विष्णु खरे : कुछ भी अशुभ नहीं मंगली में








साहित्य और हिंदी फिल्मों में भी विज्ञान-कथाओं की कोई संतोषजनक स्थिति नहीं है. मंगल ग्रह जहाँ पानी की संभावना के लिए चर्चा में है वहीँ रिड्ले स्कॉट की फिल्म ‘’द मार्शन’’ ‘नेसा’ से अपने सम्बन्धों को लेकर विवादों में है.

फ़िल्म क्रीटीक विष्णु खरे का कॉलम.

कुछ भी अशुभ नहीं मंगली में                                   
विष्णु खरे



विशेषज्ञों, अध्यापकों और विद्यार्थियों को छोड़ दें तो हमारे समाज और लेखक-बुद्धिजीवियों का विज्ञान से इतना कम परिचय है कि उन्हें साइंस की गंभीर पुस्तकों का तो क्या, लोकप्रिय किताबों का भी न तो पता रहता है न उनमें रुचि. इसका सीधा सम्बन्ध हमें अंग्रेज़ी में दी जा रही ‘’शिक्षा’’ से है. आज हम हज़ारों किस्म के खरीदे गए यंत्रों, मशीनों और गैजेटों पर आश्रित हैं जिनके ऑपरेटिंग मैन्युअल तक हम समझ नहीं पाते और उनके  ज़रा-सा भी बिगड़ने पर सपरिवार आँसू बहाते हुए वादाशिकन, उद्दंड मिस्त्रियों को ख़ुशामदी फोन करने लगते हैं.

कहानी-उपन्यासों के रूप में भी भारतीय भाषाओँ में साइंस-आधारित जो लिखा गया है या अनूदित हुआ है वह नगण्य है. ’’विज्ञान-कथा’’ (‘साइंस-फ़िक्शन’,’’फ़िक्शन’’ शब्द ही हमारे लिए बहुत कठिन है) प्रत्यय से हम अपरिचित हैं जब हमारे लेखकों को साइंस आती-भाती नहीं और न हमारे वैज्ञानिकों की भाषा, साहित्य और सृजन में गति और रुचि है तो क्या आश्चर्य कि आज सारी भारतीय भाषाओँ में पचास विज्ञान-कथाएँ भी नहीं होंगी और उनमें से एक का भी विदूषकी अनुवाद बिना हँसे-हँसाए किसी विदेशी भाषा में असंभव है.

विडंबना यह है कि ऋग्वेद में कुछ विज्ञान-कथाओं के पूर्वाभास हैं, कुछ संकेत वाल्मीकि-रामायण में हैं और ‘’महाभारत’’ तथा कुछ परवर्ती पुराण तो एक ठोस भारतीय साइंस-फ़िक्शन के स्रोत बन ही सकते थे. यहाँ जड़भरत विकल मस्तिष्क हिन्दुत्ववादी मानव-संसाधन मूर्खताओं की बात नहीं की जा रही जो आजकल हमारे विश्वविद्यालयों में एक शर्मनाक साइंस-एंड-रिसर्च-फ़िक्शनका आविष्कार और शिलान्यास कर रही हैं. बहुत जल्द हम विश्व के बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों की बिरादरी में हुक्क़े-पानी तो क्या, मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे.

पश्चिमी गल्प और फ़िल्मों से प्रेरित जो कथित चंद विज्ञान-कथाचित्र हिंदी में बने हैं उनमें से  बॉक्स-ऑफिस पर इक्का-दुक्का सफल भले ही हुए हों, वह इतने बचकाने थे कि ज़्यादातर बच्चों के बल पर ही चले. दरअसल वह हमारी 1930-70 की ‘’जादुई’’, ’’तिलिस्मी ’’,  ‘’फंतासी’’ फिल्मों के दरिद्र आधुनिक अवतार थे. पश्चिम में लिखित और प्रकाशित  साइंस-फ़िक्शन सिनेमाई विज्ञान-कथाचित्र से कहीं पुरानी सृजन-विधा है और कवि शेली की बहिन मेरी शेली, ज़्यील वेर्न तथा एच.जी.वेल्स आदि की कृतियों के कारण  पहले से ही बेहद लोकप्रिय थी. चलायमान छवियों के आविष्कार के पीछे निस्संदेह उनकी प्रेरणा रही होगी. इस तरह फ़िल्मी विज्ञान-कथा का एक बड़ा, समझदार  दर्शक-वर्ग यूरोप में  पहले से ही मौजूद था. बहस हो सकती है कि क्या खत्रीजी की चंद्रकांता’’ और ‘’भूतनाथ’’ सीरीज़ को किसी तरह खेंच-खाँच कर साइंस फिक्शन के खाते में डाला जा सकता है. लेकिन ज़ाहिर है कि फ़्रांकेनश्टाइन’’, ’’जर्नी टु द सेंटर ऑफ़ दि अर्थ’’ या ’’द इन्वीज़िबिल मैन’’ तो वह नहीं हैं.

काश कि मैं ग़लत होऊँ, लेकिन मुझे लगता है कि भारतीय दर्शक विज्ञान-कथाचित्रों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहे हैं, जबकि जादू-टोना,चमत्कार, ’’भक्ति’’ और ‘’पौराणिक’’ फिल्मों के बहुत भोले, अद्भुतरसीय स्पेशल इफ़ेक्ट दृश्यों को देखकर वह पागल हो जाते थे. क्या इसलिए कि कुंडली-पंचांगीप्राण साधारण  हिन्दू दर्शक यह देखना-सुनना नहीं चाहता कि उसके ग्रह-नक्षत्र रेतीली-चट्टानी निर्जीव दुनियाओं के अलावा कुछ भी नहीं ? हमारे पास आँकड़े नहीं हैं इसलिए हम नहीं जानते कि हॉलीवुड की कौन-सी विज्ञान कथाफिल्मों को भारत में निस्बतन ‘’हिट’’ कहा जा सकता है – ‘स्टार-वॉर्स’’,’ ’द एलियन’’, ’’दि प्लैनेट ऑफ़ द एप्स’’, ’’क्लोज़ एनकाउंटर्स...’’, ’’किंग कॉन्ग’’, ’’मेन इन ब्लैक’’, ’’सूपरमैन’’, ’’बैक टु द फ़्यूचर’’,’ ’दि टर्मिनेटर’’, ’टोटल रिकॉल’’, ’’इन्फ़िनिटी’’ ? लेकिन इनमें से कोई भी मिस्टर इण्डिया’’ या ‘’क्रिश’’ जितनी नहीं चली होगी ! त्रुफ़ो की राजनीतिक ’’फ़ारेनहाइट 451’’ या  तार्कोव्स्की की दार्शनिक विज्ञान-फिल्म ‘’सोलारिसका तो हमारे यहाँ एक हफ़्ता काट पाना असंभव है.

जब आप रिड्ले स्कॉट की नई फिल्म द मार्शन’’ (‘‘मंगली’’) देखने जाते हैं तो अन्य कई अंतरिक्ष-यात्रा या मंगली फिल्मों के अलावा आपको सबसे ऊपर स्टैनले कूब्रिक की अमर कृति  ‘’2001 : ए स्पेस ऑडिसी’’ याद आती है.मार्शनमें नायक मार्क वाटनी (मैट डैमन) नेसा’ (NASA) द्वारा मंगल ग्रह पर भेजे गए एक अभियान-दल का वनस्पतिशास्त्री सदस्य है जो एक तूफ़ान में अपने अंतरिक्ष-यान से भटक जाता है और उसकी टीम के बाक़ी सारे साथी उसे मुर्दा मानकर वापस पृथ्वी चले जाते हैं. लेकिन डैमन जीवित है और अब उस निर्जीव ग्रह पर निपट अकेला है और उसके पास ज़िन्दा रहने के लिए पिछले अभियानों द्वारा तज दी गई मशीनों और फुटकर सामग्री  के सिवा कुछ भी नहीं है.

उधर कूब्रिक की ऑडिसीमें अंतरिक्ष में बृहस्पति ग्रह का चक्कर लगाते हुए यान में सिर्फ़ तीन सक्रिय मौजूद्गियाँ हैं दो युवा वैज्ञानिक और ‘’हालनामक एक सूपर-कम्प्यूटर, जो यान को चला रहा है, मानवों जैसा दिमाग़ रखता और बोलता है, ज़िद्दी तथा बहसपसंद हो गया है और फ़ैसला ले चुका है कि उनका अभियान असफल होकर रहेगा. वह ‘’दुर्घटनावश’’ एक वैज्ञानिक की ‘’हत्या’’ कर देता है जबकि दूसरा, नायक डेव बाउमन (किएर डुले),विवश होकर उसे ही अंतिम नींद सुला देता है. उसके बाद नायक एक ऐसी अनंत यात्रा पर निकल जाता है जिसमें वह सारे ब्रह्माण्ड के साथ-साथ अपनी भावी वृद्धावस्था और एक भ्रूण के रूप में अपना पुनर्जन्म देखता है. ऑडिसीको संसार की महानतम विज्ञान फिल्म और एक सर्वकालिक श्रेष्ठतम फिल्म माना गया है.लेकिन जब मैंने टाइम और न्यूज़वीक के हवाले से  1968 में दिल्ली के प्लाज़ा टॉकीज़ में इसका फर्स्ट-डे फर्स्ट-शो देखा तो गिना कि हॉल में मेरे नाभिकीय परिवार और प्रश्नाकुल  वरिष्ठ मित्र डॉ डी.सी. संचेती को मिला कर कुल 29 दर्शक थे,जिनमें से कुछ बीच से ही हँसते-कोसते निकल गए. आज भी भारत में इसके योग्य दर्शक न मिलेंगे. मैं ऑडिसीअब तक देश-विदेश में कहाँ कितनी बार देख चुका हूँ यह याद करना असंभव है कोई भी बहाना चाहिए. 

नीत्शे के दार्शनिक जर्मन उपन्यास आल्ज़ो श्प्राख ज़रथुस्त्र’’ (‘ज़रथुस्त्र उवाच’) से प्रेरित, संगीत-सर्जक रिषार्ड श्ट्राउस द्वारा रचित इसी शीर्षक की स्वर-कविता’’ के महान प्रारंभिक अंश सूर्योदयके पार्श्व-संगीत वाले पहले दृश्यों तथा ब्रह्माण्ड-यात्रा एवं जरा-मरण-पुनर्जन्म के अनंत अंतिम दृश्यों का रोमांच क़तई कम नहीं हुआ है. ऑडिसीसारी अंतरिक्ष-यात्रा फ़िल्मों की ‘’बिस्मिल्लाह’’ या ‘’श्रीगणेशायनमः’’ है.
तुलना में द मार्शन’’ (मंगल ग्रह की) धरती से मृत्यु के जबड़े से जीवन को खींचने-उगाने वाली जिजीविषा-फिल्म है. मार्क वाटनी को ले जाने के लिए उसके सारे यान-मित्र बेशक़ लौटेंगे, लेकिन उसे उन लम्बे महीनों तक अपनी समूची वैज्ञानिक प्रत्युत्पन्नमति के सहारे उनके लिए जीवित रहना है. वह एक ऐसा रॉबिन्सन क्रूसो है जिसे मानों बुद्ध के उपदेश की तरह आप अपना ‘’मैन फ्राइडे’’ होना है. वह ठेठ भाषा में खुद से कहता है कि मुझे इसमें से निकलने के लिए साइंस का गू निकालना पड़ेगा जो लगभग अक्षरशः सच साबित होता है क्योंकि वह दीगर कारनामों के अलावा  अपने पाख़ाने को खाद बनाकर उससे अपने खाने के लिए आलू उपजाता है.


ऑडिसी पर अब तक करोड़ों शब्द लिखे जा चुके हैं द मार्शन पर भी ऐसी शुरूआत हो चुकी है. मंगल ग्रह की यात्रा को लेकर अब तक लगभग तीस फ़िल्में बनी हैं और हाल की कुछ विज्ञान-कथाफिल्में बहुत सफल नहीं हो पाईं. लेकिन रिड्ले स्कॉट ने मैदान में आकर खेल को बेहतरी के लिए बदल डाला है. यह फिल्म शायद सारी दुनिया में हिट होने जा रही है. कहा जा रहा है कि अपने 2040 के आसपास के भावी समानव मंगल-अभियान के लिए वातावरण-निर्माण हेतु नेसाने इसे एक जायज़ मिलीभगत के तहत  पूरी तकनीकी जानकारी दी है हालाँकि विज्ञान-सम्बन्धी कुछ गलतियाँ चली ही गईं हैं, मसलन मंगल पर इतने तेज़ तूफ़ान आ ही नहीं सकते और गुरुत्वाकर्षण भी इतना कम है कि आदमी पृथ्वी की तरह नहीं बल्कि कुछ फुदकता-तैरता-सा वहाँ चलेगा. अब भाई फिल्म की रौनक़ के लिए कुछ तो साइंसी कुफ्र चाहिए. कहनेवाले तो यहाँ तक कह रहे हैं कि नेसा ने फिल्म की रिलीज़ के वक़्त जान-बूझ कर यह युगांतरकारी खबर लीककी कि मंगल पर खारा पानी मिला है ताकि उत्सुक दर्शकों के मारे टिकट-खिड़की टूट जाए. उस पर डायरैक्टर साहब  ने फ़र्माया कि यह उन्हें महीनों पहले से मालूम था. 

ज़्यादा डेढ़श्याणे मत बनो रिड्ले मियाँ, अगर यह ख़बर चार महीने पहले आती तो फिल्म दुबारा शूट करनी पड़ती, या अगले बरस बनती, या बनती ही नहीं. मंगल का खारा पानी तुम्हारे लिए मीठा और शुभ साबित हुआ. 
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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  1. विज्ञान कथाओं पर बनी फिल्मों के लिए वाक ई अभी भारतीय दर्शक बहुत अपरिपक्व है...यह साइंस की जानकारी का अभाव से ज्यादा अरुचि का मसला है । यहाँ की समाजिक बनावट में छिपे रूढ किस्म के काल्पनिक मिथ भी कारण है और सोच के नजरिए में खुलेपन का अभाव भी है..,विष्णु जी इस बात से सहमत हूँ कि इस तरह की फिल्मों के भारत में दर्शक गिने चुने ही मिलेंगे,.,हाल फिलहाल एक साइंटफिक मूवी देखने का मेरा अनुभव भी कुछ ऐसा ही है..लेकिन एक बात और है कि आज की एकदम नयी तरोताजा युवा पीढी इस तरह की मूवी की दिवानी है और इसे कम्प्यूटर के जरिए आसानी से देख समझ रही है हां पिच्चर हॉल में अभी ऐसी भीङ नहीं बढी...समय है वह भी होगा।बच्चों में मुझे यह जिज्ञासा काफी दिख रही है...हमारे लेखक समाज को तो छोङ ही दे इनके भीतर भी एक अलग किस्म का विद्वताबोध है जो इन्हें सीखने ही नहीं देता...

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  2. मैंने साइंस फिक्शन से जुडी कुछ मूवी बच्चों के साथ देखी।। बच्चे आजकल ढोंग और ढकोसलों को समझने लगे है। आने वाले समय में वैज्ञानिक फिल्मो का चयन तिलस्म से ज्यादा होगा।। याद आती है एक मूवी "जय संतोषी माँ" हिट पर हिट हुए जा रही थी। एक मूवी बचपन में देखी जिसमे रोटियां उड़ रही थी ।।जादू के डंडे पर जादूगरनी उड़ रही थी।। कुछ वीडियो गेम भी जिसमे अलीबाबा चटाई पर उड़ रहा है ।। पर समय के साथ सोच का ढांचा बदलता जा रहा है। अब मंगल ग्रह की यात्रा द मार्शिन के जरिये किया जाय।। जानकारी के लिए विष्णु खरे जी और अरुण देव जी का धन्यवाद

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  3. सुश्रीद्वय शिवानीजी,नूतनजी,श्रीद्वय सभाजीतजी तथा ब्रजरतनजी ,

    मेरे लिए यह बहुत प्रतिसाद की बात है कि आपने विज्ञान कथाफिल्मों वाली मेरी इस टिप्पणी को इतने ध्यान से पढ़ा.दरअसल ऐसी फ़िल्में वयस्कों को तो देखनी ही चाहिए,जाँच-परखकर स्कूली बच्चों को भी दिखाई जानी चाहिए.कवियों-लेखकों के लिए तो यह लगभग अनिवार्य हैं.संभव है इन्हें घर पर या कुछ स्कूलों में डीवीडी से देखा भी जाता हो लेकिन कई संग्राहक अब भी इन्हें हेय समझते हैं जबकि इनमें से कई बहुत गंभीर साइंस-फ़िक्शन लेखकों और कार्ल सागाँ तथा आर्थर डब्ल्यू.क्लार्क जैसे विज्ञानवेत्ताओं के कथानकों,परामर्शों और निरीक्षण के तहत बनी हैं.स्टीफ़ेन हॉकिंग जैसा जीनियस भी ऐसी फिल्मों पर ध्यान रखता है.

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