सहजि सहजि गुन रमैं : प्रदीप मिश्र













प्रदीप मिश्र (१९७०, गोरखपुर) वैज्ञानिक हैं. ‘अन्तरिक्ष नगर’ नाम से उनका एक विज्ञान- उपन्यास भी प्रकाशित है. बतौर कवि के रूप में भी पहचाने जाते हैं. ‘उम्मीद’ उनका दूसरा कविता संग्रह है जो साहित्य भंडार, इलाहाबाद से इस वर्ष प्रकाशित हुआ है. सोच और संवेदना के स्तर पर समाज और व्यवस्था को मानवीय बनाने की जिम्मेदारी  का निर्वहन इन कविताओं में बखूबी दिखता है.

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एक जनवरी की आधी रात को


एक ने
जूठन फेंकने से पहले
केक के बचे हुए टुकड़े को
सम्भालकर रख लिया किनारे

दूसरा जो दारू के गिलास धो रहा था
खगांल का पहला पानी अलग बोतल में
इकट्ठा कर रहा था

तीसरे ने
नववर्ष की पार्टी की तैयारी करते समय
कुछ मोमबत्तिायाँ और पटाख़े
अपने ज़ेब के हवाले कर लिए थे

तीनों ने एक जनवरी की आधी रात को

पटाख़े इस तरह फोड़ें
जैसे लोगों ने कल जो मनाया
वह झूठ था
आज है असली नववर्ष

दारू के धोवन से भरी बोतलों का
ढक्कन यूँ  खोला
जैसे शेम्पेन की बोतलों के ओपेनर
उनकी ज़ेबों में ही रहते हैं

जूठे केक के टुकड़े खाते हुए
एक दूसरे को दी
नववर्ष की शुभकामनाएँ
पीढिय़ों से वे सारे त्यौहार
इसी तरह मनाते आ रहे हैं
कलैण्डर और पंचांग की तारीख़ों को
चुनौती देते हुए.




दौड़
एक समय था जब
खुद से पीछे छूट जाने के भय से
दौड़ते रहते थे हम
और जब मिलते थे खुद से
खिल उठते थे
चाँदनी रात में चाँद की तरह
अंतस में 
झरने लगता था मधु

अब आगे निकल गए
दूसरों के पीछे दौड़ते रहते हैं

इस तरह खुद से इतना दूर
निकल जाते हैं कि
जीवनभर हाँफते रहते हैं
और अमावस की स्याही
टपकती रहती है
अंतस की झील में.




मुझे शब्द चाहिए

हँसना चाहता हूँ
इतनी जोर की हँसी चाहिए
जिसकी बाढ़ में बह जाए
मन की सारी कुण्ठाएं

रोना चाहता हूँ
इतनी करुणा चाहिए कि
उसकी नमी से
खेत में बदल जाए सारा मरूस्थल

चिल्लाना चाहता हूँ
इतनी तीव्रता चाहिए जिससे
सामने खड़ी चट्टान में
पड़ जाए दरार

बात करना चाहता हूँ
ऐसे शब्द चाहिए
जो बहें हमारी रगों में
जैसे बहती रहती है नदी
जो भीनें हमारे फेफड़ों में
जैसे भीनती रहती है वायु

मुझे शब्द चाहिए
नदी और वायु जैसे शब्द.




विज्ञापन

देश के तेज़ी से बढ़ते हुए
अखबार के विज्ञापन में पढ़ा
कब तक उलझा रहेगा इन्दौर पोहा-जलेबी में
इस उलझे हुए इन्दौर की मुक्ति बहुत ज़रूरी थी
मुक्ति का हल ढूंढऩे अख़बार के दफ्तर पहुँचा
सम्पादक का पता पूछने पर
ज़वाब मिला
अख़बार कब तक उलझा रहेगा सम्पादकों में
सम्पादकों की जगह अब यहाँ प्रबंधक पाए जाते हैं

मुझे ज़वाब मिल गया था
उनके अगले विज्ञापन का मसौदा है
हिन्दुस्तान कब तक उलझा रहेगा
तिरंगे और स्वतंत्रता में

भगत सिंह की ज़वानी को धिक्कारता हुआ
मैं पिज़्जा और बर्गर खा रहा हूँ
मैं उड़ान पर हूँ
क्योंकि मेरे नीचे की ज़मीन खिसक गयी है.



कारीगर कवि

(अग्रज कवि चंद्रकांत देवताले के लिए)


इतिहास की किताब की तरह
पुराना और ठोस चेहरा
चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें
इतनी बड़ी कि उनमें
घूमती हुई पृथ्वी साफ दिखाई दे

पसलियों के नीचे
स्नेह से लबालब हृदय
इतना निर्झर स्नेह कि
घर-पड़ोस के ईंट-पत्थर
पेड़-पौधे, बन्दर-कुते और गिलहरी
बना रहना चाहें उसके कऱीब

अख़बार की ख़बरों से चिंतित
उसका मन
कोलम्बस की तरह भटक रहा है
वह देखना और छूना चाहता है
ब्रह्माण्ड का चप्पा-चप्पा

उसकी खुरदुरी हथेलियों पर
नहीं बची है कोई रेखा
अँगुलियों में लोहे की छड़ जैसी
हड्डियाँ हैं
जब वह हथेलियों और अँगुलियों को
मुट्ठी की तरतीब़ में कर रहा होता है
उस समय नृशंस सत्ताा के माथे पर
पसीने छूटने लगते हैं
किसी छरहरे पेड़ की तरह
रखता है वह धरती पर पाँव

अपने तलुओं को
जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ
समय में प्रवेश करता है

किसी ठठेरे की तरह
सुधारता है समय के गढ्ढों को

वह एक कारीगर है
जिसके कानों पर
पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं

वह तराश रहा है
काट-जोड़ रहा है
काम कर रहा है
लिख रहा है कविताऐँ


निरन्तर.
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4/Post a Comment/Comments

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  1. बेहतरीन विचारपरक कवितायेँ

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  2. सच्ची और इमानदार कविताएँ ...कवि को बधाई , आपको शुक्रिया.

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  3. सुधा उपाध्याय12 मार्च 2015, 6:53:00 pm

    अच्छी कविताएँ , इनमें से बहुत सारी मैंने खुद प्रदीप जी के मुंह से सुनी हैं, बेहतरीन संग्रह की प्रतीक्षा में मैं भी हूँ

    जवाब देंहटाएं

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