लोठार लुत्से (Lothar Lutze) सिर्फ अनुवादक नही थे, वह भाषाओँ के बीच पुल थे, साहित्य संवाहक थे, संस्कृतियों के जीवंत प्रवाह थे. इस जर्मन भाषा के विद्वान का ८७ वर्ष की अवस्था में ५ मार्च २०१५ को निधन हो गया. हिंदी के लिए लोठार का क्या महत्व और योगदान है यह इसी से समझा जा सकता है कि उनकी शिष्या बार्बरा लोत्स के साथ मिलकर विष्णु खरे ने उनके सम्मान में दिल्ली में 'लिविंग लिटरेचर' नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषी अनुवाद संकलन का संपादन –प्रकाशन किया था और मराठी के कवि दिलीप चित्रे ने उन पर एक किताब संपादित की है. 'टेंडर आयरनीज: अ ट्रिब्यूट टु लोठार लुत्से'. भारत सरकार ने उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है
विष्णु खरे ने इस आलेख में गहरे लगाव के साथ लुत्से को याद किया है.
भारतीय साहित्य का जर्मन पक्षधर
विष्णु खरे
मुझे उम्मीद थी कि वह 2006 के
भारत-केन्द्रित फ्रांकफुर्ट अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में कुछ नहीं तो इसीलिए आ
जाएगा कि उसके बहुत सारे परिचित या मित्र लेखक रहेंगे, रचना-पाठ करेंगे, चर्चाएँ होंगी. आखिरकार तब से बीस वर्ष पहले हुए ऐसे ही फ्रांकफुर्ट आयोजन की अधिकांश योजना
उसी की थी और भारतीय लेखकों का चयन लगभग उसी का था. उसके लिए कई भारतीय भाषाओँ के जर्मन अनुवाद भी उसी ने किए थे. लेकिन 2006 के नैशनल बुक ट्रस्ट के सारे निमंत्रण और आग्रह
उसने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिए. जब मैंने उससे पूछा कि क्या तुम
मेरे लिए भी नहीं आओगे तो उसने कहा तुम करीब-करीब हर बरस बर्लिन आकर मुझसे मिलते
ही हो, हम दोनों इधर-उधर साथ भटकते ही हैं, तुम यहाँ आ ही रहे हो तो मैं उस भीड़-भब्भड़
में क्यों आऊँ ?
सच तो यह था कि उसने अतीत या
स्मृतियों में लौटना बंद कर दिया था. अंग्रेज़ी में उसका एक प्रिय
वक्तव्य होता था : ‘’विश्नू, यू नो आइ हैव नाउ विथड्रान. तुम जानते हो कि मैं पीछे हट चुका हूँ’’. यह सच था. इसके पीछे कोई नाराज़गी, आत्म-दया अथवा कुंठा नहीं थीं. लगभग चार दशकों तक वह यूरोप में ही नहीं, पोलैंड, हंगरी और ( सोवियत ) रूस आदि में आधुनिक हिंदी साहित्य तथा दक्षिण एशियाई
साहित्यों के ज्ञान एवं अध्यापन का पर्याय बन चुका था. उसे संसार भर से बीसियों अकादमिक निमंत्रण आते थे लेकिन वह एकाध को ही स्वीकार करता था. रिटायर होने के बाद भी लोग दयनीय ढंग से अपने पुराने दफ्तरों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में मंडराते और दुत्कारे जाते रहते रहते हैं लेकिन सेवा-निवृत्ति के बाद वह कभी
अपने विभाग नहीं लौटा.
मैं किसी प्रोफ़ेसर डॉक्टर लोठार
लुत्से को नहीं जानता, सिर्फ़ लोठार को जानता हूँ, और हमारे बीच उम्रों में सत्रह बरसों की बड़-छोट होते हुए भी मैं उसे ‘उसे’ कह
सकता हूँ और ‘तुम’ से ही पुकारता था. जर्मन में ऐसे बेतकल्लुफ़ दोस्ताने को ‘डूत्सेन’ कहते हैं. मैं उससे पहली बार शायद 1965 में डॉ प्रभाकर माचवे की एक लोकप्रिय चाय-पार्टी
में मिला था – तब रसरंजन की यह अश्लीलता
हिंदी पर नाजिल नहीं हुई थी और यूँ भी माचवेजी विष का वरण करते, वारुणि का नहीं – और वह पहला परिचय 1971 में ‘पहचान’ सीरीज़ में मेरे
खफीफ़ कविता-संग्रह आने के बाद, 25 महीने के मेरे चेकोस्लोवाकिया- यूरोप प्रवास के दौरान मित्रता में तब बदला जब लोठार ने हाइडेलबेर्ग
विश्वविद्यालय के अपने भारतीय भाषा एवम् साहित्य विभाग से मुझे लिखा कि उसके पास
मेरा अता-पता न होने के कारण उसने मुझे बिना बताए मेरी तीन कविताओं के अनुवाद न
सिर्फ़ जर्मन में कर डाले बल्कि उन्हें स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली किताब ‘लेज़ेबूख़ ट्रिटे वेल्ट’ (तथाकथित ‘तीसरी
दुनिया की पाठ्य-पुस्तक’) में शामिल भी कर लिया (जो अब भी बिकती है !) मित्रों को
इस तरह से हैरत में डाल देना उसका
ताज़िंदगी शग़ल रहा.
मुझे लगता है कि अन्य गुणों के
अलावा लोठार अकादमिक क्षेत्र में विश्व-स्तर पर इसलिए भी अद्वितीय है कि वह आधुनिक
हिंदी साहित्य का शायद सबसे जीवंत और जानकार विदेशी शिक्षक तो था ही, वह मुझसे हमेशा माँग करता था कि जब भी मैं भारत से आऊँ अपने साथ कम-से-कम एक-दो नए प्रकाशन लाऊँ और
युवतम प्रतिभाओं के बारे में उसे बताऊँ, हालाँकि वह खुद भारत में रहकर यह
काम करता था और अपने संस्थान की दिल्ली-स्थित भारतीय शाखा से हजारों रुपयों की
किताबें नियमित मँगवाता था. इस तैयारी के बिना मैं उससे मिलता ही नहीं था. वह इन चीज़ों को पेंसिल से दर्ज़ करता था. मात्रा और वैविध्य में जितने अनुवाद भी उसने किए हैं उतने किसी दूसरे ऐसे
प्राध्यापक ने नहीं किए. और यह काम वह आत्म-प्रचार या
ग़ुलाम-वंश पैदा करने के लिए या वरिष्ठता-कनिष्ठता क्रम में नहीं करता था. किसी के बरजने से मानता नहीं था. वह सलाह लेता था, हुक्म नहीं. 1972 में जब मैं पहली बार उसके
विभाग गया तो एक पीले आवरणवाली पुस्तिका के रूप में ज्ञानरंजन की कहानी का उसका
अनुवाद देखकर रोमांचित रह गया. हिंदी के अधिकांश मतिमंद देसी
प्राध्यापक आज भी ज्ञान को न जानते हैं, न पढ़ते हैं,न समझ सकते हैं.
उसने जिन हिंदी लेखकों के अनुवाद
जर्मन में किए हैं वह सूची अविश्वसनीय लगती है : कबीर, प्रेमचंद,जैनेन्द्र ,’निराला’, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, ’अज्ञेय’, रघुवीर सहाय, ’रेणु’, श्रीकांत
वर्मा, कैलाश वाजपेयी, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, विनोदकुमार शुक्ल, चंद्रकांत
देवताले, ’धूमिल’, उदय प्रकाश, सौमित्र मोहन, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, गिरधर
राठी, असद ज़ैदी, विनोद भारद्वाज, विजयदान देथा आदि. कई हिंदी लेखकों के उसने
साक्षात्कार लिए जो अंग्रेज़ी में प्रकाशित हैं. और यह सारे नाम सिर्फ़ किताबों तक
महदूद नहीं रहे, उसने लगभग इन सब की रचनाओं को कक्षा में पढाया भी था. और अनुवाद
भी उसने सिर्फ़ हिंदी से नहीं किए – बांग्ला,उर्दू,मराठी,कन्नड आदि से भी किए. बांग्लादेश
बनने के बाद तो वहाँ का एक संकलन ही तैयार कर दिया. ’अज्ञेय’ की वह सबसे ज़्यादा
क़द्र करता था, उसने उन्हें अतिथि प्राध्यापक के रूप में हाईडेलबेर्ग आमंत्रित भी
किया था, किन्तु वह उनका क्रीतानुयायी नहीं था, खुद विली ब्रांट वाली सोशलिस्ट
पार्टी को वोट देता था.
हमारे यहाँ जो
द्विवेदी-शुक्ल-द्विवेदीत्रयी और उसके बाद के फुटकर चिरकुटों की अकादमिक दासता
चलती है, उसे लोठार लुत्से से कुछ सबक लेने चाहिए थे. यह आकस्मिक नहीं है कि वह
हिंदी के अधिकांश प्रोफेसरों को अधिकतम दूरी पर रखता था. दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालाओं तथा जामिया मिल्लिया के हिंदी विभागों में वह शायद ही कभी गया हो –
वहाँ के जाहिलों और उसके बीच किस स्तर का संवाद हो सकता था ? जर्मन सरीखी जुबान तो
उसकी मातृभाषा थी ही, अंग्रेज़ी, रूसी, इतालवी और फ्रैच पर भी उसका असाधारण अधिकार
था. और मैंने हिंदी के किसी अन्य विदेशी प्राध्यापक को इतनी उच्चारदोषमुक्त हिंदी
बोलते नहीं सुना. उसे कई तरह की हिंदियाँ बहुत प्यारी थी. मुझसे कुछ चुनिन्दा
असंसदीय हिंदी शब्द और गालियाँ बमयमानी सीखकर उसने अपने भाषा-ज्ञान को बहुत धारदार
कर लिया था. सदीक़ ज़ैदी और अपने सहकर्मी सदीक़ साहब की सोहबत ने उसे उर्दू की
मुहब्बत से मालामाल कर दिया था. उर्दू रस्मुल-ख़त सीखने का धीरज उसमें न था लेकिन
मीर व दीवान-ओ-खुतूते-ग़ालिब के नागरी संस्करण उसके आसपास ही रहते थे.
मन में उसके अनेकों संस्मरण हैं. वह
अपने बेदिखावटी ढंग से मुहज्जब और नफीस था
और जीवन को पूरी तरह जीना जानता था. व्हिस्की
और कोन्याक वगैरह वह मुझ-सरीखों साथ ही लेता होगा वरना एक-से-एक वाइन वह खुद खरीद
कर लाता था. महँगे-से-महँगे रेस्तराओं के मैनेजर और वेटर उसके इर्द-गिर्द ‘हेर
डोक्टोर’ या ‘सिन्योर दोत्तोरे’ कहते हुए मँडराते थे. उसने दो शादियाँ और कई सभ्य
प्रणय-काण्ड अंजाम दिए. औरतें उस पर मरती थीं – एक को मैंने बावली-सी होते देखा
है. पहली पत्नी,जो अब भी सधवा है लेकिन लोठार की वफादार रही, से ही उसका एकमात्र
बेटा ठोमास है जो अब वरिष्ठ वकील है. लोठार ने कोई मकान न बनवाया न मोल लिया. वह
मिल्कीयत के पचड़ों में पड़ना ही नहीं चाहता था. निस्बतन सस्ती फ़ोल्क्सवागन
गोल्फ़-पोलो गाड़ियाँ खरीदीं लेकिन पिछले
तीस साल से उन्हें भी हाथ नहीं लगाया. बर्लिन से उसे मुहब्बत थी सो वहाँ अकेला एक
ऐसे छोटे से फ्लैट में रहता था जिस पर रहम कर के ही मुंबई की बोली में ‘वन
बैडरूम-हॉल’ कहा जा सकता है. उसके साथ एक छत के नीचे रहना शेर की माँद में रहना था. वह न ‘गे’ था न ‘होमो-एरोटिक’, लेकिन पक्के दोस्तों
पर बच्चों या हासिद आशिक़ों जैसी इजारेदारी
मान कर चलता था. जब जर्मनी-आस्ट्रिया के खरबपति फ्लाइडरर परिवार की एक वारिसा, उसकी
चहेती पत्नी बेआट्रिक्स का उससे तलाक़ हुआ तो वह मुआवज़े में करोड़पति हो सकता था. लेकिन
उसने हराम की दौलत नहीं, हलाल की ताउम्र दोस्ती चुनी. बेआट्रिक्स अभी तीन साल पहले
कठिन कैंसर से गई. लोठार ही उसका दान्ते रहा.
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(यह आलेख जनसत्ता में
प्रकाशित है, लेखक और संपादक के प्रति आभार के साथ.)
दोस्तों को ऐसी आत्मीयता से ही याद करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंपढ़कर लगा बहुत कुछ है जीवन में जो सीखना अभी बाकी है.
जवाब देंहटाएंबेहद आत्मीय संस्मरण..
जवाब देंहटाएंएक तो लोठार जैसी बेमिसाल शख्सियत, ऊपर से खरे जी की कमाल भाषा..
शुक्रिया समालोचन..
विष्णु खरे जी का हमेशा ही कुछ खास रहता है ।
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