सबद भेद : तसलीमा नसरीन : आधी दुनिया का पूरा सच (रोहिणी अग्रवाल)









तसलीमा नसरीन बौद्धिक-सामाजिक क्षेत्र में एक ऐसी उपस्थिति हैं, जिसने सत्ताओं (धर्म, राज्य, पुरुष-वर्चस्व) को अनथक चुनौती दी है. भारतीय महाद्वीप में शायद वह ऐसी पहली लेखिका हैं जिन्होंने अपने जीवन और लेखन से सत्ताओं को असहज कर दिया है. लगातार निर्वासन और हत्या के भय के बीच अभी भी उनका लेखन स्वतन्त्रता, समानता और आधुनिक चेतना के पक्ष में खड़ा है.
वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल का आलेख जो तसलीमा के लेखन को ‘विवेचनात्मक अंतर्दृष्टि’ से परखता है.      

तसलीमा नसरीन : आधी दुनिया का पूरा सच                         
रोहिणी अग्रवाल

''एक चीज़ मेरे विश्वास के अंदर पक्की तौर पर घर करती जा रही थी; वह थी अपनी चाहों की कद्र करना, मेरी देह नितांत मेरी है. इस पर दखल रखने का हक मेरे अलावा और किसी का नहीं हो सकता. इस शरीर को मैं कीचड़ में डुबो दूँ या सिर की शोभा बनाऊँ, इसका फैसला सिर्फ मैं करूँगी. मैंने एकाधिक मर्दों से शारीरिक सम्पर्क स्थापित किया है, यह जान कर अनगिन मर्द मेरे तन-बदन की तरफ टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं, मानो यह शरीर आसानी से सुलभ है, हाथ बढ़ाते ही उपलब्ध हो जाएगा. . .  उन लोगों को कभी यह ख्याल नहीं आता कि मर्द भी भोग की सामग्री हो सकते हैं. औरत भी मर्द का भोग कर सकती है और वे लोग कभी सपने में भी नहीं सोचते कि अगर मैं चाहूँ तो एकमात्र बलात्कार करने के अलावा वे लोग मेरी देह नहीं पा सकते.''
(द्विखंडित, पृ. 213)

डंके की चोट पर दिग-दिगंत में गूंजती बेहद दिलेर घोषणा! नाचीज़ स्त्री की ओर से. प्रत्युत्तर में सांय-सांय करती उतनी ही खौफनाक निस्तब्धता! लेकिन निस्तब्धता जड़ता या निष्क्रियता का प्रमाण नहीं हुआ करती. वह होती है भीतर ही भीतर जड़ों तक पैठ जाने वाली अपमान, घृणा और प्रतिशोध की मनोवृत्तियों के आक्रामक दबाव तले विध्वंसात्मक साजिशों/रणनीतियों को रचने की सक्रियता. तब कुचर्चा-दुष्प्रचार, आरोप-अभियोग, प्रतिबंध-आंदोलन - अपने निर्णय के पक्ष में अधिकाधिक जनमत जुटाने की चालें बन जाती हैं जिनके चलते अशिक्षित आस्तिक आम आदमी को गुमराह करना  और फांसी जैसे अमानवीय फतवे के हक में राजनीतिक ताकतों-बुद्धिजीवी/समाजसेवी संगठनों को हतवाक् करना सरल हो जाता है. इसलिए ''यौनता की रानी'' और ''औरत की आजादी के नाम पर मर्दों के खिलाफ फिजूल ही कटखनी और बेलगाम, अश्रव्य भाषा का इस्तेमाल'' कर ''वर्ग-विद्वेष'' पैदा करने जैसे आरोपों से घिरी तसलीमा नसरीन को निकट से जानने की कोशिश भला कोई क्यों करे? चटपटे मसाले में लिपटे आरोप जब बात का जायका बढ़ाते हों तो उस मसाले को धो-पोंछ कर तसलीमा के साहित्य की गुणवत्ता का निरपेक्ष मूल्यांकन . . . न्ना! काम जोखिम भरा नहीं है, लेकिन घूम-फिर कर पुनः-पुनः उन्हीं निष्कर्षों तक लौटने का व्यर्थ श्रम (?) तो है ही.

बहुत सरल होता है लकीर पीटना और सुरक्षित भी. लेकिन क्या ईमानदार और आधुनिक भी? सवाल उठता है कि 'द्विखंडित' को लेकर जितना भी 'काक-रौर' मच रहा है, क्या वास्तव में वह जायज है? समकालीन साहित्यकारों/मित्रों के साथ निर्बाध सैक्स सम्बन्ध और पोर्नो की हद तक उनका चटखारेदार चित्रण - बस, यही है 'द्विखंडित'? यही है तसलीमा नसरीन? , यकीनन नहीं. असल में कुचर्चा एवं परनिंदा में सुख पाने वाली निजी सीमाओं से उबर कर तथा गहन मानवीय संवेदना और हार्दिकता के साथ 'द्विखंडित' के संग-संग पृष्ठ दर पृष्ठ चल कर ही तसलीमा के रूप में उस विद्रोही चेतना को क्रमशः पनपते देखा जा सकता है जिसके मानवीय सरोकार ही उसकी जिजीविषा हैं और जीवनी-शक्ति भी.

वितर्कित लेखिका तसलीमा के लेखन, विशेषतः स्त्री-विमर्श, को समझना इतना आसान नहीं. इसके लिए जरूरी है बांग्लादेश की राजनीतिक-धार्मिक पृष्ठभूमि का गंभीर अध्ययन जो लेखिका की दुर्वह चिंता का मूल कारण भी है. 1971 में 'जय बांग्ला' के उद्घोष के साथ धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के रूप में बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ, लेकिन इरशाद जैसे राष्ट्रपतियों द्वारा अपनी गद्दी बचाने के उपक्रम में इसे इस्लामिक राष्ट्र बनाने का जो उत्सवधर्मी दौर शुरु हुआ, असल में वह एक अंधकार युग की शुरुआत है. बुद्धि, विवेक, तर्क और प्रगति जैसी 'विस्फोटक' मानवीय निधियों को अंधेरे तहखाने में बंद कर अवामी लीग (शेख हसीना) और बी .एन .पी .(खालिदा जिया) का भी धर्म के नाम पर 'झुला दी गई एक अदद पारलौकिक मूली' को पकड़ने का जोश देश से उसकी मूल बांग्ला पहचान और संस्कृति छीन कर विषमता का आरेखन करते हुए इस्लाम को प्रश्रय देने का उद्योग है. वह इस्लाम जो अपनी तमाम नेकनीयती और पाकीज़गी के बावजूद धर्म का बुलडोज़र चला औरत को ''टुकड़े-टुकड़े मांसपिंड में तब्दील'' ('द्विखंडित', पृ. 63) करने का बीड़ा उठा कर चलता है. यह इस्लाम उस मध्ययुगीन सामंती समाज व्यवस्था में क्योंकर लोकप्रिय होगा जहाँ आज भी पति/पुरुषहीन नौकरीपेशा स्त्री को किराए पर मकान नहीं दिया जाता और 'ईव टीज़िंग' मनचले किशोरों का प्रिय खेल हैजबकि अपनी मुसलमान पहचान से बेखबर तसलीमा बंगाली होने के गर्व में 'एकमेक बांग्ला का सपना (वही, पृ. 27.) लेकर उच्छ्वसित हैं और गणतंत्र बांग्ला की नागरिक होने के अभिमान में नास्तिकता को अपनी सबसे बड़ी खूबी मानती हैं जो मूलतः इंसानी पहचान के साथ इंसानी वजूद को बचाने का औजार है. इसी कारण इस्लाम/कट्टरपंथियों के आक्रमण के दौरान वे हर बार अल्पसंख्यक हिंदुओं के पाले में जा खड़ी होती हैं - व्यक्ति के तौर पर, चिंतक के तौर पर, रचनाकार के तौर पर- 'लज्जा' में सुरंजन दत्त बन कर, 'फेरा' में कल्याणी बन कर और रवीन्द्रनाथ टैगोर को साक्षात् ईश्वर की संज्ञा देकर उनकी कुर्सी के समीप बैठ फूट-फूट कर रोते हुए.

दरअसल 'द्विखंडित' बागी तसलीमा नसरीन (नसरीन यानी बनैला गुलाब जिसकी सुगंध और शूल दोनों ही मारक हैं) के उग्र आक्रामक तेवरों की आत्मस्वीकृति भर नहीं है. अपनी मूल संरचना में यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से जुड़े सभी विशेषाधिकारों एवं उत्पीड़नों का खुली-बेहिचक भाषा-भंगिमा में प्रामाणिक दस्तावेज है. जाहिर है यहाँ पुरुष के दर्प और अनियंत्रित कामुकता (जो स्त्री संदर्भ पाते ही चरित्रहीनता बन जाती है) के बरक्स लड़की का पिता-भाई होने के कारण हीनतर स्थिति से गुजरने को विवश करते सामाजिक दबावों का आख्यान भी है और कुंठित दमित स्त्री का मनोविज्ञान भी. इसी परिवेश, मनोविज्ञान और तनाव से गुजर कर ''ब्रह्यपुत्र के किनारेवाली शर्मीली डरपोक किशोरी'' (वही, पृ. 229) ''अब्बू और पति की अधीनता से मुक्त, आजाद ज़िंदगी' जीने का साहस बटोर पाई है, लेकिन ''पति-संतान के साथ गृहस्थी बसाने के साध-आह्लाद को अनायास ही उछाल फेंकना'' (पृ. 225) क्या इतना सरल था लेखिका के लिए? यौन-आक्रांता पुरुषों की कामातुर दृष्टि/भंगिमा/हिंसा ने तसलीमा के स्वभाव में शुतुरमुर्गी वृत्ति का पोषण किया है जिस कारण पैंट की ओर बढ़ते नईम के हाथ, बेटी के रूप में परिचय देकर एक ही कमरे में टिकने की जोड़तोड़ करता सैयद शम्सुल हक का शातिर दिमाग, दावत के बहाने पत्नीविहीन घर में अकेले घेरने की शहरयार की कोशिश और 'कामरोग' का इलाज कराने के बहाने डॉक्टर तसलीमा के सामने खुला प्रणय निवेदन करता अब्दुल करीम - सब को अनदेखा कर सहज बने रहने की कोशिश करती हैं वे क्योंकि ''वे जो कहना चाहते हैं, मैं समझ गई हूँ, यह बात अगर वे समझ जाते तो शायद इतने में ही उनकी यौन-तृप्ति हो जाती.'' (पृ. 145) दूसरे, अपनी बहन और सखियों के निजी अनुभव जान कर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि इसके अतिरिक्त पूरे स्त्री समाज के समक्ष अन्य कोई विकल्प है भी नहीं क्योंकि ''हमारे मर्द जब जरूरत से ज्यादा समझने का नाटक करते हैं, तब औरत अगर ' समझने' का नाटक करे तो सामूहिक विपत्ति की आशंका रहती है.'' (पृ. 88) 

पढ़-लिख कर स्वावलम्बी हो जाने के बावजूद 'औरत' होने की कालिखभरी यंत्रणा से मुक्ति पा सकने की हताशा राख बन कर तसलीमा को फीनिक्स की तरह बार-बार जी उठने की प्रेरणा देती है - अपनी कष्ट कथा के बयान को विस्तृत करते-करते पूरी औरत-जात से जुड़ने की क्षमताइसलिए सबसे पहले वे हर स्त्री-मानस को आंदोलित करने वाली 'प्यार' जैसी चाहत भरी अमूर्त मानवीय अनुभूति को पाकर 'सम्पूर्ण' हो जाने का सपना देखती हैं, प्यार जो दिलों के बीच बांसुरी सा बजता है, अतीन्द्रिय और अशरीरी होने के बोध को पुष्ट करता हुआ. रुद्र के प्रति तसलीमा, शकील के प्रति छोटी बहन यास्मीन और मानू के प्रति सहपाठी डॉक्टर शिप्रा की रागरंजित अनुभूतियों का घनीभूत रूप है 'निमंत्रण' कहानी की नायिका शीला जिसकी देह का पोर-पोर मंसूर नामक सुदर्शन युवक के प्यार का प्रतिदान चाहता है. , प्रेम में विभेद कैसा और कैसी सामाजिक वर्जनाएं? पुरुष के पास ही प्रेम-निवेदन का पुश्तैनी अधिकार क्यों? ''मेरा आवेग मेरे भीतर घुट-घुट कर मरे और मैं इंतजार करती रहूँ कि मंसूर कब आकर मुझसे कहे, मैं प्यार करता हूँ. मुझसे देर बर्दायत नहीं होती.'' शीला का अपराध है कि वह स्वयं आगे बढ़ कर पहल करती है. निर्लज्ज आचरण! और परिणाम? लिंगगत समानता का दावा कर समाज को तोड़ने वाली 'कुलटाओं' को सबक सिखाना जानता है पुरुष. शीला  के साथ अपने दुस्साहस का परिणाम भोगती हैं तसलीमा - मंसूर सहित सात उजड्ड लंपट युवकों केे सामूहिक बलात्कार का शिकार हो. छल-बल से अभद्रता-अमानवीयता का नर्तन करते हुए उन युवकों के क्रूर आचरण की भोक्ता शीला को लेखकीय सहानुभूति नहीं देतीं तसलीमा (क्योंकि सहानुभूति उत्पीड़ित के विस्फोटक आक्रोश की आंच को धीमा कर देती है), सिर्फ उसके साथ तादात्मीकृत हो अपनी ही वेदना को टूक-टूक बताती हैं

''मेरे डरे हुए लज्जित कंपित शरीर पर अपनी सारी ताकत इस्तेमाल कर मंसूर ने मेरे दोनों पैर दोनों ओर खड़ा करके अपने दोनों पैरों से दबोच कर मेरे अंदर अपने शरीर का कोई उन्मत्त कठोर निष्ठुर अंग घुसाने की कोशिश की.  . . मेरी सांवली देह पर मंसूर का गोरा सुंदर शरीर क्या-क्या नृत्य करने लगा. मैं दर्द से कराहने लगी. . . . बिस्तर की चादर खून से लथपथ है. मेरे यौनांग से छलछल करती नदी की धारा की तरह खून बह रहा है. पीठ के नीचे भी खून -आकर जमा है. एडी भी खून पर तैर रही है. . . .सिर उठाने की कोशिश की, गर्दन नहीं हिली. . . . लुढ़क-लुढ़क कर मैंने कपड़ों को समेटा, कमजोर हाथों से उन्हें शरीर में लपेट लिया.''
(चार कन्या, निमंत्रण, पृ. 118)
         
बस, यहीं चूक कर बैठी तसलीमा. आंसुओं का खारा समंदर औरत को आखिर क्यों दिया है सिरजनहार ने? रो-धो कर चुपा जाती तो ठीक था, नंगा शरीर सबको दिखाया, यह क्या बदचलनी नहीं? अश्लीन लेखन! मुल्लाओं की ओर से संगीन आरोप क्यों हों, जबकि हर बलात्कृत लड़की से समाज बकुली की तरह गूंगी हो जाने की 'ज़रा सी' अपेक्षा ही तो करता आया है, सो भी नई नहीं, आदिमकालीन. लेकिन तसलीमा महज एक औरत तो नहीं. बेशक समाज ने उन्हें 'इंसान' का दर्जा नहीं दिया, शिक्षा ने डॉक्टर का ज्ञान तो दिया ही है. वे जानती हैं कि बदन पर हुए घाव को जब तक खोल कर दिखाया जाए, उपचार संभव नहीं. फिर निर्लज्जता या अश्लीलता की बात कहाँ? इसलिए आयु बढ़ने के साथ-साथ ''एक-एक का तिलचट्टा होती चलतीं' लड़कियों को देख वे मिनमिनाती नहीं, चिल्लाती हैं कि सतीत्व ''बड़े ही अशालीन ढंग से स्त्रियों पर आरोपित एक संस्कार है'' (चार कन्या, दूसरा पक्ष, पृ. 39) ; कि ''विवाह नामक सामाजिक नियम औरत की देह और मन को मर्द की सम्पत्ति बना देता है'' ('द्विखंडित', पृ. 212) ; कि ''मैं हारून के शारीरिक सुख के लिए रखा हुआ द्विपदीय प्राणी मात्र हूँ. मुझे सुबह-दोपहर-शाम को खा-पीक ज़िंदा रहना पड़ता है क्योंकि वह मुझे भोगेगा'' (चार कन्या, प्रतिशोध, पृ. 149) ; कि ''मैंने इस नियम को भी अस्वीकार कर दिया है कि मेरी देह अगर कोई छुए तो मैं सड़ जाऊँगी. मैंने तोड़ डाली है जंजीर! पान से पोंछ दिया है संस्कार का चूना.'' ('द्विखंडित', पृ. 212)
         
तसलीमा के कलाम हठात् 'सीमंतनी उपदेश' की याद दिला देते हैं - वैसे ही निर्भीक, दुस्साहसी, अनलंकृत आक्रामक तेवर जो कथ्यगत समानता के बावजूद 'श्रृंखला की कड़ियां' का विलोम रचते हैं क्योंकि महादेवी वर्मा की अभिजात आलंकारिक शैली पुरुष तंत्र के षड्यंत्रों का बौद्धिक विश्लेषण करते हुए पुरुषों की दुनिया में  पुरुष-अनुकंपा पाने की लालसा में क्लिष्ट शब्दावली और जटिल-संश्लिष्ट वाक्यावली का जाल बिछा गूढ़ार्थ को किंचित कोमल और रहस्यमय बना देती है. अकारण नहीं कि महादेवी आज श्रद्धा और विद्वत्ता के भारी-भरकम आसन पर आसीन हैं, जबकि 'सीमंतनी उपदेश' की रचयिता अपना नाम तक खोकर बरसों अलक्षित-तिरस्कृत रहीं और स्टार बनाम 'खारिज नाम' के दुष्चक्र में फंसी तसलीमा एक 'दर्शनीय वस्तु'. यहाँ तसलीमा के ही समकालीन मीर नूरुल इस्लाम की टिप्पणी उद्धरणीय है जो फतवे के नाम पर तसलीमा के जैनुइन सरोकारों को नज़रअंदाज करने की क्रमिक साजिश का उद्घाटन करती है

''जिनको लेकर इतनी-इतनी बातें हो रही हैं, मैंने उन्हें कभी देखा नहीं. हाँ, उनके विपक्ष में सैंकड़ों अश्रव्य बातें जरूर सुनता रहा हूँ. उन सब बातों में व्यंग्य होता है, विद्रूप के जहर बुझे वाक्य-बाण होते हैं. अगर कुछ नहीं होता तो वह है उनकी काव्य-प्रतिभा की समीक्षा या समालोचना. हाँ, शारीरिक वर्णन और तथ्यों की जानकारी काफी मिर्च-मसाला मिला कर दी जाती है. मानो किसी नारी देह को काट-काट कर उसका हांडी कबाब या बोटी कबाब पका कर मांसलोभियों केे लिए मेज पर परोस दिया गया हो. हालांकि वे इसी मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाती रही हैं. इसी के लिए हिंस्रता और पाशविकता केे खिलाफ उनकी कलम-दवात प्रतिपक्ष को जगाने की दुर्वार साधना में लीन है.''
('द्विखंडित', पृ. 3.1)
         
बेशक तसलीमा के स्त्री विमर्श को देहवाद की परिधि में आसानी से कैद किया जा सकता है. अपनी साहित्यिक कृतियों में बेहद मुखर होकर वे दाम्पत्येतर सम्बन्धों की वकालत करती हैं. मसलन, 'दूसरा पक्ष' में हुमायूं  नामक बेड़ी से मुक्ति पाकर पाशा का उन्मुक्त संसर्ग जीती यमुना  ; संदेह की बिना पर अपने ही अजन्मे शिशु की भू्रण हत्या कराते हारुन (जो बिलाशक तसलीमा का दूसरा पति नईम है, 'द्विखंडित', पृ. 112) से प्रतिशोध लेने के लिए ठीक उसकी नज़रबंदी के बीचोंबीच पड़ोसी युवक अफजल का गर्भ धारण करती झूमुर  ; नपुंसक पति अलताफ की असफल कामवासना के कारण चिर-अतृप्ति का स्थाई शिकार होने का विरोध कर अपनी अलग स्वाभिमानी राहों की तलाश करते हुए कैसर नामक युवक के संसर्ग में तृप्ति का अनिर्वचनीय स्वाद भोगती हीरा - ''मेरा शरीर वर्षों से कुछ मांग रहा था, सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिन मांगे ही सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई. प्यास बुझी है मेरी. एक पूरी देह भर प्यास. ऊसर जमीन पर पानी के गिरने की आवाज, फसल की झूमती हरियाली.'' (चार कन्या, भंवरे जाकर कहना, पृ. 255)

अस्वाभाविक नहीं कि 'सूरजमुखी अंधेरे के' (कृष्णा सोबती) की आत्माभिामान से दमकती रत्ती अपनी पूरी कद-काठी के साथ हीरा की बगल में खड़ी होती है जिसने दिवाकर के संसर्ग के बाद अपनी बंजर मानसिकता के भीतर गाछ उगते देखा है. उल्लेखनीय है कि जहाँ कृष्णा सोबती की सारी कवायद रत्ती के सामाजिक अभिशाप (बलात्कार) और मानसिक ग्रंथि (सेक्सुअल फ्रिजिडिटी) को धोने की डॉक्टरी आड़ लेकर समर्पित स्त्री-पुरुष के यौन-सुख को उत्कीर्ण करने की है, वहीं तसलीमा बृहत्तर आयामों की ओर प्रयाण करते हुए क्रूर सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ पूरे होशा-हवास में अपनी नायिका की बगावत दर्ज कराती हैं. हाँ, वे मानती हैं कि अमूमन औरत 'प्यार के ख्याल से प्यार कर बैठती है' जबकि प्यार 'एक किस्म की फांस है', लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार करती हैं कि 'शरीर ही आखिरी बात नहीं होती. बांसुरी के साथ प्रेम रहे तो बांसुरी ज्यादा दिन तक नहीं बजती.'' ('द्विखंडित', पृ. 312)

इसलिए वे 'फ्री सेक्स' में नहीं 'फ्रीडम ऑव सेक्स' में विश्वास करती हैं, वह भी इसलिए कि ''शरीर की भूख-प्यास मिटाने का कोई दूसरा उपाय'' (पृ. 211) वे नहीं जानतीं.  लेकिन हृदय और राग की अनदेखी तब भी नहीं. विवाह विच्छेद के बाद भी रुद्र की प्रेम दीवानी तसलीमा झीनादाही में कवि-गोष्ठी के बाद रात को सभी की उपस्थिति में रुद्र के साथ एक कमरे में सोना गलत नहीं मानतीं और अपने या उसके घर उसकी या अपनी मांग पर हमेशा समर्पित होती रही हैं. लेकिन वही तसलीमा जब रुद्र के मुँह से उसकी 'सहज सुलभता' के अपवाद को सुन कर उसी अश्लील मुद्रा में ''तुम्हारी देह जीने की तीखी चाह जाग उठी है'' (पृ. 186) कह सड़क-छाप कामुकता का प्रदर्शन करता है तो निःशब्द रोकर अपनी अपमान-ज्वाला शांत करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाती. तसलीमा चरित्रहीन नहीं है. कही जा सकती हैं, यदि प्रचलित सामाजिक नियम-कायदों का आरोपण किया जाए. लेकिन इनके औचित्य पर तो वे स्वयं प्रश्नचिन्ह लगा चुकी हैं - ''स्त्रियों के चरित्र और चरित्रहीनता का मामला सिर्फ शारीरिक घटनाओं से तय किया जाता है. कितना विचित्र नियम है ?'' (चार कन्या, दूसरा पक्ष, पृ. 31) चरित्रहीनता, असल में, नैतिक-मानसिक स्खलन है जो व्यक्ति के भीतर कुछ 'अकरणीय' कर डालने के अपराध बोध को गहराते हुए उसे निरंतर अंधेरी अतल गहराइयों की ओर धकेलता रहता है. प्रतिक्रियास्वरूप अपने को जगर-मगर रोशनियों और बुलंदियों में रखना ऐसे व्यक्ति के लिए आत्मसम्मानपूर्वक (?) जीने की पहली शर्त बन जाता है. 'देहवाद' के उद्घोष के नाम पर बुना जाने वाला स्त्री विमर्श अंधेरे निर्जन कोनों में भोग की चिपचिपी पुनरावृत्तियों में लीन रहता है, अतः आज पुरुष-प्रभुता में पोषित स्त्री विमर्श स्त्री की मानवीय पहचान, स्त्री-पुरुष के सह-अस्तित्वपरक सकारात्मक सरोकारों से रचे परिवार जैसे मूल लक्ष्यों को 'यूटोपिया' की कोटि में खदेड़ने लगा है. तसलीमा नसरीन की तथाकथित 'चरित्रहीनता' सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करती है, सामाजिक सरोकारों की अनदेखी नहीं करती. रुद्र, नईम, कैसर - इन तीनों के साथ उन्होंने सम्बन्ध बनाया तो अपने घर में - मां, विवाहिता बहन और उसके पति की उपस्थिति में. 

अश्लील लेखिका के रूप में कुचर्चित तसलीमा पर सबसे बड़ा आरोप है कि ''औरत होकर आप मर्दों की तरह क्यों लिखती हैं?'' (पृ. 249) मर्दों की तरह लिखना यानी निर्भीक उन्मुक्तता के साथ लिखना? या अपनी मनःरुचियों के अनुरूप नखशिख वर्णन के नाम पर स्त्री के अंग-प्रत्यंग को नग्न करके बाज़ार नुमाइश की चीज़ बना देना? या फिर सक्षम होने के दंभ में अक्षम पर कटाक्ष-प्रहार करते चलना? यदि यही 'मर्द लेखन' है तो नि-संदेह तसलीमा निर्भीकता की विशेषता के साथ मर्दों की तरह लिखती हैं, लेकिन अक्षम पर लात जमाने के लिए नहीं, अक्षम को गुलाम और भोग की सामग्री बनाने वाले 'समाज के सड़े-गले नियमों के खिलाफ' जो ''औरत को बूंद भर भी मर्यादा नहीं देते'' (पृ. 278) और इस जनून में समाज, देश और धर्म की साजिश के खिलाफ प्रतिवाद करने में जरा भी नहीं हिचकतीं. आश्चर्य है कि नायिका भेद, बारहमासा, नखशिख वर्णन की रसिक परंपरा में डुबकियां लगाते पाठक को नपुंसक पति के संसर्ग में सुलग-सुलग कर खाक होती नायिका की वेदना से कोई सहानुभूति नहीं, बल्कि आपत्ति है इस पंक्ति पर कि ''अपनी दोनों मुट्ठियों में भर लेता है स्तन'' जैसी अश्लील पंक्ति उन्होंने क्यों लिखी? गाजर-मूली की तरह वेश्याओं को खरीद-चूस कर फेंक देने वाले अभिजन को तकलीफ है कि 'विपरीत खेल' जैसी कविता में वे दस-पाँच रुपए में लड़के को खरीदने या पतियों की तरह चार शादियां करने जैसी निहायत धर्मविरुद्ध बात कैसे सोच सकती हैं? तसलीमा जानती हैं कि किसी भी शब्द, घटना या पात्र को संदर्भ से काट कर कुव्याख्याएं करना बेहद सरल होता है. 

इसलिए 'तसलीमा नसरीन पेषण कमेटी' के नेताओं के आक्रोश और आपत्तियों को वे गंभीरता से लेती भी नहीं. लेकिन रुद्र जैसा व्यक्ति जब दोनों के अंतरंग सम्बन्धों का हवाला देकर  उनसे ''तमाम मर्दजात को ऐसी बेइज्जती से रिहा'' कर देने का अनुरोध करता है, तब वे मर्माहत हो जाती हैं. बस, इतनी भर महत्ता है स्त्री अस्मिता और अधिकार पर खड़े किए गए उनके सरोकारों की कि निजी जीवन की कुंठाओं की प्रतिक्रिया और आवेश में रचा गया सार्वजनिक बयान सिद्ध किया जा सके उन्हें? तो क्या प्रभुता के मद में पुरुष सचमुच संवेदनशील हो गया है कि पुरुष-तंत्र की संरचना और अपनी जेहनियत- किसी की भी पड़ताल नहीं करना चाहता? या कि स्त्री-लेखन के केन्द्रीय सरोकारों को जायज मानने की वजह से ही अपने खिसकते धरातल को बचाने की जी-तोड़ कोशिश में हिंसक हो गया है? इसलिए स्त्री विमर्श को नकारात्मक, विपुल जीवन का अत्याल्पांश कह कर स्त्रियों को इस ओर से विरत करने की 'शुभाकांक्षी' सलाहें देता है? स्त्री विमर्श कटघरे में पुरुष या पुरुषवादी स्त्री को खड़ा नहीं करता, पुरुष-तंत्र को खड़ा करता है. तब परीक्षण की अनिवार्य एवं संयुक्त प्रक्रिया में उसकी सकारात्मक भागीदारी कहाँ है? शोषण की नींव पर खड़े खंडित घर ही क्या उसे प्रिय हैं जहाँ स्त्री का रुदन पृष्ठभूमि संगीत की रचना कर उसके पौरुष और अहं को दीप्त करता है? न्याय की खातिर सदियों से चले रहे सामाजिक विधान को पलट कर स्त्री-भूमिका स्वीकारने का अनुभव क्यों नहीं अर्जित करता - श्रद्धा और 'देव' के विशेषणों से गुंथा? तसलीमा नसरीन बिखर कर पुरुष की हिंसा मजबूत करने का कोई भी साहित्यिक अनुष्ठान नहीं करना चाहतीं. इसलिए खबरों को आवेग की सघनता, आक्रोश की प्रखरता और विश्लेषण की तटस्थता दे वे नियम-कायदों की बिसात ही पलट देना चाहती हैं

''कभी मेरी बहुत इच्छा थी कि जिस तरह शादियां करके पुरुष एक घर में चार बीवियां रख कर जीवनयापन का अधिकार रखता है, उसी तरह मैं भी चार शादियां करके चार पतियों के साथ जीवन बिताऊँ. ऐसी घटना से बहुत सी लड़कियां उत्साहित होतीं और तभी लोगों में यह चेतना जागती कि जो नियम इस समाज में प्रचलित हैं, उन्हें उलट देने पर कैसा लगता है. कहाँ का पानी कहाँ जाकर ठहरता है? बादलों के बीच बिजली कैसे खेलती है? 'नियम' को जब बेहतर बातों से नहीं बदला जा सकता तो उसकी खामियां भी विपरीत नियम के सहारे ही समझनी पड़ती हैं.'' 
(नष्ट लड़की नष्ट गद्य, पृ. 88)
         
तसलीमा नसरीन का स्त्री विमर्श पराजित स्त्रियों का हाहाकार नहीं है, पराजय की भीतरी वजहों की छानबीन का दुस्साहसिक कृत्य है. जाहिर है इस प्रक्रिया में धर्म के वर्चस्व तले सिर उठाते सामाजिक दबावों को उन्होंने निशाना बनाया है. ये वे सामाजिके दबाव हैं जो एक रात घर से बाहर बिता कर लौटी लड़की की विवशता को जाने बिना उसे कलंकिनी का खिताब देते हैं. यास्मीन की अपने से कमतर मिलन से विवाह करने की बाध्यता इसी सामाजिक कलंक को मिटाने का प्रयास है तो हर तरफ से दुरदुराई तसलीमा का मीनार से विवाह करना दो घड़ी चैन लेने की चाहत  ''पुरुष के रहने से अब कोई दरवाजे के छेद पर नहीं रखेगा अपनी अविश्वासी आँखें.'' ये वही दबाव हैं जो रांगामाटी की उन्मुक्त शैतान चंदना को कुमिल्ला की बहू के रूप में गूंगी-अपाहिज गुड़िया बना देते हैं जो 'फेरा' उपन्यास की शरीफा की तरह अपनी कोठरी में गुड़ी-मुड़ी पड़ी रहती है या बच्चों की कतार के साथ घर-गृहस्थी की चिल्ल-पों, कतर-ब्योंत में पस्त. तनाव बन कर ये दबाव अब्बू  जैसे उदार प्रगतिशील सोच के व्यक्ति को निहायत असुरक्षित कायर इंसान बना देते हैं जिसका एक ही मकसद है बेटियों को ब्याहना, दामाद की जायज-नाजाज शिकायत पर बेटियों को ही हथियार डालने की नसीहत देना और ताउम्र बेटियों का बाप होने की शर्म में आँख नीची करके चलना. घर की दहलीज़ लांघ कर घर के सभी सदस्यों को आच्छादित करते इन दबावों को तसलीमा ने गहराई से भोगा है. सबसे पहले उन्होंने देखा है दरिंदे की तरह अब्बू को आचरण करते हुए जो अखबार में छपी झूठी खबर पढ़ कर ही 'कुलटा' नौकरीयाफ्ता डॉक्टर बेटी तसलीमा को अपहृत कर मयमनसिंह में बंदी बना कर रखते हैं. फिर माँ को जो अपने भरे-पूरे वजूद के बावजूद स्वयं अपनी संतान के लिए तिल भर अहमियत नहीं रखती क्योंकि उसके चरित्र में दृढ़ता नहीं और ''दृढ़ता उसे ही शोभा देती है जिसके पास शरीर का जोर और रुपयों का जोर हो. या समाज के किसी मजबूत गढ़ में रहने-सहने का जोर मौजूद हो.'' (पृ. 21.)

माँ की निश्छल ममता और सेवापरायणता के बावजूद अब्बू की निःसंगता और क्रूरता को आदतवश श्रद्धा और सम्मान का नाम देने वाली तसलीमा महसूस करती हैं कि स्त्रियों की अकिंचनता और अस्तित्वहीनता बनाए रखने के लिए आर्थिक परावलम्बन से लेकर आवारा लड़कों का भय, यौन-शुचिता केे आग्रह से लेकर विवाह की बाध्यता तक की सारी कवायद दरअसल पुरुष-तंत्र को मजबूत करने के लिए ही है. स्वयं पुरुष (अब्बू के रूप में) इस तंत्र का शिकार हो या संरक्षक, अंततः गाज स्त्री पर ही गिरती है. इसलिए परिस्थितियों के दबाव तले चाहते हुए भी नईम और मीनार से विवाह की कोई संतोषजनक कैफियत स्वयं को नहीं दे पातीं तसलीमा नसरीन

''छिः छिः, यह क्या किया मैंने? . . . मैं खुद क्या अपने लिए काफी नहीं थी? मारे हिकारत के मैं जमीन में समाती गई. अपने ही प्रति हिकारत. मैंने खुद अपने को इस कदर अपमानित किया है . . . इस पति नामक सुरक्षा को मैंने जरूरी क्यों मान लिया? . . . अब्बू पर नाराज़ होकर! . . . अब्बू पर गुस्सा करके मुझे तो यह दिखाना चाहिए था कि जो ज़िंदगी मैं बसर कर रही थी, वही आत्मनिर्भर ज़िंदगी बसर करने की ताकत, साहस और स्पर्धा अभी भी रखती हूँ. . . . कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं मर्द का निबिड़ आलिंगन चाहती थी? . . . या कहीं ऐसा तो नहीं था कि अपना आपा यतीम, अनाथ, कुचले हुए, गले-दले कीड़े जैसा लगने लगा था?' (182-185) सामाजिक नियम-कायदों का तीव्रतर दबाव जब तसलीमा नसरीन जैसी बोल्ड मर्दविरोधी  स्त्री को यह त्रासद प्रतीति कराते हैं कि ''मानो सामने की दीवार एक-एक कदम आगे बढ़ाती हुई मेरे करीब आती जा रही है. चारों तरफ की दीवारें मुझे घेरती जा रही हैं. सिर के अंदर बसा दिमाग छिटक कर बाहर आना चाहता है'' (पृ. 187)

तो सामान्य स्त्री अपनी हताशा के बीच स्वयं को 'रेंगने वाले कीड़े' (चार कन्या, पृ. 36) से इतर क्योंकर सोचेगी? लेकिन इस टेक पर अपने लेखक को केन्द्रित करने का अर्थ है अपनी ही पराजयों का महिमामंडित स्वीकार. पराजय का कटु अहसास तसलीमा के स्त्री विमर्श का प्रस्थान बिंदु है लेकिन परिणति है दृढ़ता, संकल्पबद्धता और परिवर्तन की तीव्र आकांक्षा कि ''प्रचलित धारणाओं को चाह कर ही तोड़ा जा सकता है. चाहने से ही समाज के तरह-तरह के कुसंस्कार, पाखंड और अकल्याणकारी चीजों के विरुद्ध खड़ा हुआ जा सकता है'' (चार कन्या, पृ. 39) ; कि ''मैं चाहती हूँ कि मैं एक पूर्ण मनुष्य के रूप में अपनी शाखा-प्रशाखा चारों ओर फैला कर जीती रहूँ'' (चार कन्या, पृ. 35) ; कि ''मेरे गाल पर यदि कोई थप्पड़ मारे तो मैं उसके गाल पर दो थप्पड़ मारती हूँ- भले ही वह एक साल बाद क्यों हो, या फिर एक अरसे बाद'' (चार कन्या, पृ. 181) ; कि ''मुझे ज़िंदगी भिन्न-भिन्न रूपों में नज़र आई है - कभी सुंदर, कभी कुरूप, कभी बर्दाश्त के अंदर, कभी बर्दाश्त-बाहर. कभी मैं इसके रूप-रस-गंध में इस कदर विभोर हो उठती हूँ कि इससे कस कर लिपटी रहती हूँ ताकि यह कहीं मेरे हाथों से छूट जाए'' (द्विखंडित, पृ. 533) ; कि ''हमेशा सब कुछ इतना सजा-संवरा अच्छा नहीं लगता.'' (चार कन्या, पृ. 45) इसलिए प्रतिशोध और तोड़-फोड़ को अपना हथियार बना जब तसलीमा 'गोल्लाछूट' खेल की पैरवी करती  या उन्मुक्त यौन सम्बन्ध की पक्षधरता करती दीखती हैं तो उनका मंतव्य परिवार या पारिवारिक मर्यादा का विध्वंस नहीं और ही वेश्यालयों को घर की चौहद्दी में प्रस्थापित करने का षड्यंत्र. वे 'मनुष्य की मनुष्यहीनता' की वजह से अपना 'इंसान' होने का परिचय मुल्तवी नहीं करना चाहतीं. वे पारस्परिकता और सद्भाव को हर सम्बन्ध का आधार मानती हैं. परिवार और संतान का सपना भले ही उन्होंने अपने लिए खारिज कर दिया हो, लेकिन अपनी बेटी को 'सुख' नाम देने की साध आज भी कहीं उनके अंतर्मन में जीवित है और साथ ही पनप रही है अपनी पहचान देकर संतान के सौ फीसदी संरक्षण और संस्कार की आकांक्षा - ''मैं तो सिर्फ अपना एक बच्चा चाहती हूँ, सिर्फ मेरा अपना. मेरे रक्त-मांस से बनने-बढ़ने वाला मेरा अपना बच्चा. मेरी सार्थकता इसी में है यदि मैं अपनी इस चाहत को पूर्णता दे पाऊँ. मैंने अपने ऊपर से जिस तरह पुरुष के अश्लील अधिकार को खत्म किया है, वैसे ही अपने बच्चे के ऊपर से भी उसे हटाऊँगी.'' (चार कन्या, दूसरा पक्ष, पृ. 59)
         
तसलीमा नसरीन का स्त्री विमर्श भारतीय लेखिकाओं के स्त्री सरोकारों के साथ समानता को रेखांकित करता है. मित्रो (मित्रो मरजानी, कृष्णा सोबती) की तरह वे देह और दैहिक उत्ताप की निर्द्वंद्व-अकुंठ सार्वजनिक घोषणा करती हैं; इस्मत चुगताई की शैतान चुलबुली नायिकाओं की तरह नायक को छकाते हुए इस्लामिक रिवायतों को प्रश्नचिन्हित करती हैं; कुर्रतुल ऐन हैदर की तरह 'बिटिया' होने के अभिशाप से संत्रस्त हैं लेकिन अगले जन्म तक घुटन को ले जाने की बजाय इसी जन्म में लड़-भिड़ कर मामला आर या पार कर लेना चाहती हैं; ममता कालिया (बेघर) की तरह पुरुषों की अक्षत-योनि पत्नी की कामना के पीछे सक्रिय उनकी निजी कुंठाओं और अपराध-बोध की ग्रंथियों को खोलती हैं; मृदुला गर्ग (चितकोबरा) की तरह यंत्रणा का पर्याय बन चुके यांत्रिक दाम्पत्य सम्बन्धों के प्रति घोरतम वितृष्णा पाले हैं - ''मेरा मन . . . बहुत गोपन में उस भयानक निष्ठुर आदमी से घृणा करता है.'' (चार कन्या, प्रतिशोध, पृ. 15.) बस, नहीं चाहतीं तो कर्मठ-समर्थ-साहसी अनारो की पतिनिष्ठा जो अपने मूल रूप में धर्म-संस्कृति का झंडा लेकर चलने की मर्दवादी मानसिकता का स्वीकार है. हाँ, ममता कालिया की 'बोलने वाली औरत' के इस स्वप्न को पूरा करने की प्रक्रिया में अपने अंदर की मारक आपत्तियों/असहमतियों को शब्द बना कर बाहर निकलते हुए ''एक तेज एसिड का आविष्कार' अवश्य कर डालती हैं. समानताओं के बावजूद तसलीमा की मिट्टी और तासीर बिल्कुल अलग है. ईमानदारी, उतावलापन और स्फूर्ति का अतिरेक - उनके सरोकारों को धार देता है और लेखन को स्वच्छंद उड़ान. इस कारण वे आगा-पीछा सोचे बिना कुरान शरीफ को ''पतियों के दल में शामिल मर्द की रचना'' बता कर इसके अनुसरणकर्त्ता भक्तों को ''बर्बर और मूर्ख'' (द्विखंडित, पृ. 4.8)

कहती हैं तो बेहद संजीदगी और सोच-विचार के साथ 'आरगाज़म' जैसे 'कथित' अश्लील प्रकरण को 'भंवरे, जाकर कहना' नामक लम्बी कहानी में उठाती हैं. भारत के धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक उदार माहौल में रह कर इसे धर्म द्वारा स्त्री-शोषण का अहम एजेंडा तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक सुन्नत जैसी बर्बर धार्मिक परंपरा के इतिहास और पृष्ठभूमि का गहन ज्ञान हो. तसलीमा नसरीन के स्त्री विमर्श का हर पहलू गहरे धार्मिक-सामाजिक संदर्भों से जुड़ा है और उनके पारंपरिक विधान में परिवर्तन की मांग करता है. अतः अश्लीलता की चर्चा और चटखारेदार जनश्रुतियों द्वारा उसका प्रसार मनुष्य के भीतर जीती सामंती प्रवृत्तियों को नंगा करता है, सृष्टि को अपने ही हाथों संवार कर बेहतर बनाने की मानवीय आकुलता का नहीं.
         
स्त्री विमर्श अपनी मूल आकांक्षा में परिवार एवं सम्बन्धों की अंतरंग आत्मीयता, सह-अस्तित्वपरक सामंजस्यपूर्ण विश्वासापूरित संरचना को प्रगाढ़तर करने का उपक्रम है. लेकिन दुर्भाग्यवश इसे 'हाइजैक' कर लिया गया है, अन्यान्य प्रतिद्वंद्वी निकायों/व्यक्तियों के अतिरिक्त स्वयं महिला परिषदों द्वारा. अफसरशाही और सामंती मूल्यों द्वारा संचालित संगठनों में जैसी अफरा-तफरी, छीना-झपटी चलती है, महिला संगठन भी उसका अपवाद नहीं. तसलीमा का ऐसे किसी भी संगठन में शामिल होना उनकी स्वप्नशील स्वच्छंदता का द्योतक है जिसका अभाव कुंठा बन कर बांग्लादेश महिला परिषद् की मलका बेगम को तसलीमा-विद्वेषी बना देता है - ''पूरे तीस सालों से नारी आंदोलन करती रही हूँ और देश-विदेश में नारीवादी के तौर पर मशहूर हो रही हो तुम.'' (द्विखंडित, पृ. 494) हालांकि तसलीमा जानती हैं कि पीठ पर महिला संगठन का समर्थन होने पर कट्टरपंथियों द्वारा उन्हें फांसी का फतवा दिया जाना आसान होता, लेकिन फिर भी अकेले चलने में उन्हें कोई कष्ट नहीं. कष्ट तब होता जब मुनीर को प्यार करने के गुनाह में विवाहिता खुकू की फांसी की मांग को लेकर पार्टी-लाइन से बंधी वे भी उनकी तरह उग्र आंदोलन करतीं. या मुल्ला-उलेमाओं के सुर में सुर मिला कर नारी विकास कार्यों को गांव-देहात तक पहुँचाने वाली '' की तरह अपने कंठ-स्वर में दूसरों के शब्द भर कर चिल्लातीं कि ''यहाँ (कुरान में ) औरतों के हक की बात साफ-साफ लिखी गई है. . . . इस देश में जो सब धार्मिक नियम-कानून हैं, अगर वह सब मान कर चलते तो औरतों के नब्बे प्रतिशत दुख-कष्ट, दुर्दशा कट जाती. . . इस्लाम धर्म में औरतों को जितनी मर्यादा दी गई है, अन्यान्य अनेक धर्मों में उतनी मर्यादा नहीं दी गई.'' (वे अंधेरे दिन, पृ. 196)

नारीवाद यदि औरत और मर्द के लिंगगत-स्वभावगत भेद को स्वीकार कर कुछ रियायतें लेने का नाम है तो तसलीमा नसरीन इसका विरोध करती हैं. वे नारीवादी सूफिया कलाम की बात से सहमत नहीं कि ''वह (स्त्रीवादी लेखन) उग्र नहीं होना चाहिए. हाँ, औरतें असल में माँ होती हैं. उन्हें सहनशील होना होगा.  . . . मर्द स्वभाव से ही गर्म होता है. ऐसे में अगर औरत भी ताव खा जाए तो गृहस्थी कैसे चलेगी? . . . औरत का गुस्सा होना, चीखना-चिल्लाना, मर्द को पछाड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करना, मर्दों के खिलाफ बोलना, उग्रता दिखाना - औरत को शोभा नहीं देता. इससे औरत की कमनीयता नष्ट होती है.'' (वे अंधेरे दिन, पृ. 316) तसलीमा का स्त्री-लेखन 'विमर्श' यानी बहस की निरंतरता का आह्नान करता है - सार्थक, विचारोत्तेजक, सर्जनात्मक बहस जहाँ पूर्वग्रह और मलिनताएं अशेष हो उठें. उल्लेखनीय है कि अश्लीलता वहीं अंकुराती है जहाँ वैयक्तिक ऐषणाएं सामाजिकता और मनुष्यता पर हावी हो उन्हें शून्य में तब्दील कर देती हैं जबकि तसलीमा का समूचा स्त्री विमर्श सामाजिक-धार्मिक सरोकारों के बीच विन्यस्त है.

आवेग औेर संवेदना का सीमाहीन सैलाब - तसलीमा नसरीन के लेखन की वहचान है. कविताओं में यह भावनात्मक आकार पाकर उभरा है तो कलाम में बौद्धिक विश्लेषण का आधार पाकर. अलबत्ता उपन्यासिकाओं में इस आवेग को थिरा कर उन्होंने संयम और अंतर्दृष्टि के कूलों में बाँध लिया है. इसलिए उनका उत्कृष्टतम यदि कहीं संचित है तो इन्हीं में. लेकिन तसलीमा का दुर्भाग्य है कि लेखिका के तौर पर उनका मूल्यांकन या तो कलामों (औरत के हक में तथा 'लज्जा' जो अपनी मूल संरचना में औपन्यासिक गुणों से युक्त कलाम का उत्कृष्ट नमूना है) के आधार पर हुआ है या कविताओं के आधार पर. तिस पर प्रतिबंधित आत्मकथाओं की श्रृंखला. चूंकि आत्मगोपन अथवा आत्म-स्तवन की रपटीली ढलानों से फिसलने की आशंका आत्मकथा में बराबर बनी रहती है, अतः उसकी अहमियत अपने सर्जक के सर्जनात्मक कृतित्व को परिपार्श्व और संदर्भ देने में ही समझी जा सकती है. जाहिर है इसलिए 'द्विखंडित' में छलछलाता आवेश, आत्मस्वीकार और आत्मावलोकन उनके स्त्री विमर्श का अथ और इति नहीं है , किसी भी साधारण इंसान की साधारण इच्छाओं, सपनों, प्रतिवादों और आपत्तियों को विचार और संवेदना की मिट्टी में रचा-बसा कर मनचाही मूरत के गढ़े जाने की क्रमिक और मंथर प्रक्रिया का निदशर्रन है. साधारणता में ही असाधारणता के बीज छिपे हैं, कौन नहीं जानता?



अंत में तसलीमा नसरीन की लम्बी कहानी 'दूसरा पक्ष' से उद्धरण देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ कि ''इस देश के कुछ कुसंस्कारग्रस्त बुद्धिजीवी अतीन्द्रियता को, अवतारवाद को, जन्मांतरवाद को, ज्योतिषशास्त्र को प्रतिष्ठित करके प्रगति के चक्के को उल्टी दिशा में घुमाना चाहते हैं.'' (चार कन्या, पृ. 19) एक संवेदनशील नागरिक के रूप में उनकी पीड़ा की व्यंजना इकहरी नहीं, स्त्री विमर्श के साथ जुड़ कर यह उस उन्मुक्त व्योम तक अपने सरोकारों का प्रसार कर लेना चाहती है जो संवेदनशील, प्रगतिशील, उदार, सेकुलर पीढ़ी का संस्कार कर लिंग, वर्ग, वर्ण, नस्स्ल की तमाम विषमताएं तिरोहित कर दे.

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रोहिणी अग्रवाल 
rohini1959@gamil.com

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  1. बहुत ही सुंदर, विचारोत्‍तेजक, ज्ञानप्रद आलेख प्रकाशित करने के लिए अरूण भाई को साधुवाद। प्रो.रोहिणी अग्रवाल मैडम आपकी, अंत में तसलीमा नसरीन की लम्बी कहानी 'दूसरा पक्ष' से उद्धरण देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ कि ''इस देश के कुछ कुसंस्कारग्रस्त बुद्धिजीवी अतीन्द्रियता को, अवतारवाद को, जन्मांतरवाद को, ज्योतिषशास्त्र को प्रतिष्ठित करके प्रगति के चक्के को उल्टी दिशा में घुमाना चाहते हैं.'' पंक्ति आपके अध्‍ययन एवं उद्धरण प्रेम की ओर इंगन करती है।

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  2. स्त्री विमर्श को तीन कोणों से देखना बहुत जरूरी है -सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आधार. भारत की कई जनजातियों में स्त्री की स्थिति इतनी खराब नहीं है. नागालैंड की अंगामी और सेमा स्त्रियाँ अपने परिवारों को पुरुष की तरह चलाती हैं, इसलिए यहाँ स्त्री भोग्या की तरह नहीं है. स्त्री को पाना यहाँ इतना सरल भी नहीं. कई बार अपनी पसंद की स्त्री से विवाह करने के लिए वर को 2-3 वर्षों तक लड़की के पिता के घर काम करना पड़ता है. किन्नोर और जौनसार में आज भी बहु पति प्रथा है, लेकिन इसका आधार महाभारत में तलाशने की जगह वहां की आर्थिक, सामाजिक और ऐतिहासिक स्थिति में तलाशना चाहिए. जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, जानकीपुल में बटरोही जी की एक पुस्तक के अंश प्रकाशित हुए थे और शायद समालोचन में भी. पहाड़ों पर विस्थपित राजपूत परिवारों की संख्या बहुत अधिक है. बटरोही जी ने (अपनी स्मृति के आधार पर लिख रही हूँ) शायद उल्लेख किया है कि पराजित राजपूत राजाओं की रानियाँ अपने दासों के साथ इन पहाड़ी स्थलों में बस गईं. इन्हीं दासों के साथ उनके संबंध भी स्थापित हो गए -लेकिन रिश्ता वर्चस्व और दास का ही रहा. किन्नोर में यह प्रथा आज भी कायम है. स्त्रियों की कमज़ोर आर्थिक स्थिति अधिक ज़िम्मेदार रही. देह विमर्श से कहीं अधिक अन्य पक्षों पर ध्यान देना जरूरी है. स्वस्थ, मज़बूत, कामगार स्त्रियाँ समाज के निर्माण में बराबरी की हिस्सेदारी रखती हैं. मुझे नहीं लगता कि 'घर' स्त्रियों और पुरुषों के लिए कारवास हैं. किसी भी विकासमूलक समाज में स्वास्थ्य और शिक्षा का सर्वाधिक योगदान रहता है.
    उत्पादन के साधनों पर यदि स्त्री-पुरुष बराबरी का हक़ रखें तो निश्चित रूप से स्त्रियों की स्थिति 'चल 'संपत्ति की तरह नहीं होगी.
    'मेरी देह नितांत मेरी है' पर यह विवेक भी पूरा मेरा है कि इसे मैं कीचड़ में न लिथड़ने दूँ.
    तसलीमा जी पर इतनी एकाग्रता और मेहनत से लिखा आलेख निश्चय ही सहेजने योग्य है.

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  3. Rohini Aggarwal जी की कलम से निकला लेख वह भी तस्लीमा नसरीन पर . जबरदस्त|||.. समाज की बनाई रूढ़ियों और विद्रूप के उलट एक विसंगत आवाज का उद्धरण ... इसे निगलना या उलटना धर्म के ठेकेदारों वह भी कट्टरपंथीयों के लिए कितना कठिन रहा होगा . अंदाजा लगाया जा सकता है .. रोहिणी जी और अरुण जी को धन्यवाद इस लेख के लिए

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  4. भले ही तसलीमा विवादस्पद हो लेकिन उनके लेखन की अवहेलना नहीं की जा सकती.निर्वासन की यंत्रणा सहना मामूली नहीं है..

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  5. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 6-8-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2059 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  6. सुनीता सनाढ्य पाण्डेय6 अग॰ 2015, 8:42:00 am

    बहुत ही बढ़िया लेख....तस्लीमा नसरीन को हालाँकि अधिक नहीं पढ़ा मैंने पर इस लेख के माध्यम से उनके और अन्य लेखिकाओं के लेखन के पीछे छुपी भावनाओं को समझने में मदद मिली...

    रोहिणी जी ने बहुत शोध कर इस लेख को लिखा है....पढ़ते हुए जहाँ कहीं भी मेरे ज़ेहन में कोई सवाल आया तो अगले ही पैरे में उसका जवाब भी मिल गया...

    इस ज़रूरी लेख के लिए रोहिणी जी का खूब धन्यवाद और अरुण जी आपका भी बहुत शुक्रिया इस लेख को समालोचन में प्रकाशित करने हेतु....

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  7. अत्यंत सारगर्भित लेख...तस्लीमा नसरीन के विचरों को समग्रता के साथ सामने रखा है आपने।

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  8. सारगर्भित विचारपरक लेख जो अंदर की औरत को पूरी तरह खंगाल के बाहर निकाल लाया है। आभार इसे पढ़वाने का

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  9. आलेख को पढते हुए बार बार मंटो याद आते रहे । तसलीमा जी और मंटो में गहरी साम्यता है । समाज के दोहरे मापदंड को लेकर तसलीमा जी के आक्रोश की बहुत सटीक पडताल की है रोहिणी जी ने । बधाई ।

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  10. Vimalendu Vimalendu7 अग॰ 2015, 7:24:00 am

    गज़ब का आलेख है। तसलीमा का यह पुनर्पाठ, उपमहाद्वीप में स्त्री लेखन की छानबीन भी करता है।

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  11. आलेख जबरदस्त है ,रोहिणी जी की बुद्धिजीवी लेखनी जैसा ,तस्लीमा उससे भी जबरदस्त हैं.भारतीय समाज की पृष्ठभूमि में जिन स्त्रियों को घर चाहिये उनके लिए` तस्लीमा संस्कृति `बेहद अतिवादी है .इस परिवेश में स्त्री विमर्श घर में ऎसे पंख पसार रहा है जैसे कि कोई फूल अपनी एक एक पँखुरी आहिस्ता अहिस्ता खोल रहा हो

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