सबद - भेद : यथार्थ और साहित्य : रोहिणी अग्रवाल














रोहिणी अग्रवाल कथाकार के साथ  कथा–साहित्य की गम्भीर अध्य्येता भी हैं. इस पुस्तक मेले में उनकी आलोचना किताब ‘साहित्य का स्त्री स्वर’ साहित्य भंडार इलाहबाद से और  'हिंदी कहानी: वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग' - वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है. प्रस्तुत आलेख में कथा – परम्परा की पड़ताल करते हुए यथार्थ से उसके सम्बन्धों को देखा – परखा गया है. 

यथार्थ नहीं, यथार्थ का पुनर्सृजन ही साहित्य है                    
रोहिणी अग्रवाल 


साहित्य में हम जिस यथार्थ की बात करते हैं, वह यथार्थ ज़िन्दगी की क्रूर सच्चाइयों से उगने के बावजूद किसी इतिहासकार या समाजशास्त्री के शोधाधारित तथ्यों से काफी भिन्न होता है. तथ्य वस्तुपरक, ठोस और निर्विकार होते हैं - एक साक्षात् सच्चाई जिससे आँख चुराना आसान नहीं. तिथियों के साथ जुड़ कर तिथियों की तरह शीघ्र ही काल कवलित हो जाना इनकी नियति है. ज़िंदा रहती है स्मृति. (लेकिन स्मृति तो तथ्य सी ठोस, वस्तुपरक, निर्विकार नहीं होती.) इन तथ्यों के पाये पर खडा. यथार्थ स्थिर होता है, गतिहीन और गूंगा. किसी भव्य अतीत को स्मृति में बसाए भूसा भरे शेर की खाल की तरह दीवार पर लटका, निस्पंद. वक्त के साथ वक्त की उंगली पकड़ कर वक्त की सी चाल चलने की बाध्यता निरन्तर इसकी गति-दिशा-लक्ष्य निर्धारित करती चलती है और अनायास ही उसके बाह्य स्वरूप में परिवर्तन भी. इसलिए बहुत उपयोगी और अपरिहार्य होने के बावजूद यह बहुत दूर तक ठीक उसी रूप में मनुष्य का साथ नहीं दे पाता.

लेकिन साहित्य और वक्त का सम्बन्ध इतना सीधा और सपाट नहीं होता. साहित्य वक्त का दास भी है और स्वामी भी. वक्त से अनुशासित भी होता है और वक्त को रचता भी है. समूची मनुष्यता को वक्त के एक लम्हे में कैद भी कर सका है और वक्त की जकड़न से मुक्त भी कर सकता है. यथार्थ का निकटवर्ती होने पर भी साहित्य इतना तथ्यनिर्भर नहीं होता. असल में कच्चे माल के रूप में उसे तथ्यों-घटनाओं की ज़रूरत होती भी नहीं. उसके लिए ज़रूरी है एक चीज़ - संवेदना. वही उसके लिए औज़ार और कच्चा माल जुटाने लगती है -अनुभव, अनुभूति, कल्पना, दृष्टि, अन्तर्दृष्टि, भविष्य बोध, पात्र, घटनाएं, परिवेश. इस प्रक्रिया में तथ्यों की सघन ठोसता और वस्तुपरकता उसकी आत्मपरकता से टकरा कर पिघलने लगती है और अपनी निर्विकार भंगिमा तज कर किन्हीं खास पात्रों या घटनाओं के साथ जुड़ कर एक विशिष्ट और निजी कैरेक्टर लेने लगती है. निजता जो एक ओर इतनी निजी है कि होरी या हेमलेट या स्पार्टाकस या अन्ना केरेनिना की तरह अपने खास रंग-रूप-गंध-रेखा-आकार में स्पष्टतर होती चलती है  तो दूसरी ओर इतनी व्यापक है कि उसमें सब कुछ डूब जाता है - पाठक, समाज, युग, कालविशेष और पूरा का पूरा काल.

फिर भी, वह समाज का दर्पण नहीं है. किसी काल विशेष का प्रामाणिक दस्तावेज़ मानने में भी संकोच होता है. (यह बात दीगर है कि पृथ्वीराज रासो को आधार बना कर दशरथ शर्मा ने तद्युगीन इतिहास को एक निश्चित आकार दिया है और होमर के 'इलियड' को आधार बना कर अमेरीकी पुरातत्ववेत्ताओं ने 'वार ऑव ट्रॉय' की नायिका हेलेन के गुप्त खजाने को खोज निकाला है.) वजहें दो हैं. एक, साहित्य की दिलचस्पी काल विशेष में पनपने वाली तथ्यात्मक सच्चाइयों को उकेरने में कम, उनके भीतर प्रवाहमान व्यक्ति, समाज तथा युग के मनोविज्ञान को पढ़ने में अधिक होती है. और दूसरे, आत्मपरकता. कोई भी विसंगति, विडम्बना, विकृति या दुर्घटना अनायास नहीं घटती. उसके पीछे प्रबलतर कार्य-करण श्रृंखला होती है जो शून्य में नहीं जन्मती. समाज में अलक्षित-अर्धलक्षित कार्य-कारण श्रृंखला को उद्घाटित करना साहित्यकार की सफलता नहीं.
यह दायित्व तो समाजशास्त्री का है. उसकी श्रेष्ठता उस कार्य-कारण श्रृंखला को जन्म देने वाली उन सूक्ष्मतर-जटिलतर मनोवृत्तियों को दो टूक उघाड़ देना है जो मनुष्य के अन्तर्मन में पैठ उसे नियंत्रित और अनुशासित करती हैं, जिनसे उजाले में आंख मिलाना उसकी 'मनुष्यता' के लिए सम्भव नहीं, जिन्हें अकेले अपने दम 'जायज' ठहराना उसके लिए सम्भव नहीं. इसलिए वह गिरोह, दल, खेमे बनाता है - अपने निजी 'हितों' की रक्षा के लिए एक सामुदायिक योजना. पितृसत्तात्मक व्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलितों-महिलाओं-हब्शियों पर अत्याचार - समाज की ये ठोस सच्चाइयां क्या व्यक्ति मन में चुपके से अंकुराने वाली किन्हीं समान मनोवृत्तियों का परिणाम नहीं? साहित्यकार समाजशास्त्रीय तथ्यों की बजाय इन मनोवैज्ञानिक सच्चाइयों से ज्यादा प्रभावित होता है. वह अपनी ही कमज़ोरियों से टूटते, अन्तर्द्वन्द्वों से लड़ते, अस्मिता के लिए जूझते या मिथ्याभिमान की रक्षा के लिए कहर बरपाते व्यक्तियों को देखता है, उनके आपसी सम्बन्धों को पहचानने की कोशिश करता है, उनकी निजी/आपसी लड़ाइयों के परिणामों और प्रभावों का आकलन कर उस समय और समाज को गढ़ने की कोशिश करता है जहाँ व्यक्ति 'मनुष्य' रूप में पूर्णतर, उच्चतर, समृद्धतर, सशक्ततर हो. यही उसका विज़न है. यही उसका गन्तव्य. वह प्रकृति से दार्शनिक है और पेशे से मुक्तिदाता. शिकार और शिकारी, त्रस्त और त्रासदाता व्यक्ति हैं, सिर्फ व्यक्ति, अपनी किन्हीं कमज़ोरियों और मजबूरियों के कारण - व्यवस्था नहीं क्योंकि व्यवस्था कोई अमूर्त अशरीरी शक्ति नहीं जो बलात् हम पर थोप दी गई है. वह सुदूर काल-खण्ड में जीने वाले किन्हीं व्यक्तियों के सचेष्ट प्रयासों का परिणाम है जिसे क्रमशः तथ्य और सत्य स्वीकार कर हम उसे शक्तिशाली और स्वयं को शक्तिहीन करते रहे हैं.
कफन, सद्गति, गोदान क्या बार-बार यही एक बात नहीं दोहराते? इन रचनाओं में 'अंडरकरंट' के रूप में बहती तड़प और घुटन उस बेचैनी से कहीं ज्यादा वाचाल, विस्फोटक और सार्थक नहीं जिसकी गूंगी कराहें हमारे बहरे कानों से टकरा कर निष्फल लौटती रहती हैं बार-बार? इनका 'मनोरंजक' यथार्थ क्या उस यथार्थ का प्रतिरूप नहीं जिसे हम 'बासी' नज़र से हर रोज़ अपने चहुँ ओर देखते हैं? क्या यह 'मनोरंजक' यथार्थ इस मायने में उस तथ्यात्मक यथार्थ से महत् नहीं कि यह हमें अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर एक नए समाज की संरचना में व्यस्त होने की नैतिक जिम्मेदारी का अहसास कराता है? कि स्थिर यथार्थ के समान मजबूरियों और जकड़बंदियों का मकड़जाल बुनने के बावजूद यह शोषण-उत्पीड़न-दमन से उपजी तमाम निष्क्रियता और जड़ता से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष की अनिवार्यता को उजागर करता है?
इसलिए साहित्य कालाबद्ध होते हुए भी कालातीत होता है. सार्वभौमिक होते हुए भी क्षेत्रीय विशेषताओं से रंगा-बंधा. सुप्रसिद्ध अमरीकी उपन्यासकार हावर्ड फॉस्ट को ही लें. इतिहास की तिथियों और तथ्यों के छोरों में बाँध कर रचे हैं उन्होंने अपने उपन्यास - स्पार्टाकस, मुक्तिगाथा, पीकस्किल. स्पार्टाकस - ईसा पूर्व छठी शताब्दी में रोम में हुए गुलाम संघर्ष का महानायक, और गिडियन जैक्सन - अमरीका के गृहयुद्ध के दौरान दक्षिण अमरीका के चार्ल्सटन क्षेत्र में होने वाले हब्शियों की मुक्ति के संघर्ष का नायक. दोनों का अभीष्ट मुक्ति. अधिनायकवादी ताकतों से मुक्ति. स्वतंत्र होने की आकांक्षा. आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान से पहली बार 'मनुष्यवत्' जीवन जीने की कामना. लक्ष्य प्राप्ति हेतु अनथक संघर्ष, उत्कट जिजीविषा, दृढ़ संकल्प, अदम्य साहस, स्वप्नशीलता, पराजय की कगार पर आकर भी भावी पीढ़ी के ज़रिए जंग जीतने का अद्भुत विश्वास - ऐतिहासिक तथ्यों और तिथियों को हटा देने पर ये कथाकृतियां भरभरा कर ढह नहीं पड़तीं, वरन् अर्थ, संवेदना और लक्ष्य को उसी गम्भीरता, गहनता, तरलता और औदात्य से सम्प्रेषित करती चलती हैं. यानी साहित्य सिर्फ प्रकृति की प्रतिकृति - हू हू नकल - नहीं है. यानी सिर्फ भावोच्छ्वास ही साहित्य नहीं है. उसके पीछे कहीं अलक्षित है घनीभूत बौद्धिकता. यानी मनुष्य के अन्तस में छिपे 'मनुष्यत्व' को खोजना, उसकी गरिमा को पहचानना और उसकी जिजीविषा को उभारना - यही है साहित्य. इसे भविष्य कह लें, स्वप्न कह लें, आशावाद कह लें या वर्तमान का आदर्शीकरण - यही वह प्राणतत्व है जो साहित्य को स्थिर यथार्थ के भीतर रोम छिद्रों की तरह मौजूद गतिशील/ परिवर्तनशील/विकसनशील स्वरूप से जोड़ता है और इस प्रकार उसके उन्नततर पक्ष पर दृष्टि गड़ाते हुए भविष्य में एक बेहतर समाज की संरचना की परिकल्पना करता है. यह परिकल्पना लेखक ही करे, बिल्कुल ज़रूरी नहीं.
लेखक अपने सारे औज़ार - संवेदना, कल्पना, दृष्टि, बोध, तड़प, बेचैनी, सृजन की प्रसव पीडा -पाठक को देकर लुप्त भी हो सकता है. उसका काम एक दीया जलाना है, फिर ज्योत से ज्योत आप ही आप जल उठती है. फिर भी, साहित्य उस नज़रिए से समाज का दर्पण नहीं जिस नज़रिए से इतिहास या समाजशास्त्र हैं. (इस तथ्य के बावजूद कि टॉलस्टाय के 'वार एंड पीस' में नेपोलियन के समकालीन रूसी और प्रेमचंद की रचनाओं में 1920-30 के भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रामाणिक तस्वीर दिखाई पड़ जाती है.) युग की धड़कन को समोए हुए है, लेकिन युग की समग्र तस्वीर नहीं. वह उसकी 'एक' धड़कन भर है, 'एक' चेहरा, 'एक' अंश, वह भी समूचा नहीं, एक खास कोण से ली गई तस्वीर की तरह आधा प्रत्यक्ष, आधा अप्रत्यक्ष. वह व्यक्ति और समाज के मनोविज्ञान को उद्घाटित करता हुआ भी पूरा सच बयान नहीं करता, पूरे सच का दावा भले ही करे. वह किसी एक पक्ष पर वैयक्तिक टिप्पणी भर करता है. 'कफ़न' के घीसू और माधव निम्नवर्ग के दो व्यक्ति हैं. आलसी, निकम्मे, कामचोर. जानते हैं कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात खटते रहे तो भी पाएंगे पेट भर गालियां और अधपेट भोजन. निठल्ले बैठेंगे तो भी वही - अधपेट भोजन. फिर अभेद कहाँ? लेकिन है, भेद है, बहुत गहरा, बहुत सूक्ष्म. वक्त के साथ 'पेट' ज्यों-ज्यों एक खौफनाक सच्चाई की तरह उनके सामने विकरालतर रूप धर कर आता है, त्यों-त्यों आत्मसम्मान और गरिमा जैसी बेहद ज़रूरी 'मानवीय' प्रवृत्ति उनसे दूर होती चलती है. अन्ततः कफ़न के पैसों से शराब और पूड़ी उड़ाने में भी उन्हें संकोच नहीं होता. सतही नज़र से देखें तो शैतान का अवतार नज़र आते हैं वे दोनों. (अवचेतन में बुधिया का ध्यान और सचेतन अवस्था में भिखमंगों को बची पूड़ियों का दान -इन दोनों चीज़ों ने यदि उन्हें मनुष्यता से बाँधा होता तो वे शैतान का अवतार बन ही गए थे.) लेकिन उसी दौर में रचित प्रसाद की कहानी 'मधुआ' निम्नवर्ग की नियति और मनोग्रंथियों को ठीक इसी रूप में नहीं खोलती. वहाँ भी केन्द्रीय पात्र घीसू-माधव जैसा है - शराबी और गप्पबाज़. काम-काज करने के बदले ज़मींदार को झूठी-सच्ची गप्पें सुना कर अपने लिए जैसे-तैसे खैरात जुटाने वाला. इसी में परम सन्तुष्ट. लेकिन वह घीसू-माधव सा होते हुए भी उनसे पूरी तरह भिन्न है.
किन्हीं भावुक क्षणों में मधुआ जैसे अनाथ बच्चे से बात भर कर लेने के 'अपराध' ने उसके भीतर ऐसी नैतिक जिम्मेदारी पैदा कर दी है कि मधुआ के लिए खाने के इन्तज़ाम से लेकर उसके 'कल' को संवारने की चिंता में उसने केवल शराब छोड़ देने का निश्चय किया है, वरन् बेकार पड़ी भूली-बिसरी मशीन उठा कर मुरम्मत का आयोजन भी किया है. वर्तमान नहीं, प्रश्नाकुल अवस्था में खड़ा भविष्य उससे सक्रियता की मांग कर रहा है. यदि दोनों कहानियां समाज का दर्पण हैं तो 'सच' किसे कहा जाए? क्या एक का 'सच' अपनी सच्चाई की रक्षा के लिए दूसरे के 'सच' को झूठा ठहरा सकता है? तो क्या 'प्रतिनिधित्व' का दावा अपने आप बेमानी नही हो जाता? असल में सच की अनेक तस्वीरें होती हैं और अनेक स्तर. दृष्टिगत भिन्नता सच के भीतर परत दर परत छिपे अनेक चेहरों को उजागर करने लगती है. किसी एक पर उंगली धर कर निश्चयात्मक भाव से प्रतिनिधि सच का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता. यही कारण रहा होगा कि हडसन ने साहित्य को दर्पण मानने से ही इन्कार कर दिया है. नकी दृष्टि में दर्पण है लेखक का व्यक्तित्व जिससे गुज़र कर यथार्थ जगत् की छवियां साहित्य में प्रतिबिम्बित होती हैं.
     
साहित्य में उभरी सामाजिक यथार्थ की ये छवियां अत्यधिक मुखर होती हैं और अपने-अपने हिस्से के सच को पूरी ईमानदारी से कह जाती हैं. मिसाल के लिए स्त्रियों की स्थिति को लेकर एक 'सच' प्रेमचंद की रचनाओं में उभरता है और उसकी भावमयी पुष्टि के रूप में प्रसाद की कहानियों में ममता, चम्पा, मधूलिका जैसी स्त्रियां मिल जाती हैं - विशुद्ध भारतीय, सीता-सावित्रीनुमा स्त्रियां. पुरुष के हिस्से के दुख और पीड़ाओं को अपना वैभव और सौभाग्य समझ कर सिर-माथे लगाने वाली 'देवी' स्त्रियां. लेकिन तभी जैनेन्द्र की नारियां भी दिखाई पड़ जाती हैं जो दबे-ढके स्वर में सुनन्दा-कल्याणी- मृणाल के रूप में अपने असंतोष और रिक्ति को व्यक्त कर उस सिस्टम पर उंगली उठाने लगती हैं जिसकी प्रतिष्ठा एवं सज्जा में प्रो. मेहता रचयिता की पूरी सहानुभूति-शक्ति प्रोत्साहन पाकर भी 'तितली' मालती के सामने बौने हैं. फिर, पूरी इन्टेंसिटी से, वितृष्णा से, गम्भीरता से इस सिस्टम के छेदों-दरारों को उघाड़ने में व्यस्त महादेवी वर्मा दिखाई देती हैं जो सबिया, लछमा, बिट्टो आदि के जरिए सिर्फ आंसुओं के खारे समंदर ही नहीं बहातीं, सीधे-सीधे समाज के तथाकथित ठेकेदारों को ललकारती भी हैं ; दो-दो हाथ करने की चुनौती भी देती हैं और फिर उतनी ही तीव्रता और नाराज़गी से उन त्रस्त-उत्पीड़ित महिलाओं पर फट पड़ती हैं जो अवश-अशक्त भाव से हर अत्याचार सहती रही हैं. सुभद्राकुमारी चौहान - उस युग की अन्य प्रमुख महिला रचनाकार - पोर-पोर से झांसी की रानी की मुरीद हैं. उनकी यह आग्रह भरी आसक्ति अकारण नहीं वरन स्त्री की परम्परागत छवि को तोड़ने के लिए झांसी की रानी की आक्रामकता, कन्सर्न और आत्मविश्वास को केन्द्र में रख कर क्रान्ति की अनिवार्यता पर अनकहे ही जोरदार ढंग से बल देती दिखाई देती हैं. इसके अतिरिक्त सच का एक रूप वह भी है जो दबा-ढका है, अनसुना है, लेकिन निश्चित रूप से महसूसा तो गया ही है - 'सीमन्तनी उपदेश' जैसी देर से प्राप्त या अप्राप्त रचनाओं के ज़रिए -टुकड़ा-टुकड़ा सच बयान करतीं यथार्थ को एक नई घड़त, नई पहचान देती रचनाएं.
साहित्य इतिहास रचने में सहायता देता है, लेकिन स्वयं इतिहास नहीं होता. वह एक खास कोण से सर्जित युग की धुंधली तस्वीर का आभास देता है, पूरे युग को तटस्थ और निरपेक्ष नज़र से देखने का दावा नहीं कर सकता. ऐसे मिथ्या दावे साहित्य नहीं, साहित्य का 'प्रबुद्ध' व्याख्याकार करता है. लेकिन यह तय है कि जब-जब किसी काल विशेष में रचित रचना विशेष को उस युग का 'अन्तिम' सच समझाने का अंध-भाव उसमें उमड़ता है - कूपमंडूकीय प्रवृत्ति के कारण या किसी निजी स्वार्थवश - उसकी उस चेष्टा में जीवन को उसकी समग्रता से, व्यापक और बृहत्तर सन्दर्भों से काट कर निष्प्राण करने का उद्योग ही अधिक दिखाई देता है. 'मानस' में नदारद इतिहास को बलात आरोपित और महिमामंडित करने का ही यह परिणाम है कि राम, लक्ष्मण, सीता, शबरी, शम्बूक, हनुमान, रावण व्यक्ति रह कर 'आइकॉन' बन गए हैं जिन्हें प्राणपण से प्रयास करने के बावजूद आज तक हम तोड़ पाए हैं, उनक अनौचित्य को चुनौती दे सके हैं.
ज़ाहिर है, साहित्य में (इतिहास और समाजशास्त्र में भी ) यथार्थ की मुकम्मल तस्वीर बनाना सम्भव ही नहीं. या यू कहें कि यथार्थ हमेशा अर्धसत्य होता है - निरन्तर विकसनशीलता के कारण, दूसरा पक्ष नदारद होने के कारण, या फिर एक पूरे वर्ग को 'जड़' समझे जाने के भ्रान्त आग्रह के कारण. सब्जैक्टीविटी एक खास वक्त में भले ही यथार्थ के विलुप्त अर्धसत्य को उभार पाए, लेकिन प्रवाहमान अवस्था में एक ही रचना के अनेक पाठों-अन्तर्पाठों की व्यवस्था करते हुए तथा नदारद 'जड़', 'गूंगे' पक्ष को उपस्थिति, गति एवं वाणी देते हुए यथार्थ को निरन्तर पुनर्सृजित करने का प्रयास करती रहती है.
यथार्थ के पुनर्सृजन का यह प्रयास साहित्य में अनेक स्तरों पर एक साथ चलता रहता है - लेखन के स्तर पर, पाठ के स्तर पर, समीक्षा के स्तर पर. यही वजह है कि रचना विशेष में कैद यथार्थ की एकांगी तस्वीर फ्रेम की हदबंदियां तोड़ कर स्वतंत्र होने को छटपटा उठती हैं और खुद आगे बढ़ कर उस युग के दबावों, तनावों, प्रभावों, विवशताओं को उघाड़ कर रख देती हैं जो रचनाकार के विज़न को बाँधने-घेरने के लिए उत्तरदायी रहे हैं. जैसे 'गोदान' की मालती. तितली और मधुमक्खी के सिम्बल में नारी को चित्रित करने की लेखकीय बाध्यता और पाठक से इन्हीं प्रतीकों के इर्द-गिर्द राय बनाने का आग्रह कदम-दर-कदम उपन्यास में झलकता चलता है. कहना होगा कि इस प्रयास में लेखक की निजी दयनीयता ही उभर कर आती रही है हर बार. मालती तितली है क्योंकि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है और बड़े बेटे की तरह परिवार का भरण-पोषण कर रही है ; डॉक्टर है इसलिए ज़िन्दगी के प्रति उसकी एप्रोच पै्रक्टीकल और प्रोफेशनल है ; लिंगगत भेद को ज्यादा तरज़ीह नहीं देती, इसलिए पुरुषों के बीच 'पुरुषवत्' (मित्रवत् कहना क्या ज्यादा सटीक होता?) निर्द्वन्द्व भाव से घूमती है. मालती का एकमात्र दोष यही है कि वह स्त्री है, अपने आप को एक इन्सान - 'ह्यूमन बीइंग' - के रूप में देखती है, 'देवी नहीं समझती. और मय प्रेमचंद (तथा प्रेमचंदयुगीन समाज) प्रो. मेहता हैं कि घर की चारदीवारी लांघ कर बाहर घूमने वाली उसी स्त्री को सच्चरित्र और सम्मान की अधिकारिणी समझेंगे जो समाज सेवा और राष्ट्रोद्धार में जुट कर स्वयं को मय गांधीजी पूरे पुरुष समाज की अनुचरी साबित करेगी. ज़ाहिर है ऐसी सोच पूरी रफ्तार और रवानगी के साथ बहती मालती को 'किडनैप' कर एक खास सांचे में ढालने की कोशिश करती.
मेहता की 'तिरस्कृत' प्रेयसी और आज्ञाकारी अनुरागभरी पत्नी बनाने की उन्मत्त कोशिश में उसे जिस सिस्टम के प्रति फरमाबदार रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, वह मालती से उसकी अस्मिता और स्वतंत्रता छीन लेने को पर्याप्त है. आखिर प्रेमचंद भी पुरुष हैं और पुरुषवादी व्यवस्था की मुखालफत करने वाले किसी भी 'डिफाएंट' को 'बरी' क्यों किया जाए? लेकिन क्या यह भारी व्यंग्य नहीं कि जिस मिशन के बैनर तले उसके पर कतरने का भव्य आयोजन किया जाता है, वही मिशन उसकी अस्मिता, उदारता और गहरे विज़न से जुड़ कर अन्ततः उसे स्वतंत्र और महत् रूप प्रदान करता है. वक्त-ज़रूरत पारिवारिक-सामाजिक-राष्ट्रीय-वैयक्तिक ज़रूरतों और दायित्वों को पहचान कर 'स्ट्रैटजी' बनाने वाली मालती तितली नज़र आती है, मधुमक्खी और ही औरत. वह पुनः बन जाती है इन्सान - एक अदद विचारशील, विवेकशील, स्वतंत्र ह्यूमन बीइंग. मेहता जैसे प्रबुद्ध यथास्थितिवादियों का उसके सामने इतना अप्रासंगिक और बौना हो उठना कोई बड़ी बात नहीं है.
उल्लेखनीय है कि साहित्य के सन्दर्भ में यथार्थ अपने आप में इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना यथार्थ का 'दिखना', यथार्थ का चयन और संयोजन. इन तीनों के लिए एक खास नज़र चाहिए. (संवेदना का स्थान यहाँ गौण है. बल्कि वह दृष्टि से अनुशासित होती है.) आस्था और प्रतिबद्धता के नाम पर आजकल नाक-भौं चढ़ाने का खासा चलन है. आस्था एक ओर जहाँ अर्थ की अल्पव्याप्ति के कारण सीधे धर्म के जड़ और कर्मकाण्डी रूप के साथ जोड़ दी जाती है, वहीं प्रतिबद्धता रूढ़ अर्थ के कारण किसी प्रचलित सामयिक विचारधारा के साथ. क्या आस्था और प्रतिबद्धता पर ये लेबल चस्पां करके हम उनके भीतर छिपे निष्ठामूलक अर्थ से आँख चुराने की चेष्टा नहीं करते? हाँ, इतना ज़रूर है कि निष्ठा किसी एक वाद, सम्प्रदाय या विचारधारा से क्यों हो? मानव यदि समूचे साहित्य, समाज, युग और समय का केन्द्रबिन्दु है तो निष्ठा - आस्था और प्रतिबद्धता - मानवीय मूल्यों के प्रति क्यों हों? समसामयिक, लौकिक और भौतिक दबावों तले प्रचलित जीवन-मूल्य अपना स्वरूप बदल सकते हैं, बदलते रहते हैं, लेकिन मानवीय मूल्य तो शाश्वत हैं. सार्वभौमिक और सार्वकालिक. चिरन्तन और सनातन क्योंकि मनुष्य की मनोवृत्तियों ने उन्हें सिरजा है, क्योंकि मनुष्य का उत्कर्ष उनका लक्ष्य है.
दूसरे, आज यह भी माना जाना लगा है कि कहानी का अंत हो गया है ; कि बेस्ट सेलर्ज़ और गम्भीर साहित्य में बुनियादी फर्क है - पोखर और समुद्र जितना ; कि गम्भीर साहित्यकार एक 'विशिष्ट' जीव है  जो एक वर्ग विशेष के लिए ही लिखता है ; कि कहानी-उपन्यास से रोचकता, कौतूहल, मनोरंजन की मांग करने वाला पाठक 'इम्मेच्योर' है. यह धारणा भ्रान्त और गुमराह करने वाली है. जब तक मनुष्य सृष्टि का केन्द्रबिन्दु है, रोचकता और कौतूहल के प्रति उसके आकर्षण को किसी भी गणितीय फार्मूले या वैज्ञानिक आविष्कार द्वारा निरस्त नहीं किया जा सकता है. ये भाव जितने आदिम हैं, उतने ही मूल्यवान भी. सारी प्रगति, विकास और भविष्य को मुट्ठी में भींचने की योजनाएं इन्हीं पर आधारित हैं. लेकिन जब गम्भीर साहित्य इस तरह की अधकचरी घोषणाएं करता है तो अपने पैरों आप ही कुल्हाड़ी चला बैठता है. यही वजह है कि हिंदी में आज भी सदी की श्रेष्ठतम रचनाओं के रूप में मात्र दो नाम हमारे सामने कौंधते हैं - गोदान और कामायनी. दोनों ही शब्द-दर-शब्द कहानी से गुंथे. पंक्ति-दर-पंक्ति कौतूहल से सिरजे. पृष्ठ-दर-पृष्ठ तनावजनित रोचकता में डूबे. और सांस-दर-सांस महत् का उद्घाटन और प्रतिष्ठापन करने में जुटे. रचना में ज़िन्दगी धड़केगी, तभी तो समाज के यथार्थ को आँख खोल कर देख पाएगी, भावी के सत्य को संवार पाएगी.
मानवीय गरिमा की रक्षा और संवर्द्धन साहित्य का आत्यन्तिक लक्ष्य हैं. चरित्र-स्खलन सामयिक विकृति के रूप में हर दौर को एक चुनौती और चेतावनी देता रहा है. इसी चुनौती से जूझते हुए कहानी-उपन्यास में चित्रित पात्रों की एक बड़ी तादाद निष्क्रिय या नकारात्मक हो जाती है - शतरंज के दोनों बेसुध खिलाड़ियों की तरह; क्रिस्टोफर मार्लो के डॉ. फॉस्टस की तरह; भारती की गुलकी बन्नो की तरह . . . . यथार्थ की प्रामाणिक 'क्लिपिंग' के रूप में ऐसे पात्रों का महत्व ऐतिहासिक दस्तावेज़ और मनोवैज्ञानिक केस हिस्ट्री से किसी भी तरह कमतर नही होता. इसी तरह 'झूठा सच' के जयदेव पुरी की तरह पात्रों का क्रमिक चरित्र स्खलन निजी रह कर पूरे युग के चरित्र स्खलन का प्रतिबिम्ब बन जाता है. लेकिन इतना तय है कि शक्तिशाली और महत्वपूर्र्ण होते हुए भी ये पात्र 'एब्सोल्यूट' - पूर्ण और निरपेक्ष - नहीं होते. अन्ततः महत्वपूर्ण होती है लेखकीय दृष्टि कि वह उस पात्र और परिवेश को किस रूप में प्रस्तुत करती है. साहित्य में लेखकीय तटस्थता जैसी कोई चीज़ नहीं होती. बात स्वीकारने मे भले ही 'रूमानी' और 'प्रेमचंदीय' लगे, लेकिन सत्य यह है कि लेखक सचेतन अवस्था में किसी किसी पात्र का स्पोक्समैन अवश्य होता है.
वह फोटोग्राफर नहीं होता, 'प्रीचर' होता है. कार्टूनिस्ट हो सकता है. कार्टूनिस्ट की कार्य-शैली और लक्ष्य  - बुराई को मैग्नीफाई करके ध्वस्त करना - लेखकीय मन्तव्य से भिन्न नहीं. लेकिन कार्टूनिस्ट की भंगिमा अपना कर बुराई को ग्लोरीफाई करते हुए तज्जन्य पतन को 'सेलीब्रेट' करना अनैतिक है. खेद की बात है कि आज साहित्य के नाम पर इस रुग्ण मानसिकता को प्रश्रय दिया जाने लगा है. जितनी भव्यता और टीमटाम के साथ बाहरी महाभारत के प्रपंच का आयोजन किया जाता है, उसका शतांश भी भीतरी विकारों को जय करने के लिए 'नष्ट' नहीं किया जाता. परिणामस्वरूप ज्यादातर पात्र धृतराष्ट्र की तरह अंधे (विवेकहीन) हैं - आत्मदया से भर कर रिरियाते हुए निरन्तर झींकते-शिकायतें करते (हिन्दुस्तानी इवानोविच -उदयप्रकाश), एक वोट के रूप में अपना मूल्य जानने की वजह से व्यवस्था को भरपूर गरियाते हुए ('डूब' -वीरेन्द्र जैन), चांद छूने की हौंस में पैरों तले की ठोस ज़मीन छोड़ते हुए (मुझे चांद चाहिए - सुरेन्द्र वर्मा), ताकत के नशे में जायज-नाजायज की सीमा-रेखाओं को मिटाते हुए (हमज़ाद - मनोहरश्याम जोशी), उन्मत्त प्रतिशोध से भर कर परिवार की चौहद्दियों में सांस लेती आत्मीयता को खाक करते हुए (झूलानट - मैत्रेयी पुष्पा). कहीं-कहीं हर्ष (मुझे चांद चाहिए) की तरह सिद्धान्तों पर अड़े रहने का हठ करते हैं तो मय लेखक सबकी आँख में खटकने लगते हैं. परिणामस्वरूप हत्या - रास्ता साफ करने का खलनायकीय शॉर्टकट, 'जायज'. उत्तरआधुनिक उपाय. सिहर उठता है मन ऐसी रचनाओं को पढ़ कर कि क्या वाकई इतनी शारीरिक और मानसिक विकलांगता के युग में जी रहे हैं हम? यदि हाँ, तो क्या उपचार सम्भव नहीं? उपचार की अनिवार्यता नहीं? उपचार के लिए ललक नहीं? हाँ, असल बात यही है कि आज ललक-समाप्ति को ही 'अन्तिम' सत्य के रूप में चिन्हित किया जाने लगा है. (व्यक्ति निजी स्तर पर जीवन में बेहतरी के लिए प्रयास ही करे, किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता. संघर्षशीलता और जिजीविषा से आँख मूंदने के कारण ही तो तथाकथित गम्भीर साहित्य आज आम आदमी की सोच और जीवन परिधि से गायब होने लगा है, वरना संस्कार रूप में पंचतंत्र, अलिफ लैला, सिंदबाद की कहानियां लेकर बढ़ने वाला पाठक क्या साहित्य से विमुख हो सकताहै? कम से कम टी वी सीरियलों की बढ़ती लोकप्रियता साहित्य के प्रति उस की सनातन रुचि को ही दर्शाती है.)
लेखक को समझना होगा कि साहित्यिक रचना उसकी क्रीड़ास्थली नहीं जहाँ संवेदना और कल्पना के साथ मनमाना खिलवाड़ करके वह वक्त काटता रहे. रचना प्रकाश में आते ही समाज की धरोहर बन जाती है. वह किसी भी समाज की स्थिति को मापने का पैरामीटर भी होती है और एक जीवित प्राणी का रूप धर कर जनचेतना को 'इन्फ्लुएंस' भी करती है. लेखक के साथ उसके सम्बन्ध आत्मीय और मोहाविष्ट होते हुए भी गैर जिम्मेदाराना नहीं हो सकते. सन्तान के रूप में स्वस्थ और जागरूक नागरिक देने की तरह स्वस्थ और सशक्त कृतियां देना भी उसका दायित्व है. इसके लिए ज़रूरी है आत्मान्वेषण (ज़ाहिर है इकाई के रूप में सैल्फ की पड़ताल करते-करते युग की नब्ज पर उंगली आप ही आप चली जाती है.), सत्योपलब्धि और तत्पश्चात् कर्म की प्रेरणा. कर्म की प्रतिष्ठा जहाँ अनिवार्य रूप से मानवीय गरिमा की रक्षा करती है, वहीं इसकी अनुपस्थिति व्यक्ति को नपुंसक बना डालती है. भले ही ढेरों-ढेर सूचनाओं का संग्रह करके वह -'अपडेट' हो, भले ही बौद्धिक विचार-विमर्श करने की उसकी क्षमता कल्पनातीत हो, जब तक अपने को  अन्य व्यक्तियों से 'सेग्रीगेट' करके कछुए की तरह सुविधा और 'दर्शन' के खोल मे छिपा लेने की प्रवृत्ति बलवती रहेगी, जब तक 'गलत' का विरोध और प्रतिरोध करने की ताकत और अनिवार्यता भीतर से नहीं फूटेगी, तब तक यथार्थ का पुनर्सृजन करके किसी कालजयी रचना की अपेक्षा उससे नहीं की जा सकती.  यह ठीक है कि उत्तरआधुनिकता इतिहास, विचार, भविष्य, सनातन, सत्य, मूल्य जैसी चीज़ों के साथ-साथ लेखकीय दायित्व को भी अस्वीकार करती है, लेकिन जब तक साहित्य को निजी सार्थकता के लिए पाठक की आवश्यकता रहेगी, तब तक मध्यस्थ या सेतु के रूप में लेखकीय दायित्व स्वयमेव अपरिहार्य होते रहेंगे. थोपे हुए सामयिक 'दर्शन' को कसौटी मान कर भीतरी आवाज़ों  का गला घोंटना भला कहाँ की बुद्धिमानी है? बात प्रसंगेतर हो सकती है, लेकिन गौर तलब है कि स्त्री लेखन तमाम अवहेलना और विरोधों के बावजूद आज एक ताकत और धरोहर के रूप में इसीलिए उभर कर पाया है क्योंकि किसी भी स्टेज में उसने संघर्ष और जिजीविषा को छोड कर प्रवाह में बहने की कमज़ोरी और ललक नहीं दिखाई. 'कठगुलाब', 'दिलोदानिश', 'चाक', 'इदन्नमम', 'छिन्नमस्ता' जैसी रचनाएं मर्द की दुनिया में औरत को एक मानवीय पहचान देने का आग्रह करती हैं तो दूसरी ओर 'पाल गोमरा का स्कूटर', 'मुझे चांद चाहिए' जैसी रचनाएं हैं जो सीधे-सीधे इस लड़ाई का मज़ाक उड़ाते हुए औरत को 'भोग्या' के रूप में ही देखना-दिखाना पसंद करती हैं. बात स्त्री-पुरुष लेखन की नहीं, लेखन के साथ अनिवार्यतः जुड़े सरोकारों की है, उन सरोकारों को देखने, पहचानने और स्वीकारने की है. इसलिए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वक्त बड़ी ही बेरहमी से कूड़ा-कचरा झाड़-बुहरा देता है. जो शेष रहता है, वह क्लासिकल  साहित्य हो जाता है - ब्रेख्त के नाटकों सा, टॉलस्टाय-गोर्की-बालज़ाक के उपन्यासों सा, होमर के महाकाव्य सा, चेखव की कहानियों सा, इलियट के 'वेस्ट लैण्ड' सा . . . .



यानी लाख घोषणाओं-निष्क्रियताओं के बावजूद महानता और औदात्य की समाप्ति सम्भव नहीं. इतिहास साक्षी है कि हर युग में परिस्थितियां बेहद प्रतिकूल रही हैं. अनाचार, उत्पीड़न, दमन-शोषण, युद्ध, आतंक - समय का सच बन कर युगों में अबाध भाव से संक्रमण करते रहे हैं. समाज-व्यवस्थाएं कमज़ोर वर्गों को सदैव एक सा प्रताड़ित करती रही हैं - समाजशास्त्री स्वीकार करते हैं. भौतिक स्वार्थों से उपजी गलाकाट प्रतियोगिताओं में आकण्ठ लिप्त रह कर हम जिस संवेदनहीनता और संवादशून्यता  का रोना रो रहे हैं, क्या वह सिर्फ हमारी अनुभूति है कि घबरा कर हम औदात्य और महानता की समाप्ति का ऐलान करने लगे हैं? क्या चेखव की कहानी 'ग्रीफ' हमारी निजी वेदना से ही नहीं बुनी गई? लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नौकरशाही के जिस (ढीले-ढाले) शिकंजे में कस कर छटपटाने का ढोंग हम दिन-रात करते हैं, क्या वह शिकंजा अपने क्रूरतम रूप में चेखव की ही कहानी 'क्लार्क' में उपस्थित नहीं? गोर्की की बूढ़ी-अनपढ़ मां क्या क्या हमारे मन में परजीवी की तरह निरन्तर फलती-फूलती उस सुविधाभोगी प्रवृत्ति को नंगा नहीं करती जो अपनी लड़ाई के लिए दूसरों का मुँह तकती रहती है? जीवन के प्रवाह के बीचोंबीच अवस्थित होकर जब हम जीवन की निस्सारता, व्यर्थता और हृदयहीनता का रोना रोते हैं, तब क्या कामू अपने उपन्यास 'प्लेग' के ज़रिए प्लेगजनित आतंक और मौत के विकराल जबड़ों को चीर कर साबुत बाहर निकलने को व्यग्र दिखाई नहीं देते? अन्ततः सब कुछ स्वस्थ और सामान्य हो जाने की आशा और विश्वास ही क्या उन्हें जूझने की अदम्य शक्ति से नहीं भर देता? अपने पा्रणों को तश्तरी में सजा कर मौत के हवाले कर देना ही यदि मनुष्य का अभिप्रेत रहा होता तो, जनश्रुतियां गवाह हैं, डूबते को तिनके का सहारा काफी होता.
ज़ाहिर है साहित्य वर्तमान को निगल लेने को आतुर 'सर्वनाश' से भयभीत नहीं होता, मनोबल जुटा कर 'सर्वनाश' की आशंका को मार भगाता है. वर्तमान की बुनियाद पर खड़ा होने के बावजूद वह भविष्य के अनन्त आकाश को थामने को व्यग्र रहता है. कम से कम प्रेमचंद - एकमत से हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार - ने 'कफ़न' के ज़रिए यह चेतावनी तो दी ही है कि लेखक के पास आशावाद और विज़न हो तो पात्र रुग्ण और स्वार्थी होंगे ही. तब इन रुग्ण पात्रों के बलबूते किस कर्मवीर-क्रान्तिवीर नायक की बात करेंगे? नायकहीन कहानियां लिखना फैशनपरस्ती से उभरा एक दम्भ हो सकता है, लेकिन क्या मामूली से मामूली इन्सान भी अपने जीवन का नायक नहीं होता? निजी जीवन की अहमियत क्या सामाजिक सरोकारों की उपेक्षा कर सकती है? क्या राष्ट्रीय चरित्र, दायित्व और सरोकार वैयक्तिक जीवन से टकराते-जूझते, दिशा देते-बदलते नहीं? क्या इस प्रकार दोनों अन्योन्याश्रित नहीं? क्या व्यक्ति के सन्दर्भ में समाज-व्यवस्था और संस्थाओं को पढ़ने की ज़रूरत नहीं? क्या समाज-व्यवस्था और संस्थाओं के सन्दर्भ में व्यक्ति की महत्ता और निजता की रक्षा की ज़रूरत नहीं? फिर इतना दैन्य,इतना समर्पण, इतनी हताशा किस मकसद की पूर्ति करेंगे? जो जंग लड़ी ही नहीं गई  उसमें हार-जीत का निर्णय कैसा? यथार्थ भले ही शिखंडियों से आपूरित हो, साहित्य 'अर्जुन' की प्रतिष्ठा करता है. यही यथार्थ का पुनर्सृजन है.
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रोहिणी अग्रवाल
घने बरगद तले, आओ माँ हम परी हो जाएँ (कहानी संग्रह)
स्त्री लेखन : स्वप्न और संकल्प, हिंदी उपन्यास में कामकाजी महिला, एक नजर कृष्णा सोबती पर, इतिवृत्त की सरंचना और स्वरूप (पंद्रह वर्ष के प्रतिमानक उपन्यास), समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार (आलोचना), प्रतिनिधि कहानियाँ (मुक्तिबोध) : संपादन
हरियाणा साहित्‍य अकादमी द्वारा कहानी एवं आलोचना पुरस्‍कार, स्पंदन आलोचना पुरस्कार
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा

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  1. रोहिणी अग्रवाल जी..का....ज्ञानवर्धक एवं विचारोत्तेजक आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा, आलेख बहुत से चिरपरिचित एवं अनछुए पक्षों पर प्रकाश डालने वाला है। अरूण जी आपको और रोहिणी जी को हार्दिक साधुवाद

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  2. राकेश बिहारी13 फ़र॰ 2015, 4:48:00 am

    साहित्य यथार्थ नहीं, यथार्थ का पुनर्सृजन है, एक बहुश्रुत और लगभग सर्वस्वीकृत सूत्र है। इस सूत्र को उद्धृत तो खूब किया जाता है, लेकिन यथार्थ का पुनर्सृजन क्या है इस पर अमूमन विस्तार से बात नहीं होती। इस आलेख की विशेषता इस सूत्र की व्याख्या में ही निहित है। लेकिन इस व्याख्या से गुजरते हुए मेरे भीतर कुछ प्रश्न उठे। ये प्रश्न तीन सन्दर्भों से जुड़ते हैं वे हैं- काल-सन्दर्भ, कार्य-कारण सम्बन्ध और आलेख का आखिरी वाक्य जिसमे शिखंडी बनाम अर्जुन के हवाले से यथार्थ की पुनर्रचना को समझने की कोशिश की गई है।

    क्या बिना काल-सन्दर्भ के कोई रचना बड़ी हो सकती है? साहित्य इतिहास या समाजशास्त्र नहीं होता यह सच है लेकिन क्या यह महज मनोविज्ञान होता है? मुझे लगता है किसी रचना की सार्वकालिक स्वीकृति में संवेदना-सन्दर्भ के साथ समय-सन्दर्भ और स्थान (समाज)-सन्दर्भ की भी उतनी ही भूमिका होती है। कालातीत होना को काल सन्दर्भों से मुक्त होना नहीं कहा जा सकता। जानबूझ कर काल-सन्दर्भ से बचने की लेखकीय चतुराई या प्रविधि के आलोक में यह प्रश्न और जरूरी हो जाता है।

    दूसरी बात- साहित्य का उद्देश्य कार्य-कारण का उद्घाटन नहीं। पर क्या साहित्य को कार्य-कारण संबंधों से मुक्त कर दिया जाना चाहिए?

    अब आखिरी बात - क्या यथार्थ की पुनर्रचना का अर्थ किन्हीं आदर्शवादी मूल्यों की स्थापना है? कुछ शास्वत मूल्यों को छोड़ दें तो मूल्यों का भी समय और समाज सन्दर्भ होता है। 'थर्ड जेंडर' और 'एकलव्यों' की प्रतिष्ठा के राजनैतिक संघर्ष के दौर में शिखंडी और अर्जुन के प्रतीक कितने आधुनिक और ग्राह्य हैं? मेरी नज़र में 'कन्सेप्शन' और 'परसेप्शन' के दो छोरों के बीच स्थित यथार्थ की विभिन्न छवियों की टकराहट और उनके अंतर्संबंधों की ध्वनियों की अभिव्यंजना को यथार्थ की पुनर्रचना कहा जाना चाहिए। यथार्थ के पीछे के यथार्थ या यथार्थ के भीतर के यथार्थ का उद्घाटन भी पुनर्रचना का ही हिस्सा होते हैं। इसे और विस्तारित किया जा सकता है। लेकिन, यथार्थ की पुनर्रचना को किन्हीं ख़ास मूल्यों की प्रतिष्ठा भर से जोड़ कर देखना यथार्थ की पुनर्रचना के अर्थ-सन्दर्भों को सीमित करके देखना होगा।

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