हिंदी में कामकाज : राहुल राजेश



हिंदी केवल साहित्य की भाषा नहीं है वह कामकाज की भी भाषा है, हिंदी के समक्ष जब हम चुनौतियों की चिंता करें तब हिंदी की इस भूमिका को भी गम्भीरता से देखना चाहिए. राहुल राजेश ने विस्तार से हिंदी की इस भूमिका पर प्रकाश डाला है.


हिंदी में कामकाज                         
राहुल राजेश                                                                       



गभग दो सौ वर्षोँ के लंबे ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के बाद स्वाधीन भारत की संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को निर्णय लिया कि संघ के राजकाज की आधिकारिक भाषा यानी राजभाषा हिंदी होगी. यह तय किया गया कि 15 वर्षों तक देश में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भी चलती रहेगी. इसके पीछे यह मासूम अवधारणा थी कि इस 15 वर्ष की पर्याप्त अवधि में शासन-प्रशासन का समस्त कामकाज राजभाषा हिंदी में होने लगेगा. लेकिन अनेक अवांछित कारणों और कटु कारकों के चलते इस निर्धारित अवधि में यह संभव नहीं हो सका. परिणामत: सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम बनाया गया ताकि संघ के राजकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को अमल में लाया जा सके. राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(3) में यह आदेशपूर्वक निर्दिष्ट किया गया कि सर्वसाधारण को लक्ष्य कर तैयार किए जाने वाले सभी दस्तावेज, नामत: आदेश, ज्ञापन, परिपत्र, सूचना, अधिसूचना, विज्ञापन, निविदा, संविदा, अनुज्ञप्ति, करार, संसद के दोनों सदनों में पेश किए जाने वाले प्रशासनिक और अन्य प्रतिवेदन आदि अंग्रेजी के साथ-साथ अनिवार्यत: हिंदी में भी जारी किए जाएँ. अर्थात् ये सभी सरकारी दस्तावेज अनिवार्यत: द्विभाषी रूप में ही जारी किए जाएँ और इसका दृढ़तापूर्वक पालन किया जाए. इसका उल्लंघन होने पर इन दस्तावेजों पर अंतिम रूप से हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा.


हिंदी स्टाफ और हिंदी की स्थिति         
संघ की राजभाषा नीति के सतत क्रियान्वयन में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. और यहीं से सरकारी कार्यालयों में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई और सरकार को संसद के दोनों सदनों समेत सभी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, अधीनस्थ कार्यालयों, निगमों, उपक्रमों, बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों आदि में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की पूर्णकालिक और स्थायी नियुक्ति, और वह भी पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की तत्काल आवश्यकता बेहद शिद्दत से महसूस हुई. यों तो विशेष प्रकार के अनुवादों यथा नियमों, कोडों, मैन्युअलों, तकनीकी व विधिक साहित्य, शोध, अनुसंधान आदि जैसे दस्तावेजों के केंद्रीकृत अनुवाद के लिए विधि मंत्रालय के साथ-साथ केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो भी सक्रिय था. लेकिन सांविधिक, विधिक और तकनीकी अनुवादों के अलावा सामान्य अनुवादों के लिए भी भारत सरकार के हरेक मंत्रालय, विभाग, कार्यालय, संगठन, बैंक, उपक्रम आदि में हिंदी अनुवादकों की भर्ती शुरू हुई और राजभाषा नीति के व्यापक कार्यान्वयन और राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा संकल्प, 1968 तथा राजभाषा नियम, 1976 के अनुपालन की निगरानी के लिए राजभाषा अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों यथा सहायक निदेशक (राजभाषा), निदेशक (राजभाषा) इत्यादि की नियुक्तियों को गति मिली. फलस्वरूप, हरेक मंत्रालय, विभाग, अधीनस्थ कार्यालय, संगठन, बैंक इत्यादि में उनकी कुल स्टाफ संख्या के एक निश्चित अनुपात के रूप में न केवल हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों की, वरन् कनिष्ठ हिंदी अनुवादकों, वरिष्ठ हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों, सहायक निदेशकों, निदेशकों आदि के पदों का पर्याप्त संख्या में सृजन भी किया गया. लेकिन ये सृजित पद कभी भी पूरे के पूरे नहीं भरे गए!

          
हाँ, नीतिगत तौर पर हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों समेत हिंदी अनुवादकों, हिंदी अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों आदि की नियमित नियुक्तियों की शुरूआत से संघ की राजभाषा नीति की अपेक्षाओं की आंशिक पूर्ति तो अवश्य हुई. कार्यालयों में रोजमर्रे के कामकाज और नेमी किस्म के पत्राचार, टिप्पण, प्रविष्टि आदि हिंदी में करने का दबाव भी बढ़ा और कार्यालयों के नाम, नामपट्ट, सूचनापट्ट, मोहर, सील, पत्रशीर्ष, लिफाफे आदि ही नहीं बल्कि नेमी किस्म के प्रपत्रों, फॉर्मों, पर्चियों आदि समेत रेलवेज, एयरवेज आदि के आरक्षण-फॉर्म, टिकट, बैंकों की निकासी व जमा पर्चियाँ, चेकबुक, पासबुक इत्यादि भी हिंदी में प्रदर्शित, प्रकाशित और मुद्रित होने लगे. इतना ही नहीं, सरकारी सेवाओं के लिए ली जाने वाली समस्त भर्ती परीक्षाओं के प्रश्नपत्र भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी अनिवार्यत: तैयार किए जाने लगे और इन भर्तियों के लिए आयोजित होने वाले साक्षात्कारों में भी हिंदी में उत्तर देने का प्रावधान किया गया. इनके अलावा मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, संगठनों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि की वार्षिक रिपोर्टें भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी तैयार की जाने लगीं और सभी प्रदर्शित, प्रकाशित व मुद्रित दस्तावेजों व नामपट्ट, पत्रशीर्ष, मोहर इत्यादि में हिंदी को वरीयता प्रदान की गई, अर्थात् पहले हिंदी और फिर अंग्रेजी. जहाँ तीन भाषाएँ हैं, वहाँ सर्वप्रथम प्रांतीय भाषा, फिर हिंदी और अंत में अंग्रेजी. यहाँ विशेष रूप से यह भी निर्दिष्ट किया गया कि तीनों भाषाओं के अक्षर के आकार एक समान हों, रंग एक समान हों और उनमें प्रयुक्त सामग्री (यथा धातु) अनिवार्यत: एक हों. आशय यह कि प्रांतीय भाषा को ताँबे में, हिंदी को पीतल में और अंग्रेजी को सोने के अक्षरों में नहीं दर्शाएँ.

               
यदि आप इन प्रावधानों की बारीकियों पर गौर करें तो आप सहज ही समझ जाएँगे कि संघ की राजभाषा नीति बेहद संवेदनशील एवं सर्वसमावेशी है और यहाँ किसी भी भाषा को कमतर या बेहतर नहीं बताया गया है. संविधान के 17वें भाग में अनुच्छेद 351 में यह स्पष्ट कहा गया है कि "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाएउसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूपशैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्दभंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे." यदि आप थोड़ा और गौर करें तो आप पाएँगे कि सभी सरकारी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों, इकाइयों आदि में, सरकारी कामकाज में, नामपट्टों, मोहरों, साइनबोर्डोँ, पत्रशीर्षों, लिफाफों आदि से लेकर सरकारी सूचनाओं, विज्ञापनों, परीक्षा के प्रश्नपत्रों, नेमी फॉर्मों, टिकटों, बैंक की आहरण व निकासी पर्चियों आदि में अंग्रेजी के अलावा जो प्रचुर हिंदी या थोड़ी-बहुत हिंदी दिखती है, वह संघ की इसी राजभाषा नीति के बूते और बदौलत है!



हिंदी की हाल--हकीकत          
यहाँ तक देखें तो संघ के राजकाज में हिंदी की स्थिति और संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन में हुई प्रगति संतोषजनक ही नहीं बल्कि पर्याप्त उत्साहजनक प्रतीत होती है. लेकिन सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग की स्थिति न तो संतोषजनक है और न ही उत्साहवर्धक. इसके साथ-साथ, मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि में  राजभाषा नीति के कार्यान्वयन को गति देने के मूलभूत उद्देश्य से सुगमकर्ता के रूप में नियुक्त किए हिंदी अनुवादकों, राजभाषा अधिकारियों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. कार्यालयों में उनके सृजित पद पर्याप्त संख्या में या तो भरे ही नहीं गए हैं या फिर उन पदों पर स्थायी नियुक्तियाँ लंबे समय से अवरूद्ध हैं. जो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी नियुक्त किए भी गए हैं, उन्हें अपने बैठने और तल्लीनता से कामकाज करने के वास्ते समुचित स्थान पाने तक के लिए जद्दोजहद करना पड़ रहा है. उनके करियर, पदोन्नति आदि के मार्ग अत्यंत हताशाजनक रूप से सुस्त और अवरूद्ध हैं. कार्यालयों में स्टाफ की कमी के कारण या जानबूझकर उन्हें उनके मूल काम की बजाय कार्यालय के अन्य कामों में लगा दिया जा रहा है. संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन से जुड़े राजभाषा कर्मियों के साथ ऐसे प्रतिकूल व्यवहार और ऐसे प्रतिकूल माहौल को देखकर संसदीय राजभाषा समिति को अपनी हालिया रिपोर्टों तक में यह सख्ती से कहना पड़ा है कि राजभाषा हिंदी से जुड़े कर्मियों को उनके बैठने, कामकाज करने हेतु समुचित और सम्मानजनक स्थान और साजो-सामान मुहैया कराया जाए. उन्हें समुचित और समयबद्ध पदोन्नति प्रदान की जाए और जहाँ उनके अपने संवर्ग में अवसर नहीं हो तो ऐसी स्थिति में उन्हें सामान्य संवर्ग में पदोन्नति देने की व्यवस्था की जाए ताकि उनका करियर बाधित नहीं हो और वे हताशा और उपेक्षा के शिकार नहीं होने पाएँ.

            
लेकिन इन सबके बावजूद, सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी को अपनाने और इसे समुचित बढ़ावा देने के प्रति वांछित उत्साह प्राय: देखने को नहीं मिलता है. वरिष्ठ प्रबंधन से लेकर निचले पायदान तक हिंदी में काम करने की मानसिकता पर्याप्त रूप से अबतक नहीं बन पाई है. इस कंप्यूटर युग में "कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर" के हावी हो जाने के कारण अब यह और भी कठिन हो गया है! कार्यालयों में सामान्यत: यह सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि हिंदी में काम का मतलब हिंदी अधिकारी का काम! अब उन्हें कौन समझाए कि अगर किसी कार्यालय में कुल कर्मचारियों और अधिकारियों की औसत संख्या तीन सौ है तो उनके द्वारा प्रतिदिन किया गया सारा कामकाज हिंदी के नाम पर वहाँ नियुक्त मात्र दो या तीन हिंदी आधिकारियों को नहीं सौंपा जा सकता है! यदि मान लें कि तीन सौ स्टाफ में से एक सौ स्टाफ भी प्रतिदिन अंग्रेजी में एक-एक पृष्ठ के एक सौ पत्र तैयार करते हैं तो दो-तीन राजभाषा अधिकारी को प्रतिदिन एक सौ पृष्ठ हिंदीं में अनुवाद करने होंगे! ह न सिर्फ संघ की राजभाषा नीति की मूल भावना के विपरीत है, बल्कि यह संघ की राजभाषा नीति, राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा नियम, 1976 और भारत सरकार द्वारा राजभाषा हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए हर वर्ष जारी किए जाने वाले वार्षिक कार्यक्रम का सरासर उल्लंघन भी है! इस वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार भाषायी आबादी के आधार पर विभाजित '', '' और '' क्षेत्र में स्थित कार्यालयों को क्रमश: 100 प्रतिशत, 90 प्रतिशत और 55 प्रतिशत मूल पत्राचार हिंदी में करना है. लेकिन इस आँकड़े को जैसे-तैसे हासिल करने के लिए हर बार पहले अंग्रेजी में तैयार पत्रों का हिंदी में अनुवाद करा लेने और इससे भी बदतर कि इसी की आड़ में राजभाषा अधिकारी को बार-बार हिंदी टाइपिस्ट में 'रिडिक्यूलसली रिड्यूस' कर देने का रिवाज बना लिया गया है! ऐसे में व्यावहारिक रूप में मूल पत्राचार हिंदी में होता ही नहीं है क्योंकि सभी पत्र सीधे हिंदी में नहीं बल्कि पहले अंग्रेजी में सृजित किए जाते हैं! जो कुछ हिंदी में तैरता है, वह मूल हिंदी पत्राचार नहीं, बल्कि हिंदी अनुवाद है!

            
यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि कार्यालयों में इस प्रकार हिंदी में जो कुछ भी कामकाज होता या आँकड़ों में दर्शाया जाता है, वह दरअसल पूरे कार्यालय के सभी स्टाफ द्वारा किया गया न होकर, महज हिंदी अधिकारियों द्वारा ही किया गया होता है! ऐसे में विभागों को हिंदी में सर्वाधिक कामकाज के लिए मिलने वाले राजभाषा शील्ड या हिंदी में अधिकाधिक कामकाज करने के लिए कर्मचारियों को मिलने वाले प्रशंसा-पत्र और नकद प्रोत्साहन पुरस्कारों के असली हकदार तो राजभाषा अधिकारी ही हैं क्योंकि हिंदी में जो कुछ भी हुआ, वह बस उन्होंने ही तो किया है! लेकिन ऐसा कहाँ होता है? हाँ, अगर हिंदी में कामकाज के प्रतिशत में तनिक भी गिरावट दर्ज हुई तो फौरन उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है! जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी में कामकाज का यह प्रतिशत विभाग के कर्मचारियों-अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए कामकाज का पैमाना है, न कि राजभाषा अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए काम का पैमाना! और इस प्रतिशत में जो भी घट-बढ़ होती है, वह विभागों में हिंदी में कामकाज किए-न किए जाने से सीधे-सीधे जुड़ा है, न कि राजभाषा अधिकारियों के काम करने, न करने से!

           
लेकिन जैसा कि पहले भी इंगित किया गया है, दफ्तर में हिंदी का काम मतलब अमूमन हिंदी अधिकारी का काम ही मान लिया जाता है. ऐसे में संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन को गति देने की गरज से भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम प्रशिक्षण योजनाओं और प्रोत्साहन योजनाओं यथा; हिंदी शिक्षण योजना के तहत प्राज्ञ, प्रवीण, प्रबोध परीक्षाएँ, प्रशंसा पत्र, नकद प्रोत्साहन पुरस्कार, राजभाषा शील्ड आदि-आदि का मूल उद्देश्य ही भंग हो जाता है क्योंकि ये योजनाएँ राजभाषा अधिकारियों के लिए नहीं बल्कि विभागों के समस्त कर्मचारियों-अधिकारियों को हिंदी में कामकाज करने में सक्षम बनाने और इस दिशा में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए ही चलाई जाती हैं. लेकिन व्यावहारिक रूप में इन योजनाओं का नकदी पक्ष ही एकमात्र आकर्षण बन जाता है, हिंदी में कामकाज का पक्ष सर्वथा और सर्वत्र गौण ही हो जाता है! हाँ, इतना अवश्य है कि आम धारणा के उलट, हिंदी भाषाभाषी लोगों की तुलना में अहिंदी भाषाभाषी और विशेषकर दक्षिण भारतीय लोगों में हिंदी सीखने और हिंदी में कामकाज करने को लेकर कहीं अपेक्षाकृत ज्यादा उत्साह और समर्पण हर जगह देखने को मिलता है और हिंदी जानने वाले लोगों की तुलना में वे हिंदी में कामकाज नहीं करने के तर्क कम गढ़ते पाए गए हैं! यह स्थिति सुखद तो है ही!



अनुवाद की स्थिति और अनुवाद की चुनौतियाँ           
सरकारी दायरे के बाहर देखें तो हिंदी को न तो बाजार से चुनौती है और न ही अंग्रेजी से कोई खतरा. बाजार हिंदी को हाथों-हाथ ले रहा है और अपने कारोबार दिन दुनी, रात चौगुनी बढ़ाता जा रहा है. फिल्म, मनोरंजन और विज्ञापन की दुनिया से लेकर बिजनेसिया अखबारों, बिजनेस चैनलों और स्पोर्ट्स चैनलों आदि तक में अब हिंदी की ही धूम है. लेकिन सरकारी दायरे में देखें तो संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन की दिशा में हुई तमाम सकारात्मक प्रगतियों व उपलब्धियों और स्वयं प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी द्वारा हिंदी को भरपूर तरजीह दिए जाने के वाबजूद, इस पूरे मामले में तमाम चुनौतियाँ अब भी हमारे सामने खड़ी हैं. अव्वल तो हिंदी में काम करने की सुदृढ़ मानसिकता का अभाव अब भी बना ही हुआ है. फलस्वरूप, कार्यालयों में कमोबेश सारा का सारा या कहें सारा का सारा महत्वपूर्ण कामकाज अब भी मूलत: अंग्रेजी में ही किया जा रहा है. हम जानते हैं कि सरकारी तंत्र में राजभाषा नीति और राजभाषा हिंदी के निरंतर और व्यापक प्रचार-प्रसार के दो पक्ष हैं. पहला, राजभाषा नीति के कार्यान्वयन का व्यावहारिक पक्ष. और दूसरा, अनुवाद का पक्ष. कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ही पक्ष बेहद चुनौतीपूर्ण हैं और ये दोनों ही पक्ष विशेषकर हम राजभाषा अधिकारियों से बेहद मुस्तैदी, चुस्ती-फुर्ती, गति, चपलता, दक्षता, संप्रेषणीयता, प्रवीणता और प्रवाह की माँग करते हैं. न केवल हमारे व्यक्तित्व और हमारे व्यवहार में बल्कि हमारी भाषा, हमारे अनुवाद में भी सहजता और सरलता की माँग करते हैं!

            
यों तो विदेशों के मुकाबले हमारे देश में अनुवाद कर्म को शिक्षा तंत्र तो क्या साहित्य जगत में भी प्राय: पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता है और न ही इसे गंभीर अनुशासन माना जाता है. जबकि साहित्य और अनुवाद किसी मनुष्य के बिल्कुल दो हाथों की तरह ही होते हैं, जो परस्पर मिलकर जीवन और समाज को श्रम और ज्ञान से निरंतर समृद्ध करते रहते हैं. अनुवाद केवल साहित्य को ही समृद्ध नहीं करता बल्कि मनुष्य के विचारों, संस्कारों, व्यवहारों इत्यादि से लेकर उसकी प्रकृति, संस्कृति और सभ्यता तक को परिमार्जित भी करता है. अनुवाद केवल समाज को ही नहीं, बाजार को भी बल देता है. इसलिए केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी और विशेषकर प्रकाशन जगत में अच्छे अनुवादकों की माँग हमेशा बनी रहती है. लेकिन यहाँ यह रेखांकित करना लगभग हास्यास्पद लगता है कि सरकारी व्यवस्था में अपवादों को छोड़कर अमूमन अनुवाद कर्म तो क्या अनुवाद कार्य को भी दोयम दर्जे का ही नहीं, अतिरिक्त या लगभग फालतू काम मान लिया जाता है! कार्यालयीन व्यवस्था में अनुवाद को किस हद तक तुच्छ और कितने हल्के में लिया जाता है, यह इस बात से ही समझा जा सकता है कि कोई व्यक्ति यदि ईमेल से किसी अनुवादक या राजभाषा अधिकारी के पास अनुवाद हेतु कोई सामग्री भेजता है तो ईमेल पहुँचने से पहले ही उस व्यक्ति का फोन आ जाता है- अनुवाद हो गया क्या? मानो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी मानव न होकर जेरॉक्स मशीन हो! इधर कागज रखा नहीं कि उधर फटाक से फोटोकॉपी निकल गई! अरे भाई, यदि अनुवाद का काम इतना ही आसान है तो आप खुद क्यों नहीं कर लेते? अनुवाद का काम इतना ही आसान है तो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी की जरूरत ही क्या है? और जिस पत्र को अंग्रेजी में तैयार करने में आपने पूरा दिन लगाया है, उसको हिंदी में रूपांतरित करने में थोड़ा वक्त तो हमें भी लगेगा! आप तो Please refer to your letter so and so dated so and so on the captioned subject जैसे मामूली अंग्रेजी वाक्यों वाले पत्रों का भी अनुवाद हमीं से कराने को आमादा रहते हैं! या तो आप इतनी सी भी हिंदी नहीं जानते हैं या फिर आप हमें 'हिंदी टाइपिस्ट' से अधिक कुछ और नहीं समझ रहे, जो हस्यास्पद ही नहीं, वरन् अपमानजनक भी है!

             
दरअसल, अनुवाद के प्रति इसी नजरिए के कारण अनुवाद में निहित श्रम, अनुवाद में लगने वाले अथाह समय और अनुवाद को अंतिम रूप देने में अनुवाद के अलावा अन्य अनिवार्यत: महत्वपूर्ण अनुषंगी कार्यों नामत: अनुवाद के पुनरीक्षण/संपादन (Vetting/Editing), अनूदित सामग्री के टंकण और अनूदित सामग्रियों के मुद्रण/प्रकाशन से पहले प्रूफ-रीडिंग आदि जैसे श्रमसाध्य व समयसाध्य कार्यों को प्राय: संज्ञान में ही नहीं लिया जाता है, अनुवाद को समुचित महत्व देने की तो बात ही छोड़िए! परिणामत: यह सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि जो अनुवाद करेगा, वही टाइप भी करेगा, वही वेटिंग भी करेगा, वही प्रूफ-रीडिंग भी करेगा! और तो और वह चार आदमियों के काम को अकेले अंजाम देने के लिए अतिरिक्त समय तो क्या, अनिवार्यत: वांछित पर्याप्त समय की माँग भी नहीं करेगा! ऐसी स्थिति में, समयबद्ध और सटीक अनुवाद के लिए पर्याप्त संख्या में अनुवादकों या राजभाषा अधिकारियों की उपलब्धता और इस महती कार्य के लिए उनकी समुचित तैनाती की आवश्यकता और माँग पर विवेकपूवर्क विचार ही नहीं किया जाता है. जबकि थोक मात्रा में प्रतिदिन अनुवाद, अनुदित पाठों के टंकण, पुनरीक्षण/संपादन और प्रूफ-रीडिंग के लिए इक्का-दुक्का-तिक्का अनुवादकों या राजभाषा अधिकारियों की नहीं वरन् एक पूरी की पूरी टीम की जरूरत होती है जिसमें अनुवादकों के साथ पुनरीक्षक/संपादक, टंकक और प्रूफ रीडर भी अनिवार्यत: शामिल हों ताकि हरेक व्यक्ति अपना कार्य समय पर और शुद्धता व गुणवत्ता के साथ कर पाए. लेकिन अमूमन वास्तविक स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है और एक-दो राजभाषा अधिकारी ही अनुवाद से लेकर टंकण, पुनरीक्षण/संपादन और प्रूफ-रीडिंग के काम बेताल की तरह करते रहते हैं! ऊपर से कभी कोई पचास पन्नों का अनुवाद आधे घंटे में माँग लेगा तो कोई दो सौ पेज का शोधपत्र एक दिन में अनुवाद करने को कह देगा! फलत: अनुवाद से लेकर मुद्रण की गुणवत्ता व शुद्धता पर न चाहते हुए भी प्रतिकूल असर पड़ता ही पड़ता है.

            
कार्यालयीन परिदृश्य में यह स्थिति और यह नजरिया नकारात्मक ही नहीं, घनघोर घातक भी है. हम हिंदी के लोगों को हलके में लेने की छूट आप भले ले लें, लेकिन अनुवाद के काम को हलके में लेने की भूल कतई न करें. टाइपिस्ट और ट्रांसलेटर में ठीक वही फर्क है जो मैकैनिक और इंजिनियर में है. हर कोई टाइपिंग कर सकता है, हर कोई ट्रांसलेट नहीं कर सकता. यकीन न हो तो कभी अपनी लिखी अंग्रेजी पर ही हाथ आजमा के देखिए! इसे यूँ भी समझिए कि कोई कविता रचना जितना कठिन नहीं है, कहीं उससे अधिक कठिन उस कविता का अनुवाद करना है! इसलिए अनुवाद को एक गंभीर अनुशासन माना गया है और बिल्कुल मेडिकल साइंस की तरह ही इसके सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों ही पक्षों का सौ फीसदी एक समान महत्व है. इसलिए अनुवाद में स्नातक या स्तानकतोत्तर, डिप्लोमा या डिग्री का सामान्य बी.. या एम.. से कहीं ज्यादा महत्व और माँग है. यह ठीक उसी तरह है जैसे कहाँ सामान्य बीएससी या एमएससी की डिग्री और कहाँ बीटेक या एमबीबीएस की डिग्री! इसलिए विदेशों में बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में भी अनुवाद को एक अत्यंत जिम्मेदारीपूर्ण और गंभीर अनुशासन के रूप में पढ़ाया जाता है. लेकिन कार्यालयीन परिदृश्य में Please refer to your letter so and so dated so and so on the captioned subject जैसे मामूली अंग्रेजी वाक्यों वाले पत्रों के अनुवाद कार्य को ही अनुवाद का सार और दायरा मान लिया जाता है. जबकि हिंदी कार्यशालाओं में प्रशिक्षण पा लेने के बाद, हिंदी शिक्षण योजना में प्राज्ञ, प्रवीण, प्रबोध परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेने के बाद, प्रशंसा पत्र और नकद प्रोत्साहन पुरस्कार आदि प्राप्त कर लेने के बाद, माध्यमिक स्तर तक हिंदी की/में पढ़ाई कर लेने के बाद अथवा हिंदी जानने तथा हिंदी में काम करने में सक्षम होने की ऐच्छिक घोषणा करने के बाद, राजभाषा नीति के अंतर्गत आपसे नियमत: यह अपेक्षा की जाती है कि आप कम से कम साधारण, सामान्य और नेमी पत्राचार, टिप्पण, प्रारूपण आदि सीधे हिंदी में करें और कहीं कठिनाई हो तो सवर्त्र सुलभ-उपलब्ध शब्दकोश या प्रशासनिक/बैंकिंग शब्दावली देखें या राजभाषा अधिकारी से मदद लें.

            
नियमत: कार्यालयों में अनुवाद की आवश्यकता वहाँ पड़ती है जहाँ भाषायी, तकनीकी, कानूनी आदि जैसी जटिलताओं, पेंचों, कोणों से लबरेज दस्तावेज, शोधपत्र, अनुसंधान, वार्षिक रिपोर्ट, आदेश, परिपत्र, विनियमावली, अधिसूचना, अधिनियम इत्यादि जैसे कागजात पहले अंग्रेजी में तैयार किए गए होते हैं. यहीं से अनुवादक और राजभाषा अधिकारी की वास्तविक भूमिका आरंभ होती है. इसलिए ही सन् 1960 में तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय के आदेश पर ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों के अंग्रेजी से हिंदी में विधिवत अनुवाद के लिए अनुवादकों की स्थायी नियुक्ति शुरू की गई थी. आप यहाँ सवाल कर सकते हैं कि यह सब बताने, दुहराने की जरूरत क्या है? सीधे मुद्दे पर बात की जाए. जी हाँ, मैं मुद्दे पर ही बार कर रहा हूँ. यदि समस्या और चुनौतियाँ बड़ी हों तो इनकी पड़ताल और चीरफाड़ भी पूरे विस्तार से करनी होगी. इनके प्रति कोई 'शॉर्टकट' या 'कैप्सूल अप्रोच' नहीं बल्कि 'माइक्रोस्कोपिक अप्रोच' अपनाना होगा. समस्या और चुनौतियाँ- दोनों का ही एक्सरे, एमआरआई, एनाटॉमी करनी पड़ेगी. तभी हम इस समस्या के असली कारणों की शिनाख्त कर पाएँगे और चुनौतियों का मजबूती से सामना कर पाएँगे.



अनुवाद-कर्म यानी 'नॉलेज ऑन्ट्रेप्रेन्योरशिप'          
सबसे पहले तो हमें अनुवाद कर्म को गंभीरता से लेना होगा. इसे एक गंभीर और अत्यंत बौद्धिक अनुशासन मानना होगा. इसे यहाँ भी वह इज्जत देनी ही होगी, जिसकी यह हकदार है. जब हम कहते हैं कि हम 'नॉलेज इंस्टीट्यूशन' हैं, तो यहाँ अनुवाद को भी 'नॉलेज-बेस्ड एक्टिविटी' माननी होगी, 'प्रोडक्टिव एनडेवर' मानना होगा, 'नॉलेज ऑन्ट्रेप्रेन्योरशिप' मानना होगा, जो वास्तव में यह है. जब हम अनुवाद कर्म को यह अनिवार्य सम्मान और स्थान दे देंगे, तभी हम कार्यालय में अनुवाद की समस्याओं और चुनौतियों का सार्थक ढंग से सामना कर पाएँगे. कार्यालयों में अकसर कहा जाता है कि किसी पत्र-परिपत्र आदि का हिंदी अनुवाद तो पढ़ने लायक ही नहीं होता है. पहली बात तो यह कि अकसर हिंदी पाठ पढ़े बिना ही ऐसे आरोप मढ़ दिए जाते हैं. और यह आरोप यदि अंशत: सच भी हो तो इसके लिए अनुवादक पूर्णत: जिम्मेदार कतई नहीं है. इसके लिए मूल अंग्रेजी पाठ भी जिम्मेदार है, जिसमें पुच्छले जोड़-जोड़कर वाक्यों को सर्पाकार, लच्छेदार, घुमावदार, उलझावदार, पेंचदार और न जाने क्या-क्या और कैसा-कैसा बना दिया जाता है! ऐसे में हिंदी पाठ भी न चाहते हुए भी थोड़ा बहुत जटिल हो ही जाता है क्योंकि अनुवादक ऐसे मामलों में चाहकर भी ज्यादा छूट नहीं ले पाता है. और किसी ने ले भी लिया तो उसे फौरन लाईन हाजिर कर दिया जाता है- भाई, अंग्रेजी में तो यह एक सेंटेंस है, हिंदी में तीन सेंटेंसेज कैसे हो गए? लेकिन मेरा यकीन करें, ऐसी स्थिति में भी यदि किसी जटिल और भारी-भरकम अंग्रेजी पाठ का भी सटीक-सहज अनुवाद किया जाता है तो इसका हिंदी पाठ अपने मूल अंग्रेजी पाठ से कहीं ज्यादा जल्दी समझ में आ जाता है और इसमें भाषा का प्रवाह, सहजता और संप्रेषणीयता अंग्रेजी के मुकाबले कहीं अधिक बेहतर होती है. जब कोई हिंदी पाठ पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाएगा तो उसे क्या खाक समझ में आएगा कि "जो बात हिंदी में है, वह किसी और में कहाँ?" स्टार क्रिकेट चैनल में कपिलदेव भी तो यही कहते हैं!





लद्धड़ अंग्रेजी बनाम स्मार्ट हिंदी        
दरअसल, हमारी कार्यालयी अंग्रेजी अभी भी क्वीन्स इंगलिश, विक्टोरियन इंगलिश, ब्रिटिश इंगलिश के अतीतानुरागी प्रभाव यानी 'नॉस्टेल्जिया' से बाहर नहीं निकल पाई है या हम ही उसे बाहर नहीं निकाल रहे ताकि अंग्रेजी की थोथी धौंस बनी रहे! परिणामत: यह पुरानी अंग्रेजी अब भी जबरन ढोए जा रहे लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, डच मुहावरों, आयतित जारगनों समेत तमाम तरह के दुहरावों, अवांछित उलझावों आदि-आदि से बुरी तरह ग्रस्त है और इसलिए भी वह स्वयं त्रस्त है. अब इस अंग्रेजी को बाजार की अंग्रेजी की तरह "क्रिस्पी, क्रंची, शॉर्ट एंड स्ट्रेट और टू दी प्वाईंट" होने की जरूरत है! संतोष की बात यह है कि भारत सरकार के शीर्ष स्तरों पर यानी मंत्रालयों आदि के वरिष्ठ अधिकारियों आदि के पत्राचार आदि में अब चुस्त-दुरूस्त अंग्रेजी देखने को मिलने लगी है. हालाँकि अब बतौर भाषा अंग्रेजी को भी यह समझ में आ गया है कि यदि शासन-तंत्र और बाजार में आ रहे बदलावों के डिजिटल दौर में अपने पाँव टिकाए रखना है तो उसे भी लंबे-लंबे वाक्यों, लैटिन-फ्रेंच-ग्रीक पदावलियों-शब्दावलियों और लच्छेदार, घुमावदार, पेंचदार, मगजमार बुनावट-बनावट से बाहर आना ही होगा, खुद को छोटे-छोटे, सहज-सरल वाक्यों और "मॉडर्न-क्रिस्पी-क्रंची-स्ट्रेट इंगलिश" के शब्दों-पदों से लैस करना होगा और दुहराव-तिहरावग्रस्त शब्दों, वाक्यों और विन्यासों से खुद को मुक्त करना होगा!

            
जहाँ तक राजभाषा हिंदी का सवाल है तो इस मामले में यानी अपने को चुस्त-दुरूस्त, सरल-सहज-पठनीय बनाने में राजभाषा हिंदी यानी सरकारी हिंदी सरकारी अंग्रेजी से बहुत आगे निकल गई है और वह बोलचाल की हिंदी के बहुत करीब आ गई है. जो लोग राजभाषा हिंदी पर क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ट और दुरूह होने का लांछन लगाते हैं, उनसे मैं बहुत विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि सरलता-सहजता के नाम पर सरकारी कामकाज में हम 'letter' को 'पत्र' की जगह 'पाती' लिखें, 'Correspondence' को 'पत्राचार' की जगह 'चिट्ठी-पतरी' लिखें, 'Dance & Music' को 'नृत्य-संगीत' की जगह 'नाच-गाना' लिखें, 'Dance & Drama' को 'नृत्य एवं नाटक' की जगह 'नाच-नौटंकी' लिखें, 'Order' को 'आदेश' की जगह 'फरमान' लिखें या इसी तर्ज पर सबकुछ तो बोलचाल की हिंदी के नाम पर यह न केवल राजभाषा का मजाक बनाना होगा बल्कि एक सुपरिभाषित कार्यपद्धति और प्रणाली का भी अपमान होगा क्योंकि हरेक 'सिस्टम' का एक 'डेकोरम' होता है और हरेक क्षेत्र-विशेष (यथा, बैंकिंग, प्रशासन, विज्ञान, विधि, अनुसंधान, उड्डयन, प्रौद्यगिकी, चिकित्सा आदि-आदि) में प्रयुक्त होने वाली भाषा की अपनी एक विशिष्ट शब्दावली और पदावली होती है, उसका अपना एक 'डिक्शन' होता है, अपना एक 'लिंग्विस्टिक-रजिस्टर' (विशिष्ट शब्द-चयन एवं लेखन-शैली) होता है. मतलब यह कि आप राजभाषा हिंदी में सोलह आने सहजता-सरलता की अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ भी आदेश, ज्ञापन, निर्णय, नियम, उप-नियम, विनियम, अधिनियम, कानून, विधि, प्रावधान, राजपत्र, परिपत्र, शुद्धिपत्र, प्रतिवेदन, विज्ञप्ति, अनुज्ञप्ति, निविदा, संविदा, समझौते, करार, प्रणालियाँ, पद्धतियाँ, प्रक्रियाएँ, संहिताएँ, कार्रवाई, सिद्धांत, सूचना, अधिसूचना, प्रतिसूचना, संकल्पनाएँ, विधान-संविधान इत्यादि-इत्यादि होते हैं! ये सब के सब तथ्य और कथ्य में गूढ़-गंभीर ही नहीं, बल्कि तकनीकी और कानूनी निहितार्थों से आदि से अंत तक लैस होते हैं! तो इसकी हिंदी भी न चाहते हुए भी कुछ तो जटिल होगी ही! बावजूद इसके मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि इस तरह के दस्तावेजों को लद्धड़ अंग्रेजी से मुक्त कर दी जाए तो इनके हिंदी पाठ भी समतल-सपाट हो जाएँगे! लेकिन इससे भी सुंदर बात तब होगी जब इन दस्तावेजों को सीधे हिंदी में तैयार की जाए और जैसा हम सोचते हैं, जो हम कहना चाहते हैं, वही जस का तस कहा जाए. तभी राजभाषा नीति का वास्तविक अमलीकरण हो पाएगा.





बैंकिंग साहित्य का अनुवाद            
जहाँ तक बैंकिंग साहित्य के अनुवाद का मामला है तो मुझे यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं कि बैंकिंग और आर्थिक जगत में नित नई अवधारणाएँ बन-बिगड़ रही हैं, रोज नए सिद्धांत गढ़े-तोड़े जा रहे हैं. रोज नई पद्धतियाँ-प्रणालियाँ लगाई-हटाई जा रही हैं. ऐसे में इन पर अंग्रेजी में लिखने वाले लोग स्वयं भी थोड़े अकबकाए-से लग रहे हैं. इसलिए उनकी अंग्रेजी में भी अकबकाहट-गड़बड़ाहट दिख रही है! कई बार जो वे लिख रहे होते हैं, वह खुद उन्हें भी पूरा-पूरा समझ में नहीं आ पाता है या फिर पूछने पर वे हमें नहीं समझा पाते हैं. इसमें न उनका दोष है, न हमारी कमी. दरअसल, इस वैश्विक दौर में बैंकिंग और आर्थिक सैद्धातिंकी में अधिकांश सिद्धांत व अवधारणाएँ विदेशों में गढ़ी जा रही हैं और उनके संदर्भ भी भारतीय नहीं, पाश्चात्य होते हैं. ऐसे में उनको भारतीय संदर्भों में अभिव्यक्त करना स्वयं चुनौतीपूर्ण होता है. हम विदेशी संदर्भों में प्रयुक्त शब्दों, पदों, मुहावरों, जारगनों, अभिव्यक्तियों आदि को सीधे-सीधे उठा लेते हैं और अपनी अंग्रेजी में रख देते हैं. इस स्थिति में जब खुद अंग्रेजी का भारतीय संस्करण तैयार नहीं हो पाता है तो इनका हिंदी संस्करण तैयार करना कठिन तो होगा ही! तब भी यदि हम अंग्रेजी पाठ को पढ़ने के अतिरिक्त आग्रह से बचते हुए यदि इनके हिंदी अनुवाद पढ़ें तो आपको कई बार लगेगा कि हिंदी पाठ सिर्फ बेहतर ही नहीं, बल्कि बेहद पठनीय भी है और अनुवादकों ने बहुत संजीदगी से भारतीय संदर्भ को संज्ञान में लेते हुए इनका अनुवाद किया है.

             
इसलिए बैंकिंग साहित्य के हिंदी अनुवाद में भाषा की रवानियत, सहजता, सरलता, पठनीयता और संप्रेषणीयता बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि इनके अनुवाद करने वाले अनुवादकों और राजभाषा आधिकारियों को स्वयं को सतत अपडेट करना होगा, इनको ध्यान में रखकर डिजाईन की गई अनुवाद कार्यशालाओं में नियमित भाग लेते रहना होगा, निरंतर स्वाध्याय, संवाद, अध्ययन और अभ्यास में बने रहना होगा क्योंकि अनुवाद सतत अभ्यास, सतत परिमार्जन, सतत संशोधन और अंतत: सतत सीखने की प्रक्रिया है. लेकिन इन सब बातों से पहले अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों को संबंधित बैंकिंग विभागों की मुख्यधारा में साग्रह शामिल करना होगा. इसके अलावा विभागों को भी बैंकिंग साहित्य और नियमित प्रकाशनों के सुचारू पठनीय अनुवाद के लिए हमें पर्याप्त समय देना होगा क्योंकि यह अनुवाद सामान्य अनुवाद की श्रेणी में नहीं बल्कि तकनीकी अनुवाद की श्रेणी में आता है. अनुवाद में लगने वाले श्रम, समय, मनोयोग, एकाग्रता इत्यादि को ध्यान में रखते हुए गृह मंत्रालय, भारत सरकार के राजभाषा विभाग ने तो इन दो श्रेणियों के लिए अनुवादकों द्वारा प्रतिदिन अनुवाद किए जाने की शब्द-सीमा भी तय कर दी है ताकि अनुवाद का स्तर खराब न हो और उसकी पठनीयता-संप्रेषणीयता बनी रहे. उनके परिपत्र के मुताबिक, सामान्य अनुवाद की शब्द-सीमा 1750 (लगभग दो हजार) शब्द प्रतिदिन और तकनीकी अनुवाद की शब्द-सीमा 1350 (लगभग डेढ़ हजार) शब्द प्रतिदिन है, जिसे अब भी इतना ही रखा गया है. कहने का आशय यह कि अनुवाद कर्म को हल्के में नहीं बल्कि पर्याप्त गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है और जहाँ नियमित प्रकाशनों के समयबद्ध और सटीक अनुवाद चाहिए, वहाँ अनुवाद के लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त संख्या में अनुवादक, टंकक और पुनरीक्षक (vetters) तैनात करने की आवश्यकता है. संसद के लोकसभा सचिवालय और राज्यसभा सचिवालय में नियमित और समयबद्ध अनुवाद की समुचित व्यवस्था है और सरकारी तंत्र में अनुवाद व्यवस्था का यह अत्यंत सफल उदाहरण है, जहाँ अनुवाद कार्य के लिए "Translation and Editorial Services" के नाम से एक पूरा का पूरा महकमा ही है.

            
कुछ ऐसी ही व्यवस्था हमें उन सभी विभागों में भी करनी होगी जहाँ थोक मात्रा में प्रतिदिन अनुवाद करने की आवश्यकता है. वहाँ इक्का, दुक्का या तिक्का अनुवादकों या राजभाषा अधिकारियों से काम नहीं चलेगा. अन्यथा अनुवाद की गुणवत्ता पर न चाहकर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा, क्योंकि वहाँ अनुवाद के अलावा, अनूदित सामग्री का पुनरीक्षण, संपादन, टंकण, प्रूफ-रीडिंग जैसे अनिवार्यत: अनुषंगी और समयबद्ध कार्य शामिल होते हैं जिन्हें 'रियल टाइम' में अंजाम तक पहुँचाना होता है. इसके अलावा जैसे अन्य विभागों के अधिकारियों को बैंकिंग व आर्थिक जगत में नित हो रहे बदलावों और घटनाक्रमों से अवगत कराने के लिए प्रशिक्षण, सम्मेलन, कार्यशाला इत्यादि में नियमित रूप से भेजा जाता है, ठीक वैसे ही सभी राजभाषा अधिकारियों को नियमित अनुवाद-प्रशिक्षण देना होगा. उनका नियमित उन्मुखीकरण करना होगा. तभी उनकी दक्षता, प्रवीणता और क्षिप्रता में दिनोंदिन बढ़ोतरी होगी, उनकी समझ निखरेगी और तब जाकर उनका अनुवाद निखरेगा. तभी जाकर हर कोई कह पाएगा कि "देखो, यह हिंदी पाठ तो इसके अंग्रेजी पाठ से भी बढ़िया है!"
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राहुल राजेश
सहायक प्रबंधक (राजभाषा), भारतीय रिज़र्व बैंक, गाँधी पुल के पास, आश्रम रोड, अहमदाबाद-380014 (गुजरात). मो.: 09429608159
ईमेलrahulrajesh2006@gmail.com

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  1. ललित राजपूत16 सित॰ 2015, 5:25:00 pm

    क्या बात है सर एकदम सटीक और बेबाक राय।

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  2. अनुवाद कर्म पर जरूरी बातें।

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  3. प्रिय राहुल भाई !

    राजभाषा चूंकि सरकार की भाषा है - इसलिए भावहीन और अर्थहीन है - यह दुराग्रह एक लंबे अरसे से और सुनियोजित तरीके से फैलाया जाता रहा है। आप ही बताएं कि तथाकथित उनके 'सर्जना का क्षण' क्या आपके 'अनुवाद के क्षण' से अधिक प्रसव-पीड़ा युक्त होता है? क्या आपके कर्म का उजास या अंधकार उनसे कम गहन एवं नैष्ठिक होता है?

    एक कवि के रूप में आपका इकब़ालिया बयान यहां आना था - जो नहीं आया है। राजभाषा की अपनी ओज और अभिब्यक्ति का उसका तेवर आपको दिखाना था - जो नहीं दिखा है। ठीक है कि मात्र अभिव्यक्ति से ही कोई भाषा सशक्त एवं समृद्ध नहीं हो जाया करती। बला से वह साहित्यिक कैननाइजेशन की निगाह में एक यांत्रिक भाषा लगती हो – पर मत भूलिए कि वह भी अभी अपने विकास के दौर में एक अपभ्रंश है। कुछ भी हो, राजभाषा इतने बड़े देश और समाज की मौलिक आकांक्षाओं एवं मोहक सपनों की भाषा तो धीरे-धीरे बनती ही जा रही है।
    1000 वर्ष की हिंदी की जो स्थिति आज है; उस अनुपात और रफ्तार से 65 बरस की राजभाषा की हालत इतनी चौपट तो नहीं है कि - उसे भी बाबूओं की तरह – “ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति” - कहा जाए।

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  4. purushottamkummargupta@gmail.com

    बेहद साफ-सुथरी ,तार्किक संदर्भों से युक्‍त प्रासंगिक आलेख ....... गहन और गाढ़ा भी!!

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