सहजि सहजि गुन रमैं : बाबुषा कोहली





















युवा कवयित्री बाबुषा कोहली की कविताओं की निर्मिति में सघन संवेदनात्मक बिम्बों और मिथकों की आदमकद आकृतियाँ का रचाव है. अपनी अपेक्षाकृत आकार में लम्बी कविताओं में वह इसका सार्थक संधान करती हैं. अपनी आस्वाद प्रक्रिया में भी बबुषा की कवितायेँ हिंदी कविता के नये विकास का सूचक हैं. प्रेम, अलगाव वंचना जैसे भावों को बाबुषा ने अलहदा काव्यार्थ  प्रदान किया है.



स्किट्ज़ोफ़्रेनिया, मुक्ति की नदी और खो-खो

(अलमित्रा ने कहा - हमसे प्रेम के विषय में कुछ कहो. मसीहा ने सिर उठाया और सब पर शान्ति बरस पड़ी. उसने कहा -  प्रेम का संकेत मिलते ही उसके अनुगामी बन जाओ हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं.
और जब उसकी बाँहें तुम्हें घेर लें, समर्पण कर दो, हालाँकि उसके पंखों में छिपी तलवारें तुम्हें लहूलुहान कर सकते हैं, फिर भी. और जब वह शब्दों में प्रकट हो, उसमें विश्वास रखो.  - खलील जिब्रान )
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कि जैसे अन्तरिक्ष के ओर-छोर तक विस्तार था उस खेल के मैदान का.

मैं सहमी-सकुचायी किनारे खड़ी थी. वो खो-खो का खेल था. पहली बार देखा था तुम्हें उस रोज़ खम्भे के पास देव-मुद्रा में खड़े हुए.  तुम मुझे पुकारते और मैं पीठ कर लेती.

छिलने लगी थी पीठ उन याचनाओं से.

कितना तो लम्बा-चौड़ा मैदान है. मैं नहीं आऊँगी. हारना मेरी आदत नहीं और तुम से जीत कर क्या करना ?

तुम हौले से मुस्कुरा देते.

"कहते हैं वो कि क्या करेंगे जीत के तुम से

कुछ रह गया है अब भी, करने को बेख़बर"

इतने लोग हैं, किसी को भी ले जाओ वहाँ तक.

मैं झिझक कर कहती. मन का  सबसे गुप्त द्वार बेध जाने वाली तुम्हारी आँखें कहतीं.

"न. और कोई नहीं. बस, तुम ही."

जैसे ज़िद ठान चुके थे कि मेरे साथ ही खेलोगे ये 'होने और खोने' का खेल और फिर ले जाओगे मैदान पार उस पवित्र नदी तक.

तुम्हारी आवाज़ मेरा नाम भी छू जाए तो मैं कुम्हला जाती छुई-मुई की पत्ती सी. कैसा आदमकद चुम्बक  सामने खड़ा था और मेरे लहू का कुल लोहा जैसे फड़कता-सा था.

" बहाना है ये खेल वहाँ तक पहुँचने का. उस नदी तक. "

लापरवाही से बताते तुम जैसे कोई बात ही न हो और इधर जान हलक पर अटक आई थी.

नदी ? वो कौन सी नदी है ? क्यों जाना है वहाँ तक हमें ? मैं सोचती रह जाती और तुम मेरी कलाई पकड़ कर मैदान के भीतर खींच लेते.

एक नदी बहती थी मैदान के उस पार नौ रंगों वाली.

सोचती थी कि वहाँ के पानी में और कौन से दो रंग होते होंगे. उस नदी के बारे में सोचते हुए तुम खुद डूब जाते और कुछ भी न कह पाते सिवाय इसके कि अनदेखे-अनछुए रंग हैं. पहुँचने का रास्ता भी ऊबड़-खाबड़- अबूझ. एक खेल खेलना है आकाश-गंगाओं के ऊपर झमकते हुए तो कभी ब्लैक होल के गहरे गड्ढे के भीतर डूबते हुए.

"ये खुद को खो देने का खेल है, सोनाँ. खो-खो का खेल.  बचना मत. नदी तभी मिलेगी, और पहुँचना ही है नौ रंगों की नदी तक कि तुम्हें डुबकी लगानी है वहाँ. तुम ही हो वो चुनी हुयी अभिशप्त राजकुमारी. उस पवित्र जल में स्नान के सिवाय कहीं मुक्ति नहीं. "

तुम्हारा संदेश मेरे कानों से सरसराते हुए हृदय में उतरता और शुरू हो जाता खेल खो-खो का.

एक सीधी पंक्ति में उल्टी दिशाओं की ओर बैठे खिलाड़ियों के आर-पार होती हुयी मैं दौड़ शुरू करती हूँ.  मैं सप्तऋषि के ऊपर से गुज़रती हुयी और मेरी देह रुई के फाहे सी उड़ती हुयी बादलों के बीच. पलट कर तुम्हें देखती , मुझे पकड़ने का स्वाँग करते हुए आते मेरे पीछे-पीछे. हमारी नज़रें टकरा जातीं, बिजलियाँ हचक के चमकतीं और धरती पर मूसलाधार पानी बरसता.

हम हँसते जाते और बरसता जाता प्यार का पानी. बूँदे बनतीं, धरती से टकरातीं, टूटतीं, खो जातीं. हम आगे बढ़ते जाते. चारों ओर से बहे आते थे  उल्का के छोटे-बड़े पिंड और  हमें छू कर निकल जाते थे.

सीधी पंक्ति में बैठे हुए तुम्हारे हमशक्लों के आर-पार होती  गुलाब की पत्ती-सी उड़ते हुए सप्तऋषि और हाइड्रस को पार कर गयी थी.  कब पता था कि हमारी नज़रें टकराने से जो बिजलियाँ चमकी थीं, गिरेंगी वो मुझ पर ही. मैं खेल रही थी खेल खो-खो का कि धूल का गुबार उठने लगा. बड़ी लाल आँखों वाले तुम बवंडर के बीच से चले आ रहे थे और मैं भाग रही थी बहुत तेज़. तुम्हारे मुँह से निकल रहे थे नुकीले औज़ार और मेरी आत्मा से लहू रिस रहा था. तुमने मुझे जकड़ लिया था और अपने बड़े बड़े नाखूनों से नोच रहे थे.  मैं हक्का-बक्का घूमती पीछे तुम्हें देखने को और तुम वहाँ से मुस्कुराते थे.

कैसा मायाजाल ?

मैं चीखती जाती थी मेरी जान बख्श दो.

तुम्हारे इस मायावी रूप से छिटक कर किसी तरह उल्टी दिशा में भागी थी. उन लाल डोरे वाली वहशी आँखों से बच कर कितनी रातें कितने दिन दौड़ती रही कुछ होश नहीं. जब होश आया तो देखती हूँ चाँद का मुकुट पहने बादलों की सेज पर लेटी हूँ. तुम ठीक मेरे सामने मुस्कुराते हुए. लिपट जाती हूँ, फफक कर रो पड़ती हूँ. तुम बालों में उंगलियाँ फिराते हो, दूर दक्षिण में तारे टूट कर गिरने लगते.

कौन था वो ? तुम कौन हो ? हम कहाँ हैं इस वक़्त ? वक़्त क्या हुआ है ? दिन है कि रात है ? खो-खो का खेल ख़त्म हुआ या नहीं?

नाड़ी के साथ सौ सवाल धड़क उठे थे  कि अचानक होश आया तन पर वस्त्र नहीं. हड़बड़ा कर उठी और नग्न देह ढँकने को बादल का एक टुकड़ा खींच लिया. कैसी निर्मम हँसी के साथ बादल के उस टुकड़े को तुमने  फूँक मार कर उड़ा दिया. अपनी  छोटी-छोटी हथेलियों से वक्ष ढाँपने की कोशिश करती बेबस सी मैं रोती जाती और तुम्हारी हँसी के साथ बादल गरजते थे.\

"चाँद का मुकुट पहनाया तुम्हें. शर्त यही कि तन पर और कुछ नहीं."

मैं रो रही थी घुटनों पर सिर छुपाए.

"मुझे सरे-आम निर्वस्त्र करते हो, शैतान ! नहीं जाना मुझे नदी तक. मुझे वापस जाना है. नहीं खेलना ये खेल मुझे."

" हाँ ! शैतान ही तो !

उधर जब हँस रही थी तुम सप्तऋषि के पास तब भी मैं ही था तुम्हारी आत्मा पर खिलने वाला गुलाब और यहाँ ज्येष्ठा, मूल,रेवती, अश्वनी, आश्लेषा, मघा के बीच लहूलुहान पड़ी हो तब भी मैं ही हूँ तुम्हारी वजूद के चारों ओर फैला हुआ काँटों का बाड़.

कौन जा पाता है वहाँ तक ? कोई नहीं. तुम्हें ले जाऊँगा नौ रंगों वाली उस नदी तक और दिखाऊँगा अब तक अनछुए-अनदेखे रंग. मैं तुम्हें मुक्त करवाऊंगा उस श्राप से."

नीमबेहोशी सी तारी थी मुझ पर और आधे-अधूरे शब्द कानों पर गिरते थे. आँखों के आगे दिखता था खो-खो का खेल और तुम्हारी शक्ल के नौ खिलाड़ी, पूर्व की ओर मुँह किये बैठे दीपक की लौ जैसे ऊँचे उठते तुम्हारे प्रेम के दूत और पश्चिम की ओर मुँह किए कीचड़ सने वासना से भरे शैतान.

कैसा स्किट्ज़ोफ्रेनिक रूप था यह प्रेम का. कौन था प्रेम नाम का मदारी अपनी डुगडुगी की थाप पर नाच नचाता हुआ.

दूर दिखती थी नदी एक, कानों में कल-कल बहती थी.

याद है वो नौ सौ साल पुराना 'लवर्स ओक' जिसके नीचे तुमने मेरा हाथ थामा था. नौ जन्मों से  खो-खो खेल रहे हम नदी तक पहुँचने को. तुम गिराते, उठाते, दौड़ाते, फिर गिराते, फिर उठाते और फिर दौड़ाते.
कितना दौडूँ ?

मेरे भीतर बहता है कुछ कलकल, भीग जाती हूँ. कोई नाव चलती है आँखों में, नाभि में खिल जाता है कमल, किसी प्रपात से छप्प - छप्प गिरती हूँ.

खोने का खेल जारी है खो-खो..

किस नदी की ओर मुझे लिये जाते हो ? कितना दौड़ाते हो ? क्या पाने के लिए खो जाने का खेल रचाया ? कब की खो चुकी खुद को, दौड़ कैसी, कहाँ के लिए ?

रुकना ज़रा ! एक बार मुड़ कर देखना !

दौड़ नहीं सकती, बह रही हूँ कब से. झाँको मेरी शिराओं में, नौ रंगों वाली नदी हो गयी हूँ कब से...

फ़ुटनोट्स -
1. हाइड्रस - धरती से 127 प्रकाश वर्ष दूर एक तारा समूह.
2. ज्येष्ठा, मूल, रेवती,मघा,आश्लेषा,अश्वनी - हिन्दू मान्यता के अनुसार अशुभ नक्षत्र.
3. लवर्स ओक -  जॉर्जिया में पाया गया नौ सौ वर्ष पुराना वृक्ष.




रेहाना के लिए               

( मुझे पता है कि अभी ख़ूबसूरती की कद्र नहीं है. चेहरे की ख़ूबसूरती, विचारों और आरज़ुओं की ख़ूबसूरती, खूबसूरत लिखावट, आँखों और नज़रिए की ख़ूबसूरती, यहाँ तक कि मीठी आवाज़ की ख़ूबसूरती. - रेहाना जब्बारी)


एक पत्ते की हरी रंगत काँपती है उम्र भर
कोमल सी कोई लहर बनती-बिखरती
चाँद की घट-बढ़ जारी रहती है
मानो अस्थिरता नाम के किसी गिलास में आकार लेती हो
पानी से जीवन की लम्बाई चौड़ाई
शायद ईश्वर भी देखता होगा
पलकों की दूब पर ओस के ठहरने का स्वप्न
सम्भव है नींद न टूटे आजीवन
टूटना मगर, स्वप्न की नियति है
सड़क किनारे गठरी लादे फिरते उस आदमी की तरह
आते जाते रहते हैं बसंत या शरद के विक्षिप्त दिन
अभी तो हज़ारों प्रकाशवर्ष दूर है सुबह
धरती के कंठ में जाड़ा जमा हुआ है
कोई चीत्कार नसों में कंपकंपा के दुबक जाती है
कैसा अश्लील समय है
कि नदी की हँसी और रूदन का अंतर भी समझ नहीं आता
पड़ोस के आसमान पर सूर्य पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा है


सुकरात को याद करते हुए                    

जिस दिन वो दुनियावी ऐनक टूट गयी थी
तुम सब ने मिलकर मेरी आँखें फोड़ दी थीं
बस ! उस दिन से ही भीतर एक ढिबरी जलती है.


बुद्ध की चाह में                   

मैं एक प्याला हूँ चाह से भरा
छलकती है चाह
फ़र्श पर चिपचिपाती  है
भिन-भिन करते हैं मक्खियों जैसे दुःख
आते हैं पीछे बुद्ध
मारते हैं पोंछा
कितने तो गहरे धब्बे कि छूटते नहीं


फिर कृष्ण ने कहा..           

कि मुझसे मिलना हो तो
मेरे चमत्कारों के पार मिलना
मुझ तक पहुँचने की राहें

सन्नाटों से रौशन हैं.

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  1. आयुष झा आस्तीक5 जन॰ 2015, 9:40:00 am

    कि मुझसे मिलना हो तो मेरे चमत्कारों के पार मिलना मुझ तक पहुँचने की राहें सन्नाटों से रौशन हैं...... अचंभित करती हुई सभी कवितायें बेहतरीन / शुभकामनायें बाबुषा कोहली जी / सहज सुंदर कवितायें साझा करने लिए शुक्रिया अरूण भाई

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  2. बाबुशा का कैनवास व्यापक है . आप दुनिया के मानचित्र से कहीं से भी रंग उठाती हैं और और शब्दों की कूची से प्रेम, विडंबना रचती हैं . नए का रचाव और इन कविताओं की सघनता बाबू को अलहदा खड़ा करती है . उन्हें पढना सुखद रहा है . कविताओं के लिए समालोचन का शुक्रिया .

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  3. आश्चर्य चकित करती कविताएँ । ।

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  4. एक तरफ़ प्रेम के दूत और दूसरी तरफ़ मुँह किये वही खिलाड़ी शैतान के रूप में. प्रेम के दोनों रूपों का साक्षत्कार करना मुक्त होना है. प्रेम शिकार और शिकारी खुद ही है. पूरी कविता में स्किट्ज़ोफ़्रेनिया एक सशक्त बिम्ब बन कर उभरा है. प्रेम की तलाश में निकली नायिका सब कुछ पा चुकी है और अंततः मुक्त हो चुकी है जैसे कोई खेल खेलते खेलते बुद्ध, सुकरात और कृष्ण तक पहुँच चुकी है. रेहाना स्त्री की मौजूदा स्थिति बताती है.

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  5. एक तिलिस्म बुनती हैं बाबूषा...इससे बाहर आना मुश्किल काम है..

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  6. There's absolutely a hypnotic charm about your poetries ,.. they flow so effortlessly out of you to spell bound everyone with their magic charm ! Shabdon ki jaadugarni ... Bahut hi mayawi stay blessed with that charm !

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  7. baboosha ko padhna hmesha se apne bheetar basi aurat ke man aur ekant ko padhna hai....
    .prem,dard aur anantim ya ki antheem bhavnaon-samvednaon ko Naye shabd ,roop aur aakaar dena bhi....

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  8. बाबुशा को पढतेहुआ मन के अन्दर एक लयहिलोरें लेती रही धन्यवाद अरुण जी समालोचन के लये और आपने चयन के लिए .गीता गैरोला

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  9. बाबुशा कोहली को पढ़ना
    आकाशगंगाओं से गुजरना है उल्कापात और सांध्यकाल या उषाकाल में जगती और आकाशी शून्यों के परिभ्रमण को देखने का साहस करना है।
    यह कवियत्री केसर आभायुक्त हार्सिंगारी लेखनी से युग की। मथानी में निर्मित स्याही से लिखती अपनी मुख्श्री से और जब यशोदा नन्द या गोपी गोपिका से पाठक कहते मुहँ खोलिए ये। उदगार कहाँ से जनित होते है उन्हें तीनो लोकों का ब्रह्माण्ड कथ्य नवरसों का आख्यान और पंच्भूतानाम मनु मानसी का जीवन इनकी ऋचाओं के मूर्तामूरत कथ्य कैनवास और जादुई कूची सम लेखनी में दर्शित होता है।
    चिरायु हो बाबुशा जी।
    अरुण देव जी आभार मन से

    कंडवाल मोहन मदन

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  10. मैं एक प्याला हूँ चाह से भरा !!
    मुझ तक पहुँचने की राहें
    सन्नाटों से रौशन हैं.!!!!


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  11. विवेक निराला5 जन॰ 2015, 9:18:00 pm

    बाबुषा जी अलग तरह की ही कवयित्री हैं। समकालीन कविता की आपाधापी से अलग-थलग किसी योगी की तरह अपनी साधना में रत। मेरे 5लिए ये कवितायेँ किसी तिलस्म या रहस्य-लोक को नहीं रचतीं बल्कि आत्मा में ही ऐठन पैदा करती हैं। बाबुषा जी को बधाई।

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  12. अरुण शीतांश7 जन॰ 2015, 8:30:00 am

    वाह बाबूषा! घनीभूत संवेदना के बादल घुमडते हैं और यथार्थ के पहाड से टकराते हैं तो ऐसी कविता की बारिश होती है। यहां प्रेम का आवेग ही नहीं है यह समझ भी है --कि हमारी नज़रें टकराने से जो बिजलियाँ चमकी थीं, गिरेंगी वो मुझ पर ही.
    इन दिनों चल रही शीतलहर की तरह पहले शीतल - मंद का आभास देती ये कविताएं भीतर तक हिला देती हैं ।

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  13. तुषार धवल7 जन॰ 2015, 8:34:00 am

    बाबुषा के पास अभिव्यक्ति और कल्पनाशीलता की कमाल की ऊर्जा है। यही वह ऊर्जा है जो कविता के लिये (खुद के लिये) एक नया शिल्प तलाश रही है। भाव बोध के स्तर पर एक तल्ख उद्गार की कविता है यह।

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  14. विदुषी भारद्वाज7 जन॰ 2015, 8:37:00 am

    नाभि से उठती कराह..चट्टानों से फूटती आवेगमयी नदी सी रचनाएं..बसन्त और पतझड़ एकसाथ रचने में कुशल बाबुशा सचमुच जादूशा बधाई बाबुशा

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  15. नमस्कार, अरुण देव जी | प्रस्तुत रचना के बारे में इस ई-पत्रिका के संपादक होने के नाते आपसे मेरी एक जिज्ञासा है कि यह हिन्दी साहित्य की कौन सी विधा है और इसे क्यों वह (यानि कविता / कहानी/संस्मरण आदि ) होना चाहिए ? जब अशोक सिंह (दुमका) ने इसे पढ़ा तो उनहोने भी अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि उनको भी पता नहीं, कौन सी विधा है | खैर...मगर शायद यही कारण है कि कविता के नाम से भी अब हिन्दी के पाठकों को उबकाई आने लगी है | यह कहते हुए मैं यहाँ साफ कर देना चाहता हूँ कि मैं इस रचना की अंतर्वस्तु पर जाने के पूर्व ही बाबुषा कोहली की इस रचना की इस विधा का नाम जानना चाहता हूँ | अन्यथा नही लेंगे| मोबाईल - 09006740311 - सुशील कुमार |

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  16. शायद इस तरह की ही वेदना को झेलते हुए कविता की विधा होने के लिए अहर्ता को अपनी दृष्टिपथ में रखते हुए एक समकालीन कवि शहंशाह आलम के मार्फत मैंने वागर्थ ( भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता ) में एक आलेख लिखा था जो उसके अंक - 203, जून 2012 पृष्ठ - 104 पर छपा था |

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  17. सुशील भाई जिस तरह की कविता के हम अभ्यस्त हो गए हैं वह इतनी प्रचुर मात्रा में लिखी जा रही है कि कई बार उससे भी ऊब स्वाभाविक है. बाबुषा की यह कविता एक तो उस रीति की नहीं है दूसरे इसमें शिल्प और संवेदना का नयापन है. कविता तो यह है ही.

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  18. भाई अरुण देव जी, आपके उपरोक्त कथन से सहमत हूँ | यह सिर्फ नए कवियों के लिए ही नहीं, वरन अग्रज बड़े कवियों के लिए भी है | 'तिनका-तिनका' काव्य संकलन में अशोक वाजपेयी की कई गद्य - कविताओं को पढ़कर मुझे हैरत हुआ | पूरी तरह गद्य था | कविता छंद से भले अलग हुई हो, पर लय और प्रगीतात्मकता उसका आंतरिक स्वभाव है जो उसे साहित्य की अन्य विधाओं से अलग करता है | कवि को शब्दों के चयन में उसके अंडरटोन पर ध्यान रखना चाहिए और कई कवि इसका पूरा ध्यान भी रखते हैं जो उनकी विधा को अपेक्षाकृत ज़्यादा संप्रेषणीय बनाता है |उपर्युक्त टिप्पणी मेरी कवियित्री के उपर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं है | हमें कविताओं को लद्धड़ गद्य होने से बचाना है ताकि उसकी अस्मिता कायम रह सके |

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