फिर भी इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि जिस शैली में वे दूसरों को श्रद्धांजलि देते रहे थे, अपने लिए भी उन्होने शोकांजलि का वही शिल्प चुना था. गौरतलब है कि लगभग मृत्युशैय्या पर पड़े एक व्यक्ति के मृत्यबोध के बहाने अपने ही जिये जीवन की निर्मम औडिट करते हुये राजेन्द्रजी इस कहानी में भी उसी मुद्रा में उपस्थित हैं. अपने अतीत की चीड़ फाड़ करते हुये वे दिवंगत हो जाने की कोई व्यावहारिक छूट नहीं लेते. अपने किये-अनकिये का खुद ही लेखा-जोखा करते हुये इस तरह की तटस्थता का ही नतीजा है कि मृत्यु पर बात करते हुये वे किसी सूक्ष्म, वायवीय और दार्शनिक-आध्यात्मिक विमर्श के अहाते में नहीं घुसते, बल्कि मर जाने को एक बेहद ही दुनियावी तरीके से परिभाषित करते हुये औरों की उम्मीदों, आशाओं, ईर्ष्याओं, और लगावों के चंगुल से अंतिम रूप से छूट भागना' कहते हैं? भौतिक शरीर के पंचतत्व में विलीन होकर मोक्ष प्राप्त करने की अवधारणा के विरुद्ध मृत्यु को परिभाषित करने का यही राजेंद्रयादवीय अंदाज़ कथानायक को इस आश्चर्य से भर देता है कि सफेद चादर ओढ़े सबके बीच लेटा हुआ व्यक्ति अब कभी नहीं उठेगा. कोई व्यक्ति खुद नहीं मरता बल्कि दूसरे अपने-आपसे मुक्त करके उसे मारते हैं और इस तरह हर मृत्यु एक हत्या होती है के संशयात्मक नोट से शुरू हुई यह कहानी जिस तरह आगे कथानायक के जीवन की जटिलताओं, उसके द्वंद्व, उसकी सफलताओं-असफलताओं, कुंठाओं, महानताओं, नीचताओं आदि से होती हुई मृत्यबोध से व्यर्थताबोध तक का सफर तय करती है उसे रेखांकित किया जाना चाहिये.

ज़िंदगी के प्रति एक अद्भुत रागात्मकता और सघन जिजीविषा राजेन्द्रजी के व्यक्तित्व के अनिवार्य तत्व थे. उन्हें मृत्यु का भय चाहे न रहा हो पर मृत्यु के बाद की स्थिति को देख पाने की ललक जरूर उनके भीतर थी. यहाँ इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि मृत्यु के बाद के दृश्य को देखने की यह ललक इस पार प्रिय तुम हो मधु है, उस पार न जाने क्या होगा' की उत्तर छायावादी रूमानी प्रश्नाकुलता से नितांत भिन्न है. राजेन्द्रजी का मृत्युबोध उस दुनिया का कयास लगाने की बजाय इस दुनिया के परवर्ती परिवेश की ही पड़ताल करना चाहता है. और यहीं उनका मृत्यु-विमर्श औरों से अलग हो जाता है.

सका आना हो या आत्म तर्पण हम न मरै मरिहैं संसारा'; या फिर उनके जाने के बाद हंस, दिसंबर 2013 में प्रकाशित उनकी डायरी के अंश, राजेन्द्रजी लगभग हर बार मृत्यु की बात करते हुये अपने मूल्यांकन की बात जरूर करते हैं. अमूमन यह मूल्यांकन एक खास तरह के व्यर्थताबोध तक जाकर ठहर जाता है. जिन वैचारिक आग्रहों या वैचारिक प्रतिबद्धताओं के पक्ष में वे लगातार लड़ते रहे, मृत्यु की बात करते हुये अपने उसी लिखे के प्रति एक खास तरह के व्यर्थताबोध से भर जाने का एक नमूना यहाँ द्रष्टव्य है कभी-कभी ईमानदारी से सोचता हूँ कि मैंने साहित्य या विचारों की दुनिया में क्या ऐसा दिया है कि कोई याद रखे. कुछ तेज तर्रार भाषा में जो है, उसकी धज्जियां जरूर उड़ाई है. अपना तो कुछ भी मौलिक नहीं है. वैसे भी इतना सब महत्वपूर्ण और मौलिक भरा पड़ा है दुनिया में कि अपनी कहाँ कोई खरोंच. शायद वैसी बौद्धिक तैयारी थी, न क्षमता. दूसरों के किए पर ही चकित होते रहे... जिसे मैं बार-बार राजेन्द्रजी का व्यर्थताबोध कह रहा हूँ, आखिर क्या है वह...? उनकी विनम्रता? या फिर विनम्रता के आवरण में लिपटा उनका विशिष्टताबोध? या फिर खुद के लिख-किए को लेकर एक सहज लेखकीय शंकामूलकता? इन प्रश्नों का कोई सर्वमान्य उत्तर शायद नहीं हो सकता. उनके प्रशंसक, आलोचक, मित्र और शत्रु इसके अपने-अपने अर्थ खोज सकते हैं, खोजते भी रहे हैं. लेकिन निष्कर्ष चाहे जो भी निकाला जाये, इतना तो तय है कि राजेन्द्रजी इन प्रश्नों के बहाने मृत्यु को जीवन से पलायन के उपक्रम की तरह नहीं देखते बल्कि अपने जीते जी ही अपने बाद होनेवाले मूल्यांकन की तस्वीर देख लेना चाहते हैं. मृत्यु के बहाने खुद को प्रश्नांकित करने की इस शैली को हम एक खास तरह का नियोजन या मरणोपरांत पैदा होनेवाली परिस्थितियों का एक तटस्थ पूर्वानुमान भी कह सकते हैं.   

ज़िंदगी को हर कदम जीने की अदम्य जिजीविषा का ही यह नतीजा है कि खुद की मृत्यु की कल्पना करते हुये राजेन्द्रजी सामान्यतया असामयिक मृत्यु की बात करते हैं. गौर किया जाना चाहिए कि साठ वर्ष की उम्र में ही मृत्यु की संभावना या संभावित मृत्यु की बात करते हुए उन्होंने समय की कमी की बात की  हैं... अनीस जागो, कमर को बांधो, उठाओ बिस्तर कि वक्त कम है वक्त की कमी का हसास और संभावित मृत्यु के बाद के दृश्यों को देखने की यह ललक उनके अवचेतन का जरूरी हिस्सा थी, यही कारण है कि खुद की मृत्यु और आत्महत्या के सपने वे लगातार देखते रहे थे (संदर्भ- दिसंबर 2013, हंस में प्रकाशित डायरी के अंश).

त्नी और प्रेमिका के बीच आजीवन झूलते रहने का द्वंद्व और उस द्वंद्व से उत्पन्न एक खास तरह का आत्मदंश राजेन्द्रजी के निजी और पारिवारिक अंतरंग का एक ऐसा सच था जिसे वे खुद कई बार सार्वजनिक रूप से भी अभिव्यक्त/स्वीकार कर चुके थे. उसका आना' के कथानायक के चरित्र में राजेन्द्रजी नीति और संध्या के बहाने प्रेम और दांपत्य के उसी द्वंद्व को फिर-फिर जीते और विवेचित-विश्लेषित करते हैं. निजी ज़िंदगी के यथार्थ को कहानी में पुन:सृजित करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जिस तरह राजेन्द्रजी बतौर लेखक अपनी कहानी में स्व' के महिमामंडन से बहुत दूर रहते हुये आत्मस्वीकारोक्ति के टूल्स के जरिये खुद की तटस्थ और निर्मम पड़ताल करते हैं वह उनके लेखक ही नहीं उनके व्यक्ति को भी विशिष्ट बनाता है. बतौर विमर्शकार राजेन्द्रजी जिस तरह स्त्री हितों की बात करते हैं, बतौर प्रेमी, पति, और पिता उसे व्यावहारिक स्तर पर अपने जीवन में नहीं उतार पाते. लेकिन खुद की सैद्धांतिकी और व्यवहारिकी के बीच के अंतर्द्वंद्व को ठीक-ठीक समझना, उसे स्वीकार करना और उसके अनुरूप खुद को यथासंभव संशोधित-परिमार्जित करने की कोशिश करना और जरूरत पड़ने पर अपनी असफलताओं या कमियों के लिए भीतर-ही भीतर छटपटाना उन्हें औरों से अलग करता है. जिस प्रेम को व्यक्ति अपना अस्तित्व समझता है उसी के साथ न्याय न कर पाने पर किस तरह की अस्तित्वहीनता का बोध उसके भीतर पैदा लेता है यह वही बता सकता है, जिसने उत्कट प्रेम की विफलता से उत्पन्न उस मारक तीक्ष्णता का आस्वादन किया हो.  ऊपर-ऊपर की हंसी के बहाने अपने भीतर की दरकन को रफू करने की यह कोशिश और वक्त गुजर जाने के बाद उस कोशिश की नाकामी पर एक खास तरह का पछतावा उनके भीतर किस तरह की आकृतियाँ विनिर्मित करता था उसे उसका आना' के कथानायक की इन छटपटाहटों में  आसानी से रेखांकित किया जा सकता है, जो वह अपने ही घर में आई अपनी प्रेमिका के चले जाने के बाद महसूस करता है - " मेरे भीतर एक अनाम-सा पछतावा छटपटा रहा है- कैसी हो तुम? परिवार है या वैसी ही हो? चेतना की ऊपरी सतह पर ये सवाल हैं और नीचे तलहटी में सिर्फ एक ही वाक्य भंवर की तरह मंडरा रहा है, मुझे माफ करो, मुझे माफ करो. नहीं जानता मैं किससे और किस बात की माफी मांग रहा हूँ? मेरे भीतर यह सब क्या हो रहा है? क्या बीमारियों के कुछ कीटाणु हमारे जन्म के साथ ही आते हैं या उन्हें हम बीच में ही सोखते रहते हैं? तुम मेरा अस्तित्व थीं या अस्तित्वहीनता का सम्मोहक किटाणु?"


सका आना' को पढ़ते हुये पता नहीं क्यों बार-बार ऐसा लगता है कि राजेन्द्रजी इसमें अपने अतीत की विवेचना के समानान्तर अपने भविष्य की प्रस्तावना भी लिख रहे थे, खासकर अपने आखिरी दिनों की.  निजी और पारिवारिक ज़िंदगी की असफलताओं से उत्पन्न खुद को नितांत अकेला कर देनेवाली पीड़ा और अपराधबोध के बावजूद राजेन्द्रजी की जिजीविषा के पीछे उनके उन्मुक्त ठहाकों और यारबास व्यक्तित्व का बहुत बड़ा योगदान था. लेकिन न जाने क्यों मुझे यह हमेशा लगता रहा और पिछले दो वर्षों में तो मेरा यह अनुमान लगभग यकीन में बदल गया था कि यह ठहाका जो हम ऊपर से देखते-सुनते थे, दरअसल उनके भीतर के तपते ऊसर की तरह फैले अकेलेपन को झुठलाने या कि ढंकने की कोशिश थी. अकेले पड़ते जाने का यह सिलसिला किन्हीं कारणों से पिछले दो वर्षों में बढता ही जा रहा था. उसका आना' के कई प्रसंगों को पढ़ते हुये यह लगता है कि उन्हें इस बात का गहरा अहसास था कि जो यार-दोस्त उनके जीने के कारण हैं शायद एक दिन वे ही उनका साथ छोड दें. इस कहानी में वे इस हसास को लगभग एक तयशुदा परिणति की तरह देखते हुये इसे अतीत के कुछ उदाहरणों यथा- राहुल सांकृत्यायन, बलकृष्ण शर्मा नवीन, जैनेन्द्र और राजेन्द्र सिंह बेदी के आखिरी दिनों की स्थिति से पुष्ट भी करना चाहते हैं - " ऐसा क्यों होता है कि अपनी जिस विलक्षण क्षमता को साधकर हम दुनिया भर को चमत्कृत कर देते हैं, वह आखिरी वक्त अचानक साथ छोड देती है... जैसे जिस घोड़े पर बैठकर हमने दिग्विजय की हो, घोर संकट के काल में वही हाथ-पैर तोड़कर आपको नीचे गिरा दे." तो क्या जीवन पर्यंत भीड़-भाड़ और हंसी ठहाके के बीच रहनेवाले राजेन्द्रजी का अकेला हो जाना ही उनके जाने का वायस था? क्या ईसा, गांधी और मार्टिन लूथर किंग की तरह अपनी मृत्यु उन्होने खुद अर्जित की थी? 

लगभग दो वर्ष पूर्व जब वे लगभग मृत्यु शय्या पर पड़े थे और लोगों ने भी उनका जाना तयप्राय ही मान लिया था, उन्होने मौत से जूझकर ज़िंदगी में एक बड़ी कम बैक की थी. उसके कुछ दिनों बाद आई उनकी आखिरी किताब स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार' के प्रकाशन के बाद से ही उनके अकेले पड़ने का सिलसिला तेज हो चुका था जो अंतत: उनके जाने का अकेला नहीं तो एक महत्वपूर्ण कारण तो बना ही. मृत्यु को हराकर लौटने के बाद नए सिरे से अपनी मौत का स्क्रिप्ट लिखने की योजना भी कहीं उन्होने बहुत पहले तो नहीं बना ली थी? यकीन मानिए इस तरह के ऊटपटाँग निष्कर्ष पर मैं यूं ही नहीं पहुँच रहा. इसका रास्ता भी मुझे इसी कहानी ने दिखाया है. यदि विश्वास नहीं तो मृत्यु शय्या पर पड़े इस कहानी के नायक की मनोदशा और भावी योजनाओं को आप खुद ही देख लीजिये- " आज लगता है जैसे मैं पकड़ लिया गया हूँ और इस पलंग पर कील दिया गया हूँ. आश्चर्य और प्रशंसा का भाव जागता है कि इस सबके बावजूद कितने निर्भ्रांत ढंग से सोच रहा हूँ, चीज़ें मुझे आर-पार दिखाई दे रही हैं. जरूर इस झटके से भी उबर जाऊंगा. अगर ऐसा हुआ तो कसम खाता हूँ, बेहद ईमानदारी से और बिना अपने को बचाए हुये लिखूंगा- चाहे उस लिखे हुये में लोग मेरे लहू सने दाँत और खूनी आँख ही क्यों न देखने लगे..." इन पंक्तियों के आलोक में यदि स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार, जिसका घोर आलोचक इन पंक्तियों का लेखक भी है, का पुनर्पाठ किया जाये तो राजेंद्र यादव की जीवन-योजना के कई अर्थ स्व्ययमेव खुलने लगेंगे. उसका आना' इन्हीं अर्थों में उनके जाने की कहानी कहता है.  मृत्यु को मात देने के बाद ज़िंदगी को लेकर ऐसी आत्महंता उत्सवधर्मिता कहीं और शायद ही देखने को मिले! 
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  1. अच्छा विश्‍लेषण। बारीक। लेकिन स्वस्थ आदमी के बीमार विचार का जोड़ ज़रा खीचातानी लगता हे। उस कहानी का उददरण इस किताब मे झलकता नहीं।

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  2. राजेंद्रजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य् पर यह लेख बेहद रोचक है लेखक के विषय में बहुत सी बातें जानी किस तरह उनका जीवन कठिनाइओ से भरा था ठहाकों के पीछे जो उनका नितांत अकेलापन छुपा था बावजूद इसके साहित्य में उनका जो अतुलनीय योगदान है वह सदैव याद किया जायेगा .

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  3. कहानी पढने की उत्कंठा जाग उठी |धन्यवाद राकेश बिहारी जी ,आपने अच्छा विश्लेषण किया |

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