सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज पराशर

सूजा की कृति

















पकंज पराशर का मैथिली में एक कविता –संग्रह प्रकाशित है. इसके साथ ही आलोचना और अनुवाद की कई किताबें प्रकाशित हैं, हिंदी में भी कविताएँ लिखते हैं. सत्ता का आतंक, अहंकार और अतिरेक इन कविताओं के विषय हैं. इस अरण्य में जो असहाय हैं, बेबस लाचार हैं कविता उनके साथ खड़ी है. जब कोई अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है, सुंदर हो उठता है और सार्थक भी.



पंकज पराशर की कविताएँ               


दंतकथाओं में स्त्रियाँ

स्त्रियाँ घरों में थी जंगलों में थी
बड़े-बड़े महलों और बड़े-बड़े कोठों पर थी
कुछ कटी-कटी-सी कुछ सोलह सिंगार किए हुए
कुछ तरह-तरह की चीजें बनाती हुई रसोई में
जहां भी थी जैसी भी थी
कहीं-न-कहीं से निर्वासित थीं

कुछ प्रतीक्षारत थी कुछ अपने नरककुंड में
कुलबुलाती हुई कुछ अहल्या
और उर्मिला की तरह प्रतीक्षारत
कुछ यशोधरा की तरह प्रश्न करती हुई
पितृसत्ता के नक्कारखाने में महज तूती भर
जो स्वर्गाकांक्षी पुरुषों को जन्म देकर भी
कबीर-मुख से भुजंग को भी अंधा करने वाली उवाची गई 

उनके पास बातें बहुत थीं यादें बहुत
मगर ज़ुबान की जगह सिर्फ सहिष्णुता थी
और कुलीनता के सात पुश्तों का भार

उन्हें इंतज़ार था यादों की अशोक वाटिका में
सात वचन और सात फेरों का महज कर्मकांड
वह चाहे धर्मग्रंथ में बंद उर्मिला हो या
जीवन की क़ैद में घुटती हुई
कोई इरोम शर्मिला
जिनके हिस्से में हमेशा आया है
सत्ता का अहंकार  
और एक अंतहीन इंतज़ार.




देह

कितने दर्द कितनी चीख़ सहे देह ने
जिससे निकला यह कोमल स्त्री शिशु देह

देह ने देह से लगाया महीनों सालों
रात-रात भर जाग कर अधनींद में भी
देह से देह को मिलता रहा निरंतर पोषण

देह से निकला एक देह बना देव-पुरुष
और स्त्री देह सयानी होकर भी रही महज देह भर

देह से देह के अनंत काल चक्र में भटकती हुई
एक देह जो आग में जलकर सती हुई
मिट्टी में दबकर सीता पत्थर बनी हुई अहल्या रही

शत्रु कहीं बाहर से नहीं आया देह में ही था
जो संदेहों संसर्गों की आशंका मात्र से
अग्निपरीक्षाएं देता देहोत्सर्गी परंपरा में
महज देह ही रहा चंद सिक्कों की खनक के बीच.





चंदबरदाई

इतिहास में जब पृथ्वीराज चौहान होते हैं तो संयोगिता हो या न हो
चंदबरदाई अवश्य होते हैं
जिनकी उपमाएँ असंभव को भाषा-बाहर कर देती है

चौहानों का निशाना एक दिन चूक जाता है
एक दिन समाप्त हो जाता है उनका साम्राज्य
लेकिन चंदबरदाई फीनिक्स पक्षी-सा होता है
जो पैदा होता है हर बार
नई ऊर्जा और नई उपमाओं के साथ
जो ढूंढ लेता है कोई नई सत्ता 
कोई नया पृथ्वीराज

हर युग का अपना होता है मुहावरा
और अपनी भाषा
उपमाएं बदलती हैं नई-नई अतिशयोक्तियों में 
मगर चंदबरदाई कभी नहीं बदलता
कभी नहीं समाप्त होता उसका वंश
न अमिधा में
न व्यंजना में. 






सफल चुप्पी

तुम समझते हो कि चुप रहोगे तो सुरक्षित रहोगे
हर बात में हाँ-हाँ करोगे तो सफल रहोगे

यह सच है कि असहमतों को सत्ता सख्त नापसंद करती है
और चारणों-विदूषकों को करती है मालामाल
परलोक की कौन कहे इहलोक तो बन ही जाता है

एक शिशु जो गर्भ में विकसित होता
घर-भर के स्वप्नों में दाखिल हो चुका होता है
हत्यारी कटार से मार दिया जाता है
जबकि उसे यह तक मालूम न था
कि उसकी आवाज हत्यारों तक पहुँच चुकी है

छोटानागपुर से लेकर बस्तर और उदयगिरि के मूल निवासी
बेख़बर हैं कि दुनिया जंगल के बाहर
जहाँ दिन-रात योजनाएं बनती हैं उनकी दुनिया को उजाड़ने के
जिसे रोकने-टोकने और गुस्से में चीख़ने के बावजूद
वह बचा नहीं पाता
और तमाम दुनियाओं से बाहर निकाल दिया जाता है

वे जो सदियों से ताकत की दुनिया से बाहर रहे
भाषा से बाहर व्याकरण से निष्काषित
जिये जीवन-भर हाशिये पर मुँह पर ताला लगाए 
लेकिन पर मार दिए गए हत्यारों की कटार से

वे कभी नहीं रहे इस दुनिया में
कभी नहीं मांगा अपने लिए कोई योगक्षेम
सहते रहे दमन का अनंत चक्र
चुप्पी के प्रतिदान में
दया की भीख माँगते रहे इस दुनिया में
और मार दिए गए.




तारणहार

धर्म को उबारने सब आते हैं
मनुष्य को उबारने कोई नहीं आता

कोई चिल्लाता है-इस्लाम ख़तरे में
कोई हिंदुत्व पर संकट बताता है
संकट में जब-जब घिरता है मनुष्य
ज़ुबान को लकवा मार जाता है

एक बच्चा चिल्लाता है गर्भ से-
हमें त्रिशूलों से बचाओ
एक बच्ची जन्म से पहले ही माँगती है
जान की भीख अपने ही जनक से

मंदिर के लिए लाखों निकल आते हैं चंद घंटों में
मस्जिद के लिए कभी कमी नहीं पड़ती पैसों की
मनुष्य के लिए सभी बन जाते हैं मितव्ययिता के उपदेशक

धर्म की रक्षा में निकली हुई तलवारें
मनुष्यता की लहू से भी भोथरी नहीं पड़ती
न किसी चीख़ से हिचकिचाती है बाहर निकलने में

एक हाथ में पवित्र ग्रंथ लिए
निकल आते हैं असंख्य हाथ
जिनके पांवों के नीचे मनुष्य
और हाथ में होता है ख़ून-सना तलवार.





चाह

कभी घटे तो मिल जाए एक गिलास चावल
कभी थोड़े-से पैसे उधार
अगले दिन जब मिल जाए दिन की पूरी मजूरी
तो लौटा आता हूँ तुरत सबका बाकी-उधार

किसी दिन मिल जाए अगर दाल-भात-चोखा
और लाल मरिचा का अचार
तो इससे अधिक जीवन में
और क्या चाहिए महाराज?

न किसी उधो से कभी कुछ लिया
न कभी किसी माधो को कभी कुछ लौटाया
न कभी कुछ बड़ा देखा न कभी कुछ बड़ा सोचा
साँस तक ली हमेशा बहुत छोटी-छोटी 
फिर क्या बताऊँ गिरवी-रेहन और ड्योढ़ा-सवाया

मन में रही तो बस इत्ती-सी चाह
कि जब लौटूँ वैशाख की दोपहरी में
अपने ठीहे पर मिल जाए बस एक डली गुड़
और गगरा भर ठंडा पानी

किसी दिन मिल जाए यदि रात में
मिट्टी की खपड़ी में पकी गरम-गरम रोटी
और नोन-तेल साग
तो आधी रात तक विरहा गाते हुए
पुआल पर ही ढेर हो जाते हैं सरकार.

__________
संपर्कः
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उ.प्र.)

5/Post a Comment/Comments

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  1. बहुत प्रभावी कविताएँ

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  2. सचमुच ...चंदबरदाई हमेशा होते हैं..

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  3. हर युग मे हमारी चेतना का अंश बनकर सत्ता के विरुद्ध खड़ा होता है लहरों के विरुद्ध

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  4. विरोध तो कोई भी कर सकता है.कविता भी करती रही. परन्तु क्या करना है,उसे कोई बताता भीनहीं और करके दिखाता भी नहीं.मानवता का दुर्भाग्य भी यही

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  5. हां वो फीनिक्स ही है । अकसर लगता है वो अब मरा अब मरा । अब गया काम से । अब तो बच ही नहीं सकता । लेकिन वह अनी ही मृत्यु से ऊर्जस्वित हो कर उठता है । दुनिया जहान को हैरान करता है । कवि को जिन्दा करने वाली कविता ।

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