सहजि सहजि गुन रमैं : प्रभात

















प्रभात हिंदी कविता की नई रचनाधर्मिता की पहचान हैं. हिंदी कविता को वे फिर सादगी और मासूम संवेदनाओं के पास ले आये हैं. उनकी कविताओं में पर्यावरण की वापसी हुई है. वनस्पतियाँ, मवेशी, तालाब, गड़ेरिये समकालीन अर्थवत्ता के साथ लौटें हैं.कि पीड़ा को और पीड़ा न पहुंचे/मैं ऐसे हौले-हौले धीरे-धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में’ कवि का नैतिक पक्ष है जिससे इन कविताओं में मनुष्यता की उजास फैली है. लगभग एक जैसी बड़ी मात्रा में लिखी और प्रकाशित कविताओं के बीच प्रभात अलहदा काव्य आस्वाद रखते हैं. प्रभात की सात नई कविताएँ आपके लिए.
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यहाँ घर थे

यहाँ घर थे
घरों में जिन्दगियाँ रहा करती थीं
जब वे जिन्दगियाँ निकाल दी गईं इन घरों में से
यहाँ रहने लगीं उनकी कहानियाँ
उन कहानियों की मृत चर्चा होती थी
पत्र-पत्रिकाओं और गोष्ठियों में
आगामी अंकों में इन चर्चाओं को
जगह खाली करनी पड़ती थी
दूसरी चर्चाओं के लिए
इस तरह चर्चाएँ बिकती रहती थीं
कहानियाँ इनमें दबी-दबी मर सकती थी
सो वे यहाँ से निकलकर अनंत में
भटकने निकल जाती थीं
इस तरह कहीं बच जाती थीं
उन वनस्पतियों की तरह
जिनके बारे में सभ्यता समझती है
कि वे खत्म हो गईं.




वह दिल

मैं उस दिल को याद करता हूँ
जो धड़कता था मेरे लिए
वह दिल जो उसके शरीर के घोंसले में रहता था
वह जो सरसों के पत्तों के रंग का लहँगा पहनती थी
और सरसों के फूलों के रंग की ओढ़नी कंधों पर डाले रहती थी 
और भयावह बारिश में मेघों के बीच कौंधती
बिजली की सी चाल से चलती हुई
आती थी अन्धकार को चीरती हुई
और जब आ जाती थी
वह दिल अपनी सर्वाधिक रफ्तार से धड़कता था
ऐसी रफ्तार से कि जैसी रफ्तार के बाद
तेज गति से घूमते हुए पहिए दिखाई देना बंद हो जाते हैं
वह दिल धड़क रहा है या थम गया है उसका धड़कना
कुछ पता नहीं चलता था

धड़कता जाता था और कुछ कहता जाता था
जाता था यानी चला ही जाता था उसके हल्दी के रंग के
शरीर के घोंसले में रखा वह दिल
और मेरे हाथ उस शरीर को थामने के लिए
छटपटाते ही रह जाते थे जिसमें वह दिल
छटपटाता हुआ वापस चला जाता था वहाँ
जहाँ जाकर उसमें कोई स्पंदन नहीं होता था.




सपने

मैं उमर दर्जी के पास गया
मैंने अपने सपनों का कपड़ा उसे दिया
इसका क्या बन सकता है पूछा
वह खामोश बयालीस साला तजुर्बेकार
गमगीन आँखों से मेरे चेहरे की तरफ देखने लगा
क्या बनवाना चाहते हो उसने नहीं पूछा
उसने सपनों के कपड़े का फैला हिस्सा हटा दिया
ताकि वह बहुत ढीला रहे ना थोड़ा
मैं उसे लेकर लौट आया
रास्ते में तालाब के पत्थर पर बैठकर मैंने उसे धोया
झाड़ पर सूखने फैला दिया
साँझ जा रही थी
रात होने से पहले मुझे धर पहुँचना था
मेरा जीवन छोटा हो गया था.



याद

मैं जमीन पर लेटा हुआ हूँ
पर बबूल का पेड़ नहीं है यहाँ
मुझे उसकी याद आ रही है
उसकी लूमों और पीले फूलों की

बबूल के काँटे
पाँवों में गड़े काँटे निकालने के काम आते थे
पर अब मेरे पास वे पाँव ही नहीं है जिनमें काँटे गड़े

मुझे अपने पाँवों की याद आ रही है.



कि

उन दिनों मैं उसके बारे में बहुत सोचता था
वह मेरे बारे में सोचने को हँसकर टाल देती थी
मैं सूखी नहर के किनारे घास के निशानों के पास
मिट्टी में जाकर बैठ जाता था और
सोचता ही रहता था
हरी टहनियों की छायाओं के पीछे
डूबते सूरज को देखते हुए
सारस सिर के ऊपर से कब निकल गए डैने फैलाए
पता ही नहीं चलता था इतना डूबा रहता था
तब भी वह मेरे बारे में नहीं सोचती थी
उसे क्या पता रहता था कि
मैं इतना सोचता हूँ उसके बारे में
मेरी हालत यह थी कि
मैं रात को भी एकाएक उठकर
छत पर चला जाता चाँद को देखता
हालाँकि मैं उसे देखना चाहता था
ऐसा दो बरस से अधिक
कुछ और महीनों तक रहा
धीरे धीरे अपने आप ही
कम हो गया उसके बारे में सोचना
जैसे नदियाँ क्षीण होने लगती हैं
यह सोचकर दुखी भी रहता था कि
उसने शायद अभी भी नहीं सोचना शुरू किया मेरे बारे में
किया होता तो मुझमें कुछ परिवर्तन जरूर आया होता
जब मैं उसे पूरी तरह भूलने लगा उदास होते हुए
एक दिन उसकी ओर से मिले सन्देश से मुझे पता चला कि
वह इतना अधिक सोचती है मेरे बारे में जिसकी
मैं कल्पना ही नहीं कर सका था
पर मैंने उसके सन्देश का कोई जवाब नहीं दिया
क्या जवाब देता
क्या कहता उससे कि...



पोखर

पोखर होने के लिए पानी से भरा होना जरूरी नहीं
जब उसमें पानी नहीं होता
तब क्या वो पोखर नहीं होता

अगर नहीं होता
तो फिर कभी भी
कैसे भरता वो वापस
कैसे बुझाता भेड़ों की बकरियों की
ऊँटों की तस

कैसे दिखाई देती परदेशी आकड़ों पर सूखती
कसीदे कढ़ी लूगड़ियाँ
क्यों वहाँ आकर मुँह अँधरे में ठिठुरती हुई हँसती
कातिक न्हाती लड़कियाँ



धीरे

मैं इतना धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में
जितना धीरे चलते हैं गड़रिए बीहड़ में

वे रहते हैं इस संसार में
पेड़ों, जोहड़ों, गुफाओं और कंदराओं की तरह विलीन
वे रहते हैं अपनी भेड़ों के रेवड़ में लीन
उनके पीछे किसी पागल प्रेमी की तरह भटकते हुए

किसी भेड़ के पैर में लगा कीकर का काँटा
चलते हुए अचानक उनकी ही ऐड़ी में खुब गया हो जैसे
वे तड़पते जाते हैं और कांटे को निकालते जाते हैं
भेड़ के पैर में से
थोड़ी सी तम्बाकू रखकर पैर पर
अँगोछे की लीर लपेटते हैं हौले-हौले धीरे-धीरे
कि पीड़ा को और पीड़ा न पहुंचे
मैं ऐसे हौले-हौले धीरे-धीरे चलना चाहता हूँ जीवन में

सूर्यास्त जैसे घर हो भेड़ों का
वे भाँप लेती हैं
बादलों की हरी-सुनहरी घासों भरे आसमान में
सूरज का डूबना
वे शुरू करती हैं बस्ती की तरफ उतरना
उनके असंख्य पैरों की सुंदर चाल के
संगीत की धुन में खोए गड़रिए
जैसे उतरते हैं झुकी हुई साँझ की
पगडण्डी की धूल में पाँव धरते हुए
हौले-हौले धीरे-धीरे
मैं अपने कर्म की धूल में पाँव धरते हुए
उतरना चाहता हूँ जीवन में
हौले-हौले धीरे-धीरे

सूखे वनप्रांत के एकाकी जलाशय सी
कैसी दुर्लभ करूणा है उनकी आँखों में
वे आज भी किसी शिशु के से विस्मय से
देखते हुए बढ़ते हैं घिरते हुए अँधेरे को
और उन्हें बोध हो रहा हो जैसे पहली बार
ऐसी उत्सुकता से निहारते हैं तारों को
मैं ऐसी ही गाढ़ी उत्सुकता लिए हुए
बढ़ना चाहता हूँ जीवन के अँधेरे में

देर रात जैसे सोते हैं गड़रिए
खाट बिछाकर अपनी भेड़ों के बीच
स्मृतियों के आँगन में डालना चाहता हूँ खाट
इस जिए हुए और नहीं जिए जा सके जीवन से
कभी जी भर सकता है भला
देर-देर तक जागकर देखते रहना चाहता हूँ
रात के आकाश के उजले पर्दे

विशाल मैदानों की सुनहरी
घास के रंग का सूरज
विचरता रहेगा जब तक पृथ्वी पर
विचरते रहेंगे गड़रिए
और उनकी भेड़ों के रेवड़
मैं नहीं रहूँगा तब भी
घासों और पुआलों सी जीने की मेरी नर्म इच्छा
विचरती रहेगी पूरब में
ओस चाटते हिरनों के साथ-साथ.

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प्रभात 
१९७२  (करौली, राजस्थान)

प्राथमिक शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम विकास, शिक्षक- प्रशिक्षण, कार्यशाला, संपादन.
राजस्थान में माड़, जगरौटी, तड़ैटी, आदि व राजस्थान से बाहर बैगा, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी भाषाओं के लोक साहित्य पर संकलन, दस्तावेजीकरण, सम्पादन.

सभी महत्वपूर्ण पत्र – पत्रिकाओं में कविताएँ और रेखांकन प्रकाशित
मैथिली, मराठी, अंग्रेजी, भाषाओं में कविताएँ अनुदित

अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ (साहित्य अकादेमी/कविता संग्रह)
बच्चों के लिए- पानियों की गाडि़यों में, साइकिल पर था कव्वा, मेघ की छाया, घुमंतुओं
का डेरा, (गीत-कविताएं ) ऊँट के अंडे, मिट्टी की दीवार, सात भेडिये, नाच, नाव में
गाँव आदि कई’ चित्र कहानियां प्रकाशित

युवा कविता समय सम्मान, 2012, भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार, 2010, सृजनात्मक
साहित्य पुरस्कार, 2010

सम्पर्क
1/551, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान 322001  

14/Post a Comment/Comments

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  1. अह ..कितने तो खंडहर चट चट करते रहे मन के भीतर. अनथक 'कि' से लड़ते हुए मैं कितने बचपनों से मिलती रही, कितने तो स्वप्न समय मुझे खंडित करते हुए कि मैं वहीं रहती थी और अब कोई कहानी भी नहीं ..इस हैमलॅाक ,इस अफ़ीम से बाहर आना मुश्किल ..ये सुबह भी क्या चटा गई मुझे!

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  2. prbhat ki kavitayen mano jeevan me thoda jeevan aur bhar deti hain.. Kya kahun? sivay iske ki in kavitaon ne zindgi ke tamaam zaroori kaamo ke beech ek raahat ki saans bakhshi.. shukriya

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  3. महेश वर्मा21 जन॰ 2015, 2:37:00 pm

    साँझ जा रही थी
    रात होने से पहले मुझे धर पहुँचना था
    मेरा जीवन छोटा हो गया था.

    उन दिनों मैं उसके बारे में बहुत सोचता था
    वह मेरे बारे में सोचने को हँसकर टाल देती थी

    कम हो गया उसके बारे में सोचना
    जैसे नदियाँ क्षीण होने लगती हैं

    कितनी लाइनें दोहराई जाएँ? प्रभात भाई अनमोल कवि हैं. उनकी कवितायें अपनी सम्पूर्णता में शानदार हैं. ये कविता पढने की इच्छा को भरपूर तृप्त करती कवितायें हैं. मन होता है कि दौड़कर उनतक पहुंचा जाये और देर तक, और बार बार उनकी संकोच से भरी किन्तु स्थिर आवाज़ में उनकी कवितायें सुनी जाएँ. समालोचन का आभार. कवि के प्रति हार्दिक कृतज्ञता.

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  4. बहुत सुन्दर और आत्मीय लगने वाली कविताएँ । प्रभात जी के लिए आंतरिक शुभेच्छा ।

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  5. सारी कवितायें अच्छी हैं | लेकिन 'यहाँ घर थे' और 'कि' बेहद पसंद आयीं | इस मेले में इनका कविता संग्रह लेना है |

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  6. इस वक्‍त के चुनिंदा कवियेां में एक।

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  7. प्रमोद कुमार तिवारी21 जन॰ 2015, 2:52:00 pm

    विषयों की नवीनता और उन्हें उठाने का प्रभातजी का अंदाज़ दुर्लभ है। बिम्बों के अनूठेपन और टटकेपन का क्या कहना। साधु-साधु हे साधक। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना रहा है कि आधुनिक हिन्दी कविता का बहुलांश प्रौढों के लिए लिखा जा रहा है। वैचारिकता के अतिरिक्त भार से बोझिल। इसीलिए एक ख़ास तरह की नीरसता भी दिखती है इसमें। प्रभात इस एकरसता को तोड़ते हैं। शायद प्रभात की सफलता का एक कारण यह है कि वे बच्चों के लिए लिखते हैं। मुझे याद आ रहा है कि बिल्कुल छोटे बच्चों की पत्रिका फिरकी (एनसीईआरटी) का जब संपादन कर रहा था तो दो चार रचनाकार ही थे जिनसे हमें काम की चीज़ मिलती थी, उनमें से एक प्रभात थे। इस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि समकालीन कविता में मासूमियत, खिलंदडापन, हास्य और नॉनसेंस (सेंसलेस नहीं) बिन स्तर गिराए कैसे लाया जा सकता है। समालोचन और प्रभात जैसे रचनाकारों की ओर उम्मीद भरी नज़रों के साथ-प्रमोद

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  8. मुझे अचानक, अनायास ही, अपने बहुत प्रिय स्पेनिश कवि मिगुएल हर्नांदेज़ की याद आई. हिंदी में बहुत कम लोग ही उन्हें जानते हैं. वे गडरिया ही थे. सचमुच के गड़रिया. लगा कोई कवि उस गड़रिया कवि की संपूर्ण अबोधताओं, निश्छल सहजताओं को हमारे समय में इस संवेदना के साथ लिख रहा है. वह भी एक ऐसी भाषा में, जिसमें अधिकतर कविताएं अन्य-अन्य शक्तियों और विकारों से आक्रांत हो चुकी हैं. पहली ही बार ये कविताएं पढ़ीं और मुरीद हुआ. बस अब इतर महत्वाकांक्षाएं इस 'स्वभाव' को अपहृत न कर लें. ये कविताएं कविता का हो सकना बचा रही हैं.

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  9. मिगुएल हर्नांदेज़ की याद प्रासंगिक लगती है . उनकी ही तरह प्रभात की हर एक कविता एक पूरी कविता होती है . कविता जो विचारों का संग्रहालय या बिम्बों की नुमाइश न हो .

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  10. अद्भुत कविताएँ ..विशेषकर प्रेम कविताएँ आपको दूसरी दुनिया में ले जाती हैं ...जहाँ धरती के तन पर पीली सरसों बिखरी हुई है ...जहाँ तक स्मृती जाती है वहां तक ..इन कविताओं की पहुँच आम जनों तक है..यदि कविताएँ ऐसी होंगी तभी जीवित रहेंगी. बधाई प्रभात जी को ..शुक्रिया अरुण जी को इन्हें पढवाने के लिए..

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  11. हे हिन्दी कविता की सालाना श्रेष्ठता के पेशेवर निर्णायकों ! क्या तुम ऐसी कविताएं पढ़ पाते हो, जिन्हें पढ़कर तुम्हें एक बार ही सही, लगे कि खुशामद और सिफ़ारिश और कुनबे के संवर्धन से परे कहीं वह कविता भी होती है जो इतनी उम्दा होती है कि अपना पुरस्कार स्वयं हो जाती है.

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  12. प्रभात जी बधाईया, बहुत सुन्दर कविता..... ! आपकी कविताओ मै जीवंत अनुभव दिखते है, कविताओ को पड्ने के साथ -साथ अपने बचपन के अनुभवो से जुड जाता है, जो एक प्रतिभाशाली कवि की पहचान है.

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  13. फिर से पढ़ रही हूँ इन्हें ..

    मैं जमीन पर लेटा हुआ हूँ
    पर बबूल का पेड़ नहीं है यहाँ
    मुझे उसकी याद आ रही है
    उसकी लूमों और पीले फूलों की

    बबूल के काँटे
    पाँवों में गड़े काँटे निकालने के काम आते थे
    पर अब मेरे पास वे पाँव ही नहीं है जिनमें काँटे गड़े

    मुझे अपने पाँवों की याद आ रही है.

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