परख : पंचकन्या (मनीषा कुलश्रेष्ठ ) : विवेक मिश्र

सामयिक प्रकाशन, जटवाडा दरियागंज नई दिल्ली -110002
कीमत 395 रुपए




















सतीत्व और मातृत्व से मुक्त-स्त्री की सृजनशीलता : पंचकन्या

विवेक मिश्र


'शिगाफ़' और 'शालभंजिका' जैसे उपन्यासों के बाद मनीषा कुलश्रेष्ठ का नया उपन्यास 'पंचकन्या' कई पुराणों और मिथकों की अन्तर्धव्नियों को अपने में समेटे वर्तमान की  ज़मीन पर भारतीय स्त्री के जीवन, उसकी अस्मिता, उसके स्वप्नों और भविष्य की संभावनाओं को नए सिरे से देखने की कोशिश में लिखा गया एक प्रयोगात्मक उपन्यास है. वर्तमान समय में आधुनिक स्त्री के जीवन की जटिलताओं के धागे बिलगाती इस कथा के पार्श्व में तारा, कुन्ती, अहिल्या, द्रोपदी, मन्दोदरी जैसे मिथकीय चरित्रों की छाया दिखाई देती है और ऐसा अनायास नहीं है बल्कि मनीषा ने सायास इन मिथकीय चरित्रों को बारीकी से देखते हुए 'मॉर्डन फेमेनिज़्म' के सन्दर्भों में बिलकुल नए आयाम जोड़ने की कोशिश की है. इसमें आए पौराणिक तथ्यों और संदर्भों के लिए मनीषा ने प्रदीप भट्टाचार्या के लेखपंचकन्या: स्त्री सारगर्भिता को आधार बनाया है. जिसका अनुवाद उपन्यास में भी दिया गया है.

यह कथा इन पाँच पौराणिक चरित्रों के व्यापक जीवनानुभवों को वर्तमान में उनके समानान्तर चलते आधुनिक चरित्रों के जीवन की घटनाओं के माध्यम से, नए ढ़ग से परिभाषित करती है. यह उनके संघर्षों के पीछे छुपी परिस्थितियों को, उनके पीछे के स्वार्थों और षड़यन्त्रों को उजागर कर वर्तमान को आगाह करती है. यह उन चरित्रों की उस विशेषता को, जिसके कारण बीतते समय के साथ कई संबंधों से गुज़रते हुए भी उनका कौमार्य अक्षुण रहा आया, स्त्री की एक अबूझ रहस्यमय प्राकृतिक शक्ति के रूप में स्थापित करती है. क्या है इन कन्याओं का कौमार्य? क्या है इसका रहस्य? यदि इसे जानने के लिए उपनयास की ही पंक्तियों का सहारा लें तो बात कुछ इस तरह सामने आती है- ‘कन्या पुरुष के अन्दर के स्त्रीत्व को इस्तेमाल कर अपना प्राकृतिक स्वरूप प्राप्त करती है. बर्नार्डशा ने इसे जीवन शक्ति कहा है. वे कहते हैं स्त्रीत्व हर वर्ग से ऊपर है इसलिए यह प्रशंसा पाने के साथ-साथ आरोपित भी होता है. यह स्त्रीत्व केवल जीवन की लालसा से नहीं जाना जाता बल्कि एक रहस्यमय ज्ञान, एक छुपी हुई बुद्धिमत्ता, या फिर कुछ छुपे हुए उद्देश्य जैसा एक उच्चस्तरीय जीवन के नियमों का ज्ञान भी हो सकता है.अर्थात यहाँ द्वन्द्व या टकराव पुरुष से नहीं है बल्कि यह स्त्री की अपनी विकास यात्रा है. इसमें टकराव यदि है तो इस यात्रा में अवरोध पैदा करने वाले, सदियों से चले आ रहे स्त्री विरोधी समय से है जिसे पोषित करने में जाने-अनजाने स्त्रियाँ भी शामिल होती आई हैं. ‘पंचकन्या’ प्रज्ञा, माया या एग्नेस जैसे आधुनिक चरित्रों के माध्यम से यह बताता है कि एक स्त्री कैसे जीवन के खेला में रहते हुए भी अपने को उससे बिलकुल अलग रखने, या सब कुछ देकर भी कुछ बचा ले जाने की कला में माहिर होती है. यह कौमार्य देह से ऊपर उठकर विचारों और अक्षुण रही आई भावनाओं का है जिसमें इन स्त्रियों की अपनी तृप्ती या रिक्तता जीवनभर जस की तस रही आती है.

यह उपन्यास भूत और वर्तमान की घटनाओं तथा भविष्य की संभावनाओं को धर्म, आध्यात्म, कला, विज्ञान आदि के सापेक्ष रखते हुए, उन्हें एक परा स्तर पर ले जाकर अपने स्त्री चरित्रों के माध्यम से पुनरव्याख्यायित करने की कोशिश करता है. ऐसा नहीं है कि पहले ऐसे प्रयास नहीं हुए परन्तु यहाँ खास ये है कि यह जीवन की उदात्तता एवं उसमें अन्तर्निहित जिजीविषा के उल्लास के साथ-साथ मानव मन-मष्तिस्क की अनजानी पर्तों को स्त्री मन की कोमलता के साथ स्पर्श करता है. यहाँ कथाकार स्त्री को एक तयशुदा खाके में रखकर नहीं देखती बल्कि वह लगातार उस खांके को तोड़ने और स्त्री चरित्रों को धर्म, समाज, सत्ता के बनाए नियमों से, इनके द्वारा आरोपित नैतिकताओं से मुक्त करके, स्त्री-पुरुष संबंधों और मानवीय संवेदनाओं को नए दृष्टिकोण से देखने, परिभाषित करने की कोशिश करती हैं. यह उपन्यास पश्चिमी दुनिया के स्त्री विमर्श से, या कहें कि फेमिनिज़्म से अलग स्त्री विमर्श का अपना एक भारतीय दर्शन विकिसित करने की कोशिश करता भी दिखाई देता है. इसकी कथा बीती सदी से होती हुई वर्तमान तक आती है जिससे हम देख पाते हैं कि सदी में जिस तरह से शिक्षा, तकनीक़ और बाज़ार का हमारे चारों तरफ़ विस्तार हुआ है, उसमें हर वो बात जो पहले से यहा मौज़ूद थी उसका रूप वैसा नहीं रहा जैसा पहले था. या कहें की जीवन से जुड़ी हर चीज़ का स्वरूप बदला है इसलिए आज फेमिनिज़्म भी हमारे सामने एक अलग रूप में ही उपस्थित होता है जिसमें कहीं न कहीं नारी मुक्ती से ज्यादा परस्पर स्पर्धात्मक और पुरुष विरोधी भाव अधिक ध्वनित हुआ है. उपन्यास की भूमिका में मनीषा ने ख़ुद भी यह स्वीकार किया है कि वह फेमिनिज़्म की जगह एलिस वॉकर का दिया शब्द 'वुमेनिज़्म' अपने मन के ज्यादा करीब पाती हैं क्योंकि इसमें स्त्रियोचित मुलायमियत है. लेखिका की यह बात इस उपन्यास को स्त्री विमर्श के तयशुदा मानदण्डों पर रखकर देखने के बजाय इसे स्त्री जीवन पर लिखे गए एक प्रयोगात्मक गद्य के रूप में देखे जाने का आग्रह भी प्रतीत होती है.

पंचकन्याके मूलाधार पाँच पौराणिक चरित्रों को यदि हम युग-काल खण्ड के परिपेक्ष में देखें तो हम एक और बात देख पाते हैं कि इन कथाओं में स्त्री चरित्रों के क्रमिक विकास की कथा भी उजागर होती है. सबसे पहले अहिल्या की बात करते हैं जो अपनी सीमाएं लांघकर अपनी इच्छाओं में मुखर होती है और अन्त में एक विदुषी के रूप में, एक ज्ञानी और एक ॠषि के रूप में सामने आती है. उसके बाद तारा है जो बाली की पत्नी है और उसे समय-समय पर राजनैतिक सलाह भी देती है पर बाली अपने अहंकार के कारण पराजित होता है जिसपर तारा सुग्रीव को पति के रूप में स्वीकार कर लेती है. क्योंकि वह अपनी, अपने परिजनों और पुत्रों की सुरक्षा चाहती है. आगे वह कठिन समय में राजनैतिक हस्तक्षेप करती है और सुग्रीव और उसके राज्य को लक्षमण के क्रोध से बचाती है. उसके बाद मन्दोदरी है जो एक रानी होते हुए भी अपने वैवाहिक जीवन में बराबर के हक़ के लिए लड़ती है वह परिवार के भीतर ही पुरुष के अहंकार से लगातार टकराती है. वहीं कुन्ती तक आते-आते ज्ञान अर्जन, राजनैतिक समझ, परिवार में अपना स्थान जैसे बिन्दुओं पर विजयी हो स्त्री इनसे आगे बढ़कर अपने इच्छानुरुप व्यक्तित्व का आहवान कर न केवल पुत्र प्राप्त करती है बल्कि अपने परिवार के अधिकार की लड़ाई के लिए राजनीति में सक्रिय भागीदारी भी करती है और एक प्रशासक की भूमिका में सामने आती है जो अपने पुत्रों की सहायता से समय की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं को संचालित और नियंत्रित करती है. और सबके अन्त में है द्रोपदी जो इन सारे गुणों से लैस तो है पर समय समाज के विरोधाभासों और विद्रुपताओं का शिकार होने पर, अपमानित होने पर, अपने प्रतिशोध के स्वर को मुखर होने देती है और वह स्वर एक महायुद्ध का एक महत्वपूर्ण कारण बनता है. पौराणिक टीकाओं में इन पाँच चरित्रों में अहिल्या को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि उस चरित्र में जीवन का एक सहज संतुलन है और वह पुरुष द्वारा आरोपित नहीं है बल्कि वह अपने ज्ञान और संघर्ष से चरित्र द्वारा स्वयं अर्जित किया गया है. परन्तुपंचकन्याकी इस पौराणिक अवधारणा में यह चरित्र इतने अद्वितीय, इतने आलौकिक और ऐसी पराबौद्धिक क्षमताओं से लैस हैं कि इनके जीवन की घटनाओं को बिलकुल लिटेरल सेन्स में अर्थात जस का तस किसी सिद्धान्त रूप में नहीं देखा जा सकता. परन्तु हाँ भारतीय वाङ्मय में इनकी सहायता से स्त्री मन के, उसके जीवन के कुछ एक जटिल पहलुओं को समझा जा सकता है.

इसलिए हम कह सकते हैं कि ‘पंचकन्या’ किसी सिद्धान्त के प्रतिपादन से बचते हुए, हमें स्त्री मन और जीवन के उन अनछुए कोनो में ले जाता है जहाँ स्त्री एक नए रूप में कायान्तरित हो रही होती है. जहाँ पुराने सांचे टूट रहे होते हैं और उसका एक नया रूप सामने आता है जो केवल किसी पुरुष के लिए ही नहीं बल्कि उसके अपने लिए भी विस्मयकारी होता है. ऐसे में वह स्वयं से मिलती है और अपने से ही प्रेम करती है, आनंदित होती है. अपने भीतर दबे-छुपे जीवनांकुरों को फूटने देती है. वह उनके रंग और सुगंध को अपने चारों ओर बिखरा कर अपना एक अलग ही रहस्यलोक रचती है जिसमें पुरुष हो तो सकता है पर उसकी उपस्थिति न आवश्यक है, न आधिकारिक. वह स्त्री की अपनी दुनिया है जिसमें पुरुष आनंद, प्रेम और सहयोग के लिए प्रवेश तो कर सकता है पर उसके हस्तक्षेप और वर्चस्व स्थापना के लिए कोई जगह नहीं है. यह कलाओं के उदगम स्थल से उनके चरम शास्त्रीय रूप तक की यात्रा को बारीकी से देखते हुए मनुष्य के मात्र मनुष्य बने रहने के उद्देश्य को रेखान्कित करती है. यह नारी जीवन के सृजनात्मक कला रूप की व्याख्या करते हुए बताती है कि यह आवश्यक रूप से मातृत्व नहीं है, न ही इसकी व्याख्या सतीत्व, शील, नैतिकता या संबंधों की एक निष्ठता से ही की जा सकती है, यह जीवन प्रवाह में हर क्षण पूरी स्वतन्त्रता से स्त्री मन में विस्तार प्राप्त करती है. स्त्री अपने भीतर सतत सृजनरत रहती है. यह सृजन किसी भी अनाधिकृत हस्तक्षेप से बाधित होता है इसलिए स्त्री चाहती है कि पुरूष भी समाज द्वारा आरोपित नैतिकताओं से, देह की सीमाओं से मुक्त हो उस्के उसके सृजन उत्सव को देखे और उसकी इस सृजनशीलता में भागीदार बने.


अन्त में निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि मनीषा कुलश्रेष्ठ का यह उपन्यास ‘पंचकन्या’- अतीत और वर्तमान, कल्पना और यथार्थ, रहस्य और विज्ञान, आस्था और तर्क तथा इतिहास और मिथकों के परस्पर विरोधाभाषी बिन्दुओं के बीच से गुज़रते हुए स्त्री चरित्रों की समर्पण और अधिकार, नैतिक और अनैतिक, बंधन और मुक्ति, प्रेम और निष्ठा, आशक्ति और विरक्ति, अवसाद और उत्साह, द्वन्द्व और निश्चय, त्याग और उपल्ब्धियों के बीच सामंजस्य स्थापित करती, अपने जीवन को समझने और उसे नए अर्थ देने की कथा है.
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विवेक मिश्र

दो कहानी संग्रह-हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ एवं पार उतरना धीरे सेप्रकाशित तीसरा कहानी संग्रह- ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?शीध्र प्रकाश्य.
साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन. 'light through a labyrinth' शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित 
संपर्क- 123-सी, पाकेट-सी, मयूर विहार फेज़-2,/दिल्ली-91
मो;-9810853128/vivek_space@yahoo.com

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  1. अच्छा उपन्यास. शिल्प, कथा, विचार - सभी की सम्यक युति. पर्याप्त शोध की पृष्ठभूमि के साथ. सपनों की पढ़त और ज़रूरी ब्यौरों पर नज़र. जब-तब फूट पड़ती कविता. सम्पन्न कर देने वाला एक पाठकीय अनुभव. बहुत बधाई मनीषा जी, विवेक जी और आपको.

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  2. बढ़िया समीक्षा . इस पर समृद्ध चर्चा बुक फेयर में सुनी थी. आशुतोष जी से सहमत .
    सांचों को तोड़ता है उपन्यास . बधाई मनीषा जी और विवेक जी को .

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  3. बहुत ही सार्थक व उपन्यास के सभी पहलूओ पर विचार करती समीक्षा। विवेक जी को बधाई
    उपन्यास पढ़ ने को लिालयित करती समीक्षा
    मनीषा जैन

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  4. उपन्यास पढ़ ने को लिालयित करती समीक्षा

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