कथा – गाथा : भुजाएँ (हृषीकेश सुलभ)


कलाकृति : Adeel uz Zafar

हृषीकेश सुलभ  की इस कहानी में मध्यवर्गीय जीवन की वह संरचना विन्यस्त है जो अक्सर धीमी आवाज़ में कान के पास कही जाता है. कहानी में वातावरण और कथा-क्रम इतना रोचक और जीवंत है कि कहानी आप पढ़ कर ही उठते हैं. अष्टभुजा लाल अपनी पत्नी का वार्डरोब तलाशते हुए जिस चीज से आहत होते हैं वहीँ उनकी माँ की लिखी हुई डायरी में भी मिलती है. अब आप कहानी पढ़िए. 


भुजाएँ                                   
हृषीकेश सुलभ



अष्टभुजा लाल को अपने बीते हुए दिनों के बारे में सोचना अच्छा नहीं लगता. बीते हुए दिनों की बात याद आते ही उन्हें मितली आने लगती है. उन्हें लगता है, जैसे अपनी पत्नी के वार्डरोब में बंद हो गए हों. इस वार्डरोब की याद उनके लिए किसी बजबजाते दुर्गन्धमय नाले में गिर जाने की तरह यातनाप्रद होती है. इस यातना से मुक्ति के लिए वह लगातार हाथ-पाँव मार रहे हैं. आकुल-आहत छटपटा रहे हैं. जबसे उन्होंने अपनी पत्नी का वार्डरोब देखा है, जीवन के बीते हुए दिनों के अजीब-अजीब चित्र उनके मन में बनते हैं. किसी डरावने स्वप्न की तरह यह वार्डरोब उनके दिलो-दिमाग़ पर छाया हुआ है.
       
पिछले दिनों पत्नी के मायका-प्रवास के दौरान वार्डरोब की चाबी उनके हाथ लग गई. पत्नी उसे साथ ले जाना भूल गई थीं. बिना किसी दुर्भावना के, मात्र कौतूहलवश उन्होंने वार्डरोब खोलकर देखना चाहा कि आखि़र क्या-क्या सहेज-छिपाकर रखा है श्रीमती कुसुम कुमारी ने ?........और अष्टभुजा लाल ने मुसीबत मोल ले ली. न देखते, तो शायद उनके जीवन के बीते हुए दिनों के बरअक्स यों बार-बार पत्नी का वार्डरोब नहीं आ खड़ा होता. बजबजाते हुए दुर्गन्धमय नाले में गिरकर निकलने के लिए हाथ-पाँव मारने की-सी यह यातना उन्हें नहीं मिलती.
       
उस दिन पत्नी के वार्डरोब में उन्हें तरह-तरह की चीज़ें मिली थीं. वार्डरोब खोलते ही उन्हें लगा था कि आज कोई अनहोनी घटने वाली है. वह हाथ डालते झिझक रहे थे. वह जब-जब अपना हाथ खींचते, एक-दूसरे में लिपटी-गुँथी चीज़ें बाहर निकल आतीं और अष्टभुजा लाल उलझकर रह जाते. वह अपने को कोसते, अपना माथा पीटते और ख़ुद अपनी लानत-मलामत करते हुए वार्डरोब में फँसे थे. उनके सामने बिखरी थीं वार्डरोब से निकली चीज़ें- मसलन, शादीशुदा बड़ी बेटी धन्नी के बचपन के दिनों की दूधवाली बोतल,.....जवान होकर विवाह की प्रतीक्षा में ठिठकी हुई चैबीस वर्षीया दूसरी बेटी बन्नी के बचपन के दिनों का पुराना फ्राक और जाँघिया,......पत्नी के दो-दो पुराने हुकविहीन ब्रा,.....आरज़ू-ताजमहल-मेरे महबूब जैसी पुरानी फि़ल्मों के गानों की कि़ताबें,.....श्रृंगार प्रसाधन की कुछ ख़ाली शीशियाँ,.......उनकी प्रचण्ड जवानी के दिनों की एक श्वेत-श्याम तस्वीर, जिसमें उनकी गरदन में छींटवाली टाइ लटकी हुई थी और जुल्फें देवानंद की तरह ऊपर उठी थीं. और इसी वार्डरोब में उन्हें मिला था........ श्रीमती कुसुम कुमारी के इस फूहड़पन ने उनके जीवन की शक्लो-सूरत ही बदल दी थी. उन्हें अपना तमाम जीवन फूहड़ दिख रहा था. यहाँ तक कि उन्हें अपने नाम से भी चिढ़ होने लगी थी. अपने नाम का सम्बोधन सुनते ही उनकी इच्छा होती कि वह पुकारनेवाले का मुँह नोच लें.

अष्टभुजा लाल के नाम की कथा के सूत्र उनके जन्म की कथा में छिपे थे. उनके जन्म के पूर्व से जन्म तक की स्थितियाँ उलझी हुई थीं. उन्हें अपने घर में पैदा करने के लिए उनके माता-पिता के संघर्ष ने उन्हें यह नाम दिया था. उनकी माता मानो देई दुर्लभ सौंदर्य और व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं. सत्रह वर्ष की उम्र तक अपने मायके के घर-आँगन में कोयल-सी कूकती रहनेवाली मानो देई को उनके क़ातिब पिता ने जब झूलन लाल के हवाले किया, उनका अपना घर-आँगन सूना हो गया,......और दूसरी ओर छपरा कचहरी के नामवर वकील बाबू हनुमंत सहाय के मुख़्तार झूलन लाल का घर-आँगन मानो देई की उपस्थिति के चलते कलरव से भर उठा. विवाह के बाद माह भर तक युवा झूलन लाल न तो कचहरी गए और न ही वकील साहब के निवास. खस्सी का सालन पकवाकर खाते और मानो देई की झुनकीदार पायल की रुनझुन के पीछे-पीछे डोलते फिरते. जब मानो देई को उल्टियाँ आने लगीं और बहू को आनेवाली इन उल्टियों का स्वागत सास ने सोहर के बोलों से किया, तब झूलन लाल ने कचहरी की सुघ ली.

लगभग आठ वर्ष में ताबड़तोड़ सात बेटियों को पैदा करने के बाद जब पच्चीस की हुईं मानो देई, तो धीरज ने झूलन लाल का साथ छोड़ दिया. गहन निराशा के अंधकूप में गिर पड़े तैंतीस वर्षीय मुंशी झूलन लाल. सात बेटियों में से पहली दो साल तक जीवित रहने के बाद चल बसी. दूसरी और तीसरी बेटियों ने एक-एक वर्ष तक झूलन लाल के आँगन में बाल-लीला करने के बाद इस दुनिया से नाता तोड़ा. चैथी और पाँचवीं ने कुछ घंटों तक इस धरती को पवित्र करने के बाद पयान किया. मानसिक रूप से विकलांग छठवीं पुत्री भी मानो देई की कोख की लाज बचाने के लिए जीवित नहीं रह सकी और सातवीं के गर्भ में आते ही उसने साथ छोड़ दिया. सातवीं बेटी के मृत पैदा होने के बाद झूलन लाल नगर के बाहर सरयू-तट पर बने सिद्ध शक्तिपीठ अष्टभुजा मंदिर पहुँचे. मंदिर की देहरी पर माथा पटककर उन्होंने माता अष्टभुजा से पुत्र की कामना की और माता को वचन दिया कि जब तक जीवित रहेंगे, सुबह-शाम दोनों वक़्त माता के दरबार में हाजि़री लगाने आएँगे. उसी रात माता अष्टभुजा ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और आशीर्वाद भी. माता अष्टभुजा लोप हुईं और उनकी नींद खुली. माता के दर्शन की ख़ुशी में विभोर वह प्रसूतिगृह पहुँचे. रक्तहीन देह लिये मानो देई मृतप्राय पड़ी थीं. झूलन लाल ने पत्नी के ललाट पर हाथ फेरा. मानो देई ने आँखें खोलकर पति को देखा. स्वप्न में माता के दर्शन और आशीर्वाद की सूचना प्राप्त की और सूनी आँखों से बड़ी देर तक पति को निहारती रहीं. उनकी आँखों में याचना थी. कसाई से जान की भीख माँगती बकरी की आँखों की-सी याचना.

इस रात के आठ वर्ष बाद झूलन लाल की आठवीं संतान के रूप में मानो देई ने अष्टभुजा लाल को जन्म दिया. पर इस शुभ घड़ी के साक्षी नहीं बन सके झूलन लाल. लम्बे समय तक माता के दरबार में हाजि़री लगाते, चाकरी बजाते झूलन लाल निराश हो चुके थे. संतान-सुख नहीं पाने की इस निराशा से उन्होंने अपने लिए एक अलग संसार बसा लिया था. बहुत कम बोलते. चुपचाप सूनी आँखों से घंटों आसमान निहारा करते. कचहरी जाने की इच्छा नहीं होती, पर जीविकोपार्जन के लिए जाना पड़ता. मुवक्किलों से जो मिलता, बिना हील-हुज्जत के ले लेते. उनके चारों तरफ़ निराशा ही निराशा पसरी रहती थी. .......और ऐसी ही एक सुबह जब वह मंदिर से पूजा करके लौटे, मानो देई ने उन्हें अपने गर्भवती होने की सूचना दी. यह सूचना पाकर पहले तो वह प्रसन्न हुए, फिर उन्होंने मरी हुई सातवीं बेटी के जन्म के बाद वाले वर्षों के एक-एक दिन को याद किया. अपनी स्मृति पर लगातार दबाव बनाए रखने के बाद भी वह उस क्षण की स्मृति को नहीं ढूँढ़ पाए. उन्होंने अपने बीते हुए इन वर्षों का कोना-कोना तलाश किया. ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उनका दिमाग़ थक कर चूर हो गया, पर उन्हें वह क्षण नहीं मिला. अंततः उन्होंने पत्नी से पूछा. मानो देई ने कुछ भी नहीं छिपाया. सब कुछ साफ़-साफ़ बता दिया.......और तब उनकी नज़र अपने ममेरे भाई बचनू लाल पर पड़ी, जो पिछले एक वर्ष से उनके घर स्थायी मेहमान की तरह रहते हुए कचहरी में मुहर्रिर के काम पर लगे हुए थे. झूलन लाल ने पत्नी को भर आँख देखा. सातवीं बेटी के बाद ठठरी काया लिये प्रसूतिगृह से निकलने वाली मानो देई की सूरत उनकी आँखों के सामने उभर आई. वह बहुत देर तक मानो देई को घूरते रहे. उनके चेहरे की गोरी पारदर्शी त्वचा के नीचे दमकती लहू की आभा, बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों की क्षिप्र भंगिमाओं, वक्षों के बोझ से लचकती क्षीण कटि और भारी नितंबों को निहारते रहे झूलन लाल.
पिछले वर्षों में अपने लिए अर्जित निराशा को उन्होंने बार-बार तौलने का प्रयास किया. मानो देई ने रूप की जो दमक और देह का जो सौष्ठव अर्जित किया था, उससे अपने अर्जन की तुलना करते हुए लगभग माह भर जीवित रहे झूलन लाल.........और एक रात अष्टभुजा मंदिर से पूजा करके लौटे और चिरनिद्रा में सोने चले गए. गर्भ की अवधि पूरी हुई. मानो देई ने पुत्र को जन्म दिया. झूलन लाल ने स्वर्ग से ही माता अष्टभुजा को प्रणाम करते हुए इस कृपा के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया. सात बेटियों के जन्म के आठ वर्ष बाद आठवीं संतान के रूप में माता अष्टभुजा की कृपा से पैदा हुए अपने पुत्र का नाम मानो देई ने अष्टभुजा रखा. प्रकृति, भाग्य और समाज पर विजय के बाद इस नाम को मानो देई ने बहुत गौरव के साथ अपने पुत्र को सौंपा था. यह नाम अष्टभुजा लाल के पिता की धार्मिक आस्थाओं और माता के संघर्ष का प्रतिफल था. अनजाने में ही अपने जिस नाम की चर्चा करते अघाते नहीं थे अष्टभुजा लाल, वही नाम उन्हें काट खाने को दौड़ रहा था........उस वार्डरोब ने उनके जीवन में उथलपुथल मचा दी थी.

श्रीमती कुसुम कुमारी पूरे कुनबे सहित मायका प्रवास से वापस लौटीं. वह अपने बड़े भाई के छोटे सुपुत्र के विवाहोत्सव में शामिल होने छोटी बेटी बन्नी के साथ पटना गई थीं. बड़ी बेटी धन्नी भी पति और बच्चों सहित ममेरे भाई की शादी में शामिल होने वहाँ पहुँची थी.......सो बेटियों, दामाद और दौहित्रों को साथ लिये वापस लौटीं श्रीमती कुसुम कुमारी.

रविवार का दिन था. अष्टभुजा लाल बिना कुछ खाए-पिए पेट के नीचे तकिया दाबे औंधे मुँह पड़े थे. कालबेल की आवाज़ सुनकर उठे. दरवाज़ा खोला. पत्नी को तिरछी आँखों से देखा. इसके पहले कि लोग पाँव छूकर आशीर्वाद लें, अष्टभुजा लाल तेज़ झटके से मुड़े और बाथरूम में घुस गए. दस दिनों से ख़ाली बरतन की तरह ढनढनाता हुआ घर, घर लगने लगा. दोनों दौहित्रों की धमाचैकड़ी का संगीत गूँज रहा था. उमगते यौवन को जैसे-तैसे सहेजकर कुँवारेपन के दिन काटती बन्नी का दुपट्टा पूरे घर में लहरा रहा था. पाँच वर्ष के वैवाहिक जीवन में दो बेटों को जन्म देकर विशाल उदर और और भारी नितंबों को अर्जित करनेवाली धन्नी हाथ-पाँव छितराए तख़्त पर पड़ी सिरदर्द से कराह रही थी. बैंक में मुलाजि़म दामाद मुकुंद बिहारी वर्मा ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठकर अपनी साली बन्नी के दुपट्टे की छाया के पीछे खोजी और जीभचटोर बिलाव की तरह आँखें दौड़ा रहे थे.

श्रीमती कुसुम कुमारी सूटकेस और बैग खोलकर मायके से मिले उपहार निकालने में व्यस्त थीं.......बूंदी के लड्डू......चुनरी प्रिंट की साड़ी.....बन्नी के लिए सलवार-शमीज़ का कपड़ा और पति के लिए कुर्ता-पाजामे का कपड़ा. धन्नी के परिवार का कपड़ा उसके सूटकेस में था. श्रीमती कुसुम कुमारी विजेता की तरह लौटी थीं. तीस वर्ष पहले छूट गए मायके से आज के ज़माने में इतना वसूलकर लौटना आसान काम नहीं था. और वह भी तब, जब भौजाइयाँ चंट हों और भाई गुलामों की तरह उनके पीछे-पीछे दुम हिलाते फिर रहे हों. हालाँकि अष्टभुजा लाल के लिए कपड़े के नाम पर दम साध लिया था भौजाइयों ने. अंततः पति की मृत्यु के बाद मिलनेवाली सरकारी पेंशन की निजी राशि से श्रीमती कुसुम कुमारी की माँ ने उत्सव में अनुपस्थित दामाद के लिए कपड़ा ख़रीदकर दिया. अष्टभुजा लाल बाथरूम से निकले. अपने आगे पंसारिन की तरह दुकान लगाए फर्श पर पालथी मारकर बैठी पत्नी को देखा और आगे बढ़ गए. श्रीमती कुसुम कुमारी ने कहा - ‘‘सुनो! तुम्हारे लिए भाभी ने कपड़ा दिया है. कुर्ते के लिए मलमल....’’

‘‘मेरे लिए ?’’ अष्टभुजा लाल मुड़े. पत्नी को घूरकर देखा. फिर पूछा - ‘‘दिया है या तुम माँगकर लाई हो ?’’

गोली निशाने पर लगी और आर-पार कर गई. पति के इस सधे हुए हमले से श्रीमती कुसुम कुमारी के पाँव उखड़ गए. वह हकलाती हुई बोलीं - ‘‘आखि़र बात क्या है ? आई हूँ तब से देख रही हूँ कि मुँह फुलाए हुए हो. न हूँ, न हाँ. बच्चों तक से कुशल-क्षेम नहीं पूछा.’’
अब मायके का प्रपंच समेटो और उठो. मायके की सम्म्पत्ति  देखकर जुड़ाते रहने के लिए बहुत उमर बाक़ी है अभी. देखकर जुड़ाते रहना......पहले चाय दो.’’

अष्टभुजा लाल ड्राइंगरूम की ओर मुड़े. दामाद ने आकर पाँव छू लिये. उन्होंने दामाद को दोनों बाहों में भरकर स्नेह किया और अपने कमरे की ओर मुड़ गए. गोला दाग़ने के बाद तोप की नली पीछे खींचकर मानो तोपगाड़ी मुड़ गई हो. श्रीमती कुसुम कुमारी धाराशायी हो चुकी थीं. पाँव छितराए, हाथ पर हाथ धरे श्वसुर-दामाद के मिलन को टुकुर-टुकुर निहारती रहीं. उन्होंने उठने की कोशिश की, पर उस क्षण उठ नहीं सकीं. देह जैसे धरती से चिपक गई थी.

दिन जैसे-तैसे गुज़रा. धन्नी ने सिरदर्द के बहाने खर्राटे भरने में पूरा दिन गुज़ारा. मुकुंद बिहारी वर्मा और बन्नी जीजा-साली के बीच परिहास के सहज सम्बन्ध की आड़ में एक-दूसरे के साथ शतरंज के खिलाडि़यों की तरह चालें चलते रहे. बन्नी का दुपट्टा लहराता रहा और बैंक बाबू उसके दुपट्टे की हवा के झोंकों से इधर-उधर उड़ते रहे. अष्टभुजा लाल ने पत्नी से मुँह मोड़ते हुए दौहित्रों के साथ मन बहलाने की कोशिश की. उनकी भोली शरारतों और चंचलता पर खुलकर हँसना चाहा, पर पत्नी के वार्डरोब में छिपा सत्य बार-बार उनके कलेजे में बमगोले की तरह फूटता और वह लहूलुहान हो जाते.

श्रीमती कुसुम कुमारी दिन भर व्यस्त रहीं. इस व्यस्तता के बीच मायके की स्मृतियाँ उनका पल्लू पकड़े रहीं. तीस वर्ष के बाद पुराने जख़्म एक बार फिर से लहलहा उठे थे. हालाँकि बन्नी की पैदाइश के बाद तक वह निरंजन सहाय की छाया के साथ जीती रही थीं. बहुत कठिन थे वे वर्ष. किसी की छाया साथ लिये, किसी दूसरे के साथ जीना, तिल-तिल छीजकर मरने के सिवा और कुछ नहीं होता. जीने की कोशिश में ऐसे ही मरते-मरते उन्होंने बहुत मुश्किलों से निरंजन सहाय को स्थगित किया था. बेटियों के लालन-पालन में उलझकर जीना शुरु किया और धीरे-धीरे इतना समय काट लिया.......पर बोतल में बंद जिन्न जैसे ढक्कन तोड़कर बाहर निकल आया हो, वैसे ही इस बार नीरू ने........ नीरू! निरंजन को वह प्यार से नीरू कहती थीं. थीं क्या ? आज भी कहती हैं. उस दिन भी तो यही निकला था उनके मुँह से.

हवा में उड़ते रुई के फाहों की तरह नीरू की स्मृतियाँ उड़ने लगी थीं. वर्षों तक निःस्तब्धता के झुरमुटों में छिपे रहने के बाद श्रीमती कुसुम कुमारी का मन बाहर निकल आया था........अभी भी वैसे ही मुस्कराता है नीरू. वैसे ही शब्दों पर वजन देकर बोलता है. गर्वीले सांड की तरह उसकी चाल वैसी ही है. वह औरतों की भीड़ के बीच बैठी थीं और वह पहचान गया. भीड़ में घुसकर सामने खड़ा हो गया. उसके मुँह से निकला नीरू’......और नीरू ने उन्हें भर आँख देखा था. जैसे कोई ड्रिलर चट्टान को ड्रिल कर रहा हो. वह भी चट्टान की तरह कठोर बनी रहतीं तो शायद..... पर ऐसा हुआ कहाँ ? नीरू की एक नज़र ने उन्हें मोम कर दिया था. उन्होंने आँखें झुका ली थीं.

‘‘कुसुम! इधर आओ.’’ नीरू ने आवाज़ दी थी.

श्रीमती कुसुम कुमारी उठकर यंत्रवत् उसके पीछे चलीं. बरामदे के सामने सहन में कुर्सियाँ लगी थीं. दो कुर्सियाँ खींचकर पहले उन्हें बैठने को कहा. फिर ख़ुद बैठा और ढेरों बातें करता रहा. बच्चों और पति के बारे में पूछा. पति के नहीं आने का कारण जाना. धन्नी, बन्नी, दामाद और दौहित्रों को बुलवाकर मिला. अपने बारे में बताया कि एक बेटी और दो बेटे हैं. बेटी की शादी हो चुकी है. बड़ा बेटा विवाह के बाद विदेश में बस गया. छोटे ने इसी साल बैंक की नौकरी ज्वाइन की है. साथ ही रहता है. पत्नी चार साल पहले गुज़र गईं. अच्छी प्रैक्टिस है. वकालत के पेशे के चलते निकलना कम होता है. उसके पिता नवरंग सहाय अभी जीवित हैं. अस्सी के ऊपर जा चुके हैं. साथ ही रहते हैं. उनकी सेवा के लिए एक फुलटाइम नर्स है.....

श्रीमती कुसुम कुमारी कभी उसके प्रश्नों के जवाब देतीं, कभी उसकी बातें सुनते हुए पुराने दिनों की कोई स्मृति-छवि पकड़ने लगतीं,......तो कभी उसकी किसी बात पर मुस्कराकर नज़रें झुका लेतीं. बहुत देर तक दोनों साथ बैठे रहे थे. इस बीच बन्नी चाय दे गई थी. चाय ख़त्म करके श्रीमती कुसुम कुमारी ने पूछा था - ‘‘अभी तो तुम रुकोगे ?’’

‘‘हाँ, परसों बहूभोज के बाद देर रात की ट्रेन से निकलूँगा......कुसुम! शादी-विवाह का घर है, फिर फ़ुर्सत मिले, न मिले. एक बात कहना चाहता हूँ.’’ नीरू के स्वर में गम्भीरता थी.

काँप उठी थीं श्रीमती कुसुम कुमारी. ‘‘बोलो.’’

‘‘बन्नी को मुझे सौंप दो. छोटे सुपुत्र के लिए लड़की ढूँढ़ने के अभियान पर भी निकला था. पता था कि तुम आ रही हो. बन्नी के बारे में तुम्हारी माँ से फ़ोन पर जानकारी मिली थी.....पहले तो सोचा था, मेरा बेटा है, सो ज़रूर इश्क का कीड़ा उसके भीतर होगा और कहीं न कहीं गुल खिलाएगा ही.....पर नालायक़ निकला.......हाँ दहेज़ ज़रूर लूँगा.’’ नीरू के होठों पर मुस्कान थी.

‘‘क्या लोगे ?’’
‘‘समधिन चाहिए दहेज़ में.’’ एक ज़ोरदार ठहाका लगाया था बाबू निरंजन सहाय एडवोकेट ने.
श्रीमती कुसुम कुमारी ने मुस्कराते हुए नज़रें झुका ली थीं और हौले से उनके होठ काँपे  ‘‘छपरा जाकर ख़त लिखूँगी.’’

मायका प्रवास का एक-एक क्षण यादगार बनता गया. भीड़ के बीच हर क्षण नीरू की आँखें श्रीमती कुसुम कुमारी का पीछा करती रही थीं. हर रस्म पर जब भी वह सजती-सँवरतीं, उनकी भी इच्छा होती कि नीरू देख लेता! और होता भी यही. जैसे, बाबू निरंजन सहाय इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे होते और अचानक प्रकट हो जाते. बहूभोज की रात, भीड़ में नीरू की आँखें सिर्फ़ उनके पीछे ही घूमती रहीं. लेसर किरणों की तरह उनके भीतर उतरती रहीं नीरू की आँखें.

श्रीमती कुसुम कुमारी के मन का कोना-कोना दीपित हो उठा था. असंख्य कंदीलों के प्रकाश से जगमगा उठे से मन के गह्वर. अपने विवाह के बाद आरंभिक दिनों में उनकी आँखों से बहे आँसू के क़तरे फूल बनकर खिल उठे थे,......उनके मन के आका में जगमगा रहे थे. आह्लाद से भरी हुई छपरा लौटी थीं श्रीमती कुसुम कुमारी. सोचा था, घर पहुँचते ही पति को यह ख़ुख़बरी देंगी. उन्हें विश्वास था कि लड़का ढूँढ़ने और दहेज़ जुटाने की त्रासद यातना से मुक्ति का यह संदेश पति को आह्लाद से भर देगा. पर यहाँ तो मौसम ही बदला हुआ था. श्रीमती कुसुम कुमारी दिन भर पति से संवाद स्थापित करने की कोशिश करती रहीं, पर अष्टभुजा लाल ने नाक पर मक्खी नहीं बैठने दी. वह पीछे-पीछे घूमतीं और अष्टभुजा लाल दुलारी झाड़कर किनारे हो जाते.

रात हुई. खाने की मेज पर सब लोग एकत्र हुए. धन्नी के बेटे पहले ही खाकर सो चुके थे. अष्टभुजा लाल बे-मन से रोटी के टुकड़े कुतर रहे थे. पत्नी ने जानना चाहा, ‘‘तबीयत तो ठीक है ?’’

अष्टभुजा लाल के घाव अनगिनत सूर्यों की तरह जल उठे. उन्होंने आग उगलती आँखों से पत्नी को घूरा और थाली सरकाकर उठ गए. श्रीमती कुसुम कुमारी आगे थाली लिये ठगी-सी बैठी रहीं. पिता के जाने के बाद बन्नी ने वातावरण को सहज बनाने के लिए जीजा को छेड़ा, तो धन्नी ने रंग दिखाया. दिन भर बे-रोकटोक बन्नी के साथ चुहल करते रहने की छूट में धन्नी की उपस्थिति को नज़रअंदाज़ करनेवाले मुकुंद बिहारी वर्मा के हो को उसने अपनी मुखमुद्रा से ठिकाने लगाया. बैंक बाबू ने सिटपिटाकर थाली में जो नज़रें गिराईं, खाना ख़त्म होने के बाद भी बन्नी की ओर न देख सके. दिन भर की शीतनिद्रा के बाद सज-धजकर तैयार धन्नी अपने ख़ज़ाने पर नागिन की तरह कुंडली मारकर बैठी फुँफकार रही थी. बन्नी उठी और ड्राइंगरूम के सोफे पर जाकर पसर गई. धन्नी ने पति के साथ बन्नी वाले कमरे में पलंग पर कब्ज़ा जमा लिया. श्रीमती कुसुम कुमारी बिना कुछ खाए उठीं, मेज साफ़ किया, किचन सहेजा और जाकर छत पर बैठ गईं.

मई का आखि़री सप्ताह चल रहा था. दिन तपते और रातें उमस भरी होतीं. देर रात तक लोग छतों पर होते. पहले के ज़माने में लोग दरवाज़ों के सामने सहन में खाटें बिछाकर सोया करते थे.......पर अब तो लोग सिकुड़कर अपने घरों में या छतों पर सोने लगे थे..........दानापुर रेलवे कालोनी की गरमी की रातें कौंध गईं श्रीमती कुसुम कुमारी की आँखों के सामने.

रेलवे कालोनी में अपने-अपने क्वार्टरों के सामने खाटें निकालकर सोया करते थे लोग. उनके पिता वासुदेव शरण माल बाबू थे. बाबू नवरंग सहाय टी. सी. और वासुदेव शरण के क्वार्टर आमने-सामने थे. इन्हीं क्वार्टरों में श्रीमती कुसुम कुमारी और निरंजन सहाय एडवोकेट के बचपन से लेकर यौवन के आरंभिक दिन गुज़रे थे. इसी दानापुर रेलवे कालोनी के आका के सूरज-चन्द्रमा और तारों ने दोनों को घुटुरन चलत से लेकर यौवन के वायुवेग के साथ उड़ते हुए देखा था. यहीं मैट्रिक पास होने की ख़ुशी में किशोरी कुसुम ने पहली बार चुम्बन का मौलिक और दुर्लभ उपहार सौंपा था अपने नीरू को. इसी कालोनी में दुर्गा पूजा की रात अपनी माँ की पेटी से पैसे चुराते हुए पकड़े जाने पर नवरंग सहाय के जूतों से पिटते नीरू को जब उसकी माँ मुक्ति नहीं दिला सकीं, तब कुसुम ने ढाल की तरह अपनी पीठ बिछा दी थी. यहीं सब कुछ हुआ था. छोटे-छोटे काग़ज़ के पुर्जों पर लिखे संदे लम्बे प्रेम-पत्रों में विकसित होते गए. बी. ए. फेल होने पर महीनों मुँह-अँधेरे निकलकर देर रात गए वापस आने पर अपनी प्रतीक्षा में कुसुम को बाट निहारते देखकर नीरू ने इस धरती पर बहुत बड़ा आदमी बनने की शपथ ली थी. इसी दानापुर रेलवे कालोनी के अंतिम छोर पर बने क्वार्टर में रहते थे वासुदेव शरण के दोस्त और बचनू लाल के साले, जिनकी बेटी की शादी में शामिल होने छपरा से आई थीं मानो देई. उन्होंने रजिस्ट्री आफि़स में क्लर्की कर रहे अपने बेटे अष्टभुजा लाल के लिए कुसुम कुमारी को पसंद कर लिया था.

दानापुर रेलवे कालोनी की इस धरती ने उन दिनों हर क्षण इतिहास रचा था. विवाह की गहमागहमी शुरु होने से ठीक पहले नीरू ने कुसुम से कहा - ‘‘अब तो तुम जा रही हो. मैं इस लायक़ नहीं कि तुम्हें रोक सकूँ......पर तुमसे थोड़ी देर के लिए अकेले में मिलना चाहता हूँ. एक-दो दिनों में रिश्तेदारों का आना शुरु हो जाएगा. तुम्हारा बाहर निकलना मुश्किल होगा.......क्या आज.......?’’

और उसी रात वासुदेव शरण के क्वार्टर के पीछे भारतीय रेल मज़दूर संघ के दफ़्तर के बरामदे के गहन अँधेरे में दो प्रेमातुर आत्माओं और देहों का महामिलन सम्पन्न हुआ. ईश्वर इस महामिलन के साक्षी ही नहीं बने बल्कि उन्होंने पकड़े जाने से इन दोनों की रक्षा भी की. बी. ए. फेल नीरू, नौकरीपेशा अष्टभुजा लाल के रथ को रोक न सके. निःब्द नीरू ने अपने हाथों बारातियों को भोजन परोसा और जूठे पत्तल उठाए. विदा होती श्रीमती कुसुम कुमारी को आशीष दिया. आक्रांता योद्धा की तरह आए अष्टभुजा लाल और कुसुम कुमारी को लेकर चले गए.

अष्टभुजा लाल को नींद नहीं आ रही थी. अग्निशय्या पर लेटे वह छटपटा रहे थे. आँखें मूँदते, तो अँधेरे में वार्डरोब की छाया उभरती. यह वार्डरोब उनके लिए उच्च ताप पर दहकती परमाणु भट्ठी की तरह था, जिसमें क़ैद उनका पूरा अस्तित्व गलकर पानी बन रहा था. दाएँ-बाए, हर करवट उन्होंने सोने का प्रयास किया. कभी पेट के बल, तो कभी चित लेटे, पर चैन न मिला. कुछ देर तक जब श्रीमती कुसुम कुमारी कमरे में नहीं पहुँचीं, उनकी खोज में वह बाहर निकले.

बन्नी सोफे पर पसरी थी. धन्नी पति के साथ कमरे में बंद थी. खाने की मेज, किचन, सब ख़ाली. कहाँ गईं श्रीमती कुसुम कुमारी ? दबे पाँव सीढि़याँ चढ़ते हुए अष्टभुजा लाल छत पर पहुँचे. देखा, कुसुम कुमारी बेंत वाली कुर्सी पर पीठ टिकाए आसमान निहार रही थीं. वह फिर दबे पाँव नीचे उतर आए. कुसुम कुमारी को पता तक नहीं चला कि कोई आकर चला गया.

दानापुर रेलवे कालोनी स्थित अखिल भारतीय रेल मज़दूर संघ के अँधेरे परिसर की यादों से एक गहरे निश्वास के साथ बाहर निकलीं श्रीमती कुसुम कुमारी. उठीं और आसमान की ओर मुँह उठाकर दोनों हथेलियों से चेहरा पोंछा. खुले-बिखरे बालों को सहेजकर ढीला जूड़ा बनाया. नीचे उतरीं और कमरे में चली गईं. अष्टभुजा लाल को जब श्रीमती कुसुम कुमारी के आने की आहट मिली तो वह करवट बदलकर लेट गए.

श्रीमती कुसुम कुमारी पति के पास जाकर लेट गईं. थोड़ी देर तक उनकी नज़रें कमरे की दीवारों पर भटकती रहीं. उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने को सहेजा. पिघलकर बहते मन को बाँधा और पति के कंधे पर हाथ रखती हुई बोलीं - ‘‘सुनो! एक ज़रूरी बात करनी है तुमसे.’’

‘‘बोलो.’’ बिना चेहरा घुमाए अष्टभुजा लाल ने कहा.
‘‘मेरी ओर घूमो, तब तो कोई बात कहूँ!’’ श्रीमती कुसुम कुमारी ने आग्रह किया.
 ‘‘बात कहने के लिए चेहरा निहारना ज़रूरी नहीं. बोलो जो बोलना है.’’ अष्टभुजा लाल फुँफकार उठे.
 
‘‘किस बात पर नाराज़ हो ?.......बिना अपराध बताए सज़ा देना कहाँ का इंसाफ़ है ?......और ऐसे में कोई बात कहने-सुनने से क्या लाभ ?......पहले मेरी ओर घूमो, तब बोलूँगी.’’ श्रीमती कुसुम कुमारी ने अपना स्वर मीठा किया और पति की पीठ से सटती हुई दाईं बाँह में अष्टभुजा लाल को लपेटने की कोषि की.

‘‘जो कहना हो, जल्दी कहो. मुझे नींद आ रही है.’’ अष्टभुजा लाल तटस्थ बने रहना चाहते थे.

‘‘नहीं, पहले इधर मुँह करो.......मेरी ओर देखो, तब बोलूँगी.’’ श्रीमती कुसुम कुमारी ने अष्टभुजा लाल की पीठ पर अपने वक्षों का दबाव बढ़ाया. उनके कंधे और गरदन के नीचे हौले से दाँत चुभो दिया.

अष्टभुजा लाल ने करवट बदल ली. पके फल की तरह अपनी झोली में टपकते पति को दोनों बाँहों में कसकर श्रीमती कुसुम कुमारी मुस्कराईं. फिर बोलीं - ‘‘बेटियों के सामने जितना चाहो नाराज़ हो लो,.....जो बोलना चाहो, बोल लो,....लेकिन दामाद के सामने तो मेरा मान रखा करो.’’

क्षण भर के लिए अष्टभुजा लाल ने पत्नी की आँखों में देखा और बोले - ‘‘कहो, क्या कहना है ?’’
‘‘आपको नीरू याद है ?.....निरंजन, हमारी शादी में तो देखा ही था तुमने उसे.’’
‘‘नहीं, मुझे कोई याद नहीं.’’ अष्टभुजा लाल ने फिर अपनी आँखें श्रीमती कुसुम कुमारी की आँखों में डाल दीं.
‘‘दानापुर रेलवे कालोनी में ठीक हमारे क्वार्टर के सामने उन लोगों का क्वार्टर था. नवरंग चाचा का क्वार्टर....... निरंजन आजकल बहुत बड़ा वकील है. भागलपुर में प्रैक्टिस करता है. अपना मकान है. काफ़ी पैसा और जायदाद है ......उसी के छोटे बेटे से बन्नी के लिए बात चलाई है. लड़का बैंक में अफ़सर है......हमारे दोनों दामाद बैंक वाले हो जाएँगे. कोई बेटी किसी से कम नहीं रहेगी.....बहुत बड़े लोग हैं. पुराने सम्बन्धों के चलते तैयार हो गए हैं. माँ और भैया लोगों ने दबाव दिया, तो उन्हें मानना ही पड़ा....अब वह अपने बेटे के साथ बन्नी को देखने आना चाहते हैं.........अगले ही महीने.’’
‘‘बन्नी को देखने आना चाहते हैं कि अपनी चहेती से मिलने ?’’ दाँत पीसते हुए पूछा अष्टभुजा लाल ने. उनकी आँखों में क्रोध की लपटें थीं और नथुने फूल गए थे.
‘‘क्या हो गया है तुम्हें ?’’ श्रीमती कुसुम कुमारी के स्वर में मिमियाहट थी.
‘‘मुझे तो कुछ नहीं हुआ.....हाँ, तुम्हें पंख ज़रूर निकल आए हैं.....बेटी के बहाने पुराने यार से रिश्ता जोड़ना चाहती है   तू ?’’ गरजे अष्टभुजा लाल और चीते की फ़ुर्ती से उछलकर श्रीमती कुसुम कुमारी की छाती पर सवार हो गए.
‘‘तुम्हार दिमाग़......’’

इसके पहले कि अपनी बात पूरी करें श्रीमती कुसुम कुमारी, अष्टभुजा लाल ने एक ज़ोरदार तमाचा लगाया. पलंग पर बिछावन के नीचे हाथ लगाकर पुराने पत्रों का एक बंडल निकाला और श्रीमती कुसुम कुमारी के मुँह पर फेंकते हुए बोले - ‘‘मेरा दिमाग़ तो तुम जिस दिन पटना गईं, उसी दिन से ख़राब है.......लो, पढ़ो अपने पुराने यार की ये चिट्ठयाँ.’’ विवाह पूर्व लिखे गए नीरू के पत्र पलंग पर बिखर गए. श्रीमती कुसुम कुमारी की छाती पर सवार थे अष्टभुजा लाल. कभी तमाचे और मुक्के लगाते, तो कभी मुट्ठियों में बाल पकड़कर झकझोरते. उनका कायांतरण हो चुका था. वह सचमुच अष्टभुजाधारी आक्टोपस की तरह अपनी गिरफ़्त में श्रीमती कुसुम कुमारी को जकड़े हुए थे.

पति के कायांतरण का रहस्य पल भर में समझ गईं श्रीमती कुसुम कुमारी. वह पति के प्रहारों से बदहाल थीं, पर उन्होंने क्षणां में निर्णय लिया कि अष्टभुजा नामधारी इस आक्टोपस से मुक्ति के लिए यही उचित अवसर है. उन्होंने अपने भीतर साहस सँजोया और एक झटके के साथ उठीं. अष्टभुजा लाल की पकड़ ढीली पड़ी और वह तिलमिलाते हुए गिरे. तनकर खड़ी हुईं श्रीमती कुसुम कुमारी. बोलीं - ‘‘बस! अब छूना भी नहीं मुझे......तुम्हें ये चिट्ठियाँ तो वार्डरोब में मिल गईं,....पर तुम्हें अपनी माँ की डायरी नहीं मिली ?....उसी में है....जाओ, निकालो और पढ़ लो. मरने से पहले मुझे सौंप गई थीं तुम्हारी माँ मानो देई. कैथी लिपि में लिखी है......उनके मरने के बाद तुम्हीं से कैथी सीखकर पढ़ी थी मैंने. तुम भी पढ़ लो......और कल से अष्टभुजा लाल वल्द झूलन लाल मत लिखना. लिखना, अष्टभुजा लाल वल्द बचनू लाल.....’’


अष्टभुजा लाल पलंग पर लोथ की तरह पड़े थे. उनकी तमाम भुजाएँ जाने कहाँ विलीन हो चुकी थीं!         
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हृषीकेश सुलभ
संपर्क :
पीरमोहनीकदमकुआंपटना-800 003 (बिहार)

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  1. अंत पढ़कर चिंता हुई . ये कैसा हथियार ? मैं अपने पुरुष के साथ खड़ी हो सकूँ . हम एकदूसरे को परास्त करने क्यों निकल पड़ते हैं ?

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  2. सच में इतनी तारतम्यता और जीवंतता है की एक साँस में पढ़ गई।

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  3. सविता मिश्र17 जन॰ 2015, 7:12:00 am

    मनःस्थिति के अनुसार कहानी की संरचना--------।सफल व सशक्त कहानी------कहीं कहीं पर वर्णनाधिक्य है---उससे बचा जाता तो कहानी और सघन प्रभाव छोड़ती।हो सकता है कि ऐसा न हो------।कुल मिलाकर पुरुष मनोविज्ञान का जीवंत दस्तावेज है सुलभ जी की कहानी।

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