हस्तक्षेप : शर्ली एब्दो और पीके : विष्णु खरे







पेरिस में ही पैदा हुए दार्शनिक वाल्तेयर (Voltaire : 1694 – 1778) अभिव्यक्ति की आज़ादी के सबसे बड़े पैरोकार माने जाते हैं. वह कहा करते थे कि तुम्हारी बात से मेरा सहमत होना जरूरी नहीं पर तुम अपनी बात कह सको इसके लिए मैं अपनी जान लगा दूंगा. पेरिस में  शार्ली एब्दो पर हमले से पूरे विश्व में इस आजादी की निरन्तरता और सीमा को लेकर बहस चल पड़ी है. धर्मों के औचित्य और आडम्बर पर मौन रहना अब नागरिकता की शर्त और सहिष्णुता की नई परिभाषा है. ज़ाहिर है यह सत्ताओं के प्रति अनुकूलन की ही एक प्रक्रिया है. बोल की लब आज़ाद है तेरे, कहने का यह सही वक्त है.

कवि –आलोचक विष्णु खरे के इस लेख में ‘पीके’ से लेकर ‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमलों के खतरों को समझने की ईमानदार और संवेदनशील कोशिश हुई है. भारत के  दानिशमंदों से  जिस तरह की भूमिका के निर्वाह की उम्मीद रहती है विष्णु खरे उसे पूरी करते हैं.  

‘शार्ली एब्दो’ और हमारी ‘पीके’                     
विष्णु खरे 




भी भारतीयों, विशेषतः हिन्दुओं, को गर्व होना चाहिए कि ‘पीके’ के ख़िलाफ़ जो एक साम्प्रदायिक आन्दोलन छेड़ने की ख़तरनाक मुहिम चलाई गई थी, वह हमारी अदालतों के बेख़ौफ़ फ़ैसलों और मुख्यतः करोड़ों, युवतर, प्रबुद्ध हिन्दू दर्शकों द्वारा नाकाम कर दी गई. दरअसल ‘पीके’ की यह राष्ट्रव्यापी स्वीकृति 21वीं सदी के इस दूसरे दशक  में एक नए भारतीय दर्शक-वर्ग की मौजूदगी का सबूत है जिसके कई शुभ धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं. सबको मालूम ही है इस फिल्म में अन्य घटनाओं के अलावा हिन्दू देवी-देवताओं के कार्टून-नुमा इश्तहार दीवारों पर चिपकाए जाते हैं और भगवान भोलेनाथ का किरदार निभानेवाले एक भौंचक्के, परेशान, नीलकंठ   एक्टर को ‘पीके’ से पिंड छुड़ाकर भागते हुए दिखाया गया है. दर्शक सब पर हँसते और तालियाँ बजाते रहे.

हिन्दुओं के तालिबानीकरण की बहुत कोशिशें हो रही हैं लेकिन लगता है आज की युवा पीढ़ी उन्हें खारिज़ कर रही है. यह युवा मुस्लिमों में भी देखा जा सकता है. यों भी हमारी लोक और नागर परम्परा में शायद ही कोई देवता, अवतार या भगवान हो जिसके साथ कभी लगभग आपत्तिजनक हँसी-ठिठोली या चुटकुलेबाज़ी  न की गयी हो. बचपन में मैंने एक ‘’गड़बड़ रामायण’’ पढ़ी थी जिसका एक दोहा "आगे चले बहुरि रघुराई, पान खाय बीड़ी सुलगाई’’ था. हमारे यहाँ तो मामला "का रहीम हरि को घट्यो,जो भृगु मारी लात’’ तक पहुँचता है. आज कॉमिक्स, कार्टून फ़िल्मों और टीवी सीरिअलों में इतिहास और हिन्दू मिथकों और आराध्यों के साथ जो हो रहा है वह अभी दस वर्ष पहले कल्पनातीत था.  इसलिए जब ‘शार्ली एब्दो’ हत्याकांड सरीखा मामला पेश आता है तो हम दहशत और अचम्भे से स्तब्ध रह जाते हैं. यह बहुत कम ग़ैर-मुस्लिमों को मालूम है कि वहाबी और अन्य सुन्नियों के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद सहित उनके बीसियों परिजनों और इस्लाम में पवित्र माने जानेवाले उनके सहकर्मियों और अन्य अनेक  सूफ़ी-ग़ैर-सूफ़ी संतों-फ़कीरों की किसी-भी क़िस्म की  कोई तस्वीर आज नहीं बनाई जा सकती, हालाँकि सदियों पहले कुछ बनाई गई थीं, जबकि  शिआ आलिम अली अल-सीस्तानी का फ़तवा है कि अगर पूरी इज़्ज़त और अकीदत के साथ बनाई जाए तो हज़रत मुहम्मद पर भी टीवी या सिने-फ़िल्म की इजाज़त है. कुछ बनी भी हैं लेकिन किसी में भी उनका चेहरा नहीं दिखाया जा सका है. मूर्ति या बुत बनाने का तो सवाल ही नहीं उठता. नकूला बस्सेली नकूला की छोटी वीडिओ फ़िल्म ‘’रिअल लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद’’ उर्फ़ ‘’द इनोसेंस ऑफ़ मुस्लिम्स’’ अलबत्ता प्रतिबंधित है. कुल मिलाकर गंभीर मश्विरा और ताक़ीद यह है कि ‘’बा ख़ुदा दीवानाबाश ओ बा मुहम्मद होशियार’’ –‘’ख़ुदा से भले ही दीवानगी करो लेकिन मुहम्मद के मामले में होशियार रहो’’.

फ्रैंच व्यंग्य-साप्ताहिक ‘शार्ली एब्दो’ घोषित रूप से एक वामपंथी प्रकाशन है जो  किसी भी व्यक्ति, संस्थान, धर्म आदि की अतिभक्ति नहीं करता, दुस्साहसी है  और इस कारण पहले भी कई संगीन सरकारी-ग़ैरसरकारी तकलीफ़ें उठा चुका है, एकाध बार बंद भी हुआ है. उसके सभी पत्रकारों ने सैमुएल पी. हंटिंग्टन की 'दि क्लैश ऑफ़ सिविलिज़ेशंस एंड दि रिमेकिंग ऑफ़ वर्ल्ड ऑर्डर' तो पढ़ ही रखी होगी, इस्लामी विश्व की अनेक मानसिकताओं से परिचित भी होंगे. दस वर्ष पहले अम्स्तर्दम में यूरोप की तस्लीमा नसरीन अयान हिर्सी अली के सहयोग से मुस्लिम स्त्रियों पर ‘सबमिशन’ शीर्षक फिल्म बनाने वाले दक्षिणपंथी डच फ़िल्मकार तेओ वान खोख़ की हत्या को भी वह न भूले होंगे.अयान हिर्सी अली तब से अमरीका में शरणार्थी हैं. सबसे बड़ी बात तो यह कि ‘शार्ली एब्दो’ ने ही डेनमार्क के अखबार ‘यिलान्ड्स पोस्टेन’ में छपे हज़रत मुहम्मद के मूल कार्टूनों को कुछ अपने वैसे-ही नए कार्टूनों के साथ दुबारा  छापा था.

व्यक्तियों के कार्टून तभी बनाए जाते हैं जब उनके मूल चेहरे जगत्विख्यात हो जाते हैं. यदि कार्टून के साथ बताना पड़े कि वह किसका कार्टून है तो उसकी कोई सार्थकता ही नहीं रह जाएगी. यहाँ समस्या यही है कि कोई नहीं जानता कि मुहम्मद साहब का असली चेहरा क्या था या उनके कौन-सी  काल्पनिक तस्वीर  को उनका प्रचलित, मानक चित्र स्वीकार कर लिया गया है. उधर एक सच यह भी है कि आप लाख किसी अल्लाह, ख़ुदा, भगवान, येहोवा, पैग़म्बर, फ़रिश्ते आदि के चित्र पर रोक लगा लें, हर व्यक्ति की कल्पना में उनकी कोई-न-कोई  तस्वीर तो रहती ही है. तसव्वुर को आप कैसे रोक लेंगे ? स्वयं मेरे मन में मुहम्मद की एक तस्वीर है, अल्लाह की भी है, जो उनके किसी भी कार्टून से दूर-दूर तक मेल नहीं खाती. मुहम्मद के जितने कथित कार्टून मैंने देखे हैं उनमें न तो मुझे कोई ‘कलात्मकता’ नज़र आई,न ‘असलीयत’, न वह ‘’सैंस ऑफ़ ह्यूमर’’, न वह  प्यारा लुत्फ़  जो नेहरू या गाँधी आदि  के कार्टूनों को देख या याद कर आज भी आते हैं. मुहम्मद के डेनिश और शार्ली एब्दो कार्टूनों ने मुझे निराश और नाराज़ ही किया है. वह बेहद मामूली और कल्पनाशून्य रहे. कभी वह विभिन्न आयतुल्लाहों द्वारा प्रेरित लगते हैं तो कभी सहरा के ऊँटवालों द्वारा. उन्हें कुफ़्र या हज़रत मुहम्मद या इस्लाम का अपमान समझना उन्हें बहुत बड़ा दर्ज़ा  दे देना है.

‘शार्ली एब्दो’ को जिस तरह से फ़्रांसीसी और यूरोपीय जनता का समर्थन मिला है, लाखों शोकाकुल और नाराज़ नागरिक सडकों पर उतर आए,उसके नए अंक की,जिसके आवरण पर इस बार एक दुखी मुहम्मद का "Je suis Charlie” ( "ज़्षे स्वी शार्ली’’ : “मैं शार्ली हूँ" ) कहते हुए ‘चित्र’ दिया गया है, 50 लाख प्रतियाँ कुछ ही मिनटों में हाथोंहाथ बिक गईं, लगभग हर यूरोपीय अखबार ने उस आवरण को ख़बर के तौर पर छापा, और अभी यह घटनाक्रम थमा नहीं है,यूरोप, पश्चिम और शेष विश्व में मुसलमानों पर इसका दूरगामी असर पड़ेगा,तुर्की को अब शायद ही यूरोपीय संघ की सदस्यता नसीब हो, उससे साफ़ है कि देर-सबेर इस हमले पर कई किताबें लिखी जाएँगी, एक या अधिक फ़िल्में बनेंगी.उन किताबों और  फिल्मों और उनके सर्जकों  का क्या हश्र होगा यह कोई नहीं कह सकता.


‘अल क़ायदा’,’बोको हराम’ और ‘दौला अल-इस्लामिया’ ( आइ.एस.आइ.एस. ) सरीखे अमानुषिक भस्मासुरी संगठन शेष विश्व के साथ जो कुछ कर रहे हैं सो तो कर ही रहे हैं, मुसलमानों और इस्लाम को रोज़ अपूरणीय क्षति पहुँचा रहे हैं. सऊदी अरब तो पवित्रतम मुस्लिम तीर्थ मक्का-मदीना को ‘दौला अल इस्लामिया’ के आशंकित हमले से बचाने के लिए अपनी सीमा पर आठ सौ किलोमीटर लम्बी दीवार खिंचवा रहा है. यह कहने से अब तो और भी काम नहीं चलता कि इस्लाम एक शांतिपूर्ण धर्म है. इस्लामी दुनिया, विशेषतः भारतीय उलेमा और मुस्लिम बुद्धिजीवियों, की चुप्पी समझना मुश्किल है और आसान भी. पश्चिम और उससे कमोबेश प्रभावित सभ्यताएँ कठिनाई से अर्जित अपनी आधुनिक प्रबुद्धता नहीं छोड़ना नहीं  चाहतीं जबकि विडंबनात्मक पश्चिमी प्रगति के सारे फायदे उठाते हुए इस्लाम उसे ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझ रहा है. एक दुस्साहसी इशारा मिस्र के राष्ट्रपति ने किया है कि इस्लाम को अपने पारम्परीण सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना होगा. इंशाअल्लाह, लेकिन जब तक वैसा नहीं होता, हमें शार्ली एब्दो के साथ निर्भीक,निस्संकोच खड़ा होना होगा और उस पर एक बड़ी  फ्रेंच फिल्म का इंतज़ार करना होगा. मुसलामानों से मुहब्बत करनेवाले एक निहायत अदने हिन्दू पत्रकार,लेखक और फिल्म-समीक्षक की हैसियत से, जिसे उम्मीद है कि ओवैसियों के बावजूद उसे भारत में हिफ़ाज़त की ऐयाशी  हासिल है, मैं दुहरा ही सकता हूँ : ‘’Je suis egalement Charlie’’–‘’मैं भी शार्ली हूँ’’.

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(यह लेख नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण में रविवार को छपा है)

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  1. चेतना का विखराव इस तरह की घटनाओमे दिदिखा जाता है

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  2. बिष्णु जी हमारे समय के अध्येता है.अपनी बात साहस से रखते है.यहां भी उनका यह रूप नजर आया..हम जिस तरह के समाज में रह रहे है.वहां गहरा अंधेरा है.ज्ञान का प्रकाश धीमा हुआ है.

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  3. बहुत सुन्दर आलेख, मन की गांठो को खोल देता है।

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  4. हमारे देशमें अभिव्यक्ति की आजादी पर जो हमले हो रहे हैं उस पर भी विष्णु जी को लिखना चाहिए

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