विष्णु खरे : साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प








२३/१०/२०१५ को साहित्य अकादेमी के कार्यकारी मंडल ने लेखकों - कलाकारों के विरोध प्रदर्शन के बीच अपना प्रस्ताव पारित किया. वरिष्ठ लेखक – आलोचक विष्णु खरे इस प्रस्ताव को अकादमी के इतिहास में ‘अभूतपूर्व’ बता रहे हैं और इसे लेखकों की 'ऐतिहासिक उपलब्धि' मान रहे हैं. यह आलेख खास समालोचन के लिए. 


साहित्य अकादेमी का क्रांतिकारी संकल्प                    
विष्णु खरे 



हावत है कि शैतान को भी उसका देय चुकाया जाना चाहिए. यहाँ हमें दो शैतानों – एक व्यक्ति और एक संस्थान – को उनका भुगतान करना होगा. एक ज़माना था जब मैं उदय प्रकाश में महती संभावनाएँ देखता था. उनके पहले विदेशी,जर्मन,अनुवाद के लिए मुझे दोष दिया जा सकता है. उनकी प्रारंभिक रचनाएँ मैं अब भी प्रशंसा और अचम्भे से पढ़ता हूँ. हिंदी साहित्य में सभी जानते हैं कि फिर वह किस तरह अपनी ही जटिल मानसिकता,विडम्बनाओं और शहीदाना,लोकप्रिय,सफल तरकीबों के शिकार होते चले गए. इधर जिस तरह से सबसे पहले उन्होंने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार ’’लौटाया’’ उसे भारतीय लेखन की सबसे बड़ी,लगभग विश्वस्तरीय, ‘कॉन्फ़िडेंस ट्रिक’ कहा जा सकता है. लेकिन उसके आश्चर्यजनक,कल्पनातीत राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिणाम हुए. कुछ भयातुर, शर्माहुज़ूर लेखकों का ज़मीर, देर से ही सही, लेकिन जागा. जिस भेड़चाल से लेखक-लेमिन्गों ने जौहर करने की शैली में ख़ुदरा अकादमियों के विभिन्न पद-पुरस्कार ‘’वापिस’’ किए उस पर एक उम्दा कॉमिक फिल्म बन सकती है. उदय प्रकाश हामेल्न के चितकबरे जर्मन पुंगीबाज़ की तरह हँसते हुए नए ईनामों के हाइवे पर हैं.

यदि हम साहित्य अकादेमी जैसे संस्थान को दूसरा शैतान मानें तो (डॉ नरेन्द्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविन्द पानसरे और विशेषतः) उसके पुरस्कार-विजेता प्रो. एम.एम.कलबुर्गी की हत्या(ओं) पर उसकी कथित अकर्मण्यता, लापरवाही और उदासीनता को लेकर मीडिया में जो मुख्यतः सनसनी, चटख़ारों और खलसुख के लिए व्यापक विवाद उठाया गया उससे समाज की सांस्कृतिक मलाईदार परत में उसकी क्षयिष्णु प्रतिष्ठा और छवि को सीधा फ़ौरी नुक़सान ज़रूर हुआ लेकिन अप्रत्याशित सहजात लाभ (कोलैटरल बैनिफ़िट्स) भी मिले.

साहित्य अकादेमी के तत्कालीन, अब दिवंगत, उप-सचिवद्वय (डॉ) प्रभाकर माचवे और (डॉ) भारत भूषण अग्रवाल का अत्यंत कनिष्ठ कृपापात्र-मित्र होने के कारण, जो ‘’तार सप्तक’’ के सुपरिचित कवि और बहुविध लेखक भी थे, मैं इस संस्था को 1965 से जानता हूँ जब उसके संस्थापक-सचिव, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सगे दामाद और गाँधी-गुरुदेव के प्रतिष्ठित जीवनीकार, मंद्र-रोबीली अंग्रेज़ीदाँ शराफ़त के धनी कृष्ण कृपालाणी रिटायर होनेवाले थे. कुछ ऐसे विचित्र संयोग रहे कि उसके ग्यारह वर्ष बाद अकादेमी में तो स्वयं मेरी नियुक्ति, जिसका एक अवांतर किस्सा है, भारत भूषण अग्रवाल की त्रासद असामयिक मृत्यु के बाद उन्हीं के रिक्त पद ‘उप-सचिव (कार्यक्रम)’ पर हुई और अकादेमी की कार्य-प्रणाली को सहभागी के रूप में जानने का दुर्लभ अवसर मिला. यह मात्र एक तथ्य है कि उन दिनों यह अकादेमी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील  ओहदा होता था क्योंकि पुरस्कारों तथा प्रकाशनों सहित सैकड़ों  साहित्यिक कार्यक्रम उसी के ज़िम्मे होते थे. सारी रिपोर्टें उसे तैयार करनी होती थीं, देश-भर के सैकड़ों लेखकों और साहित्यिक संस्थाओं के सतत् संपर्क में रहना होता था, केन्द्रीय शिक्षा मन्त्रालय जाना पड़ता था, पार्लियामेंट्री कमेटियों का सामना करना पड़ता था  और सत्र के प्रश्नोत्तर-काल में कभी-भी संसद में तलब होने के लिए प्रकम्पित-प्रस्वेदित तैयारी रखनी होती थी. लेखक तब छत्तीस बरस का था. यह सिलसिला आठ वर्ष ही चल पाया.इसका भी एक अवांतर क़िस्सा है.

आज़ादी के आठ वर्षों के भीतर ही नेहरू-युग की निर्मिति होने के कारण अकादेमी को 1964 के बाद संयोगवश कभी-कभी गतिशीलता, आधुनिकता और समाजोन्मुखता के दौरे पड़ते रहे हैं वर्ना वह कुल मिलाकर संभ्रांत, कुलीन, बूर्ज्वा, अवसरोचित गिरोह-गुट-ग्रस्त, प्रयोग-नावीन्य-शत्रु, कलावादी ‘सवर्ण’  और मूलतः (विशेषतः युवा) लेखक विरोधी ही रही चली आती है. अपनी शुतुर्मुर्गियत में उसे भारत की चतुर्मुख चतुर्दिक् दुर्दशा नज़र नहीं आती. प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता, जनधर्मिता, सामाजिक-आर्थिक बराबरी, वास्तविक वैश्विक आधुनिकता के मूल्यों आदि से वह बिदकती है और उन्हें ‘’साहित्येतर’’, यहाँ तक कि ‘’भारतीय-परंपरा-विरोधी’’ भी कह सकती है. उसकी भाषा, शैली, कार्य-पद्धति, रुझान, चिंतन  और चिन्ताएँ दकियानूस, प्रतिक्रियावादी, कंज़र्वेटिव, पश्चमुखी, लिहाज़ा मृदु हिंदुत्व के प्रति सहानुभूति के  आरोप को न्यौतनेवाले हैं.

इसलिए मुझे उस प्रस्ताव ने चकित और अवाक् कर दिया जो अकादेमी के सर्वोच्च प्राधिकरण, उसके एग्जीक्यूटिव बोर्ड (कार्यकारिणी), ने कल 23 अक्टूबर को अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तथा उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कम्बार के नेतृत्व में दिल्ली के अपने मुख्यालय में  ‘’सर्वसम्मति से’’ पारित किया है. अकादेमी के इतिहास में उसकी शब्दावली अभूतपूर्व है. उसमें न केवल प्रो. एम.एम.कलबुर्गी तथा अन्य बुद्धिजीवियों की दुःखद हत्याओं पर गहरा शोक प्रकट किया गया है बल्कि देश में कहीं भी किसी भी लेखक पर किए गए किसी भी अत्याचार और क्रूरता की कठोरतम निंदा की गयी है. बहुत महत्वपूर्ण यह है कि अकादेमी ने इस सन्दर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों से अविलम्ब कार्रवाई करने  तथा लेखकों को सुरक्षा देने की माँग की है. प्रस्ताव भारतीय संस्कृति के बहुलतावाद के संरक्षण और सभी सरकारों द्वारा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बनाए रखने की बात करता है. जाति, धर्म, क्षेत्र तथा विचारधाराओं के भेद मिटाकर एकता और समरसता बनाए रखने के संकल्प को भी उसमें रेखांकित किया गया है. प्रो कलबुर्गी की हत्या की निंदा को प्रस्ताव दुहराता है. पहले भी लेखकों की हत्या और उनपर हुए अत्याचारों पर वह अकादेमी के गहरे दुःख को मुखरित करता है. किन्तु प्रस्ताव का शायद सबसे मार्मिक अंश वह है जिसमें विभिन्न जीवन-क्षेत्रों में कार्यरत सामान्य नागरिकों पर की जा रही हिंसा की, जिसे खुद लेखक अपने आन्दोलन में भूल चुके थे, साहित्य अकादेमी कठोरतम भर्त्सना करती है.

भारत जैसे देश में ऐसा कोई भी वक्तव्य सम्पूर्ण और रंध्रमुक्त नहीं हो सकता. सर्वसंशयवादी लेखक-बुद्धिजीवी इसे भी पाखंडी और धूर्ततापूर्ण कहकर खारिज़ कर देंगे. लेकिन बहुत याद करने पर भी मुझे स्मरण नहीं आता कि वामपंथी संगठनों को छोड़ कर स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी निजी, सरकारी या अर्ध-सरकारी संस्था ने इतना सुस्पष्ट, बेबाक़, प्रतिबद्ध, रैडिकल और दुस्साहसी वक्तव्य कभी पारित और सार्वजनिक किया हो. अशोक वाजपेयी ने कुछ महीने पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर माँग की थी कि साहित्य अकादेमी की कथित स्वायत्तता को अविलम्ब समाप्त कर दिया जाए लेकिन अकादेमी के इस प्रस्ताव ने सिद्ध कर दिया कि संकट-काल में ही सही, यदि हिम्मत और संकल्प हो तो एक स्वायत्त संस्था क्या सन्देश दे सकती है.

लेखकगण अपने डंड-कमंडल कंठी-माला वापिस लेते हैं या नहीं इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. यही हास्यास्पद है कि मीडिया के तमाम ‘स्पिन’ और ‘हाइप’ के बावजूद लगभग छः सौ अकादेमी पुरस्कार विजेताओं के जीवित होते हुए भी दस प्रतिशत भी लेखकों ने उसे नहीं लौटाया है. यदि बिहार में भाजपा हारती है, जिसकी प्रबल संभावना है, तो 2019 में उसका मरकज़ी तम्बू उखड़ना तय है, लेकिन इस विवाद को जो तूल दिया जा रहा था उससे यह लगता था कि साहित्य अकादेमी और मंत्रियों  की बेवकूफ़ियों की सेंध से घुसकर मरजीवड़े लेखक दीपावली तक मोदी-शाह सरकार गिरा ही डालेंगे. मैं तो लेखकों की यही ऐतिहासिक उपलब्धि मानता हूँ कि वह अकादेमी से ऐसा युगांतरकारी प्रस्ताव पारित करवाने में सफल रहे.

लेकिन लेखकों के एक वर्ग ने अनैतिकता का परिचय देते हुए यह तथ्य छिपाए कि अकादेमी अध्यक्ष ने कन्नड़ के विख्यात लेखक, अकादेमी पुरस्कार विजेता और कर्नाटक-निवासी अपने उपाध्यक्ष चंद्रशेखर कम्बार से अनुरोध किया था कि वह कलबुर्गी-परिवार से मिलें तथा संवेदना प्रकट करें. कम्बार इस सिलसिले में मुख्यमंत्री से भी मिले. अकादेमी ने बंगलूरु में एक उपस्थिति-बहुल सार्वजनिक शोक-सभा भी की. अकादेमी की कुछ अन्य भाषाओँ में भी ऐसी स्मारक-सभाएँ हुईं, वक्तव्य जारी किए गए. इस सब को प्रचार-प्रसार क्यों नहीं मिला यह समझना कठिन है और सरल भी. अब अचानक यह आत्यंतिक माँगें हो रही हैं कि अकादेमी को भंग कर दिया जाए या विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बर्ख़ास्त हों, लेकिन किन तानाशाही नियमों के तहत ? अकादेमी को शायद संसद ही निरस्त कर सकती है लेकिन तब भी सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े बंद नहीं होंगे.उधर केवल अकादेमी की जनरल काउंसिल ही अपने द्वारा चुने गए अध्यक्ष पर महाभियोग (इम्पीचमेंट) लगा सकती है. सब कुछ अपने बाप की खेती नहीं है.फिर यदि वर्तमान सरकार किसी तरह अकादेमी को निलंबित या नेस्तनाबूद कर देती है तो बाक़ी ऐसे सान्स्कृतिक एवं शोध  संस्थान भी नहीं बचेंगे और उनका हश्र नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय जैसा होगा जहाँ को करि तर्क बढावहिं शाखा जैसा हो जाएगा. यह बात बिलकुल जुदा है कि इन बकरों की अम्माएँ कब तक दुआ मनाएँगी. प्रतिबन्ध बीफ़ पर है,गोट-मीट पर नहीं.

लेखकों ने पिछले दिनों अकादेमी पर जो आरोप लगाए हैं और उसे लेकर जो माँगें की हैं उनके औचित्य-अनौचित्य या ‘मेरिट्स’ पर न जाते हुए यही कहा जा सकता है कि वह ‘अवसरवादिता’, बौद्धिक आलस्य, अज्ञान, अधकचरेपन, शौर्य-प्रदर्शन और उपरोक्त भेड़चाल से ओतप्रोत हैं. अधिकांश ‘प्रदर्शनकारी’ जुलूसी न तो लेखक हैं और न साहित्य में उनका कुछ दाँव पर लगा हुआ है. स्वयं लेखक साहित्य अकादेमी के समूचे कार्य-कलाप को न तो जानते-समझते हैं न उसकी सम्पूर्ण व्याख्या और समीक्षा कर सकते हैं. अक्सर उनका एकमात्र मसला अकादेमी पुरस्कार होते हैं और इस बासी कढ़ी में वार्षिक उबाल आते रहते हैं. जिस तरह ‘’योनि-मात्र रह गई नारि’’, उसी तरह अकादेमी सिर्फ़ पुरस्कारों तक सिकोड़ कर रख दी गई है. लेखकों की इस ईर्ष्यालु, लोलुप अंध-मूर्खता पर अकादेमी का हर सदस्य एकांत में ठठाकर हँसता है.


साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाओं को, वह काँग्रेस-काल में हों या भाजपा के अच्छे दिनों में, कभी भी लेखकों की सख्त निगरानी से दूर नहीं रखा जा सकता. उसकी समस्याएँ शोक-प्रस्तावों और पुरस्कारों तथा अन्य पारितोषिकों से कहीं जटिल हैं. उसकी जनरल काउंसिल और कार्यकारिणी के ‘’चुनावों’’ की प्रक्रिया दूषित और ‘रिग्ड’ है.वी.के. गोकाक की अध्यक्षता और इंद्रनाथ चौधरी के सचिवत्व में ही अकादेमी का पतन शुरू हो गया था. गोपीचंद नारंग के ज़माने से तो उसमें नासूर से भी अधिक सड़न आ गई. इस अस्तबल को  साफ़ करने के लिए मुक्तिबोध के शब्दों में एक नहीं, कई मेहतर चाहिए. वह भारतीय लेखक हो नहीं सकते. उदय प्रकाश ने उसके पुरस्कार को बेवजह कुत्ते की हड्डी नहीं कहा था. हमें अभी अकादेमी के इस प्रस्ताव का स्वागत, भले ही मजबूरन, शायद एक नई, ग़नीमती शुरूआत के रूप में करना चाहिए.
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vishnukhare@gmail.com 
9833256060

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  1. यह लेख इस वर्ष कुछ भी महत्वपूर्ण पढ़े में सर्वश्रेष्ठ पढ़ा है | काफी हद तक मेरे जैसे तमाम लेखकों के लिए एक आदर्श लेखकीय टिप्पणी कि किसी भी विषय पर किस तरह प्रतिक्रिया देनी चाहिए

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  2. उच्च कोटि का हास्य । जिन उदय प्रकाश को खरेजी ने कलबुर्गी की दूसरी हत्या का अपराधी कहा था , उन्हें ही अब बुर्जुआ साहित्य अकादमी को क्रांतिकारी बनाने का श्रेय दिया जा रहा है। ऐसे लेखों को छापते हुए एक चेतावनी लगा देनी चाहिए - संभल कर पढ़ें। असीमित हंसी स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो सकती है।

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  3. खरे जी का पारदर्शी विश्लेषण. ऐसा वे ही लिख सकते हैं, और कोइ नहीं.

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  4. Keki Daruwalla


    Arun Devji,
    many thanks. I welcome the SA resolution. But it is too little too late. And yesterday's Ind. Express carried Shri Kalburgi's son's statement that for two months they did not receive a single call from the Akademi. Very sad.
    I will be writing to the President to have some of Kalburgi's works translated--especially the anti-fundamentalist writings-- and publish them.
    Pl circulate my email to your friends. I would have marked this to all but do not trust Sethumadhavan's mail. I sent him one and received a hundred emails for non delivery of mails. He has got many email id's wrong.​
    Regards

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  5. This was right agenda .I really condemed government action that culprit still not captured .
    When the problem is common all vellains are same or find themself in a same group so as politicians .

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  6. खरे जी बार-बार इस किस्‍म के ध्‍यानाकर्षण प्रस्‍ताव देकर खुद को हासरूास्‍पद बना चुके हैं। दुनिया इतना आगे बढ़ गई, मामला लेखकों और साहित्‍य अकादेमी से अब आगे जा चुका है लेकिन ये अब तक दो शैतानों पर अटके हुए हैं। दिलचस्‍प है कि शैतान अब इन्‍हें क्रांतिकारी दिख रहा है। ईश्‍वर इन्‍हें स्‍वस्‍थ रखे। अगर ये मरजीवड़े लेखक फिर से सड़क पर आ गए तो इनके दिमाग की नस फट जाएगी, मुझे इसका डर है।

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  7. विष्णु से मैं अक्सर असहमत रहा हूं. लेकिन मैंने उसकी राय का हमेशा सम्मान किया है और उसके बोलने की आज़ादी की रक्षाकी है. "अश्क निधि" के कार्यक्रम में उसने अपने वक्तव्य से बहुत लोगों को आहत किया था, पर सचिव के नाते मेरा आग्रह था कि उसे वह सब कहने दिया जाये जिसके लिए "मैं और मेरा समय" व्याख्यान के लिए हमने उसे बुलाया था. मौजूदा लेख से भी मेरी असहमतियां हैम, पर मैं आशुतोष कुमार और अभिषेक श्रीवास्तव की तरह उसे सिरे से ख़ारिज करने का विरोधी हूं. विष्णु ने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे और नुक़्ते उठाये हैं जिन पर हमें ग़ौर करना चाहिये. क्या हम इतने गंवार हो चुके हैम कि अपने एक साथी के कुछ भिन्न विचारों पर ग़ौर भी करने को तैयार नहीं हैं ? तथ्यात्मक भूलों की तरफ़ ज़रूर इशारा करें पर हमें "येस मेन" -- हाथ उठाऊ सदस्य नहीं चाहियें. यही तीनों वामपन्थी संगठनों की ख़ामी रही है. यह बात मैं सात साल तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की हैसियत से अपने अनुभवों के आधार पर कह रहा हूं.

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  8. अद्भुत...खरे जी का खरा विश्लेषण...ऐसा सिर्फ और सिर्फ खरे जी ही लिख सकते हैं...

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  9. अत्यंत समयोचित तथा समर्पक टिप्पणी .

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  10. विष्णूजी ने पहले अकादमी पर टीका की थी और अब वह अकादमी ने उठाये हुए कदम को सराह रहे है तो उसमें मुझे कोई काँट्रॅडिक्शन नही दिख रहा. उनका अब का ख्याल उतनाही चिंतनीय है जितना कल का खयाल. अकादमी की स्वायत्तता को संभल कर रखना चाहिए. अगर अकादमी ने देरी से क्यूं न हो कछ भूमिका ली है तो उसका स्वागत है.

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  11. यदा कदा विरोधाभासी ही सही मगर गोबर को गोबर कहने का काम खरे करते आए हैं, वरना तो अधिकांश जनता अपने सुभीते से सुगंधित द्रव्य या गू कह देती है।

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  12. साहित्य अकादेमी के प्रस्ताव पर आपकी लम्बी प्रतिक्रिया पढ़ी...ऐसा आप ही लिख सकते थे...सहमत हूँ.आपका विश्लेषण निष्पक्ष और सटीक है...और बेहतरीन गद्य का नमूना भी.पत्नी को भी पढ़कर सुनाया !

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  13. जो बयार में झरे नहीं /वह खरे नहीं

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  14. I welcome the Sahitya Akademi's resolution. Each writer has to decide what he wants to do with his award himself. Each writer is at least as autonomous as the Sahitya Akademi if not more.

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