कथा - गाथा : लडकियाँ मछलियाँ नही होतीं (प्रज्ञा पाण्डेय)
























(जुर्रत से साभार)


कहानी  
लड़कियाँ मछलियाँ नहीं होतीं                   
प्रज्ञा पाण्डेय


उसने  एक  पुरानी डायरी में  वक़्त की  किसी  तारीख से   हारकर ऐसा लिखा था. नज़र पड़ी २५  सितम्बर १९७८. 
       
"औरत को  ज़िंदगी से कोई पुल कभी  नहीं मिलाता क्योंकि  पुल तो इस पार से उस पार तक जाता है. अपने लिए  पुल गढ़ती स्त्री इतना समर्थ पुल तो बना ही नहीं पाती कि ज़िन्दगी से  सही-सही  मुलाक़ात कर ले और  उसके लिए कोई पुल  तो  बनाता नहीं.  वह तो पानी के   नीचे  ही सांस लेती है.  देह जो उसकी बाड़ न होती तो क्या ज़िन्दगी मिल जाती.   अपनी  सारी शक्ति लगाकर वह  मन बहलावन मृग मरीचिका को खोजती है और  ज़िंदगी उसके  इंतज़ार में बैठी कहीं ऊंघती जाती है.  नदी की अविरल  धार में टूटे पत्तों की तरह तैरने  से बेहतर है  कोई सहारा  या  कोई जाल ही सही.  जाल का  रेशम स्त्री को लुभा ले जाता है. पानी की  मछली का   जाल से छूटने  की  कोशिश ही ज़िन्दगी बन जाता है. अपनी देह के साथ  वह  इस तरह घूमती है जैसे  धुरी पर पृथ्वी. वह  जानती है कि  धुरी से हटेगी तो  सदा सर्वदा के लिए नष्ट हो  जाएगी. "

वह सोचती है- वह  हवाधूप, पानी  होती तो  कोई जाल क्या कर लेता उसका  !  तुहिना की कही बात ने आज नए सिरे से उसे दूसरी स्त्री बना दिया. उसने खुद को   खोजते हुए अपनी  सत्ता की   तलाश  अपने भीतर  की थी कभी  और  आकर  देह की बाड़ में  फँस गयी थी. छूट  गए किनारे की  स्मृति में मस्तूलों के सहारे  छटपटाती हुई उचक -उचक कर दूसरे किनारे को अनथक चाहते रहने की  उसकी अटूट चाह को किनारा नहीं मिला.  उसने  बालों को झटका तो लगा कि  पानी की बूँदें  कुछ  दूर तक छिटक गयीं. एक बूँद कुछ देर ठहर कर खो गयीयह  वह खुद  हुआ करती थी लेकिन आज अचानक  उसने खुद को उस अस्तित्वहीन खूबसूरत बूँद से बाहर पाया. पहले क्या   उसे  शिकारगाहों की हकीकत मालूम नहीं थी !

उसकी चौबीस   साल की  जहीन जवान बेटी तुहिना ने भी  सुबह सुबह वही कहा -     " सेक्योरिटी" जिसके मायने वह खुद से पूछती रही, तो क्या  तुहिना  भी उसकी तरह सोचती रही.  लेकिन नहीं ! फर्क है. आज  तुहिना  के पास स्त्री-देह बिलकुल नए सन्दर्भों में मिली.   
       
बातें  वही  है लेकिन  वर्षों के बाद कितनी बदल गईं हैं. यात्राओं  में और  अंधेरी खोहों में चलते हुए भी चीजों के समूचे  सन्दर्भ बदलते जाते हैं. " देह  भूल भुलय्या है ". तुहिना  ने उसकी इस सोच पर  बज्रपात करके समूल इसे नष्ट कर दिया है. क्या कहे!    वज्रपात ! या कि पृथ्वी अपनी धुरी  से हट गयी है या कि तुहिना  धूप, हवा, पानी हो गयी है.  जिसपर जाल के रेशम का कोई असर नहीं होता.
तुहिना की संगीतमय आवाज़ उसके पूरे अस्तित्व पर अपने  पवित्र होने का  उद्देश्य लिए गूँज रही  हैं, लेकिन पवित्र होने के पैमाने कितने बदल गए. वे छलक रहे हैं  और अब वहां कोई तलछट भी  नहीं. पहले वह जहाँ   छुपी हुई रहा करती थी न ही वह तलघर रहा. छुपने की अब कोई जगह नहीं रही और न कोई बहाना ही. अब तो  सब कुछ साफ़ साफ़ कहना और सुनना पड़ेगा.

पच्चीस साल पहले  वह भी सेक्युरिटी ढूंढ रही थी  तब वह   कौन सी परिधि थी जो उसे दाड़िम के  फल सा रक्तिम कर देती थी लेकिन भय से नीली भी तो कितनी  ही बार हुई है. देह से हुईं  विरक्तियाँ इतनी बढीं कि सांसों  के  दायरे जीने भर के लिए ही बचे. आग से लिपटे हुए लोहे के छल्लों से निकलना वह तो  सोच भी  न सकी.  वह आज भी वहीँ थी उसे तो कुछ नहीं मालूम. वह बाड़ से आगे  दो कदम भी नहीं चली.

उसे लगा समय की एक खेप जा चुकी है.  यह तो आज तय ही हो गया. फुटकर  लेने के लिए उसने तुहिना  का पर्स खोला था और बदहवास  हो गयी थी. सुबूत  उसके सामने खुद ही क्यों आ  जाते हैं भला ! एक पल के लिए ही सहीसोच गयी  वह. सुबह-सुबह कुछ अस्थिर  हो वह टैक्सी में आकर बैठ गयी थी.

तुहिना के तर्कों के सामने अस्थिर होने की कोई वजह उसके पास बची तो नहीं  थी मगर  यह भी कैसे  कहे  कि वह सहज  थी. अब तक  तुहिना के चारों ओर रेखाएं खींचती  वह  कितनी बेवकूफ रही. परत दर परत  सचों को उघाड़ने का काम वह अपनी यात्राओ में  पहले भी करती रही है लेकिन नतीजा घोषित करने का कभी उसका कोई अधिकार नहीं रहा तो मन भी न हुआ या  वह उसका होंठों को सिलते जाने वाला मौन था. ऐसा  मौन कभी  चुप नहीं होता नहीं तो  वक़्त आने पर मौन की भाषा इतना शोर न करती.  

टैक्सी स्टेशन की ओर भाग रही थी.  घरों की दीवारों से फूटती खिडकियों पर बैठी रोशनी सुबह के उजालो में खोने लगी थी. उसे लगा कि महानगरों में लोग  जल्दी जाग जाते हैं और कमरों में बल्ब जला ज़िंदगी को जीने के लिए उसी से सुलगाने लगते हैं. उनकी सुबह उसके कस्बायी शहर की सुबह की चाय सी नहीं होती. 

टैक्सी के शीशे  खुले थे. भोर की ताज़ी हवा का मुकाबला आजकल के एसी से तो  नहीं  हो सकता है, वह तो फैशन है .वह अनायास मुस्करायी.   हवा  के झोंके बार बार अंदर  आते रहे  लेकिन वह अपने भीतर बहुत सा तूफ़ान लिए ठहर गयी थी. वह टैक्सी की रफ़्तार के साथ नहीं उससे भी आगे थी. उसे बार-बार याद करना पड़ रहा था कि  उसे समय से स्टेशन पर होना है. 

वह सोचने लगी - स्वीकृति में कैसा संकोच लेकिन अब तक उसके संकोचों  ने  ही तो उसके रास्ते तय किये थे ! और उसके  जोखिम?   जोखिम वह उठाती नहीं कि उसे जोखिम उठाना पसंद नही. लेकिन क्यों ! जोखिमों  से फिर भी उसका साबका पडा तो था. उसे सुबह की खाली कांपती सड़क सा  सब  कुछ याद आया. लेकिन वह सब कुछ भूल-भाल गयी है . क्या सचमुच  ! यादों की नदी से  भूलने की जलती रेत तक आने  की दुश्वारियां याद कर क्या मिलना है उसे. कुल मिलाकर आज वह हतप्रभ है.

क्या वह तुहिना  की ज़िंदगी से खुद को बेदखल कर रही है या इसलिए कि  वह बेबस है  या कि असहमतियों में सहमत हो जाने को उसने आदत का रूप दे दिया  है. या तुहिना ने  बिना बीज की भ्रमित सी जहाँ- तहाँ उग जाने वाली हरी  घास को उखाड़ कर वहां बहुत सा सच रोप  दिया है.जिसमें हरापन तो नहीं मगर उसे अपना अक्स दीखता है.

ट्रेन में बैठी तो ट्रेन की  खिड़की से  बेशुमार हरियायी  घास पर बिखरे तरह तरह के घर, मंदिर , कंगूरों वाली मस्जिद ,फूस और खपरैल की छतों वाले घर ,आठ दस मिटटी के घरों का जमावड़ा लिए बस्तियां , तरह तरह के छरहरे तो छतनार पेड़, भीगते, भागते हुए बच्चे, घास काटती, आँचल संभालतीं औरतें सब आँखों के बीच से निकलते गए  और  उनके बीच में  सुबह की बात और नींद के लिहाफ  में  पड़े  तुहिना के  तुतलाते शब्द उसको आश्वस्त तो करते ही गए थे नहीं तो अपनी जड़ों को पहचानकर भी  वह खुद को  संभाल नहीं  पाती.

अधिक दिन नहीं बीते अभी बस एकाध महीने  पहले उसका शशांक  से बहुत  झगड़ा हुआ था. शशांक उसके पति का छोटा भाई और तुहिना का चाचा. तुहिना उसी की सोसायटी में रहती है जहाँ शशांक. उसे याद है, झगड़े से पल भर पहले बहुत सुख का समय था जब उसने ड्राइवर से कहा  कि गाड़ी को ज़रा खुली सड़क पर ले चले. वह बुरुंश के फूलो को गौर से देख रही है. सडक पर जलती रोशनियों के हलके उजालों में डाल पर लाल-लाल  हिलते हुए वे शर्मा रहे थे. उस दिन  मुक्त समय उसके भीतर बह रहा था और वह पहली बार महसूस कर रही थी कि  समय हरदम भारी नहीं होता. उसने आकाश में देखा  चाँद आधा है और  उसकी सेना उसके आगे पीछे बिछी आसमान में उत्सव मना रही है. वह सितारों से खेलती हुई सोचने लगी आज की दिनचर्या का कोई काम छूटा  नहीं  हैं.
वह अक्टूबर की  कोई सुबह थी. आँख  चार बजे खुली थी और वह सुबह की सैर भी कर आयी थी. सुखी होने का कोई  विशेष कारण तो  नहीं था.  देह हल्की  और खूबसूरत थी. कभी कभी उम्र भी कपूर सी उड़ जाती है. वह अकेले ही हंस पड़ी. मन ऐसे महक रहा है जैसे कि  प्रेम में है. बरसों पहले उसे सुधीर के साथ  चांदनी रातों के  निविड़ सन्नाटों  में पेड़ों के नीचे टहलना याद आ गया. उसे अपने आँचल में बेला के सफ़ेद फूलों को  समेटना याद आ गया. वह कार की खिड़की से  सिर उठाकर फिर सितारों को देखने लगी.

उसे याद आया बचपन में वह सेमल के फूटते हुए फूलों को तोड़कर हवा में उड़ा खूब नाचने लगती थी. माँ  की मृत्यु के बाद सुखी होना उसे कभी ठीक नहीं लगा.  अपनी ही नज़र लग जाती है. एक बार टोक दे तो  सब ठीक रहता है. उसने ऐसे ख्याल के बीच में रोड़ा अटकाया. ऐसा भी क्या किस बात का इतना डर . संघर्ष  हथकड़ियों की तरह तो होते हैं  पर  संभलकर चलना सिखा देते हैं. वह छोटी सी बच्ची ही तो थी जब माँ ने दामन समेट  लिया था.उसने फिर विराम लगाया. कहाँ आ गयी. वह कभी किनारों तक क्यों नहीं पहुंचती !उसके सुख ऊपर वाले ने हरदम  खारिज कर दिए . चाहे कितना  भी नेक हो वह, उसके लिए तो कभी नहीं हुआ. तभी तुहिना के ख्याल ने आसमान में टंगे उस आधे चांद  को पूरा कर दिया था.वह तुहिना  को याद करने लगी.

मोबाइल घनघना उठा. शशांक ने फ़ोन किया है. वह मुस्करायी. अक्सर करता है. वह खूब इत्मीनान में, चांदनी की महक में डूबी हुई थी. बोली-
" हाँ. बोलो बाबू . कैसे हो. वह दुलार में शशांक को बाबू कहती है .
" भाभी ,कुछ कहना है तुम से".
"क्या कहना है, बोलो".वह गंभीर पर उतावला लगा.   .
वह बिलकुल घबराई नहीं थी. घबरा जाना उसका स्वभाव  भी नहीं है.
"क्या है बोलो तो " "तुहिना  ठीक रास्ते पर  नहीं है. वह गलत रास्ते पर है. बहुत गलत रास्ते पर".
तुहिना उसकी बेटी है. वह चीख पड़ी -" क्या ?क्या किया है उसने ?क्या हुआ ?बोलो."
उधर से  गड़गड़ाहट  का घटाटोप लिए शशांक का क्रोध और उसकी आवाज़ सब कुछ तहस-नहस कर रही है. उसके नवजात सुख के चीथड़े  उड़ रहे हैं.
"लेकिन किया क्या उसने यह तो बताओ". वह गिड़ागिडाने लगी है .
शशांक की आवाज़ फिर बादलों सी गर्जना लिए हुए है-"मैं तुम को कुछ भी नहीं बता सकता."
वह झल्ला उठी है " अरे, फिर  कुछ न बताते. यही  क्यों बताया कि  तुहीना बहुत गलत रास्ते पर है और अगर इतना बता ही दिया है तो पूरी बात  बताओ मुझे. मैं उसकी माँ हूँ. इतनी दूर हूँ.   कैसे जिऊँगी" वह कातर हो रही है.उसने शशांक से प्रार्थना की हैं.

"किया क्या है उसने ". उधर से शशांक  का फ़ोन  कट गया है. टौं टौं की  आवाज़ ने उसे इरिटेट कर दिया है. बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो उठी है वह. तुहिना हैदराबाद में अकेली  रहती है. उसी सोसाईटी  में देवर भी रहता है. लेकिन तुहीना ने एक छोटा  फ़्लैट  अलग ले रखा है . प्रतिष्ठित कम्पनी में काम  करती है और अविवाहित है. उसकी आँखों के सामने काँटों में लिपटा  उसकी जवान खूबसूरत बेटी का चेहरा आकर बैठ गया है और शशांक की बातें कान के पर्दे  छेद  रहीं हैं .

उस दिन देखा था एसी पर कबूतर ने बच्चा दिया है. बिना पंखों वाले  सिकुडे हुए  बच्चे को वह अपनी आँखों में पूरा  एहतियात भर के देखने लगी  लेकिन  उसके साए को  देखते ही कबूतरी   उड़ गयी. उसको बिलकुल अच्छा नहीं लगा. कैसी माँ है ये. बिना पंख के बच्चे को छोड़ कैसे उड़ गयी. अभी उस बच्चे के पंख तो कबूतरी  ही है. अगर वह उससे  डर कर उड़ गयी  तो  बच्चे को किसके भरोसे छोड़ गयी. उसे बहुत दया आई. दूर  एक पीले-पीले घर की तीसरी मंजिल के  मुंडेर पर बैठी कबूतरी को वह हिकारत से देखती रही.  वर्षों से मन में बसा कबूतरी की गोल गोल  आँखों का सौन्दर्य  ध्वस्त हो  गया. स्वार्थी है ये. वह दूर से ही उस नन्हें को  निहारने लगी  .

ठाकुरों की बेटियां इतनी स्वतंत्र कब हुईं हैं कि  किसी से मन की बात कहकर उस को मनमीत बना लें. उसके मन में अपना बीता हुआ समय कौंध गया है. वह दुबारा फ़ोन करती है -"शशांकमैं  एक हज़ार किलोमीटर दूर हूँ  और तुम पूरी बात भी नहीं बता रहे हो मुझे" इस बार वह गुस्से में है. चिल्लाने से उसकी आवाज़ फट रही है. वह इस  कदर बदहवास  है जैसे  किसी ऊँची दीवार से किसी ने उसे संभलने का मौका दिए बिना नीचे धकेल दिया है. चौबीस  साल की जवान बेटी  को हैदराबाद जैसे आधुनिक शहर में  उसने अकेला  छोड़ा.  शशांक  को ही उसकी जिम्मेवारी सौंपी. वह अच्छी तरह जानती है कि  सुखी रहना उसका नसीब ही नहीं है. शशांक को तीसरी बार फिर फोंन  लगाया उसने -"तुम तुहिना के बारे में क्या कह रहे हो ".  इस बार वह देवर को फुसला कर बात कर रही है.

 "मैने  कह दिया न भाभी. . मैं कुछ भी न कहूँगा." .  .
"तो मैं क्या करूं ?"

संस्कारों की सलीब पर लेटी  हुई  वह फिर  चीखती है. उसे वह सब कुछ अपनी बेटी में बचाना है  जिसे  खुद को मार कर उसने अपने भीतर जिंदा रखा है. अब तक उन्हें ढोती हुई उसने अपनी हर चाहत पर  चादर डाल दी है. कितना रोपा है उसने खुद को तुहिना में. यह जानते हुए भी  कि वह नया फूल है उसके रंग कुछ अलग तो होंगे ही लेकिन वह बेटी को पेड़ की तहजीब सिखाना चाहती है उसे एक हरे-भरे वृक्ष में बदलना चाहती है ! तुम  दुनिया को छाया दो और जल कर आंच  दो,  सबको सुख दो,  तुम्हारी खुशबू सबके पास पहुंचे लेकिन तुम्हें कोई छूने न पाए तुम अपनी देह को बचाओ ! कल तुम्हारी शादी हो जाएगी, तुम्हें अपने घर बेदाग़ जाना है. तुम  मेरी अमानत हो तुम्हें किसी और को सौंप देना है मुझे. मेरी बेटी,तुम समझती हो न." दुहाइयां  देती हुई वह रो पड़ी है.
वह  हार कर परास्त सी हो उठी . उसे तुहिना का बच्चों सा भोला चेहरा याद आता है. खुलती गाँठ सी उसकी हँसी. जाने कौन सा पुख्ता भरोसा है उसके भीतर कि  तुहिना के   खिलाफ लाख सुबूत हो , बेटी को उसका मन कभी गलत नहीं कहता. वह किन्हीं आदिम हथियारों के साथ खडी हो जाती है बेटी के भीतर.  तुहिना गलत है ? क्या किया है उस ने. वह क्या जाने. वह सारी  दुनिया से नाराज़ है लेकिन तुहिना से नहीं. यह सिर्फ उसका मर्म जानता है फिर भी एक सवाल उसके सामने खड़ा है कि अपनी पस्त-हिम्मत  लेकर  वह आखिर कहाँ जाए.

उसने तुहिना को फ़ोन लगा दिया. वह जानती है कि  उसके संस्कार खोखले हैं किन  उन्हीं खोखले संस्कारों की ढूह पर ही तो खड़ी  है आखिर.  नहीं तो इस समाज में उसकी क्या दो टके  की भी इज्ज़त करता कोई. वह जानती है  कि वह दुहरा जीवन जीती है. अपने अभिजात्य मुखौटे की सलामती के लिए  वह बेटी को जाने कितनी बार सूली पर लटकाकर नीचे उतार चुकी है. वह अपनी कायरता को हथियार की तरह इस्तेमाल करने लगती है. वह बेटी का हालचाल भी नहीं पूछती "क्या करती हो तुम, क्यों मेरी नाक कटाने पर तुली हो ". "क्या हुआ माँ".

 "शशांक  तुम्हारे बारे में क्या कह रहे हैं  ?क्या करती हो ?तुम किसी लडके के साथ घूम रही थी ?आखिर क्या कर रही थी ?यही सब करने के लिए  तुम्हें खुद से इतनी  दूर उस अनजान जंगल में छोड़ा है मैंने ?
उधर से तुहिना की आती हुई आवाज़ धीमी  है.  वह ओफिस  में है.
"इतना सब सुनने पर भी तुम्हें क्या  गुस्सा नहीं आता ? इसका मतलब कहीं न कहीं तुम ही दोषी  हो " .उसे सब मालूम है वह खूब जानती  है कि  बेटी स्वभाव से बहुत  मुलायम है.  ठीक उसकी तरह  लेकिन अक्सर  उसके  खोखले संस्कार उसकी बेटी के सुखों से बढ़कर हो जाते हैं . असुरक्षा का भय उसके पूरे वजूद को मसलने लगता है.
"तुम क्या कह रही हो माँ , गुस्सा नहीं आता  मुझे "?

तुहिना चिल्ला पड़ी थी. बेटी की चीख से वह घबरा गयी . वह उसका आक्रोश था एक दबा हुआ अव्यक्त क्रोध. और एक तूफ़ान जैसे गुज़र गया हो इस तरह अपने  को  दबाकर बैठ गयी है. क्या वह ज़िंदा है ?उसे याद आया वह और तुहिना दोनों फ़ोन पर रोने लगी थीं. तब जाकर चैन हुआ था उसे. कितनी  पाक है उसकी रुलाई. जिगर के टुकडे हो गए  लेकिन मन को चैन मिल गया . वह तो गंगा  नहाएगी जब   तुहिना की शादी किसी  सजातीय परिवार में धूम-धाम से हो जाएजब  तुहिना सुरक्षित बची रहे. उसे मालूम है कि वह ज़ुल्म करती है. अपनी इज्ज़त के लिए उसने तुहिना को ममता की मीठास के नीचे तिल -तिल छला  है. तभी वह अँधेरे में शीशा नहीं देखती उसके चेहरे पर सच की डरावनी परछाईयाँ बिछी रहतीं हैं. वह भयाक्रांत है.

तुहिना उसकी  बच्ची ने उससे कहा था  कि  वह कभी उसे उसका सिर झुकने नहीं देगी. उसके नाम को सुनाम रखने में  कोई कसर नहीं रहने देगी. हैदराबाद  के  लिए ट्रेन पकड़ने के ठीक एक दिन पहले की उतरती शाम तुहिना ने छत पर यही तो  कहा था उससे. शब्द कुछ और थे मगर उनका मंतव्य यही था.

" इज्ज़तदार घरों की सारी  लड़कियाँ ऐसा ही करतीं हैं तुहिना, लड़कियां कुर्बान होती हैं." उसने बहुत गर्व से कहा था. उस दिन तुहिना  बड़ी लगी,अपनी कोमल उम्र  के पार की सरहदों को छूती  हुई, कुछ हांफती हुई.  उसे सारी रात नींद नहीं आयी थी.  तब उसने सोचा कि शायद बेटी का जाना उसे असह्य हो रहा है.

वह उहापोह में है. बिना आग के धुआं नहीं होता. कुछ बात तो ज़रूर होगी. मगर किसी के भी कुछ कह देने भर पर वह क्या तुहिना के साथ ऐसी  निर्दय होकर व्यवहार करेगी. सिर्फ बेटी के लिए उसे  किसने इतना निर्मम बनाया . क्या वह तुहिना  की माँ नहीं है. बेटे से तो कभी पूछा भी नहीं है उसने कि  रात इतनी देर घर  क्यों लौटते हो.   क्या इसलिए कि  तुहीना को बेदाग़  किसी और के  घर में रोप देना है उसे.  बेदाग़ होने से क्या मतलब है उसका कि  उसे कोई अच्छा भी न लगे. वह किसी से प्रेम जो कर ले तो दाग लग जाए उसे. लेकिन प्रेम क्या मन तक ही रह जाता है. आगे और सोचने का साहस न कर सकी. कैसी है देह की बाड़.

सुबह वह तुहिना पर चिल्लायी थी. एक घंटे बाद ही फ़ोन पर खूब पुचकारा था उसे.  वह डर गयी थी .आज कल आत्महत्या की घटनाये रोज़ किस तरह घटतीं हैं. सुबह के अखबारों में काले अक्षर लाल   रंगे होते हैं.  माथे पर पसीना चुहचुहा गया था . उसे तुहिना की कलाई की नस कटी हुई दिखाई दे रही है. खून बस खून. उसे अक्सर रातों में दरांती पहटने की आवाजें  सुनायी देतीं हैं.  वह बेटी से फिर बात करती है और कहती है " बेटी मैं तुमपर इस दुनिया में सबसे अधिक भरोसा करती हूँ.  तुहिना उधर से कुछ नहीं कहती है. दोनों एक ही नदी की दो धाराएँ हैं. वह तुहिना की अपराधिनी है. वह इस  जुल्म में दुनिया  के साथ क्यों  शरीक होती है. बेटी के सामने शर्म से गड़ भी जायेगी तो  भी इस  बिना सांस की  दुनिया को फर्क नहीं पडेगा . यह तो बेटियों को मारने के लिए बनी है हुए भी वह शिकारगाहों को बचाती रही है .

वह हर एक घंटे पर तुहिना को फ़ोन करती है. " किसने कहा तुमसे मेरे बारे में और क्या कहा कि  मैं किसी लडके के साथ घूम रही थी ? तो मैं घूम रही थी. क्या कर लोगे  तुमलोग  ?"
"बेटी " वह निरुपाय  है -"क्या बताया है चाचा ने . बोलो.
"मुझे कुछ बताया ही नहीं.  वे कह रहे थे कि वे  कुछ नहीं बताएंगे.  तुम  ही आकर पूछो  उससे "? वह निरीह होकर कह  रहीं है. तुमने कुछ गलत तो नहीं किया है  तुहिना"
" जब से मुझे याद है तब से आज तक तुम लोग यही सब तो पूछते रहे"
"बेटी ,मेरी बेटीक्या बोल रही है. दुनिया तुझे कुछ भी कहेगी मैं तुझ  पर भरोसा करती हूँ  तू तो 
मेरा साया है और मेरी छाया भी है "   तहिना गुस्से में है  "तुम सुन लो . चाचा से अब बात नहीं करनी है मुझे . मुझे मालूम है ये सब चाची का खेल है. वह मुझे बर्दाश्त नहीं करती है. मुझे सब पता है .मेरी स्वतंत्रता उसे बर्दाश्त नहीं होता. मैं क्या करूं ,अपनी बेटी को मेरे जैसा क्यों नहीं रच देतीं ."
उसे अपनी बेटी पर ऐतबार है . वह इतनी दूर से बेटी को इस तरह दुलारती  रही जैसे अब भी वह एकदम बच्ची है. इस ज़ालिम दुनिया के आरोप पत्र  तो बेटी के नाम रोज़ लिखे जाते हैं. वह तुहिना को समझाती है. उसे बचकर रहना है . कोई अंगुली न उठा दे.

अब तो उसे हैदराबाद जाना भी है तुहिना से मिले दो महीने हो गए हैं.  उसने तुहिना  को अपने आने की तारीख  दी. शशांक से पूछना है उसे कि आखिर क्या बात थी जिसके लिए उसने फ़ोन किया और तब से अब तक उसके पलों को युगों सा  कर दिया . वह हैदराबाद पहुँच गयी है. सुबह के आठ बजे तक वह तुहिना के फ्लैट में आ गयी है. तुहिना से उसे कुछ पूछना बाकी न रहा है. रोज़ फ़ोन पर बातें हुईं हैं . कब उठी कब ऑफिस और कब घर वापस सब कुछ पूछती, उसने तुहिना को अकेला नहीं  रहने दिया .

दिन काटना  मुश्किल हो गया . शशांक ऑफ़िस के लिए निकल चुका था . आते ही शाशांक को फ़ोन कर उसने कहा है कि  उसे उससे  बात करनी है और ऑफिस लौटते हुए वह उसके पास आ जाये.  शशांक ने शाम को मिलने का वायदा किया . घर में तुहिना  है, वह उसके सामने शशांक से कुछ नहीं पूछेगी .

जुबली हिल्स के पास लम्बी सूनी सड़क पर चलते हुए उसने  इतना सन्नाटा महसूस किया जैसे उस शहर में बस वह और शशांक ही हैं.  कतार से बने बहुमंजिला इमारतों के पीछे से जाती हुई स्ट्रीट लैम्प्स से जगमगाती रोशनी अँधेरे को और बढ़ा रहीं है. बस इक्का दुक्का कारें हैं. .थोड़ी दूर साथ चलते हुए वे दोनों ही चुप हैं. शशांक को मालूम है कि  वह उसे यहाँ क्यों लायी है उसे अपनी बेटी पर उस दिन के लगाए हुए  इल्जामात के बारे में शशांक से साफ़ साफ़ पूछना है. वह इतनी अधीर पहले कभी न हुई.

" शशांक. क्या बात थी उस दिन.  क्या देखा था  तुमनें ? मेरी बेटी कहाँ गलत मिली तुम्हें".कहते हुए गाय की तरह काँप रही है वह.

"भाभी." वह चुप है. बहुत सी हिम्मत बटोरकर वह किसी भी स्थिति से लड़ने के लिए तैयार है, बेटी  जो जनी है उसने.  "बोलो शशांक, मेरी बेटी तुम्हारी बेटी है. तुम्हें कहने का हक है. तुमने उसे गोद में खिलाया है" . शशांक बिलकुल चुप है. उस  सड़क पर उनके साथ चलता हुआ समय भी अधीर  है. वह बेचैनी और उमस महसूस कर रही है.

उसे मालूम है कि उसे किसी बड़ी बात का सामना करना है. आज एक बहुत बड़ी परीक्षा का दिन है पता नहीं वह पास होगी या फेल.  तुहिना  पर उसे भरोसा है लेकिन जिस पर भरोसा हो क्या वह फेल नहीं होता. जब वह छोटी थी उसकी माँ ने किसी से कहा और उसने सुना  कि  लड़की तो मिटटी का घडा होती है. मिटटी के घड़े में दम ही कितना होता है,तब से वह अपनी ताक़त को तौलती रही है लेकिन वह तुहिना का गलत सही सब जानने का साहस रखती है. कुम्हार है वह, फिर गढ़ लेगी.  वह आई भी तो इसीलिए है. शशांक चुप है जैसे बहुत कुछ कहने का साहस जुटा रहा है. वह भी चुप है. शशांक की वही गड्गड़ाती आवाज़  फिर सब कुछ तहस नहस कर  जाती है -" भाभी, उसके बैग में कन्ट्रासेप्तिव्स  मिले थे ?" "

" क्या वह चीख पडी है
"कहना क्या चाहते हो तुम ? आखिर क्या कह रहे हो "?
ये तुहिना का मामला है किसी और का नहीं यह सोचते ही वह  संयत हो गयी है धारा बदलने के पहले की नदी सी शांत.  वह पूछती है - "तुमने देखा ?"
"नहीं. ".
"फिर? .  किसने देखा"
" सलोनी ने." अब उसने विनाश कर डालने सा रूप धर लिया है.

"तुम अपनी बीबी को संभाल लो. अगर उसने देखा तो तुम्हें क्यों नहीं दिखाया. तुहिना के चरित्र पर वह ऐसा दाग  लगा सकती है ? शशांक." वह बेकाबू हो गयी है. रो पड़ी है. य़दि सलोनी की बेटी उसकी भी न होतीं तो आज वह  सलोनी को बददुआ  देती.  उसके होंठों के किनारे थूक के छींटे आ गए हैं. किसी की बेटी पर इतना बड़ा इलज़ाम ? वह मेरी बेटी है, उसको मैंने  संस्कार दिए  हैं.  आजकल  के बच्चे कितनी तरह की चीजें खरीदते हैं कितने तरह की पैकिंग्स और रैपर्स आ गए हैं.  कोई भी चीज़ पहचान पाना  क्या इतना आसान है ? वह प्रलाप कर रही  है.

"सलोनी के लिए इतनी बड़ी बात कह देना आसान है?.शशांक, तुम उससे कहो कि वह अपनी बेटी को संभाले.  उसकी आवाज़ में  प्रतिशोध है.

शशांक बिलकुल चुप है .थोड़ी देर बाद वह धीरे से कहता है-" भाभी तुम खुद को संभालो. "
वह अपनी पत्नी से परेशान है.यह वह उसे बता चुका है. शशांक खुद एक सुलझा हुआ आदमी है और बीबी ऐसी है कि  शशांक की सारी तकलीफों  की जड़ है . वह उससे कई बार कह चुका है कि वह खुद को बिना पत्नी का मानता है. उसका एक घर  है और  उसके दो बच्चों को वह संभालती है.  दैट्स आल.

वह शशांक  के साथ लौटती हुई घर के पास आ चुकी है लेकिन अभी तक उस आघात के सदमे से बाहर नहीं आ पायी है. शशांक उसके रौद्र रूप से डर कर बिलकुल चुप है. वह भय  के नशे में है. असुरक्षा ने उन्माद का रूप ले लिया है.वह कर  रही है -"शशांक उसपर बहुत से लोगों ने बहुत से आरोप लगाए हैं . इसलिए की वह खूबसूरत और जहीन है?ऐसा ही कुछ हुआ था जब वह केवल सत्रह साल की थी. तब उसकी क्लास के सारे लड़कों ने उससे बोलना ही छोड़ दिया था. यह कहकर कि  उसकी दोस्ती किसी लडके से है और  इसलिए वह चरित्रहीन है.  मैं जानती थी कि  यह उसको आरोपित करने का दुष्चक्र था. मैने रोती हुई तुहिना को सीने से लगाकर यही समझाया था कि यदि तुम इन सबको गलत साबित करना चाहती हो तो कुछ कर डालो. तुम्हारी सफायियों पर ये तुम्हें कमज़ोर समझेंगे और तुम्हें और अधिक अपमानित करेंगे. तुम अपने आंसू पोंछ डालो और सबसे अच्छे अंक लाकर रख दो. तुम जानते ही हो कि  अपने शहर की लड़कियों में सर्वोच्च अंक उसके थे. 
तब तुहीना की क्लास के वही लडके उससे उसका मोबाइल नम्बर माँगने लगे थे जिन्होंने उसको चरित्रहीन  का खिताब दिया था.शशांक एक लड़की को बार बार अग्नि परीक्षा देनी होती है.  तुहिना  ने एकबार नहीं अनेक बार दी हैं.   मैं साक्षी हूँ." उसकी आवाज़ पथरीली  राह में बहती नदी सी ऊपर नीचे होती रही.

शशांक को  बेहद अफ़सोस था कि  उसने उसे इतनी चोट दी.  उसने शशांक से आखिरी बार कहा कि  तुम अपनी बीबी पर  आँख मूँद कर भरोसा न किया करो.  सलोनी इस हद तक मेरी बेटी से जलती  है यह मुझे नहीं मालूम था.शशांक  ने कई बार यह कहा कि  भाभी आप वायदा करिए कि  यह बात सिर्फ हम दोनों के बीच ही रह जाए और यहीं ख़त्म हो जाए. आप भैया से भी इसका ज़िक्र न कीजियेगा." उसने यही कहा था - "शशांक लड़की पर लगे ऐसे आरोप झूठे भी हों तो भी कोई खारिज नहीं करता.  पिता और भाई तो और भी नहीं.

शैलेश सलोनी की बात पर ही ऐतबार करेंगे यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ ." उस समय शशांक की ओर देखती उसकी आँखें झुग्गियों में अन्न से खाली पड़े  बर्तनों  की तरह थीं.
सब कुछ ठीक है. वह आश्वत है. उसे कल लौटना है.  सुबह सुबह उसकी ट्रेन है. " तुहिना   मुझे जाना है. मैं जा रही हूँ."
उसने चाय पी ली  है. तुहिना को जगाना उसे ठीक नहीं लगा है. अपनी नींद  से ही जागे तो अच्छा , आखिर दिन भर आफिस में बैठना है और काम करना है उसे. " तुहिना  मुझे फुटकर पैसे कहाँ से मिलेंगे".
तुहिना नींद में आलसायी  हुई कह रही है. " माँ, पर्स में से निकाल लो जितना लेना है, ले लो. तुहिना  का बड़ा सा गहरे भूरे रंग का प्योर लेदर का पर्स वहीँ कुर्सी  पर  बेपरवाह  पडा है. वह उठाती है. उसे पैसे नहीं मिल रहे है .पर्स में कुछ पैकेट्स पड़े हैं. वह ध्यान से देखती है.
अरे. कंट्रासेप्तिव्स के पैकेट्स. यह क्या? वे  दो हैं. वह कांपती अँगुलियों और फैली हुई निगाहों से देखती है.
दो पैकेट्स, दोनों में तीन तीन.   तुहिना तुहिना. . ये क्या है तुहिना .
"कंट्रासेप्तिव्स ! ये कहाँ से मिले हैं तुम्हें. ". वह बदहवास है.
"माँ. मैंने लिए थे " वह आधी नींद में है .
"लिए थे ? इसका क्या मतलब हुआ ?"
"मतलब मैंने खरीदे थे ". . वह नींद में तुडी मुड़ी हुई सी पड़ी है ?  "माँ, मैं बैंगलोर से लायी थी.. जब ट्रेनिंग में गयी थी. ".
"लेकिन किसने दिए थे तुम्हें." .
"किसी ने नहीं " . वह बेहद सहज थी ."  मैंने श्रेया ने और शालू तीनों ने एक साथ खरीदे  " . .
" लेकिन क्यों "वह जितनी भयभीत उतनी उत्सुक हो गयी थी.
"सिक्यूरिटी के लिए."

"कैसी सिक्यूरिटी तुहिना ?"वह अधीर हो गयी. तुहिना एकदम शांत बैठी है जैसे वह प्रार्थना में हो. वह उद्वेलन की चरम सीमा भी लांघ रही है और तुहिना निर्विकार है.गजब का आत्मविश्वास है इस लड़की में. क्या बोल रही है इसे कुछ समझ में भी आता है. यह  वही है जिसे बिव  लगाकर वह   एक-एक चम्मच भर के दूध पिलाती थी. ,कंट्रासेप्तीवस किसलिए होते हैं यह जानती भी है ! तभी तुहिना की आवाज़ उसके कानों में पड़ने लगी है. . "माँ ! "  वह चौक गयी है. क्या  बोलेगी ये.

" माँकिसी से रिश्ता कायम करना होगा तो मैं वह भी करूंगी.  अभी तो मेरे पास समय ही नहीं है, माँ. मन का रिश्ता और देह का रिश्ता  दो ध्रुव नहीं हैं माँ.उसके लिए विवाह करना भी बचकानी परम्परा हैलेकिन उसके लिए मनमीत  तो मिले . मिला तो सबसे पहले तुम्हें  बताउंगी.   देह के रिश्ते मन से बनते हैं माँ, नहीं तो बलात्कार होता है. वह तो किसी भी अँधेरे कोने में हो ही रहा है माँ. मैं विवाह के लायसेंस से नफ़रत करती हूँ " वह चुपचाप सुन रही है.

"माँ. तुम्हें मालूम है न,लड़कियाँ मारी जा रहीं हैं? क्या चाहती हो मैं भी उसी तरह मरूं ?तुम जानती हो न, बलात्कार रोज़ हो रहे हैं यहाँ ?   मैं किसी दरिंदे के अंश को अपने पेट में ढोऊं और फिर अपने गर्भाशय पर ऐसा दाग बना लूं कि मेरा स्त्री होना मुझे कोसे क्या नहीं जानती ? मैं ऑफिस  में देर रात तक  काम करती हूँ  अकेली  घर लौटती हूँ.  मैं किस पर भरोसा करूं ? यदि मेरी ज़िंदगी में ऐसा दुराहा आए जहाँ मुझे मौत और बलात्कार के बीच चुनाव करना हो तो मैं बलात्कार  को चुनुंगी और कहूँगी कि वह मुझे इतना सा ही  बचा ले  कि मेरे गर्भ में अपना अंश न दे.

तुम्हें नहीं मालूम ?कॉरपोरेट  की दुनिया एक जंगल है जहाँ इंसान दिखायी  देने वाले जानवर रहते हैं. तुहिना  की बातें सुनती वह बैठ गयी है. तुहिना बोलती गयी और उसकी पूरी देह कान बन गयी है 
"मुझमें दैहिक बल नहीं है फिर भी देह बचाने के जितने जतन  मैं जानती हूँ करूंगी. मैं इस मेट्रोपोलिटिन शहर में तमाम असुविधाओं के साथ रहती हूँ माँ ,फिर भी किसी चिड़िया का टूटा हुआ पंख बनकर ज़मीन पर गिरना नहीं  चाहती ".

वह असमंजस में हैं.  वह सही है या तुहिना . उसे नहीं मालूम. तुहिना  ने उसकी ओर उम्मीद भरी निगाह उठायी है. वह तुहिना की आँखों में देख रही है. 

ट्रेन के लिए एक घंटा बाक़ी था. उसने टिकट कैंसिल करने के लिए फ़ोन करना चाहा  लेकिन तुहिना ने रोक दिया है.  तुहिना ने उसके कन्धों पर अपना  हाथ रख दिया और कहा-' तुम जाओ मुझे  जीने के लिए ताक़त तुमने ही दी है मैंने तुम्हारी मजबूरियां हमेशा पढ़ीं हैं '

वह  तुहिना को देखती हुई  सोच रही है. यह कौन सी तुहिना  है इसको मैंने तो नहीं गढ़ा.  तुहिना की आवाज़ गूंजती है. "लड़कियाँ  मछलियाँ नहीं होतीं माँ ".टैक्सी में बैठने से पहले उसने  पलटकर तुहिना के चेहरे पर  भरपूर देखा. बेटी की जगह उसने  खुद को खडा पाया. उसे लगा उसने खुद को अबतक क्यों नहीं देखा था. 
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प्रज्ञा   पाण्डेय 
89, लेखराज नगीना,  सी ब्लाक, इंदिरा नगर 
लखनऊ 
9532969797 

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  1. अच्छी कहानी.. बधाई.!

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  2. बहुत अच्छी कहानी। भीतर तक झकझोर देती है।

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  3. राकेश बिहारी26 दिस॰ 2014, 9:39:00 am

    विमर्श विनिर्मित करती कहानी। ऐसी स्थितयां पारंपरिक समाज को सहज ही असहज करती हैं। जीवन और रचना के बीच दृश्य, परिस्थितियों और संवाद की आवाजाही एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है।इस आवाजाही का क्रम तयशुदा नहीं होता। कहानी का संवेदना पक्ष स्पर्शी है। पात्रों के मनोवैज्ञानिक तनाव और गहराई से उभरते तो कहानी ज्यादा प्रभावी होती। यथार्थ, कल्पना और विमर्श को एक सूत्र में आबद्ध करने के लिए कुछ और कलात्मक धैर्य और सधाव की जरूरत थी। बावज़ूद इसके कथ्य हमें बेचैन करता है। यही इस कहानी की सफलता है। प्रज्ञा जी और समालोचन दोनों को बधाई!

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  4. बेहद चुस्त शिल्प का रचाव लिए / सटीक भाषा के मुहावरेदार प्रयोग की बानगी प्रस्तुत करती ये कहानी वाकई जबरदस्त कहानी है /प्रज्ञा जी और समालोचन दोनों बधाई के पात्र हैं / शुभकामनायें

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  5. राकेश जी से पूर्णतया असहमत यह कहानी पारम्परिकता को ही पोषित कर रही है मूल कथ्य मे... फिर भला वह कैसे असहज हो सकता है। यदि कहानी को खास बलात्कारी परिवेश से बाहर कर के देखें तो पारम्परिकता का महिमामंडन स्पष्ट दिखलाई पडता है। रेप के सन्दर्भ ने एक सशक्त कहानी को कमजोर बना दिया... आजादी तो है लेकिन एक खास दायरे के ही भीतर ही ... भाषा की बुनावट आकर्षित करती है .... गजब का प्रवाह है कहानी मे .... प्रज्ञा जी को बधाई.. और समालोचन को भी पाठ से रूबरू कराने के लिए।

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  6. बहुत भावपूर्ण सुंदर कथा, मन में उतर गई

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