मंगलाचार : अरविन्द कुमार



















कलाकृति : Abdullah M. I. Syed




अरविन्द कुमार की कुछ कवितायेँ 


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बच्ची

बच्ची अब
ठुमक-ठुमक कर चलने लगी है
घर-आँगन, कोना-कोना, पड़ोस
गुलज़ार हो गया है
बच्ची अब....

बच्ची अब
चार दांतों से खिलखिलाने लगी है
माँगने लगी है---दुद्धू, ताय, तेला और पाठा
बोलने लगी है
अपनी मीठी दूधिया जुबान
पानी को मानी
कड़ुवा को तित्ता
माँ को बाबी
छिया...बुई...ताटी...पापा गिया
दादी...लाम-लाम...पल्छादी
बच्ची अब रोज़ जौ-जौ भर बढ़ने लगी है
बच्ची अब....

बच्ची अब
पूरे घर को उलटने-पुलटने लगी है
बर्तन, किताबें, अखबार, कपड़े
बाबा की सिगरेट-सुरती डिबिया
दादी की पूजा की थाल
और दूध का भरा भगोना
वह भागने लगी है
चहचहा कर चिड़ियों के पीछे
बच्ची अब जिद कर के मचलने लगी है
बच्ची अब....

बच्ची ने सबको
जिम्मेदार बना दिया है
माँ अब कम सोती है
पापा अपनी चाभी और चश्मा
सहेज कर रखते हैं
और बुआ अपनी लिपस्टिक
शीशे के बर्तन अब
ऊंचाइयों पर पहुँच गए हैं
और लापरवाह बिखरी दवाइयां गुम हो गयी हैं 
बच्ची के डर से
बुढ़ऊ कुत्ते की दुम अब सीधी होने लगी है 
बच्ची अब....

बच्ची सबकी
चिंताओं में आ गयी है
पोलियो, टीबी, डिप्थीरिया, पीलिया और इन्सेफ्लाइटिस
यह दवा, वह खुराक, रेडियो, टीवी और अखबार
गुड़गाँव, मेरठ, भिवंडी, गोधरा, मुजफ्फरनगर, निठारी और तेज़ाब
आशंकाएं, असुरक्षा और हवाओं में तैरता हुआ भय 
सब सतर्क होकर सोचने लगे हैं
बच्ची अब हमेशा हंथेलियों के बीच रहने लगी है
बच्ची अब....



यह शहर बेजुबान क्यों?

कुछ भी तो न
हीं गुजरा
इधर से
काफी दिनों से
न कोई विजय जुलूस
न कोई महान शवयात्रा
और न ही
किसी प्रेमी युगल की तलाश में
खोजी कुत्तों का कोई झुंड
फ़िर भी
सड़कों पर
ये मुर्गे के पंख क्यों
यह शहर
अचानक बेजुबान क्यों



यह तीसरा कौन है
(धूमिल की कविता से प्रेरित)

एक तरफ वह है
जो अंधाधुंध गोलियां चलाता है
दूसरी तरफ वह है
जो उन गोलियों से चिथड़ा बन जाता है
इसके अलावा एक तीसरा भी है
जो न गोलियां चलाता है
न चिथड़ा होता है
वह पृष्ठभूमि में
अट्टहास करते हुए
सिर्फ दहशतगर्दी से खेलता है
आखिर यह तीसरा कौन है
पूरी दुनिया का तंत्र
फिलहाल इस लाशों के सौदागर पर मौन है




कैसे कहूं?



बंदिशों के इस मौसम में
जब मुस्कराना भी कानूनन गुनाह हो
तो तुम ही कहो
कैसे कहूं
कि मैं तुम्हे प्यार करता हूँ

मैंने तुम्हारी तस्वीर
किसी किताब में छुपा रखी है
नहीं चाहता
तुम्हारा या मेरा
पुकारा जाना
उपनामों के ज़रिये

इन खूनी पंचायतों
और झूठी रवायतों में
जब हर तरफ
खूनी भेंड़ियों को
खुला छोड़ दिया गया हो
तो तुम ही कहो
कैसे कहूं
कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ

तुमने गौर किया होगा
कि जब भी तुम हंसती हो
मैं चुप ही रहता हूँ
मैं डरता हूँ
नहीं चाहता
कि मारे जायें हम
यूं ही
जीने से पहले

अनगिनत दीवारें हैं
यहाँ इर्द-गिर्द
और हमारे बीच
कि हमें न तो धूप मिलती है
और न ही चैन से
मुट्ठी भर रोशनी
तो तुम ही कहो
कैसे कहूं?
कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ



अम्मा की आँखे

अम्मा पूछती हैं
कहाँ उड़ गये वे दिन
रूई की तरह के
जब घरों की मुँडेर पर
कबूतर गुटरूगूँ किया करते थे
एक कमाता था
सभी भर पेट खाते थे
आज सब खटते हैं, पर सभी अध-पेट सोते हैं

अम्मा की आँखें माड़ हो जाती हैं
और होंठ चिपड़ी सूखकर
अम्मा बुदबुदाती हैं
कि बाबू तुम्हारे नौकरी करते थे
चाचा खेती
बुआ तुम्हारी कंडे पाथती थी
गीत गाकर सपने देखती थी
और मैं लिट्टियां सेंकती आंगन में
मरनी हो या जीनी
सब इकट्ठे हो जाते थे
मधुमक्खियों की तरह
मुसीबतें हवा हो जाती थीं
तब देंखते ही देंखते
अब पढ़-लिखकर बेकार हो तुम
मजूरी करते हो
परेशान हो तुम
जगपत की बेटी को उठा ले गये सब जीप में
सुनते हैं कि दिन दहाडे
मार दिया मुस्तकीम के छोरे को नकली मुठभेड़ में
अम्मा पूछती है
क्या इसी को आजादी कहते हैं

अम्मा सीधी हैं भोली
न जाने क्यों बिसरा देती हैं
कि दिन कभी रूई के नहीं होते
बोये जाते हैं
काटे जाते हैं दिन
फसलों की तरह
बिसरा देती हैं
अम्मा यह भी
कि चाचा जो बोते थे महाजन कटवाता था
और कि महाजन एक अजगर था
निगल जाता था वह
हमारी सारी मेहनत, सपनें और खुशियाँ
और रोप लेता था अपने गिर्द हरबार
बन्दूकें, पुलिस, जीपें और खद्दर की टोपियाँ
अपने बचाव के लिए

अम्मा बहुत सीधी हैं
बिना सींग की गाय
क्या नहीं जानतीं
कि अजगर एक बार में सौ के लगभग अंडे देता है
और हम काट रहे हैं वही
जो बोया गया था उन दिनों

लेकिन अम्मा! देखो मेरी तरफ
मैं कहता हूँ
अम्मा, हम बोयेंगे इनकी जगह
सुख, सपने और चाँदनी सबके के लिए
और लौटा लायेंगे कबूतरों की गुटरगूँ वाले दिन वापस
एक दिन जरूर तुम देखना
अम्मा देखती हैं, मुस्कराती हैं और फिर रोने लगती हैं



सवाल

इन दंगों में आखिर
कौन जलाया
कौन मारा गया
हिंदू या कि मुसलमान
या कि सिर्फ एक इंसान
गलियों, सड़कों और चौपालों में
खून किसका बहा
हिंदू का या कि मुसलमान का
या कि सिर्फ एक इंसान का
अपने घर से बेघर
कौन हुआ
हिंदू या कि मुसलमान
या कि मजदूर,किसान
कोई निरीह बेजुबान
आखिर नफरत की यह आग
किसने भड़काई
कैसी थी उसकी शक्ल
हरी, लाल, नारंगी या कि फिर सफेद
हिंदू था वह या कि मुसलमान
या कि सिर्फ एक शैतान
सवाल दर सवाल...
पर जवाब
कभी नहीं आयेगा
लाशों के ढेर पर
वोटों की बारिश तो खूब होगी
तख़्त-ओ-ताज़ भी खूब सजेगा
पर बुधिया और जुम्मन का जीवन
यूं ही आँसुओं में डूबा रह जायेगा.

______
अरविन्द कुमार
16 जुलाई 1956, गोरखपुर
आठवें दशक के उत्तरार्ध से अनियमित रूप से कविता, कहानी, नाटक, समीक्षा और अखबारों में स्तंभ लेखन एवं सांस्कृतिक आंदोलनों से जुड़ाव। अब तक लगभग तीस कहानियाँ, पचास के करीब  कवितायें और तीन नाटक बिभिन्न पत्र-पत्रिकाओं  में  प्रकाशित और चर्चित। सात कहानियों के एक संग्रह "रात के ख़िलाफ" और एक नाटक "बोल री मछली कितना पानी" के प्रकाशन से सहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में थोड़ी बहुत पहचान

सम्प्रतिआचार्य (चिकित्सा भौतिकी), लाला लाजपत राय स्मारक मेडिकल कॉलेज, मेरठ (उ० प्र०
मोबाईल: 9997494066    ई-मेल: tkarvind@yahoo.com

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  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  2. तुषार धवल28 दिस॰ 2014, 4:23:00 pm

    अरविन्द कुमार की कवितायेँ खासकर बच्ची और शहर कमाल की लगीं.सीधी आकर तिरछी धंस गयीं . वाह कमाल

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  3. पहली कविता तो कमाल है . अम्मा की आँखें और शहर भी बढ़िया कविताएँ हैं . आपको पहली बार पढ़ा . समालोचन का शुक्रिया .

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  4. प्रिय मित्र अरविंद की कवितायें पढ़कर गोरखपुर के दिन याद आ गये.अरविंद ने गोरखपुर के साहित्यिक समाज को नयी उर्जा दी थी.वे चहल पहल और गर्मजोश दिन थे..फिर हमलोग चाकरी के लिये नये नये ठिकानों की ओर चल पढ़े थे.अरविंद को पढना उन्ही दिनों में लौटना है.अरविंद के व्यंग तो मैं पढ़ता ही था.कविताओं को पढकर बहुत अच्छा लगा..इस आयोजन के लिये आपको शुभकामनायें और अरविंद को बधाई,,

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  5. स्वप्निल भाई, धन्यवाद...काफी अरसा बीत गया...मैं पुनः उसी लय-ताल में आने के लिए प्रयासरत हूँ...आप के प्रगट स्नेह की फिर उसी तरह से आवश्यकता है...

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  6. अम्मा, शहर और बच्ची कविताएँ बहुत अच्छी लगीं. कवि को बधाई.

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